कहानी संग्रह >> ढाई हजार के ढाई बिस्कुट ढाई हजार के ढाई बिस्कुटसरला भाटिया
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नारी मन और बच्चों की संवेदना की व्यापक सोच पर आधारित कहानियाँ
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
भोर होते ही शुरू हो जाती है कामों की जद्दोजहद, विशेषकर एक
निम्न-मध्यवर्गीय परिवार की औरत के लिए-काम पर पहुंचने की हड़बड़ी, उसे
निपटाने की हड़बड़ी, उसे मालिकों की फटकार, लौटते समय हर स्थान पर लोगों
के तांते, फिर घर का कामकाज, मर्द की ताड़ना, खाना बनाना और कमरतोड़
महंगाई से समझौता करना। मन की टूटन और स्मृतियों के दंश उसके निस्तेज
चेहरे पर पसरे ही रहते हैं। अगर वह कभी हँसी भी है तो तनाव की पीड़ा उसके
व्यवहार में साफ झलकती है।
ऐसी सैकड़ों-हज़ारों महिलाओं की दुर्दशा को दर्शाती कहानी है लक्ष्मी की-जिसको ढाई बिस्कुटों के लिए ढाई हज़ार रुपए की कीमत चुकानी पड़ी।
हमारे कमजोर पड़ते सामाजिक ढांचे से, सुखसुविधाओं की बढ़ती प्यास से-आज के किशोर ग्रामीण युवा भी खूब प्रभावित हैं। तभी तो गांव से शहर की ओर उनका आवागमन आज भी जारी है और यहां शहरों में वसूली और बेबसी के बीच होते समझौते और दफ़न होती उनकी उम्मीदों का जो सिलसिला जारी रहता है भला इस तथ्य से कौन वाकिफ नहीं। कैसे-कैसे सपने संजोकर आते हैं वे युवा-क्या उनके यह सपने सचमुच में सफलता का जामा पहनकर सजतें हैं या धूल-धूसरित जाते हैं ? पढ़िए कहानी ‘एक था सपना’ में।
1947 को आज़ादी मिली थी, तब से एक लंबा समय गुजर गया। इस अंतराल में काफी परिवर्तन हुए, जीवन में बदलाव आया-बदलाव आया सोचने के ढ़ंग में, रहन-सहन के तौर तरीकों में फिर भला साहित्य कैसे अछूता रहता !
मेरे इस संग्रह में हर रंग-रूप की कहानी है। इन कहानियों में व्यक्ति के व्यथित मन की तस्वीरें अधिक उभरकर सामने आई हैं। मैंने इन कहानियों में आज के जीवन की विशिष्टताओं बातों पर आपस में लड़ाई, टूटने-बिखरने की प्रक्रिया, हताशा, अजनबीपन, न चाहते हुए भी जिंदगी को जीने की ललक को तो दर्शाया ही है-लेकिन इन सब स्थितियों के बावजूद भी इन पात्रों में जीवन की स्निग्धता को तलाशने की कोशिश है
मेरे पूर्व संग्रहों पर अपने प्रिय पाठकों की प्रतिक्रियाएं मुझे मिलती रही हैं। इस संग्रह पर आपकी प्रतिक्रिया मुझे लेखन की प्रेरणा प्रदान करेग-इस विश्वास और स्नेह के साथ ‘ढाई हज़ार के बिस्कुट’ और अन्य कहानियां आपके समक्ष हैं।
ऐसी सैकड़ों-हज़ारों महिलाओं की दुर्दशा को दर्शाती कहानी है लक्ष्मी की-जिसको ढाई बिस्कुटों के लिए ढाई हज़ार रुपए की कीमत चुकानी पड़ी।
हमारे कमजोर पड़ते सामाजिक ढांचे से, सुखसुविधाओं की बढ़ती प्यास से-आज के किशोर ग्रामीण युवा भी खूब प्रभावित हैं। तभी तो गांव से शहर की ओर उनका आवागमन आज भी जारी है और यहां शहरों में वसूली और बेबसी के बीच होते समझौते और दफ़न होती उनकी उम्मीदों का जो सिलसिला जारी रहता है भला इस तथ्य से कौन वाकिफ नहीं। कैसे-कैसे सपने संजोकर आते हैं वे युवा-क्या उनके यह सपने सचमुच में सफलता का जामा पहनकर सजतें हैं या धूल-धूसरित जाते हैं ? पढ़िए कहानी ‘एक था सपना’ में।
1947 को आज़ादी मिली थी, तब से एक लंबा समय गुजर गया। इस अंतराल में काफी परिवर्तन हुए, जीवन में बदलाव आया-बदलाव आया सोचने के ढ़ंग में, रहन-सहन के तौर तरीकों में फिर भला साहित्य कैसे अछूता रहता !
मेरे इस संग्रह में हर रंग-रूप की कहानी है। इन कहानियों में व्यक्ति के व्यथित मन की तस्वीरें अधिक उभरकर सामने आई हैं। मैंने इन कहानियों में आज के जीवन की विशिष्टताओं बातों पर आपस में लड़ाई, टूटने-बिखरने की प्रक्रिया, हताशा, अजनबीपन, न चाहते हुए भी जिंदगी को जीने की ललक को तो दर्शाया ही है-लेकिन इन सब स्थितियों के बावजूद भी इन पात्रों में जीवन की स्निग्धता को तलाशने की कोशिश है
मेरे पूर्व संग्रहों पर अपने प्रिय पाठकों की प्रतिक्रियाएं मुझे मिलती रही हैं। इस संग्रह पर आपकी प्रतिक्रिया मुझे लेखन की प्रेरणा प्रदान करेग-इस विश्वास और स्नेह के साथ ‘ढाई हज़ार के बिस्कुट’ और अन्य कहानियां आपके समक्ष हैं।
ढाई हज़ार के ढाई बिस्कुट
मैं बड़ी बेसब्री से अपनी मेहरी रमा का इन्तजार कर रही थी कि वह आकर घर का
पूरा काम निबटाए ताकि मैं एक ज़रूरी काम से बाहर जा सकूं। ग्यारह बजने को
आए परंतु वह आई नहीं तो मैंने सोचा अब तो बरतन साफ कर ही लेने चाहिए वर्ना
शाम तक इनका ढेर लग जाएगा। किचन को साफ करने में पूरा एक घंटा लग गया।
बाहर आकर बगीचे में खड़ी हुई तो रमा की मां दिखलाई पड़ी। मैंने झट से
पूछा, ‘‘आज रमा काम पर क्यों नहीं आई
?’’
‘‘मेमसाहब, बुखार चढ़ गया है उसे....तेज बुखार है...मांसपेशियों और जड़ों में भी दर्द है...छाती पर खसरे जैसे कुछ दाने हैं....पेट में दर्द भी है...।’’
‘‘अरे ! यह तो डेंगू बुखार के लक्षण हैं...यह एजिप्ती मच्छर के काटने से होता है...तुम लोग साफ-सफाई से भी तो नहीं रहते हो। कितना कचरा है वहां झुग्गियों के आसपास ! क्यों फेंकते हो वहां कचरा ?’’
‘‘गंदगी तो वहां बहुत है...यह एम सी डी वालों का काम है... वहां से कचरा उठाते ही नहीं और फिर एक ही म्यूनिसिपटिली का नल है तो उसके आसपास के गड्ढों में पानी का जमाव हो जाता है...कोई साफ नहीं करता...हम अकेला क्या करेगा ?’’ वह मुंह बनाकर बोली, ‘‘मैं आपके आंगन की सफाई कर जाती हूं...हो सके तो किसी दूसरी बाई को काम पर रख लीजिए...रमा तो अब दस-बारह दिन तक नहीं आ सकेगी। अगर बुखार उतर भी जाए तो भी तो कमजोरी बहुत होगी। मैं इतना काम कैसे संभालूं...उसका छोटा बच्चा है, सास है... वह भी बीमार रहती है...मैं तो काम करते-करते पागल हो गई।’’ रमा की मां की आंखें नम हो गईं तो मेरा मन पसीज गया।
‘‘बहुत बुर हुआ....चलो भगवान करे तेरी लड़की बच जाए। अस्पताल में दाखिल करके तुम लोगों ने अक्ल का काम किया वर्ना घर में तो देखभाल बहुत मुश्किल काम है।’’
‘‘वहां भी क्या अच्छा है जी...कितना लोग मर गया...यहां तो हर दिन कोई-न-कोई बीमारी है ...मैं तो दिल्ली आकर तंग आ गई। बेटी से मिलने आई थी और परिवार का पूरा बोझ मुझ पर आ पड़ा।’’
वह साफ-सफाई का काम निपटाकर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि गेट पर एक अन्य मेहरी, जो ऊपर वाले फ्लैट में काम करती है, दिखाई पड़ी।
उसे देखते ही मैं पूछ बैठी, ‘‘लक्ष्मी रमा को बुखार हो गया है...तू मेरा काम संभाल ले न !’’
‘‘उसे तो जी पिछले महीने भी बुखार चढ़ गया था....अब मेरे पास इतना समय कहां है जो बार-बार उसका काम संभालती फिरूं।’’ वह हंसकर बोली।
‘‘अब तू तो मेरी पुरानी बाई है, तुझसे नहीं कहूंगी तो और किससे कहूंगी...तू ही तो काम आती है समय पड़ने पर...।’’
‘‘पर इस बार एक शर्त है मेरी।’’ वह फिर हंसकर बोली।
‘‘अब तूने मेरे सामने शर्तें भी रखनी शुरू कर दीं...बोल क्या शर्त है तेरी ?’’
‘‘देखिए, रोज-रोज तो मैं रमा का काम करूंगी नहीं...और अगर करूंगी तो कोई-सा भी काम आपको मुझे पक्का देना होगा...आपके लिए मैं एक घर छोड़ सकती हूं।’’
‘‘ठीक है, मुझे मंजूर है...ठीक होने पर यहां का आधा काम रमा को दे दूंगी और आधा तेरा रहा, परंतु इस माह तो पूरा काम निपटा।’’
वह मेरे इतना कहने पर बाथरूम में कपड़े धोने के लिए घुस गई और वहीं से आवाज देकर बोली, ‘‘रोज
मालिश भी करवाओगी क्या ?’’
‘‘अगर तेरे पास समय है तो जरूर करवाऊंगी।’’
‘‘समय तो है जी..अच्छा है चार पैसा बन जाएंगे। बड़ी छोरी की ट्यूशन की फीस देनी है ?’’
‘‘कितनी फीस है ?’’
‘‘सौ रूपया महीना, पर हैरानगी की बात है कि उसे कुछ आता-जाता नहीं...चौथी क्लास में चली गई पर अभी उसे न ढंग का पढ़ना आता है और न ही लिखना। बस, पास हो जाती है।’’
‘‘तो फिर चौथी क्लास में कैसे पहुंच गई ?’’
‘‘उसी छोरी की क्लास की टीचर है, सो फीस लेकर पास कर देती है।’’ मुझे बड़ी हैरानी हुई कि सरकारी स्कूल में भी ऐसी धांधली है... केवल पास करने के लिए गरीब बच्चों से टयूशन के नाम पर पैसे बटोरना और पढ़ना पढ़ाना। मैंने कहा, ‘‘यह तो बहुत गलत बात है ...बच्ची को तो इसका कुछ भी लाभ न हुआ और ऊपर से पैसे का खर्चा अलग।’’
‘‘मैं उसे आपके पास ले आऊंगी...आप पढ़ा दिया करो तो मैं टयूशन अगले महीने से बंद कर दूंगी।’’
‘‘ठीक है शाम के समय एक घंटे के लिए ले आना...जो भी बन पाएगा मैं कर दूंगी।’’
लक्ष्मी प्रसन्न हो गई। दूसरे दिन बच्ची को साथ लाई तो मैंने उसका नाम पूछा।
‘‘तेरा नाम क्या है ?’’
‘‘जी सुनीता।’’
‘‘अपनी किताबें खोलो और बताओ कि तुम्हें क्या क्या गृह कार्य मिला है ?’’ वह घबरा गई, ‘‘मुझे कुछ नहीं मालूम....टीचर कुछ भी नहीं बताती।’’ वह मासूमियत से बोली।
‘‘तो ऐसा करते है पहले क्लास की बाल भारती से शुरू करते हैं।’’
अक्षरों का ज्ञान उसको था और सौ तक गिनती आती थी। इस नींव के आधार पर मैंने उसे पढ़ाना शुरू किया। कुछ ही रोज में उसका आत्मविश्वास बढ़ता गया और वह पढ़ाई में रूचि लेने लगी। कविता याद करने को दी तो वह उसे कंठस्थ हो गई। मुझे उसकी प्रोगरेस देखकर प्रसन्नता होती। एक दिन मैं लक्ष्मी से बोली, ‘‘तेरी बच्ची में बुद्धि तो है...तू इसे मेरे पास लाती रहना।’’
‘‘मैं तो स्वयं चाहती हूं कि इसकी जिंदगी बन जाए-मैं तो कुछ भी न पढ़ पाई पर यह बड़ी छोरी पढ़ जाए।’’
‘‘पर एक बात है लक्ष्मी, इस वर्ष इसकी क्लास-टीचर इसे पास नहीं करेगी।’’
‘‘न करे पास...जब इसे कुछ आता-जाता ही नहीं तो पांचवी क्लास में जाने से क्या लाभ ? इसकी नींव पक्की हो जाए तभी तो पढ़ पाएगी यह !’’
उस रोज लक्षमी मेरे घर पर काम करती रही और अपने बारे में...अपने घर के बारे में बहुत-कुछ बताती रही। एक दिन जब वह मेरे शरीर की मालिश कर रही थी तो मैंने उसे टटोला, ‘‘आजकल तेरे पति का क्या हाल है ?’’
‘‘अजी हाल की तो पूछो ही मती...वह सुधरने वाला नहीं...इसलिए तो प्रसादजी वाला घर छोड़ना पड़ा वर्ना ऐसा अच्छा माहौल था। प्रसाद मालकिन थी भी बहुत अच्छी-वह तो मेरे आदमी की आदतों के कारण वहां का घर छोड़ना पड़ा...अब तो एक कमरे का 800 रुपया किराया भरती हूं। ’’
‘‘आदमी भी कुछ कमाता है या नहीं ?’’
‘‘जो कुछ कमाता है शराब में उड़ा देता है...मेरा तो जीवन ही बरबाद कर डाला उसने....ऊपर से छोटी-छोटी तीन बच्चियां।’’ इतना कहकर उसकी आंखें छलछला आईं।
‘‘एक बात पुछूं लक्ष्मी...बुरा तो न मानेगी ?’’
‘‘अजी बुरा काहे का...भला आपसे क्या छिपा है...अब तो दुनिया जाने है मेरी गाथा...।’’
‘‘तू सुंदर है...लंबी है-तेरे लिए रिश्तों की कमी तो न होगी...तू इसके साथ भाग क्यों आई ?’’
अपने सुंदर होने की बात सुनकर वह खिल उठी-दांतों की धवल पंक्ति जगमगा उठी।
‘‘हां मेमसाहब, सुंदर तो मैं थी पर बड़ी अभागी थी। बीकानेर में मेरा जन्म हुआ था..जब दो बरस की थी तो मां चल बसी....पिता, काका-काकी के पास रहते थे या यूं कहिए कि आधे घर में रहते थे। जब 20 बरस की हुई तो तो पिता भगवान के घर चले गए। काकी ने मेरे साथ बदसलूकी शुरू कर दी। चार खेत थे मेरे पिताजी के,...सब पर हक जमा लिया। बार-बार उनके मुंह से यही सुनने को मिलता, ‘करमजली...खा गई दोनों को, पड़ गई हमारे गले।’ इस तरह की न जाने कितनी गालियां वह आते-जाते देती और कभी-कभार थप्पड़ भी जड़ देती। मेरा घर का खाना भी उसे भारी लगने लगा। पहले में सारे घर का काम करती...झाड़ना-बुहारना...कपड़े धोना...बरतन साफ करना और खाना बनाना आदि, परंतु यह अपनी हरकतों से बाज न आती। बात-बात पर प्रताड़ना और काका को शिकायतें। एक दिन मुझसे बोली, ‘पास की कोठी में जो नर्सिंगहोम खुला है। वहीं काम पर लग जा... चार पैसा तो कमा के ला।’ मैं घर से निकलना चाहती थी सो वहां की साफ-सफाई का काम करने लगी...वहीं मेरी इस नासपीटे से मुलाकात हुई। यह नैपाली है और मैं ब्राह्मण जात की। मेमसाहबजी, उन दिनों यह बहुत सुंदर था-मैं जवान थी, रीझ गई....और उन दिनों तो यह ऐब भी न था। एक दिन काकी को पता चला तो उसने बहुत मारा और गालियां दीं पर एक तरफ तो से तो वह मन-ही-मन खूब प्रसन्न हुई कि छोरी की शादी पर कुछ खर्च न करना पड़ेगा। मैंने घर छोड़ दिया और इसके साथ कोर्ट में शादी कर ली। सो काकी के गले से मेरो विवाह खर्च करने की फांस निकल गई।’’
‘‘उसके बाद तू कभी अपने घर नहीं गई ?’’
‘‘ना जी सवाल ही नहीं उठता....काका-काकी और दोनों चचेरे भाइयों ने घर पर खेतों पर कब्जा तो पहले ही कर रखा था...ल़ड़की जात को जयदाद पर कौन हाथ लगाने देवे है।’’
‘‘तो शादी के बाद तू ससुराल नहीं गई ?’’
‘‘सास-ससुर तो थे नहीं....हां, इसकी चार बहनें हैं। दो चार बार मिलना हुआ-बस, फिर हम दिल्ली चले आए। तीन साल तक यह मुआ ठीक रहा, पर थानेदार के यहां की नौकरी ने इसका सत्यानाश कर डाला। थानेदार खुद तो पीता ही था, साथ-साथ इसको भी आदत डाल दी... ऐसी आदत पड़ी कि पूरी तरह से इसको ले डूबी। यह थानेदार के यहां खाना बनाने का काम करता था और मैं साफ-सफाई का। उसकी पत्नी के बच्चा होने वाला था तो वह जच्चागी के लिए अपने मायके चली गई। पीछे से थानेदार की बीवी अच्छी थी। वह अपने पति पर बहुत बिगड़ी, ‘‘तुम्हारी तो आदत है ही, क्यों गरीब का घर बरबाद कर रहे हो ?’ जब थानेदार की बदली हो गई तभी हम दोनों यहां प्रसाद माताजी के पास आए और गैराज में रहने लगे। आपने तो उनका बाग देखा ही था...यह माली का काम करता था और मैं साफ-सफाई और खाना बनाने का, पर इसकी आदतों से तंग आकर उन्होंने भी निकाल दिया।’’ उसने एक ठंडी आह भरी।
कितने साल रही प्रसाद मांजी के पास ?
‘‘तीन साल तक...खूब मजा था। साफ सुथरी जगह, तिस पर उनका प्यार ! पहली बच्ची तो उन्हीं के यहां पर हुई थी। फ्राकें सिल कर दी थीं शगन में। तब तो उनकी बेटियां और बहुएं भी आया-जाया करती थीं परंतु पास में तो कोई न रहे था और अब उसके मर जाने पर बेटियां-बेटे सभी किराए के मकान कब्जा करे बैठे हैं। सुनने में तो आता है कि 30 लाख में फैसला मांग रहे हैं।’’
मैंने कहा, ‘‘जब से वो मरी हैं तब से मकान मालिक की पुलिस गेट पर बैठी है। अंदर के मकान पर बेटी-बेटों के चौकीदार का कब्जा है। अब तो सब बच्चे कोर्ट में कह रहे हैं कि वे बारी-बारी मां के पास रहकर उसकी सेवा करते थे-जबकि सच यह है कि वे बाथरूम में सवेरे के समय मरी पड़ी थीं।
‘‘आप बिलकुल ठीक कह रही हैं जी...मैं भी तो काम करती थी उनके पास। दिन में तीन बार आती थी...सवेरे सात बजे, दोपहर और शाम सात बजे। सवेरे आकर जब मैंने उसकी घंटी बजाई तो किसी की आवाज न सुनकर मैं घबरा गई...फिर कितनी बार द्वार खटखटाया पर कोई आया नहीं तो मैं पड़ोस वाले खंडेलवाल साहब को बुला लाई। उन्होंने उनकी लड़की को फोन किया तो वह आ गई और फिर तो धक्का मार कर दरवाजा तोड़ना पड़ा जी...बुढ़िया तो बाथरूम में गिरकर मर गई थी और अब बेटी कहती थी कि मैं उनके पास रहती थी। भई, पैसा खाना है तो झूठ तो बोलना ही पड़ेगा। फिर लाखों का मामला है। आजकल ऐसे में मकान कौन छोड़ता है ?’’
वह बतियाती जा रही थी और प्रसाद मांजी की गाथा भी सुनाती जा रही थी।
‘‘भाग्य का चक्कर है जी...अब चलती हूं, कल नहीं आऊंगी। परसों आऊंगी तो होली का इनाम लेकर जाऊंगी। इस बार आप एक साड़ी दे देना।’’
मैं हंस पड़ी।
मैं जा रही हूं जी, किवाड बंद कर लो।
प्रसाद मांजी का नाम आते ही मेरे सामने उनका पूरा व्यक्तित्व सजीव हो उठा। 80 वर्ष की पक्की उम्र में भी उत्साह, कर्मठता और सुसंस्कृति जागरूकता की एक अनूठी मिसाल मैंने शायद ही किसी और महिला में देखी हो। अक्सर तो इस उम्र के लोग अपनी बीमारियों की चर्चा करते हैं और या फिर अकेलेपन का रोना रो-रोकर अपने मिलने वालों को बोर करते रहते हैं। परंतु उनके मुंह से मैंने कभी किसी की बुराई नहीं सुनी। मेरा उनके पास जाना मेरे लिए बड़ा महत्त्व रखता था क्योंकि मुझे उनके सदाबहार खिले बगीचे का लुभावनापन बहुत प्रिय था और फिर बागवानी के लाभप्रद टिप्स का भी मेरे लिए एक विशेष आकर्षण था जो मांजी को खूब भाता था। एक दिन बातों ही बातों में मैंने उनसे पूछा, ‘‘आपको इतने बड़े इस बंगले में अकेले रहने में डर नहीं लगता ?’’
वह बहुत जोर से हंसीं, ‘‘अरे डर काहे का....कोई क्या ले जाएगा इस बुढ़िया से....यह चार सोने की चूंड़ियां या फिर 2000 रुपए का कैश ! मैं यहां इस घर और बगीचे को छोड़ कर कहीं नहीं जा सकती। बच्चे तो बार-बार मुझे वहां आने जाने के लिए कहते हैं...बड़े बेटे का तो पूना में अपना फार्म है परंतु मेरी कमी क्या है कि मैं किसी के पास रह नहीं सकती।’’
‘‘आप अपना सारा समय कैसे बिताती हैं ?’’
‘‘सच पूछो तो मुझे पता ही नहीं चलता कि समय कैसे बीत जाता है। पांच बजे सवेरे उठती हूं। हाथ-मुंह धोकर किचन में जाकर शहद में नींबू डाल कर पीती हूं और फिर प्रार्थना करने बैठ जाती हूं। सात बजे लक्ष्मी आ जाती है तो एक कप चाय बना देती है। अखबार का पन्ना-पन्ना पढ़ना मुझे बेहद पसंद है।’’
अंग्रेजी और हिन्दी, दोनों अखबारों के संपादकीय उन्हें जबानी याद रहते। उनका एक प्रिय दोहा था :
‘‘रोज सुबह आता रहा, मेरे घर अखबार।
धीरे-धीरे वह बन गया,
मेरा अंतरंग यार।’’
प्रेमचन्द से लेकर आधुनिक नवसाक्षरों की रचनाओं का उन्हें पूर्ण ज्ञान था। लेखिका शिवानी के शब्दों का वर्णन उनके मस्तिष्क पर विशेष असर छोड़ता था। एक बात वह बार-बार दोहरातीं, ‘भारती जी के समय का ‘धर्मयुग’ वाकई बेमिसाल था।’ मेरी लिखी पुस्तकें भी मुझसे मांग कर पढ़ीं और शाबाशी दी, ‘बहुत अच्छा लिखा है तुमनेeep it upमेरी ढेरों शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं।’ कहानी संग्रह ‘बस यहीं तक’ उन्हें बेहद रुचिकर लगा, विशेषकर मेरे पति द्वारा लिखे गए पत्र उन्हें बहुत पसंद आए।
हिन्दी-अंग्रेजी भाषाओं पर वह बखूबी बहस कर लेतीं, ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं, अंग्रेजी आज अंतर्राष्ट्रीय संपर्क की भाषा है और उसका ज्ञान आवश्यक है परंतु राष्ट्रभाषा के प्रति जो सम्मान होना चाहिए उनका वर्तमान भारत के नागरिकों में सर्वथा आभाव है।’’
मैंने उन्हें एक दिन अपना सुझाव दिया, ‘‘मांजी, आप एक किताब लिख डालिए...आपकी जीवन शैली और उम्र-भर के अनुभवों का निचोड़ लोगों के लिए प्रेरणादायक रहेगा।’’
‘‘अरे बिटिया यही तो कमी है मुझमें। मेरे अनुभवों का विस्तार इतना विशाल है कि समझ में नहीं आता कि कहां से शुरू करूं।’’
मैंने हंसकर उत्तर दिया, ‘‘मांजी, बंदी आपके सामने हाजिर है...आपको तो बस बोलते जाना है। फिलहाल तो आप मुझे यह बता दीजिए कि आपके इस सुंदर व्यक्तित्व का क्या राज़ है...आपकी दिनचर्या से शुरू करें। ’’
‘‘सवेरे का तो मैंने तुम्हें सब बता ही दिया। नहा-धोकर दो घंटे बागवानी जरूर लगाती हूं। यह पौधे मुझे बहुत प्यारे हैं।
‘‘खाने में क्या लेती हैं आप ?’’
‘‘फलों में केला यानी पका केला बहुत पसंद है। मैं तो इसके गुणों के कारण इसे फलों का राजा मानती हूं। शाकाहारी हूं। इस उम्र में भी मुझे कोई खास बीमारी नहीं। अब मैं सदा खाना....रेशेदार सब्जियों ही खाती हूं। योगा व स्वाध्याय भी करती हूं। दोपहर को एक घंटा आराम करना, शाम को फिर बागवानी और रात के खाने में भी सूप, सब्जी, फल और चपाती लेती हूं। मैं गुस्सा नहीं करती अपने अकेलेपन को बोझ नहीं समझती, तनातनी के माहौल से मेरा कोई वास्ता नहीं। बच्चे आकर मिल जाते हैं तो बहुत अच्छा लगता है वर्ना मैं अकेले में भी खुश हूं। तुम्हारे प्रसाद अंकल की बहुतेरी सेवा की-वे थे खुशमिजाज। सब के साथ हल्की-फुल्की बातों का मजा लेती हूं। तुम मेरे पास आती रहना...बहुत-कुछ बताऊंगी तुम्हें।’’
याद आया रात को त्रिफला चूर्ण खाने की उनकी सलाह से मेरे सिर का दर्द जाता रहा।
‘‘आपने लक्ष्मी को अपने गैराज से क्यों निकाल दिया ?’’
‘‘लक्ष्मी को तो मैं कभी भी जाने के लिए न कहती...मुसीबत उसके आदमी की है। आए दिन नशा करके बकवास करना...मुझे अच्छा नहीं लगता था। बहुत सुधारने की कोशिश की मैंने पर वह सुधरा नहीं। सुधार के लिए उसे एक अच्छे डॉक्टर की जरूरत है। मैं तो चहती हूं कि यह नशाबंदी पूरे देश में लागू हो जाए। बेचारे गरीबों का भला होगा। किसी वर्ग चेतना का अहसास आने से पहले ही तो इनके बच्चे नशे के भंवर में डूब जाते हैं। खासकर इनके लड़के-जो कमाते हैं, तो उसे बरबाद कर देते हैं तो बनेंगे क्या ? इस नशे से न शहर बचे हैं न गांव
....सत्यानाश हो गया लोगों का। काम-धाम कुछ नहीं...नशा करो और बैठ जाओ...बीवी बच्चे तो तंग होंगे ही।’’
बीस दिन पश्चात पता चला कि प्रासाद मांजी ने सवेरे अपने घर में अकेले ही दम तोड़ दिया। मन को धक्का लगा। उनके पास कोई नहीं था। उनके अमूल्य अनुभवों की पूंजी को मैं अपने लेखन में समेट न पाई आज आशीर्वाद के रूप में मेरे पास उनका एक मनीप्लांट का गमला है जो खूब फलफूल रहा है और दो-तीन धर्मयुग की पत्रिकाएं, जिन्हें वे अक्सर सहेजकर रखा करती थीं। जब मनीप्लांट के पौधे को पानी देती हूं तो शरीर में एक नई शक्ति और चेतना का संचार होने लगता है। एक प्रसाद के रूप में यह पौधा मेरे लिए सदा प्रेरणा का स्रोत रहेगा।
प्रसाद मांजी की होली पर्व पर उनके हाथ की बनी गुजिया और उड़द की दाल के बड़ों के स्वाद को भला मैं कैसे भूल सकती हूं। होली के त्यौहार पर उन्हें रोली लगाने गई तो अंदर से गुजिया ले आईं। खिलखिलाकर बोलीं, ‘‘पूरी पचास गुजियां नातिन के ससुराल में भिजवाई हैं..अरे नानी हूं।’’
‘‘मेमसाहब, बुखार चढ़ गया है उसे....तेज बुखार है...मांसपेशियों और जड़ों में भी दर्द है...छाती पर खसरे जैसे कुछ दाने हैं....पेट में दर्द भी है...।’’
‘‘अरे ! यह तो डेंगू बुखार के लक्षण हैं...यह एजिप्ती मच्छर के काटने से होता है...तुम लोग साफ-सफाई से भी तो नहीं रहते हो। कितना कचरा है वहां झुग्गियों के आसपास ! क्यों फेंकते हो वहां कचरा ?’’
‘‘गंदगी तो वहां बहुत है...यह एम सी डी वालों का काम है... वहां से कचरा उठाते ही नहीं और फिर एक ही म्यूनिसिपटिली का नल है तो उसके आसपास के गड्ढों में पानी का जमाव हो जाता है...कोई साफ नहीं करता...हम अकेला क्या करेगा ?’’ वह मुंह बनाकर बोली, ‘‘मैं आपके आंगन की सफाई कर जाती हूं...हो सके तो किसी दूसरी बाई को काम पर रख लीजिए...रमा तो अब दस-बारह दिन तक नहीं आ सकेगी। अगर बुखार उतर भी जाए तो भी तो कमजोरी बहुत होगी। मैं इतना काम कैसे संभालूं...उसका छोटा बच्चा है, सास है... वह भी बीमार रहती है...मैं तो काम करते-करते पागल हो गई।’’ रमा की मां की आंखें नम हो गईं तो मेरा मन पसीज गया।
‘‘बहुत बुर हुआ....चलो भगवान करे तेरी लड़की बच जाए। अस्पताल में दाखिल करके तुम लोगों ने अक्ल का काम किया वर्ना घर में तो देखभाल बहुत मुश्किल काम है।’’
‘‘वहां भी क्या अच्छा है जी...कितना लोग मर गया...यहां तो हर दिन कोई-न-कोई बीमारी है ...मैं तो दिल्ली आकर तंग आ गई। बेटी से मिलने आई थी और परिवार का पूरा बोझ मुझ पर आ पड़ा।’’
वह साफ-सफाई का काम निपटाकर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि गेट पर एक अन्य मेहरी, जो ऊपर वाले फ्लैट में काम करती है, दिखाई पड़ी।
उसे देखते ही मैं पूछ बैठी, ‘‘लक्ष्मी रमा को बुखार हो गया है...तू मेरा काम संभाल ले न !’’
‘‘उसे तो जी पिछले महीने भी बुखार चढ़ गया था....अब मेरे पास इतना समय कहां है जो बार-बार उसका काम संभालती फिरूं।’’ वह हंसकर बोली।
‘‘अब तू तो मेरी पुरानी बाई है, तुझसे नहीं कहूंगी तो और किससे कहूंगी...तू ही तो काम आती है समय पड़ने पर...।’’
‘‘पर इस बार एक शर्त है मेरी।’’ वह फिर हंसकर बोली।
‘‘अब तूने मेरे सामने शर्तें भी रखनी शुरू कर दीं...बोल क्या शर्त है तेरी ?’’
‘‘देखिए, रोज-रोज तो मैं रमा का काम करूंगी नहीं...और अगर करूंगी तो कोई-सा भी काम आपको मुझे पक्का देना होगा...आपके लिए मैं एक घर छोड़ सकती हूं।’’
‘‘ठीक है, मुझे मंजूर है...ठीक होने पर यहां का आधा काम रमा को दे दूंगी और आधा तेरा रहा, परंतु इस माह तो पूरा काम निपटा।’’
वह मेरे इतना कहने पर बाथरूम में कपड़े धोने के लिए घुस गई और वहीं से आवाज देकर बोली, ‘‘रोज
मालिश भी करवाओगी क्या ?’’
‘‘अगर तेरे पास समय है तो जरूर करवाऊंगी।’’
‘‘समय तो है जी..अच्छा है चार पैसा बन जाएंगे। बड़ी छोरी की ट्यूशन की फीस देनी है ?’’
‘‘कितनी फीस है ?’’
‘‘सौ रूपया महीना, पर हैरानगी की बात है कि उसे कुछ आता-जाता नहीं...चौथी क्लास में चली गई पर अभी उसे न ढंग का पढ़ना आता है और न ही लिखना। बस, पास हो जाती है।’’
‘‘तो फिर चौथी क्लास में कैसे पहुंच गई ?’’
‘‘उसी छोरी की क्लास की टीचर है, सो फीस लेकर पास कर देती है।’’ मुझे बड़ी हैरानी हुई कि सरकारी स्कूल में भी ऐसी धांधली है... केवल पास करने के लिए गरीब बच्चों से टयूशन के नाम पर पैसे बटोरना और पढ़ना पढ़ाना। मैंने कहा, ‘‘यह तो बहुत गलत बात है ...बच्ची को तो इसका कुछ भी लाभ न हुआ और ऊपर से पैसे का खर्चा अलग।’’
‘‘मैं उसे आपके पास ले आऊंगी...आप पढ़ा दिया करो तो मैं टयूशन अगले महीने से बंद कर दूंगी।’’
‘‘ठीक है शाम के समय एक घंटे के लिए ले आना...जो भी बन पाएगा मैं कर दूंगी।’’
लक्ष्मी प्रसन्न हो गई। दूसरे दिन बच्ची को साथ लाई तो मैंने उसका नाम पूछा।
‘‘तेरा नाम क्या है ?’’
‘‘जी सुनीता।’’
‘‘अपनी किताबें खोलो और बताओ कि तुम्हें क्या क्या गृह कार्य मिला है ?’’ वह घबरा गई, ‘‘मुझे कुछ नहीं मालूम....टीचर कुछ भी नहीं बताती।’’ वह मासूमियत से बोली।
‘‘तो ऐसा करते है पहले क्लास की बाल भारती से शुरू करते हैं।’’
अक्षरों का ज्ञान उसको था और सौ तक गिनती आती थी। इस नींव के आधार पर मैंने उसे पढ़ाना शुरू किया। कुछ ही रोज में उसका आत्मविश्वास बढ़ता गया और वह पढ़ाई में रूचि लेने लगी। कविता याद करने को दी तो वह उसे कंठस्थ हो गई। मुझे उसकी प्रोगरेस देखकर प्रसन्नता होती। एक दिन मैं लक्ष्मी से बोली, ‘‘तेरी बच्ची में बुद्धि तो है...तू इसे मेरे पास लाती रहना।’’
‘‘मैं तो स्वयं चाहती हूं कि इसकी जिंदगी बन जाए-मैं तो कुछ भी न पढ़ पाई पर यह बड़ी छोरी पढ़ जाए।’’
‘‘पर एक बात है लक्ष्मी, इस वर्ष इसकी क्लास-टीचर इसे पास नहीं करेगी।’’
‘‘न करे पास...जब इसे कुछ आता-जाता ही नहीं तो पांचवी क्लास में जाने से क्या लाभ ? इसकी नींव पक्की हो जाए तभी तो पढ़ पाएगी यह !’’
उस रोज लक्षमी मेरे घर पर काम करती रही और अपने बारे में...अपने घर के बारे में बहुत-कुछ बताती रही। एक दिन जब वह मेरे शरीर की मालिश कर रही थी तो मैंने उसे टटोला, ‘‘आजकल तेरे पति का क्या हाल है ?’’
‘‘अजी हाल की तो पूछो ही मती...वह सुधरने वाला नहीं...इसलिए तो प्रसादजी वाला घर छोड़ना पड़ा वर्ना ऐसा अच्छा माहौल था। प्रसाद मालकिन थी भी बहुत अच्छी-वह तो मेरे आदमी की आदतों के कारण वहां का घर छोड़ना पड़ा...अब तो एक कमरे का 800 रुपया किराया भरती हूं। ’’
‘‘आदमी भी कुछ कमाता है या नहीं ?’’
‘‘जो कुछ कमाता है शराब में उड़ा देता है...मेरा तो जीवन ही बरबाद कर डाला उसने....ऊपर से छोटी-छोटी तीन बच्चियां।’’ इतना कहकर उसकी आंखें छलछला आईं।
‘‘एक बात पुछूं लक्ष्मी...बुरा तो न मानेगी ?’’
‘‘अजी बुरा काहे का...भला आपसे क्या छिपा है...अब तो दुनिया जाने है मेरी गाथा...।’’
‘‘तू सुंदर है...लंबी है-तेरे लिए रिश्तों की कमी तो न होगी...तू इसके साथ भाग क्यों आई ?’’
अपने सुंदर होने की बात सुनकर वह खिल उठी-दांतों की धवल पंक्ति जगमगा उठी।
‘‘हां मेमसाहब, सुंदर तो मैं थी पर बड़ी अभागी थी। बीकानेर में मेरा जन्म हुआ था..जब दो बरस की थी तो मां चल बसी....पिता, काका-काकी के पास रहते थे या यूं कहिए कि आधे घर में रहते थे। जब 20 बरस की हुई तो तो पिता भगवान के घर चले गए। काकी ने मेरे साथ बदसलूकी शुरू कर दी। चार खेत थे मेरे पिताजी के,...सब पर हक जमा लिया। बार-बार उनके मुंह से यही सुनने को मिलता, ‘करमजली...खा गई दोनों को, पड़ गई हमारे गले।’ इस तरह की न जाने कितनी गालियां वह आते-जाते देती और कभी-कभार थप्पड़ भी जड़ देती। मेरा घर का खाना भी उसे भारी लगने लगा। पहले में सारे घर का काम करती...झाड़ना-बुहारना...कपड़े धोना...बरतन साफ करना और खाना बनाना आदि, परंतु यह अपनी हरकतों से बाज न आती। बात-बात पर प्रताड़ना और काका को शिकायतें। एक दिन मुझसे बोली, ‘पास की कोठी में जो नर्सिंगहोम खुला है। वहीं काम पर लग जा... चार पैसा तो कमा के ला।’ मैं घर से निकलना चाहती थी सो वहां की साफ-सफाई का काम करने लगी...वहीं मेरी इस नासपीटे से मुलाकात हुई। यह नैपाली है और मैं ब्राह्मण जात की। मेमसाहबजी, उन दिनों यह बहुत सुंदर था-मैं जवान थी, रीझ गई....और उन दिनों तो यह ऐब भी न था। एक दिन काकी को पता चला तो उसने बहुत मारा और गालियां दीं पर एक तरफ तो से तो वह मन-ही-मन खूब प्रसन्न हुई कि छोरी की शादी पर कुछ खर्च न करना पड़ेगा। मैंने घर छोड़ दिया और इसके साथ कोर्ट में शादी कर ली। सो काकी के गले से मेरो विवाह खर्च करने की फांस निकल गई।’’
‘‘उसके बाद तू कभी अपने घर नहीं गई ?’’
‘‘ना जी सवाल ही नहीं उठता....काका-काकी और दोनों चचेरे भाइयों ने घर पर खेतों पर कब्जा तो पहले ही कर रखा था...ल़ड़की जात को जयदाद पर कौन हाथ लगाने देवे है।’’
‘‘तो शादी के बाद तू ससुराल नहीं गई ?’’
‘‘सास-ससुर तो थे नहीं....हां, इसकी चार बहनें हैं। दो चार बार मिलना हुआ-बस, फिर हम दिल्ली चले आए। तीन साल तक यह मुआ ठीक रहा, पर थानेदार के यहां की नौकरी ने इसका सत्यानाश कर डाला। थानेदार खुद तो पीता ही था, साथ-साथ इसको भी आदत डाल दी... ऐसी आदत पड़ी कि पूरी तरह से इसको ले डूबी। यह थानेदार के यहां खाना बनाने का काम करता था और मैं साफ-सफाई का। उसकी पत्नी के बच्चा होने वाला था तो वह जच्चागी के लिए अपने मायके चली गई। पीछे से थानेदार की बीवी अच्छी थी। वह अपने पति पर बहुत बिगड़ी, ‘‘तुम्हारी तो आदत है ही, क्यों गरीब का घर बरबाद कर रहे हो ?’ जब थानेदार की बदली हो गई तभी हम दोनों यहां प्रसाद माताजी के पास आए और गैराज में रहने लगे। आपने तो उनका बाग देखा ही था...यह माली का काम करता था और मैं साफ-सफाई और खाना बनाने का, पर इसकी आदतों से तंग आकर उन्होंने भी निकाल दिया।’’ उसने एक ठंडी आह भरी।
कितने साल रही प्रसाद मांजी के पास ?
‘‘तीन साल तक...खूब मजा था। साफ सुथरी जगह, तिस पर उनका प्यार ! पहली बच्ची तो उन्हीं के यहां पर हुई थी। फ्राकें सिल कर दी थीं शगन में। तब तो उनकी बेटियां और बहुएं भी आया-जाया करती थीं परंतु पास में तो कोई न रहे था और अब उसके मर जाने पर बेटियां-बेटे सभी किराए के मकान कब्जा करे बैठे हैं। सुनने में तो आता है कि 30 लाख में फैसला मांग रहे हैं।’’
मैंने कहा, ‘‘जब से वो मरी हैं तब से मकान मालिक की पुलिस गेट पर बैठी है। अंदर के मकान पर बेटी-बेटों के चौकीदार का कब्जा है। अब तो सब बच्चे कोर्ट में कह रहे हैं कि वे बारी-बारी मां के पास रहकर उसकी सेवा करते थे-जबकि सच यह है कि वे बाथरूम में सवेरे के समय मरी पड़ी थीं।
‘‘आप बिलकुल ठीक कह रही हैं जी...मैं भी तो काम करती थी उनके पास। दिन में तीन बार आती थी...सवेरे सात बजे, दोपहर और शाम सात बजे। सवेरे आकर जब मैंने उसकी घंटी बजाई तो किसी की आवाज न सुनकर मैं घबरा गई...फिर कितनी बार द्वार खटखटाया पर कोई आया नहीं तो मैं पड़ोस वाले खंडेलवाल साहब को बुला लाई। उन्होंने उनकी लड़की को फोन किया तो वह आ गई और फिर तो धक्का मार कर दरवाजा तोड़ना पड़ा जी...बुढ़िया तो बाथरूम में गिरकर मर गई थी और अब बेटी कहती थी कि मैं उनके पास रहती थी। भई, पैसा खाना है तो झूठ तो बोलना ही पड़ेगा। फिर लाखों का मामला है। आजकल ऐसे में मकान कौन छोड़ता है ?’’
वह बतियाती जा रही थी और प्रसाद मांजी की गाथा भी सुनाती जा रही थी।
‘‘भाग्य का चक्कर है जी...अब चलती हूं, कल नहीं आऊंगी। परसों आऊंगी तो होली का इनाम लेकर जाऊंगी। इस बार आप एक साड़ी दे देना।’’
मैं हंस पड़ी।
मैं जा रही हूं जी, किवाड बंद कर लो।
प्रसाद मांजी का नाम आते ही मेरे सामने उनका पूरा व्यक्तित्व सजीव हो उठा। 80 वर्ष की पक्की उम्र में भी उत्साह, कर्मठता और सुसंस्कृति जागरूकता की एक अनूठी मिसाल मैंने शायद ही किसी और महिला में देखी हो। अक्सर तो इस उम्र के लोग अपनी बीमारियों की चर्चा करते हैं और या फिर अकेलेपन का रोना रो-रोकर अपने मिलने वालों को बोर करते रहते हैं। परंतु उनके मुंह से मैंने कभी किसी की बुराई नहीं सुनी। मेरा उनके पास जाना मेरे लिए बड़ा महत्त्व रखता था क्योंकि मुझे उनके सदाबहार खिले बगीचे का लुभावनापन बहुत प्रिय था और फिर बागवानी के लाभप्रद टिप्स का भी मेरे लिए एक विशेष आकर्षण था जो मांजी को खूब भाता था। एक दिन बातों ही बातों में मैंने उनसे पूछा, ‘‘आपको इतने बड़े इस बंगले में अकेले रहने में डर नहीं लगता ?’’
वह बहुत जोर से हंसीं, ‘‘अरे डर काहे का....कोई क्या ले जाएगा इस बुढ़िया से....यह चार सोने की चूंड़ियां या फिर 2000 रुपए का कैश ! मैं यहां इस घर और बगीचे को छोड़ कर कहीं नहीं जा सकती। बच्चे तो बार-बार मुझे वहां आने जाने के लिए कहते हैं...बड़े बेटे का तो पूना में अपना फार्म है परंतु मेरी कमी क्या है कि मैं किसी के पास रह नहीं सकती।’’
‘‘आप अपना सारा समय कैसे बिताती हैं ?’’
‘‘सच पूछो तो मुझे पता ही नहीं चलता कि समय कैसे बीत जाता है। पांच बजे सवेरे उठती हूं। हाथ-मुंह धोकर किचन में जाकर शहद में नींबू डाल कर पीती हूं और फिर प्रार्थना करने बैठ जाती हूं। सात बजे लक्ष्मी आ जाती है तो एक कप चाय बना देती है। अखबार का पन्ना-पन्ना पढ़ना मुझे बेहद पसंद है।’’
अंग्रेजी और हिन्दी, दोनों अखबारों के संपादकीय उन्हें जबानी याद रहते। उनका एक प्रिय दोहा था :
‘‘रोज सुबह आता रहा, मेरे घर अखबार।
धीरे-धीरे वह बन गया,
मेरा अंतरंग यार।’’
प्रेमचन्द से लेकर आधुनिक नवसाक्षरों की रचनाओं का उन्हें पूर्ण ज्ञान था। लेखिका शिवानी के शब्दों का वर्णन उनके मस्तिष्क पर विशेष असर छोड़ता था। एक बात वह बार-बार दोहरातीं, ‘भारती जी के समय का ‘धर्मयुग’ वाकई बेमिसाल था।’ मेरी लिखी पुस्तकें भी मुझसे मांग कर पढ़ीं और शाबाशी दी, ‘बहुत अच्छा लिखा है तुमनेeep it upमेरी ढेरों शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं।’ कहानी संग्रह ‘बस यहीं तक’ उन्हें बेहद रुचिकर लगा, विशेषकर मेरे पति द्वारा लिखे गए पत्र उन्हें बहुत पसंद आए।
हिन्दी-अंग्रेजी भाषाओं पर वह बखूबी बहस कर लेतीं, ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं, अंग्रेजी आज अंतर्राष्ट्रीय संपर्क की भाषा है और उसका ज्ञान आवश्यक है परंतु राष्ट्रभाषा के प्रति जो सम्मान होना चाहिए उनका वर्तमान भारत के नागरिकों में सर्वथा आभाव है।’’
मैंने उन्हें एक दिन अपना सुझाव दिया, ‘‘मांजी, आप एक किताब लिख डालिए...आपकी जीवन शैली और उम्र-भर के अनुभवों का निचोड़ लोगों के लिए प्रेरणादायक रहेगा।’’
‘‘अरे बिटिया यही तो कमी है मुझमें। मेरे अनुभवों का विस्तार इतना विशाल है कि समझ में नहीं आता कि कहां से शुरू करूं।’’
मैंने हंसकर उत्तर दिया, ‘‘मांजी, बंदी आपके सामने हाजिर है...आपको तो बस बोलते जाना है। फिलहाल तो आप मुझे यह बता दीजिए कि आपके इस सुंदर व्यक्तित्व का क्या राज़ है...आपकी दिनचर्या से शुरू करें। ’’
‘‘सवेरे का तो मैंने तुम्हें सब बता ही दिया। नहा-धोकर दो घंटे बागवानी जरूर लगाती हूं। यह पौधे मुझे बहुत प्यारे हैं।
‘‘खाने में क्या लेती हैं आप ?’’
‘‘फलों में केला यानी पका केला बहुत पसंद है। मैं तो इसके गुणों के कारण इसे फलों का राजा मानती हूं। शाकाहारी हूं। इस उम्र में भी मुझे कोई खास बीमारी नहीं। अब मैं सदा खाना....रेशेदार सब्जियों ही खाती हूं। योगा व स्वाध्याय भी करती हूं। दोपहर को एक घंटा आराम करना, शाम को फिर बागवानी और रात के खाने में भी सूप, सब्जी, फल और चपाती लेती हूं। मैं गुस्सा नहीं करती अपने अकेलेपन को बोझ नहीं समझती, तनातनी के माहौल से मेरा कोई वास्ता नहीं। बच्चे आकर मिल जाते हैं तो बहुत अच्छा लगता है वर्ना मैं अकेले में भी खुश हूं। तुम्हारे प्रसाद अंकल की बहुतेरी सेवा की-वे थे खुशमिजाज। सब के साथ हल्की-फुल्की बातों का मजा लेती हूं। तुम मेरे पास आती रहना...बहुत-कुछ बताऊंगी तुम्हें।’’
याद आया रात को त्रिफला चूर्ण खाने की उनकी सलाह से मेरे सिर का दर्द जाता रहा।
‘‘आपने लक्ष्मी को अपने गैराज से क्यों निकाल दिया ?’’
‘‘लक्ष्मी को तो मैं कभी भी जाने के लिए न कहती...मुसीबत उसके आदमी की है। आए दिन नशा करके बकवास करना...मुझे अच्छा नहीं लगता था। बहुत सुधारने की कोशिश की मैंने पर वह सुधरा नहीं। सुधार के लिए उसे एक अच्छे डॉक्टर की जरूरत है। मैं तो चहती हूं कि यह नशाबंदी पूरे देश में लागू हो जाए। बेचारे गरीबों का भला होगा। किसी वर्ग चेतना का अहसास आने से पहले ही तो इनके बच्चे नशे के भंवर में डूब जाते हैं। खासकर इनके लड़के-जो कमाते हैं, तो उसे बरबाद कर देते हैं तो बनेंगे क्या ? इस नशे से न शहर बचे हैं न गांव
....सत्यानाश हो गया लोगों का। काम-धाम कुछ नहीं...नशा करो और बैठ जाओ...बीवी बच्चे तो तंग होंगे ही।’’
बीस दिन पश्चात पता चला कि प्रासाद मांजी ने सवेरे अपने घर में अकेले ही दम तोड़ दिया। मन को धक्का लगा। उनके पास कोई नहीं था। उनके अमूल्य अनुभवों की पूंजी को मैं अपने लेखन में समेट न पाई आज आशीर्वाद के रूप में मेरे पास उनका एक मनीप्लांट का गमला है जो खूब फलफूल रहा है और दो-तीन धर्मयुग की पत्रिकाएं, जिन्हें वे अक्सर सहेजकर रखा करती थीं। जब मनीप्लांट के पौधे को पानी देती हूं तो शरीर में एक नई शक्ति और चेतना का संचार होने लगता है। एक प्रसाद के रूप में यह पौधा मेरे लिए सदा प्रेरणा का स्रोत रहेगा।
प्रसाद मांजी की होली पर्व पर उनके हाथ की बनी गुजिया और उड़द की दाल के बड़ों के स्वाद को भला मैं कैसे भूल सकती हूं। होली के त्यौहार पर उन्हें रोली लगाने गई तो अंदर से गुजिया ले आईं। खिलखिलाकर बोलीं, ‘‘पूरी पचास गुजियां नातिन के ससुराल में भिजवाई हैं..अरे नानी हूं।’’
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