सामाजिक >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
“क्या? अलका ने तुमसे ऐसा कहा?'
“अहा, अलका क्यों कहेगी, कहा तो है उसकी दीदी ने। पर हाँ तेरी घमण्डी चाची को मान-सम्मान गँवाकर बताना पड़ा है।"
ब्रतती समझ गयी कि दीदी के कहने की वजह से ही घमण्डी चाची को कितना नीचे उतरना पड़ा होगा।
माँ बेटी की चुप्पी को ‘सम्मति का लक्षण' मानकर उत्साह से भरकर बोलीं, "देख लेना, यह शादी हो जाने पर तेरे चाचा-चाची का मन भी पिघलेगा। फिर आयेंगे मेलजोल बढ़ाने। हुँ ! स्वार्थ है ही ऐसी चीज़। इस शादी के लिए भी लाख बार बातें करनी पड़ेंगी। क्यों, क्या कहती है तू?'
ब्रतती अँधेरे कमरे में भी माँ का आलोकित चेहरा देखने का प्रयास करती है। एक दीर्घ श्वास छोड़ते हुए बोली, “मुझे तुम्हारे लिए बड़ा दुःख होता है माँ और अपने लिए भी।”
“अरे ! यह कैसी बातें कर रही है?” सुनीला थूक गटकते हुए बोलीं। “इसमें दुःख की क्या बात है?'
“तुम नहीं समझोगी, माँ। पर मैं समझती हूँ कि सिर्फ़ मुझसे तुम्हारा मन नहीं भरता है।"
सुनीला बुद्धू है। फिर भी ...
सुनीला ठिठकीं। मन-ही-मन बोली, “मैं क्या तेरे मन की थाह पा सकती हूँ बेटी? उन्हें तो तब भी समझना आसान है तुम्हें तो समझ ही नहीं सकती हूँ। मुझसे ऐसे बातें करती है जैसे किसी बच्चे को बहला रही है। और वे लोग बरावरी से बातें करते हैं। यह मैं समझती हूँ फिर भी वे मुझे एक समूचा इन्सान तो मानते हैं।"
परन्तु सुनीला ने अपने को सँभाल लिया।
हताश होकर बोली, “लड़की सयानी हो जाती है तो माँयें शादी की बात करती ही हैं। उस पर अगर कोई खुद रिश्ता ले आये तो इन्कार क्यों करूँ? ठीक है। मैं कह दूंगी कि लड़की शादी के लिए तैयार नहीं।"
माँ दीवाल की तरफ़ करवट बदलकर लेट गयी।
ब्रतती ने हाथ बढ़ाकर माँ का आँचल खींचा और हँसकर बोली, “अभी कल या परसों ही तो रुई धुनी गयी थी ये सब प्रेम की बातें कब की?"
इसी को सुनीला ‘बच्चे बहलाने' जैसी बात कहती हैं। सुनीला चुप रहीं। चुप न रहें तो क्या करें? कुछ कहने चलेंगी तो रो न पड़ेंगी?
अलका ने जब से खुद-ब-खुद आकर शादी की बात की थी, मन-ही-मन बेचारी ने रंगीन तस्वीरें बनाना शुरू कर दिया था।
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