सामाजिक >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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निःसंगता फिर भी सहनीय है अगर कम से कम आसपास लोगों की बस्ती होती। खिड़की के पास खड़े-खड़े राह चलते लोगों को देखती। जीवन का स्वाद पाती। परन्त मिंटू के भाग्य में निःसंगता के साथ निर्जनता भी लिखी है। बहुत बड़े-बड़े अहातों में एक-एक क्वार्टर बने थे। एक बंगाली तो क्या एक इन्सान तक को देखने के लिए तरस जाओ।
जो सब काम करनेवाले हैं, जैसे बर्तन माँजने आती है बुढ़िया 'आप्पा माँ', रसोई बनाने और घर के और सब काम के लिए है 'वेंकटेश्वर', माली 'तिम्ना', उनकी एक भी बात मिंटू समझ नहीं पाती है। खाना वह खुद ही पकाती है।
किंशुक ने कहा था, “उसे ज़रा सिखा विखा दो तो.”
गम्भीर भाव से मिंटू बोली, “किस भाषा में यह शिक्षा का क्लास खोला जायेगा?
और इसी भाषा की डोर को पकड़कर एक दिन खुली आवाज़ में खुलकर ही कह बैठी, “वहुत कीमती एक दूल्हा क्या मिला है मेरी तो हालत हो गयी है निर्वासन दण्ड से दण्डित एक कैदी के जैसी। ओफ़ ! इससे तो मेरे लिए 'क्लर्क मात्र' मोहल्ले का लड़का ही ठीक रहता। एक घरेलू किस्म की लड़की, उसी तरह से रहती। कम से कम मातृभाषा बोलने का अवसर तो मिलता।"
किंशुक ने सुनकर आश्चर्य से बड़ी-बड़ी आँखें निकालते हुए कहा, “ऐं ! इसमें पड़ोसी लड़के की घटना भी लिपटी-चिपटी थी क्या?"
मिंटू बेझिझक बोल उठी, “क्यों नहीं रहेगी? थी ही तो। जन्म से देख रही थी, दोस्ती थी, प्रेम-मोहब्बत थी, अत्यन्त सज्जन लड़का था, बस उसका कसूर यही था कि निहायत ही क्लर्क मात्र बनकर रह गया। उसके इसी दोष के कारण पिताजी ने उसे 'जा भाग' कहकर भगा दिया। भगा देते क्यों नहीं? उस वक्त उनके हाथ में तुम्हारे जैसी दौलत जो थी।"
किंशुक ने पूछा था, "सच्ची बात है?
“सन्देह हो रहा है? क्या दुनिया में ऐसी घटनाएँ घटती नहीं हैं?” मिंटू बोली।
"इसमें क्या नयी बात है? हमेशा से सुनते आ रहे हैं बाल्यप्रेम अभिशप्त होता है
"मिंटू !"
"बोलिए साहब।"
"इस बात को सुनकर अपने को अपराधी महसूस कर रहा हूँ।”
“लो, तब तो मैंने बड़ा गड़बड़ कर दिया। बताकर बड़ी भूल कर दी। तुम तो बिना दोष किये ही दोषी बन रहे हो।"
असल में मिंटू ने चाहा था कि किंशुक को वह सब कुछ बता देगी। कुछ भी नहीं छिपायेगी। अगर जिन्दगी इस ढाँचे में ढल ही गयी तो उसमें कोई ऐब क्यों रहे?
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