सामाजिक >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
|
2 पाठकों को प्रिय 349 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
ब्रतती ने और भी कुछ किस्से सुनाये। सभी का एक ही रंग था। एक आध माँओं ने कहा भी कि 'इस्कूल में डाला था दीदी। दोनों को भर्ती कर दिया था। लेकिन उनका पढ़ाई में मन ही नहीं लगा। इस्कूल जाने के नाम से घर से निकलते और इधर-उधर खेला करते। तो क्या करती? एक को मिठाई की दुकान में लगवा दिया है, दूसरे को एक बाबूजी के यहाँ रखवा दिया है। थोड़े और बड़े हो जायेंगे तो रिक्शा चलायेंगे।'
और लड़कियाँ?
फ्राक पहनी नौकरानियाँ। बाबूजी लोगों के यहाँ माँ रखवा देती है। परम सन्तोष के साथ बाबू लोग रखते भी हैं। क्योंकि यह ऐसी गाय है जो खाएगी कम दूध देगी ज़्यादा। घर के भीतर रहेगी, काम करेगी इसीलिए उसे ढंग के कपड़े दिये जाते हैं। वह भी 'भाभी जी' की प्रसाधन सामग्री पर कभी-कभार हमला करने से बाज नहीं आती है। आदमक़द शीशे में अपना रूप देखकर मुग्ध होती है मन-ही-मन मीठे सपने देखती है जिस पर 'भाभी जी' के जीवन की छाया पड़ी होती है।
किन्तु लड़की बढ़ती है केले के पेड़ की तरह उन्हें फ्राक छोड़कर साड़ी पहनना पड़ता है। तब माँ पकड़कर ले जाती है, सिर से पाँव तक अपने को गिरवी रखकर उनका ब्याह करती है (वे भी तो दहेज प्रथा के शिकार हैं)। इसके बाद लड़की माँ के नक्शे क़दम पर चलना शुरू करती है।
अथवा अगर उसके सपने ज़्यादा जबरदस्त हुए तो माँ की पकड़ में आने से पहले किसी और के फेर में पड़कर अलग ही इतिहास रचना शुरू कर देती है।
इन्हीं लोगों का जीवन सुन्दर बनाने का सपना देख रहे हैं भवेश नामक व्यक्ति। आदि-अनन्तकाल से ऐसे सपने कितने भवेशों ने पहले भी देखे थे।
भवेश के आकर्षण ने कुछ लोगों को यहाँ एकत्रित किया है। कुछ स्वयं प्रेरित होकर आये हैं। कुछ का हृदय ही मानव-कल्याण के लिए उन्मुख था-वे यहीं चले आये हैं।
जली, कोयले-सी काली, पिचकी केतली हाथ में पकड़े चाय की दुकान का लौंडा आ खड़ा हुआ।
सभी ने हाथ बढ़ाया। अपनी-अपनी जेबों और पों में हाथ डाला। यहाँ 'सौजन्यता' का नियम लागू नहीं है। कोई किसी के चाय का मूल्य नहीं दे सकता।
भवेश बोले, “एक और स्कीम बना रहा हूँ समझे? बिल्कुल पक्का हो जाये तब तुम लोगों को समझाऊँगा। मुझे लगता है इससे काम और आसान होगा। जल्दी भी होगा।"
करवी नामक एक लड़की बोल उठी, “लेकिन भवेशदा, काम करने निकले हैं तो लग रहा है कि हम तो नाखून से पहाड़ तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। जरूरत तो है डिनामाइट की जिससे पहाड़ को तोड़कर चकनाचूर किया जा सके।"
“ये बात है?” भवेश के चेहरे पर व्यंग्यपूर्ण हँसी उभरी। उसके बाद ही झिड़क कर बोले, “जब डिनामाइट की क्षमता ही नहीं है तब नाखून तोड़ने से फायदा? तू यहाँ से खिसक जा। घर जाकर एक अच्छा-सा 'वर' जुटा ले, पतिगृह यात्रा कर। कल से तू नहीं आयेगी। चौखट पर पाँव रखा तो पाँव तोड़ दूंगा।"
हाँ। भवेश इसी तरह से बोलते हैं।
"निकल जा। फिर कभी मत आना। इस रास्ते से आना-जाना किया तो"." फिर भी लड़के-लड़कियाँ आते हैं, बैठते हैं। काम करने की जिम्मेदारी लेते हैं।
|