सामाजिक >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
प्रवासजीवन मानो किसी अनजानी दुनिया का किस्सा सुन रहे थे। दहेज़ देना लेना यद्यपि अनसुनी बात नहीं थी। लेकिन देबू के जैसे घर में? अनपढ़ एक नौकर मात्र ही तो है। उसकी इतनी क़ीमत?
धीरे से बोले, “तुम लोगों के घरों में इतना रुपया है?”
लापरवाही जताते हुए देबू बोला, “हमारे यहाँ कहाँ है? रहता तो क्या बाप के मरते ही आठ साल के लड़के को चाचा शहर में लाकर नौकरी करने को मजबूर करते? जमीन जो थी वह दोनों बहनों की शादी में निकल गयी है। माँ इतने दिनों से सुदिन की आस लगाये बैठी थी।"
प्रवासजीवन को याद आया, बहन की शादी में छुट्टी लेकर देबू घर गया था। लेकिन उस समय क्या प्रवासजीवन ने अपने को इतना असहाय पाया था?
प्रवासजीवन बोले, “और तेरी वह बुआ? जिनके लिए तूने बताया कि बारह चौदह हज़ार ... “
“सब कुछ जमीन ही से है बाबूजी। बाप-दादा जमीन छोड़ गये थे, उसी को बेच-बेच कर खा रही है। जमीन के भाव भी तो आसमान छूने लगे हैं। बीघे के भाव तो आजकल एक-एक मीटर जमीन बिक रही है।"
प्रवासजीवन ने कहा, “मेरी धारणा थी कि गाँवों में किसानों के घरों में लड़की का बाप ही पैसे पाता है। एक कहावत है, 'लड़की की माँ रोती जाये, रुपयों की पोटली बाँधती जाये'। तो....”
“वैसा पहले कभी था अब सब बदल गया है। अब तो पढ़ा-लिखा लड़का हुआ तो पूछिए मत। बीस हज़ार की माँग करते हैं। उस पर भी साइकिल, ट्रांजिस्टर..."
उत्तेजित होकर प्रवासजीवन बीच ही में बोल पड़े, “और न दे सके तो बहू को जलाकर मार डालेंगे। यही न?”
देवू पढ़ा-लिखा न सही, बातों से हारनेवाला नहीं। मुँह बिगाड़कर वोला, “यह वात तो विद्वान, पण्डित और पैसेवालों के घरों में ज़्यादा होती है। बहू मारने पर फाँसी का हुक्म हुआ। पैसे की ताकत पर छूट जाते हैं और फिर सीना तानकर घूमने लगते हैं।”
प्रवासजीवन अवाक रह गये। इनके बारे में कभी गम्भीरता से नहीं सोचा था-यही देबू, भूषण और उन जैसों के बारे में।
ये लोग तो अखबार भी नहीं पढते हैं। अधिकांश ही निरक्षर हैं किन्तु 'समाज प्रवाह' का इन्हें कितना ज्ञान है !
उठकर खड़े हो गये।
देबू ने पूछा, “थोड़ी देर और नहीं बैठेंगे?'
"नहीं, आसमान साफ़ नहीं दिख रहा है। आँधी आ सकती है। ...तो तू गाँव कब जायेगा?"
"चाचा तो कह गये हैं अगले महीने के बीचोंबीच। इस वक्त तो चैत चल रहा है। बैसाख के बीच में..."
प्रवासजीवन को लगा, उनके हाथों से जाने कैसी सम्पत्ति निकली जा रही है। भूषण की ओर से उतना डर नहीं है। वह शादीशुदा है। अक्सर गाँव जाया करता है। उस समय देबू चौका सँभालता है। खाना मुँह के पास ले जाते ही पता चल जाता है क्योंकि देबू का पाक-कला ज्ञान खूब प्रशंसा के योग्य नहीं। भूषण खाना अच्छा बनाता है।
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