सामाजिक >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
ब्रतती ने माँ की तरफ़ देखा, माँ के चेहरे पर प्रसन्नता, परितृप्ति की स्निग्धता विराज रही थी। थोड़ी देर पहले वह उदास होकर किसी को कुछ कह रही थीं, वह बात अब उनके चेहरे पर नहीं थी।
ब्रतती ने जैसे माँ को नये सिरे से देखा।
देख-देखकर अवाक् होने लगी।
तो क्या माँ गृहस्थी की दूसरी परिस्थिति में ज़्यादा सुखी हैं?
सोचते हुए कष्ट हो रहा था फिर भी सोचा उसने।
सोचे बगैर उपाय नहीं था। बड़ा ही स्पष्ट और प्रत्यक्ष था। गृहस्थी के इस हाल ने जैसे माँ में कर्मशक्ति कूट-कूट कर भर दी थी। पहले लगता था माँ बूढ़ी हुई जा रही हैं लेकिन अब ऐसा नहीं लगता है। नये सिरे से सब कुछ ठीक कर रही थीं, सजा-सँवारकर रख रही थीं। चौका, भण्डार सब व्यवस्थित कर रही थीं।
चारों वक्त नये-नये पकवान, नयी सब्जियाँ। चाचा की पसन्द का हर खाना जैसे अभी बनाकर खिला देना था।
खूकू बबुआ को प्रयोजन से अधिक प्यार देकर हैरान कर रखा था उन्होंने। काम ख़त्म हुआ नहीं कि पूछतीं, “अरे तू पढ़ चुकी खूकू? आ कहानी सुनाऊँ।"
माँ ही जायेंगी उन्हें खिला-पिलाकर सुलाने, उनकी मसहरी टाँगने, रात को प्यास लगे तो पानी पीएँगे, इसलिए पीने का पानी भी वही रख आयेंगी।
चाचा जितना भी कहते, “भाभी, यह सब काम तो मैं ही करता था।"
माँ उतना ही कहतीं, “तुम चुप तो रहो। यह सब काम क्या मरदों का है?"
माँ के गले की आवाज़ में खुशी की झलक रहती।
ब्रतती गहरी साँस छोड़ती। न, उसे माँ पर गुस्सा नहीं आया। वितृष्णा भी नहीं हुई। हुई करुणा।
सुनीला को जमकर घर चलाने का बड़ा शौक़ है।
'प्रयोजनीय' बनने की बड़ी लालसा है।
आज तक वही लालसा अपूर्ण थी।
ब्रतती के लिए तो उनका प्रयोजन समाप्त हो गया था।
और गृहस्थी में?
वहाँ ही क्या रह गया था?
बनायेंगी, खिलायेंगी, आदर जतन करेंगी, है क्या ऐसा कोई?
अब तो जैसे किसी भूमिहीन कृषक को मुफ्त में सहसा एक ज़मीन का टुकड़ा मिल गया है।
चेहरे पर उसी प्राप्ति की छाप न रहेगी क्या?
चेष्टाकृत विषण्णता और कष्ट कल्पित स्मृतिचारण से क्या इस छाप को ढका जा सकता है?
परन्तु ब्रतती का इस वातावरण में जी घबराने लगा।
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