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श्रंगार - प्रेम >> कभी न बुझती चिंगारी

कभी न बुझती चिंगारी

गायत्री वर्मा

प्रकाशक : स्वास्तिक प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4050
आईएसबीएन :81-88090-02-6

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प्रस्तुत है एक श्रेष्ठ उपन्यास...

Kabhi Na Bujhati Chingari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मेरी लेखन यात्रा-एक परिचय

मैं कोई महान् हस्ती तो हूँ नहीं कि कोई मेरा परिचय दे। अतः मुझे अपना बिगुल आप ही बजाना होगा। वैसे आत्मकथा बहुतों ने लिखी और बड़ी रोचक भी, राजनीतिज्ञों, दार्शनिकों ने—महात्मा गाँधी जिनमें सर्वोपरि हैं। कोई घटना हो जाती है तो उस घटना से प्रेरित भी बहुत-सी पुस्तकें निकल जाती हैं। श्री खुशवन्त सिंह, श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह, श्री नरसिंहा राव आदि ने भी अपने-अपने राजनीति सम्बनधी अनुभवों पर पुस्तकें लिखीं।
साहित्यिक आत्मकथाएँ भी आईं। श्री हरवंश राय बच्चन की ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’ पढ़ने में बड़ी रोचक हैं।

मैं छोटी-सी हस्ती इन सब में किसी की भी लाइन में नहीं आती। इतना ही जानती हूँ, इतना ही कह सकती हूँ कि लेखन में मेरी रुचि सदा से ही रही। कुछ लिखने का शौक, चाहे पत्र ही लिखती थी, पाँच-छः साल की जब मैं थी तब से प्रारम्भ हो गया था। भाषा कितनी आती थी यह तो कह नहीं सकती पर काम लायक आती ही होगी। अन्यथा क्या लिखती यह प्रत्यक्ष है। छात्र जीवन में कहानी कविताएँ लिखने लगी थी। इधर-उधर कवि सम्मेलन में जाने भी लगी थी। पुरस्कार भी मिल जाते थे। इतने से ही मैं खुश हो जाती थी। प्रेम विद्यालय दयाल बाग, आगरा में जहाँ मैं पढ़ती थी, मेरी हिन्दी की अध्यापिका मुझे महादेवी वर्मा कहा करती थीं।

कोई कहता था तो उसे भी कविता कहानी लिखकर देती थी। वह अपने नाम से प्रकाशित कराती और पुरस्कृत भी होती। मैं देखकर ही प्रसन्न हो जाती थी कि मेरी कविता-कहानी पर पुरस्कार मिला है। मेरी छोटी बहनें भी इसका लाभ उठा लेती थीं। मुझे याद पड़ता है मेरी एक कहानी मेरी छोटी बहन ने कालाकाँकर भेजी थी। उस पर उसे ‘कामायनी’ पुस्तक मिली थी। शायद सुमित्रानन्दन पन्त उस समय काला काँकर में थे। श्री मैथिली शरण गुप्त ने मुझे सेंटरजान्स कॉलेज, आगरा में द्वितीय पुरस्कार दिया था। कवि सम्मेलन था। मैंने एक कविता ‘तपोवन’ पढ़ी थी। उस समय बी.ए. की छात्रा थी और प्रेम विद्यालय दयाल बाग, आगरा में पढ़ रही थी। अब तो मुझे उस कविता की पंक्तियाँ भी याद नहीं पर इस कविता ने वहाँ धूम मचा दी थी और मेरे पास कवि सम्मेलन के ढेरों प्रस्ताव आने लगे थे। इस प्रतिक्रिया पर मैं काफ़ी पुलकित थी।

उपन्यास भी शायद जब मैं इण्टर की छात्रा थी तब प्रथम बार लिखने का प्रयास किया था। मुझे याद है मैंने अपने परिवार के व्यक्तियों को ही पात्र एवं लक्ष्य बनाकर उनके ही चारों ओर कथा का ताना-बाना बुना था। शायद अपने दिल की भड़ास उसमें ज्यादा लक्षित हुई थी, जिसे सबने ही पढ़ा जबर्दस्ती मेरे मना करने पर भी और मुझे इतनी डाँट-फटकार पड़ी कि मैंने काफी समय तक कुछ लिखने का साहस नहीं किया।
कहानियाँ, कविताएँ छिटपुट इधर-उधर प्रकाशित होती रहीं। ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में भी कुछ निकलीं। उस समय के नव लेखक रागेय राघव, घनश्याम अस्थाना, कमल कुलश्रेष्ठ अवस्थी मुझे जानते थे। यह दूसरी बात है कि वे बहुत आगे बढ़ गए और मैं वहीं की वहीं रह गई।

शादी के बाद मेरे पति मेरी कहानियों को पढ़ा करते थे। मुझे प्रोत्साहित भी करते थे—मैं लिखती रहूँ। वे रुचि अवश्य लेते थे पर मेरा वातावरण बदल चुका था। पहले मैं आगरा में लेक्चरर थी, जिसके कारण सबसे संपर्क बना हुआ था। शादी के बाद मैंने त्यागपत्र दे दिया। तब तक मेरा पी.एच.डी. भी पूरा हो चुका था। दक्षिण में आंध्रप्रदेश के एक शहर विजयवाड़ा में मैं आ बसी, जहाँ हिन्दी साहित्य से मेरा सम्पर्क लगभग समाप्त-सा हो गया। पर इसके विपरीत मेरा ज्ञान विस्तृत हो गया। मेरे पति पैरी मैसन, एडगर वेलैस, जेम्स हार्डली चेज़ के बहुत शौक़ीन थे। मैं भी इनमें रुचि लेने लगी। यहाँ तक कि मेरा इरादा हुआ कि पैरी मैसन के सभी उपन्यासों का रूपान्तर हिन्दी में करूँ। मैंने एक उपन्यास Fuqitive Nurse का ‘फ़रार नर्स’ के नाम से रूपान्तर किया भी। अपने पति के कहने पर मैंने स्टेनले गार्डनर से पत्र-व्यवहार किया, पर जब उन्होंने अपने स्टेण्डर्ड से रायल्टी माँगी तो मैं हताश हो गई। मैंने लिखा भी कि यहाँ लेखकों को कुछ विशेष अधिक राशि नहीं मिलती, अतः आप जितना चाहते हैं मैं नहीं दे सकती। मेरे लिए यह असम्भव है। बात वहीं समाप्त हो गई। मेरा वह उपन्यास अभी तक वैसा ही रखा है। उनके दूसरे उपन्यास के रूपान्तर की योजना समाप्त हो गई। जब तक मैं कर्नाटक विश्वविद्यालय में रही, शोध-पत्र बहुत से प्रकाशित हुए। एक छोटी पुस्तक Humour in Kalidas आत्माराम एण्ड सन्स ने प्रकाशित की। मेरी पी.एच.डी. की थीसिस ‘कालिदास के ग्रन्थों पर आधारित प्राचीन भारतीय संस्कृति’ बनारस से हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय से प्रकाशित हुई जिसे मैंने राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद जी तो समर्पित किया था, इस पर उत्तर प्रदेश सरकार ने मुझे पुरस्कृत भी किया।

कर्नाटक विश्वविद्यालय में मैंने वीरशैव सम्प्रदाय के प्रमुख ग्रन्थ शून्य सम्पाद और बसवेश्वर के वचनों का कन्नड़ काव्य से हिन्दी काव्य में रूपान्तर किया जो कर्नाटक विश्वविद्यालय धारवाड़ से प्रकाशित भी हुए।
इसी समय उपन्यास संसार में भी मैंने प्रवेश किया। उपन्यास लिखे पर शीघ्र प्रकाशित नहीं हो सके। 1987 में पहला उपन्यास ‘अम्बर’ प्रकाशित हुआ। 1991 में ‘अपने-अपने द्वेष’ और ‘प्यार का गणित’। उसी वर्ष ‘कैक्टस’ चौथा उपन्यास निकला। 1993 में ‘अनकही अनसुनी’। दो कहानी संग्रह ‘तलाश’ और ‘तस्वीर के टुकड़े’ 1994 में आए। 1995 में ‘सधे क़दम’, ‘1996 में ‘क्या खोया क्या पाया’, ‘1998 में ‘एक और दुष्यन्त’, 1999 में ‘सफ़र’ दो लघु उपन्यास जिनमें एक टालस्टाय के उपन्यास के आधार पर है और उसी के नाम पर उपन्यास का नाम ‘सफ़र’ पड़ा। दूसरा उपन्यास ‘ज्वालामुखी’ निकला। 2000 में ‘कभी न बुझती चिंगारी’—यह वर्तमान उपन्यास लिखा। इस तरह अब तक दस उपन्यास और दो कहानी संग्रह लिखे हैं।

1984 में कर्नाटक विश्वविद्यालय से मैंने रीडर बनकर अवकाश प्राप्त किया और युनिवर्सिटी ग्राण्ट्स कमीशन (U.G.C.) से पाँच वर्ष का फैलोशिप लिया। एक विशाल ग्रन्थ ‘कालिदास और सुमित्रानन्दन पन्त की नारी’ लिखा। इसे प्रकाशित करने के लिए सरकार ने पचास हजार की राशि भी स्वीकार की पर कोई प्रकाशक इसे प्रकाशित करने के लिए उनके दिए समय में मुझे नहीं मिल पाया। अतः आज भी वह अप्रकाशित है।
इस लेखन-यात्रा में मेरे अनगिनत साथी रहे। बचपन से लेकर आज तक जिस-जिस का भी मुझसे संपर्क रहा, कुछ न कुछ सामग्री व्यक्त या अव्यक्त रूप से मुझे प्रदान करता रहा—चाहे घटना सुनाकर, चाहे किसी विषय में अपना दृष्टिकोण बताकर। इस तरह सहयोग सभी का मिला अन्यथा जो मैं हूँ वह न बन पाती।
दूसरों को मेरे उपन्यास कैसे लगते हैं, पता नहीं। मैंने कभी जानने का प्रयत्न नहीं किया। ‘काने को कौन सराहे, काने की महतारी’—मेरे परिवार वाले ही दो शब्द कह देते हैं। उसी से मैं कृतार्थ हो जाती हूँ। मेरी बड़ी भाभी बड़े चाव से मेरे उपन्यास पढ़ती हैं और पकड़ भी लेती हैं मैंने किस पर लिखा। वे भी कॉलेज में हिन्दी पढ़ाती थीं। आज वे 82 वर्ष की हैं पर बड़े गर्व से कहती हैं हमारे परिवार में भी कोई लेखक है। मेरी सबसे बड़ी बहन 86 वर्ष की हैं। मेरी पुस्तकें पढ़कर बहुत प्रसन्न होती हैं और कहती हैं कि कैसे लिख लेती हो यह सब ?

मेरे पति बहुत प्रफुल्लित होते थे और बड़े चाव से मेरे उपन्यासों और कहानियों को पढ़ा करते थे। खूब हँसते थे। जब उन्हें समझ में आ जाता था किसी घटना को पढ़कर कि कहाँ से किस पर लिखा है। उनकी बताई बहुत-सी घटनाएँ मेरे कथानकों में आई हैं। वे कितना आनन्दित होते थे, उनका वह हँसता, प्रफुल्लित मुख आज भी मुझे नहीं भूलता।
आज वे नहीं हैं पर उनका प्रोत्साहन आज भी सजीव है। मन ही मन उनकी याद कर आज भी लिखने की प्रेरणा उनसे पा रही हूँ। मेरे 76 वर्ष हो गए हैं। कितना और लिख पाऊँगी पता नहीं, पर चाहती हूँ कि जब तक रहूँ लेखनी न रुके।

मुझे कुछ कहना है


कबीर कहते थे;
निन्दक नियरे राखिए
आँगन कुटी बनाय
आज के नवयुवक नवयुवती कहते हैं आलोचना बन्द करो, हम जैसे हैं वैसे ही हमें स्वीकार करो। पुराने लोग कहते थे—लाइन में रहो, जैसा बड़े कहते हैं वैसा करो। आज का मन्त्र है—अपनी पहचान बनाओ, लाइन से हटकर चलो, व्यक्तित्व का उत्कर्ष तभी होगा।
प्रत्येक युग का एक धर्म रहता है। प्राचीन धर्म प्राचीन बुजुर्गों का विश्वास था। अनुशासन उनका मूल मन्त्र था सबसे बड़ा सबसे अधिक अनुभवी का सब पर प्रभुत्व था। आज्ञाकारिता मूल स्तम्भ था। आज का धर्म आज़ादी है। आज़ादी—पूरी आज़ादी, कोई रोक-टोक नहीं। हरेक का कारण जानो, ठोक-बजाकर अपनी बुद्धि का प्रयोग कर काम करो, दूसरों के कहने से नहीं। आज यदि अनुशासन कहीं बचा है तो सेना में। तो परिणाम भी सर्वत्र दृष्टिगत है। कोई नियम नहीं कोई, सीमा रेखा नहीं। अपना काम मारपीट, विद्रोह, तोड़-फोड़, किसी भी मार्ग को अपनाकर करो। पार्लियामेण्ट से सड़क तक का यही धर्म है।
यह वायरस परिवार में भी घुस गया है। कोई बच्चा तक जैसा कहो वैसा करने को प्रस्तुत नहीं। ‘क्यों’ सबकी प्रथम प्रतिक्रिया है। हरेक को अपनी वैल्यू चाहिए। पॉवर स्ट्रगल घर में भी घुसपैठी बन गया है। अतः शीतयुद्ध का माहौल—सब अपने-अपने पैंतरे उचित अवसर पर दिखाते रहते हैं। आज के समाज की अनगिनत गुत्थियों का कारण यही है—अनुशासनहीनता। अतः पटरी से गाड़ी सरकती रहती है। फिर से पटरी पर लाने के लिए जी-तोड़ परिश्रम चाहिए। वह भी तब जब विश्वास हो कि हम ग़लत हैं। अपनी पहचान बनाने की कोशिश चाहे उत्कर्ष की सीढ़ी हो पर सरल विश्वास भरे प्रणय में लवलीन हो जाने वाले आनन्दों से कोसों दूर मृगतृष्णा है।
चूँकि स्वार्थपरता आज का धर्म है। अनुशासन और आज्ञाकारिता लुक-छिपकर रहने लगी है। सर्वत्र असन्तोष का बोलबाला है। जिसके पास जो है उससे वह संतुष्ट नहीं। आकांक्षाएँ द्रौपदी का चीर बनती जाती हैं। यही असंतोष परिवार में ईर्ष्या, द्वेष, कलह की कभी न बुझती चिनगारी अन्दर ही अन्दर सोती-जागती, दबती, ढकती, सुलगती रहती है। जहाँ चिनगारी है वहाँ धुआँ है। जहाँ धुआँ है वहाँ आग है और आग का धर्म है जलाना। यदि बचना है तो एक ही विकल्प है, एक ही मार्ग है, सन्तोष, आन्तरिक संतोष।
कभी न बुझती चंगारी

1


और फिर एक दिन जिसकी तिलमात्र भी आशा न हो, एक घटना हो जाती है जो सारे जीवन की धुरी को बिल्कुल दूसरी दिशा दे देती है। और फिर एक दिन वह घटना जो जीवन की सबसे बड़ी अहं थी जीवन से ऐसी निकल जाती है जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो। कुछ शेष नहीं बचता, जैसे कागज़ पर लिखा सब वर्षा के जल से धुल गया हो। कोरा कागज़ मात्र रह जाता है। इस कोरे कागज़ पर फिर कुछ लिखने का प्रयास किया जाता है और फिर एक दिन यह विश्वास नहीं होता कि जो पहले लिखा था वह सत्य था या आज जो लिखा है वह सत्य है।
घटनाओं का क्रम कभी नहीं रुकता। इनके संकलन का दूसरा नाम जीवन-यात्रा है। आश्चर्य नहीं कि एक के जीवन की घटनाएँ दूसरे से मेल नहीं खातीं। अतः जीवन-यात्रा की विभिन्नता इस संसार की विशेषता है।

रोमांस सबके जीवन में आता है पर एक द्वार से नहीं। किसकी कौन-सी चीज़ सामान्य से सामान्य ही क्यों न हो, किसको कहाँ छू देती है कि हृदय हिलोरें लेने लगता है। यह बुद्धि की समझ के बाहर की बात है। पर दो व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो सदा इसी आकर्षण से घिरे रहते हैं और उनका पूरा जीवन रोमानी ही रहता है। उनके लिए यह आकर्षण सदा चटनी-सा थोड़ा ज़ायका लेने मात्र का है पर उनकी पत्नियों को इसमें सदा ख़तरे की घंटियाँ सुनाई देती रहती हैं।
ऐसे व्यक्ति दो हैं—एक डॉक्टर और एक प्रोफेसर। दोनों के जीवन में सेवा भावना मुख्य रहती है। समाज के दायित्व का बहुत बड़ा भाग इनके जीवन से जुड़ा रहता है। अतः वे बहुत समझदार, गम्भीर, मननशील और कर्तव्य में ईमानदार होते हैं। परन्तु उनकी परिस्थिति और वातावरण उनको अछूता नहीं रख पाती। डॉक्टर सदा नर्स से सम्बद्ध रहते हैं जो उनके निर्देश के अनुसार रोगियों की देखभाल करती है। डॉक्टर का सम्पर्क रोगियों से भी रहता है। अतः उनके जीवन में विविधता भी सदा रहती है। अक्सर रोगियों का इलाज करते-करते स्वयं हृदयरोगी भी बन जाते हैं। कभी-कभी यह आकर्षण बड़ा तूल पकड़ लेता है। लखनऊ के एक हृदय स्पेशलिस्ट डॉक्टर अपने एक रोगी का इलाज करते-करते उसकी पुत्री को अपना दिल दे बैठे और दोनों की भावनाएँ तूल पकड़ती गईं। इधर लड़की ने सुना डॉक्टर किसी और लड़की से भी प्रेम करने लगा है तो क्षुब्ध होकर, जब वह उसके पिता को देखने आया तब उसे पिस्तौल से मार दिया। लड़की महिला विद्यालय में बी.ए. की छात्रा थी और मुस्लिम थी। डॉक्टर हिन्दू था और विवाहित भी। समाचार पत्रों में बड़ी सुर्खियों के साथ यह घटना छपी थी। लड़की को हिरासत में ले लिया गया। लगता था हिन्दू-मुस्लिम ऐक्ट हो; हो जाता भी शायद। कैसे लड़की रिहा कर दी गई और केस दबा दिया गया, आज तक पता नहीं।

इसी सेवा भावना के अटूट रहने के कारण अक्सर वे पत्नी और बच्चों की उपेक्षा कर देते हैं यह भी सत्य है। उनकी पत्नियों का असंतोष न मालूम कितनी घटनाओं को मोड़ देता है। इसी कारण डॉक्टर लड़कियाँ डॉक्टर युवक से विवाह करने में कतराती हैं।
प्रोफेसरों का भी जीवन कुछ-कुछ ऐसा ही है। कितने ही प्रोफेसर अपनी छात्राओं के साथ विवाह कर लेते हैं। छात्राएँ अपने अध्ययनशील प्रोफेसरों पर ऐसे लट्टू होती हैं कि उन्हें कुछ दिखाई ही नहीं देता। वर्ग-भेद, जाति-भेद, उम्र का अन्तर, धर्म की विभिन्नता—सब इस आकर्षण के आगे नगण्य हो जाती हैं। आकर्षण दोनों ओर से होता है पर ठहराव, स्थिरता, गम्भीरता दोनों के हृदय में समान नहीं रहती। आवेश समाप्त होते ही हलचल भी समाप्त हो जाती है। अतः वह सरसता और रसिकता भी नहीं रहती। उसको प्रज्जवलित करते रहने का प्रयास शोभनीय है परन्तु एक-दूसरे के कर्म-पथ पर विचार करना भी अनिवार्य है। यहीं पर तरह-तरह की धारणाएँ जन्म लेती हैं। विश्वास टूटता है, भ्रान्ति उत्पन्न होती है और जीवन एक नया मोड़ ले लेता है, जो कभी सुखद और कभी दुःखद सिद्ध हो जाता है।

प्रोफेसर अनिरुद्ध माथुर ऐसी ही एक घटना का शिकार हो गए। वैसे वे बहुत मेधावी, अपने विषय में पारंगत, गम्भीर मननशील और कर्तव्यपरायण थे। छात्र-छात्राओं की अध्ययन सम्बन्धी कठिनाइयों को दूर करते-करते विभिन्न विषयों पर व्याख्या में ऐसे जुट जाते थे कि समय का ध्यान ही उन्हें नहीं रहता। अपनी आवश्यकताओं को भी वे एक किनारे रख देते थे। मानी हुई बाती थी वे बहुत लोकप्रिय थे। छात्र-छात्राएँ उन्हें सदा घेरे रहते थे। उनकी एक छात्रा शोपोन बनर्जी उनके नीचे शोध-कार्य कर रही थी। बोलने में बहुत मुँह गोल-गोल करना पड़ता था जो उन्हें रुचिकर नहीं था, अतः वे उसे सपना पुकारता थे। यह कब प्रणय में बदल गया दोनों ही इससे बेख़बर थे। कदाचित् दोनों की अध्ययनशीलता उनको निकटस्थ लाती गई और दोनों को लगा कि वे दोनों एक-दूसरे के अच्छे सहचर बनेंगे। विचार निर्णय में बदल गया और दोनों को पति-पत्नी का रूप मिल गया।
सपना का शोध-कार्य पीछे रह गया। वह अनिरुद्ध की पुस्तकों की मूल प्रतियाँ तैयार करतीं, प्रकाशन को भेजती, प्रकाशित प्रतियों में शुद्धि करती और उनको अन्तिम रूप देती। प्रारम्भ में उसे यह सब बहुत अच्छा लगता था। एक जोश, एक उमंग और एक उत्साह था। परन्तु दो पुत्रियों के आगमन ने उसका जोश ठंडा कर दिया। सोनल और नेहल की देखरेख ने उसका नितान्त समय ले लिया और वह खिन्न रहने लगी।

अनिरुद्ध की दिनचर्या में कोई अन्तर नहीं आया। सपना उसके सम्मुख उसकी आवश्यकताओं का सदा ध्यान रखती थी। यह दूसरी बात है जो उसकी रुचि और प्राथमिकता थी, अब वह पीछे चली गई। अनिरुद्ध पहले भी व्यस्त रहते थे, इधर सपना के हाथ बंटाने की असमर्थता ने उन्हें दुगुना व्यस्त कर दिया। परन्तु इससे अनिरुद्ध के स्वभाव में कोई अन्तर नहीं आया।
मार्ग दोनों के विभिन्न पड़ गए। एक-दूसरे को समय देने में कमी आने लगी। अनिरुद्ध ने इसका बुरा नहीं माना। बच्चियाँ उसकी भी थीं। वह सपना की विवशता समझता अवश्य था। जल्दी ही बच्चियाँ बड़ी हो जाएँगी और सपना फिर पहले की तरह उसके कामों में हाथ देने लगेगी, उसने सोचा। अभी उसे क्या करना चाहिए, सपना उसकी क्या सहायता करती है—इस पर उसका ध्यान नहीं गया।
इधर एक नृत्याँगना ने छात्रा के रूप में उसके विभाग में प्रवेश किया। आकर्षण था कि नहीं यह कहा नहीं जा सकता पर अपने स्वभाववश उसकी सहायता करने को वह तत्पर हो गया। पूर्वी एक ‘बार’ में सायंकाल के सात बजे से रात्रि के ग्यारह बजे तक नृत्य करती थी। उसकी जीविका का यह आधार था। उसने अनिरुद्ध से प्रार्थना की कि वह प्रतिदिन उसकी क्लास में उपस्थित नहीं हो सकती। अतः सप्ताह में एक बार किसी भी दिन जब भी वह कहे उसके घर आ जाया करे या वह उसके घर जाकर पड़ा दे, जिससे वह एम.ए. पास कर ले। इसके लिए वह कितनी भी राशि देने के लिए प्रस्तुत है।

पूर्वी हँसमुख और सुन्दर युवती थी। सपना भी उससे कई बार मिली थी और उसके जीवन की कठिनाइयों से परिचित भी थी। उसके पिता संगीत के कलाकार थे। उन्होंने ही सपना को प्रारम्भिक शिक्षा दी थी। अतः संगीत सपना की रग-रग में समाया हुआ था। अपने स्कूल के वार्षिकोत्सव में सपना भी नृत्य करती थी। फलतः पूर्वी से उसका विशेष अनुराग था। पूर्वी को नृत्य की शिक्षा विरासत में माँ से मिली थी। माँ-बाप का प्रेम विवाह था। दोनों संगीत से अनुराग रखते थे और अपनी कला से दर्शकों को मुग्ध करा देते थे। माँ की मृत्यु से पूर्वी को आघात अवश्य लगा पर पिता की प्रसन्नता के लिए उसने अपने सुख पर सदा के लिए सरल मुस्कान ओढ़ ली। वह छोटे भाई-बहनों की देख-रेख भी करती और स्कूल भी जाती थी। अचानक एक दिन पिता भी छोड़कर चल बसे। पूर्वी भाई-बहनों को सामने देखकर खुलकर रो भी नहीं सकी। पैसों की बहुत आवश्यकता थी। कैसे भी उसने बी.ए. की परीक्षा दी और उसमें वह अच्छे नम्बरों से पास हो गई। ‘बार’ में नृत्य करना उसे अच्छा तो नहीं लगता था पर इसमें उसे अच्छे पैसे मिल जाते थे जिससे सबका जीवन सुचारु ढंग से चल जाता था। अतः छोड़ने का साहस भी वह कभी नहीं कर सकी। अब एम.ए. करने के पश्चात् हमेशा के लिए तिलांजलि दे देगी। ऐसा उसने संकल्प किया था। वह अध्यापन की लाइन पकड़ लेगी और साथ-साथ एम.फिल. भी कर लेगी। साथ ही विवाह कर घर बसाने की लालसा भी उसमें अंगड़ाई ले रही थी। वह सपना से खुल कर बात करती थी। अनिरुद्ध के प्रति उसके हृदय में अपार श्रद्धा थी और उनकी प्रशंसा करते-करते उसकी जीभ नहीं थकती थी। सपना हँस पड़ती थी और ठोंगे मारकर कहती—‘कहे तो तेरे लिए अपनी सीट खाली कर दूँ।’ पूर्वी कानों पर हाथ रख लेती—‘ऐसा मज़ाक मुझे पसन्द नहीं, फिर कभी ऐसा मत कहना, अन्यथा मैं यहाँ नहीं आऊँगी।’

‘‘छो़ड़ ! मैं तो हँस रही थी। ये केवल मेरे ही हैं, मेरे ही रहेंगे। छात्राएँ तो जीवनभर आती ही रहेंगी।’’
बात कुछ भी नहीं थी। सन्देह की गुंजाइश भी नहीं थी। सपना स्वयं छात्रा रह चुकी थी और अनिरुद्ध का स्वभाव जानती थी कि पढ़ाते-पढ़ाते वह अपने में ही डूब जाता था और घड़ी की सुई कहाँ से कहाँ पहुँच गई, उसे पता ही नहीं चलता था।
सब कुछ जानते हुए भी एक तरह का असंतोष उसके हृदय में उत्पन्न हो गया। उसे लगने लगा कि अनिरुद्ध उसकी उपेक्षा करने लगा है। उसमें अब उसकी पहले वाली रुचि नहीं रही। उसके अन्दर भी एक भावना जगने लगी कि घर के बाहर जाकर वह भी कोई काम करना प्रारम्भ करे जिससे उसे नये साथी मिलें, जिनसे थोड़ी देर हँस-बोलकर वह अपने जीवन में कुछ ताज़गी अनुभव कर सके।

अनिरुद्ध का ध्यान इस बात पर नहीं गया हो, ऐसी बात नहीं थी। परन्तु उसने इसे विशेष महत्त्व नहीं दिया। उसने इसे गृहस्थी की नीरस दिनचर्या समझा। अतः एक दिन जब उसने अपने मन की इच्छा व्यक्त की कि वह कॉलेज में लेक्चरर के पद के लिए आवेदन-पत्र भेजना चाहती है तो उसने मना नहीं किया, बल्कि इसके विपरीत उसे काम दिला भी दिया। दोनों अपनी-अपनी दिनचर्या में लग गए। व्यस्तता में एक फ़ासला भी दोनों के बीच कब आ गया, दोनों ही जान नहीं सके। सपना ने महसूस करना प्रारम्भ कर दिया कि अनिरुद्ध को मेरी अब परवाह नहीं है। अब उसे मेरी जरूरत नहीं रही। मैं घर में रहूँ-न-रहूँ, उसे कोई अन्तर नहीं पड़ता।
अनिरुद्ध उसकी हर हालचाल से अनजान था। उसने सोचा, सपना को खुली हवा मिल गई। घर की चाहरदीवारी से बाहर निकलकर नये वातावरण में वह प्रसन्न है। उसकी व्यस्तता को उसने ताजगी का नाम दिया। उसने शिकायत भी कभी नहीं की कि तुम्हारे पास मेरे लिए अब समय नहीं है। उदारता का उसने आश्रय लिया। इस उदारता में उसने सपना को छूट दी—स्वतन्त्रता, मन की करने की। पर इसे सपना ने दूसरे ही अर्थ में लिया—अपनी उपेक्षा, अपनी महत्त्वहीनता।


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