सामाजिक >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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ब्रतती ने घर में घुसते ही देखा, परिस्थिति कुछ और है। दरवाज़े पर एम्बुलेंस खड़ी थी। उसमें से साड़ी से ढके दो पाँव दिखायी दे रहे थे। चाचा रुआँसे एम्बुलेंस पर चढ़ने जा रहे थे। ड्राइवर चढ़ चुका था।
स्तब्ध रह गयी, “बात क्या है?" "भीतर जाओ, माँ से सुनना।” कहकर चाचा ने धोती के कोने से आँखें पोंछ लीं।
एम्बुलेंस चली गयी।
भीतर जाकर देखा-माँ चाचा के दोनों बच्चों को छाती से चिपटाये बैठी हैं। उनकी आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे।
ब्रतती उनके पास जमीन पर ही बैठ गयी। बोली, “माँ, क्या बात है?"
माँ बिलख उठीं, “तेरी चाची शायद चल दी रे तूतू। अब क्या वह लौटेगी?”
दोनों लड़के लड़की भी रोने लगे।
ब्रतती ने लगभग डाँट लगाते हुए कहा, “ओहो, बड़े आश्चर्य की बात है। क्या हुआ है कुछ तो बताओगी? चाची को हुआ क्या है?
माँ सिर पीटते हुए बोली, “जो कुछ हुआ है वह मैं इन लोगों के सामने कैसे कह सकती हूँ? सर्वनाशी लड़की है, सर्वनाश कर बैठी है।"
"ठीक है-बाद में ही बताना।” चिढ़कर ब्रतती उठी और कमरे में चली आयी। पीछे-पीछे माँ भी आ गयी। और दबी आवाज़ में बोली, “एक गड़बड़ी कर बैठी, तो हआ क्या? क्या किसी के इस उम्र में कुछ होता नहीं है? उम्र ही क्या है?"
"माँ। प्लीज़, ज़रा साफ़ साफ़ बताओ।"
“साफ़-साफ़ क्या बताऊँ। अभी उम्र ही क्या है फिर भी वह बच्चे नहीं चाहती थी। इसीलिए तुम्हारे चाचा से छिपाकर जाने कौन-सी दवा खा बैठी।"
“समझ गयी हूँ। अब बताने की ज़रूरत नहीं है।" और इस अग्निकुण्ड से बचने के लिए ब्रतती जल्दी से नहाने चली गयी।
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