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न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

प्रवासजीवन कहते, “अच्छा बाबा अच्छा-अब चुप हो जाओ।"

आँखों के सामने तो देख रहे थे प्रवासजीवन कि इस युग के न्याय-अन्याय के मापदण्ड और उनके समय के मापदण्ड में बहुत फ़र्क है। फिर भी साहस जुटाकर न्याय के पक्ष में कुछ बोल नहीं पाते हैं।

अन्याय तो हो ही रहा है।

इस युग में 'नौकर' नहीं कहा जाता है। ऐसा कहना अमानवीय है। इसीलिए कहा जाता है ‘काम करनेवाला'-इसीलिए उन्हें काम करने का यन्त्र समझा जाता है। उनके पास हृदय है, सुख-दुःख का बोध उनमें भी है, मान-अभिमान वे भी कर सकते हैं।

इन बातों का ख्याल कोई नहीं करता है। उनके अभिमान को उनका दुस्साहस समझा जाता है। बदमाशी कही जाती है।

रह-रहकर उत्तेजित दिव्य आकर प्रवासजीवन को उनके लाड़लों की शिकायत सना जाता है। वह उन्हें परोक्ष रूप से समझा जाता है कि ये काम करनेवाले उन्हीं के सिर चढ़ाने के कारण इतना बिगड़ गये हैं।

हाँ, दिव्य ही आकर ये सब सुना जाता है। चैताली के मुंह से तो आवाज़ तक नहीं निकलती है।

खैर, प्रवासजीवन तो दृढ़तापूर्वक इस समय न्याय का पक्ष नहीं ले सके? इन लोगों के विरुद्ध? वाप रे ! डर के मारे जान निकली रहती है।

बोल उठते, “ओह ! जितने पुराने हो रहे हैं उतने ही सिर पर चढ़ते जा रहे हैं। छुड़ा दो पता चल जायेगा कि कितने सुख की नौकरी कर रहे थे।"

यह कहते न बना-“यह तो तुम लोगों के जबरदस्ती है."

यह भी न कह सके- 'मैं तो थक चुका हूँ तुम लोगों की शिकायत सुनते-सनते. निकाल दो नन रखना चाहो, निकाल दो।'

हिम्मत नहीं होती है। जानते हैं इससे आग भड़क उठेगी।

आज के ज़माने में काम का आदमी पाना तो भगवान पाने के समान है। ये दोनों चले गये तो चैताली को बड़ी तकलीफ़ होगी। तब शायद प्रवासजीवन को ही सुनना पड़ेगा-उन्होंने जानबूझ कर ही नौकरों को निकाल दिया है जिससे चैताली को असुविधा का सामना करना पड़े।

डर ! न जाने क्यों सर्वदा ऐसे भय के बीच उन्हें रहना पड़ता है यह वह स्वयं नहीं जानते हैं।

अच्छा प्रनति के समय में प्रवासजीवन क्या इसी तरह भयभीत रहा करते थे?

अब क्यों इतना डरते हैं? क्यों अधिकारहीनता प्रकट करते हैं? क्यों न्याय का पक्ष नहीं ले पाते हैं?

इसीलिए वे कह न सके, “लाबू ने शायद इस दृष्टिकोण से सोचा ही नहीं था, दिव्य। सोचा होगा, मकान उसके प्रवास भाई का है। कमरों की भी कमी नही है।"

ऐसा न कह सके।

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