सामाजिक >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
उदय ने अवहेलनापूर्वक हँसते हुए कहा, “क्या सभी उसकी बात मानेंगे?"
“मानेंगे रे मानेंगे।"
सुकुमार उठकर बैठ गया। जैसे उसके सामने सैकड़ों की तादाद में श्रोता बैठे हों, इस तरह से ऊँची आवाज़ में बोला, “वे तो दुनिया को बदल डालने के लिए ही आयेंगे।"
उदय ने और ज्यादा अवज्ञा दिखाते हुए कहा, “लोगों का क्या दिमाग खराब हुआ है जो ये सब सुनेंगे? कहते हैं कि भगवान ही हार मान गये। दस-दस बार आये गये-सब बेकार हो गया। और एक मामूली आदमी दुनिया बदल डालेगा?
"देख उदय, इन्सान मामूली या तुच्छ नहीं होता है। अगर इन्सानों जैसा इन्सान हो तो वह भगवान से भी ऊपर उठ सकता है..."
“अगर न? हुँ।"
बोधबुद्धिहीन और अपनी कही बातों के वज़न से अनभिज्ञ, ज्ञानहीन लड़का अनायास ही सुकुमार को झुठलाते हुए बोल उठा, “अगर की बात नदी में डालो। तुम भी भइयाजी, और तो कोई काम है नहीं। बैठे-बैठे आलतू-फालतू बातों में डूबे रहते हो। सारी दुनिया के लोग कहीं एक आदमी के कहने भर से रातोंरात 'अच्छे' बन सकते हैं?" कहते-कहते उठकर जाने लगा।
“पागल और किसे कहते हैं।"
सुकुमार उस छोटे-से लड़के की इस युक्ति पर कुछ कह नहीं सका। चुपचाप थोड़ी देर देखने के बाद फिर लेट गया।
इस बदतमीज़ लड़के को न तो तमीज़ सिखाया जा सकता है, न डाँटा जा सकता है।
कुछ कहने चलो तो फ़ौरन कह बैठेगा, “यह रहा तुम्हारा घर-द्वार। उदय के लिए फुटपाथ है।"
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