सामाजिक >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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घर अच्छा है।
खुला, हवादार।
बूली और उदय केप्टो चाचा के साथ वरामदे में खाने बैठे। मोटा चावल, शील मछली, पोई साग की चच्चोड़ी और आँवले की चटनी खाकर बड़ा अच्छा लगा।
उदय ने पूछा, “बाप यहाँ आकर झमेला तो नहीं करता है?"
“यह है कि ...नहीं तो?"
निर्मला और केष्टो एक बार अर्थपूर्ण दृष्टि से एक दूसरे की तरफ़ देखते हैं।
लेकिन तब तक बूली बोल पड़ती है, “बाबा अब आताबागान में रहता कहाँ है?
“ताड़ी की दुकान के मालिक ने सिर फोड़ दिया है बावा तो इस समय जेल में बन्द है।"
“ऐं ! अभी तक यह बात बतायी क्यों नहीं थी?"
निर्मला उदास होकर बोली, “ऐसी क्या खुशखबरी है जिसे सबसे पहले बताने बैठ जाती?"
उदय अचानक ही-ही करके हँसने लगा, "तब तो अब उदय का परिचय है 'जेल गये बाप का बेटा'। मैं पूछता हूँ क्या अच्छा बनने का मैंने ठेका लिया है? हैं ! बोलो? खैर जाने दो।” उठकर खड़ा हो गया !
निर्मला जल्दी से बोली, “अरे खाना खाते ही कहाँ चल दिया?"
“जहाँ रहता हूँ।”
निर्मला का चेहरा सफेद पड़ गया।
“यहाँ नहीं रहेगा?
"नहीं-नहीं। खाने को कहा, खा लिया। उदय बन्धन में बँधनेवाला नहीं।"
रास्ते तक बूली पीछे-पीछे भागती चली आयी, “फिर नहीं आयेगा दादा?"
"न।"
“ए दादा ! रह जा न रे?" उदय एक मिनट के लिए रुका।
अपनी छह-सात साल की बहन की तरफ़ देखकर बोला, “क्यों रहूँ? यह क्या मेरे बाप का घर है? मर्द लोग ऐसे घरों में नहीं रहते हैं।"
लम्बे-लम्बे डग भरता चला गया।
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