सामाजिक >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
यह एक आवेदन-पत्र का खसड़ा था। कल रात को अन्त तक रुककर गौतम इसे लिखकर रख गया था। आवेदन नगरपालिका के अध्यक्ष के लिए था।
अपने ‘प्रतिष्ठान' (कुछ तो कहना ही होगा) के आदर्श और उद्देश्यों का संक्षेप में वर्णन करने के बाद समझाते हुए कहा गया था अगर यथार्थ में समाज से ऐसी अमानवीय व्यवस्था समाप्त करना ही है तो सरकार, जन साधारण और अन्य समस्त संस्थाओं को एक साथ मिलकर ही कोशिश करनी होगी।।
केवल मात्र बस्तियों को उजाड़ने और गैरक़ानूनी ढंग से यत्र-तत्र बनी झोंपड़ियों को उखाड़ने से गरीबी की रेखा से नीचे पड़े इन्सानों को आँखों के ओट से हटा देना ही क्या सब कुछ होगा? इन अभागों को यथायोग्य ज़रा-सा आश्रय ही अगर न दिया गया तो उनमें चेतना कैसे आयेगी? और अपने आप में चेतना न आयी तो ऊपर से थोपी गयी वक्तृता और कानून पास करना किसी काम का नहीं होगा।
गौतम की भाषा ज़रा असरदार थी इसलिए यह काम स्वयं ही उसने अपने ऊपर ले लिया था।
सौम्य इसी आवेदन-पत्र को पढ़ रहा था जब उसने खुले दरवाजे के सामने ब्रतती को देखा। उठने का सवाल ही नहीं पैदा होता था। सारी जगह तो दोनों तख्तों ने घेर रखी थी।
उसने सुना ब्रतती कह रही है, “अरे, जानी-पहचानी शक्ल लग रही है। तू आताबागान बस्ती की निर्मला का बेटा उदय तो नहीं?
"हूँ।"
“यहाँ इस तरह अकेला क्यों बैठा है?"
गँवारों की तरह लड़का बोल उठा, “बाप रे बाप, इत्ती बड़ी दुनिया में कहीं भी इत्ती-सी बैठने की जगा नहीं है ! हर कोई पूछेगा क्यों, किसलिए।..अ..”
ब्रतती ने कनखियों से एक बार सौम्य को देखा। आँख मिलते ही समझ गयी, यह सवाल पूछे जा चुके हैं। वह यह भी समझ गयी कि किन्हीं वजहों से लड़का क्षुब्ध होकर घर छोड़कर चला आया है। मुस्कराकर बोली, “तुझे देखकर लग रहा है तुझे बहुत भूख लगी है।”
“देखकर लग रहा है? आदमी को देखकर यह बात मालूम हो जाती है? माथे पर लिखा रहता है क्या?" कहकर लड़के ने फटी बनियान खींचकर आँखों के आगे कर ली।
ब्रतती बोली, “वाह, लिखा रहता क्यों नहीं है? लिखा नहीं रहता तो मैं जान कैसे पाती? खैर यहाँ तो रसोई-वसोई है नहीं। जल्दी से जाकर उस चाय की दुकान पर कह आ“तीन कुल्हड़ चाय और चार बिस्कुट।”
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