सामाजिक >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
|
2 पाठकों को प्रिय 349 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
28
अत्री और गौतम एकाएक ऐसा कुछ कर बैठेंगे, यह किसी ने सोचा नहीं था।
हो सकता है लड़कियों से अत्री ने कहा हो लेकिन इतनी जल्दी? अभी? लेकिन शादी की लग्न अगर आ ही जाये तो कोई क्या कर सकता है?
हाँ, इस खबर को सुनकर सभी ने प्रसन्नता प्रकट की, बधाई दी और ‘भोज' खिलाने का आग्रह किया।
और इसी मौके पर उन्होंने अपना प्रस्ताव पेश किया। गौतम के घरवाले इस शादी के खिलाफ़ थे अतएव धूमधाम से बहू का गृहप्रवेश करने का सवाल नहीं उठता था। वे लोग एक फ्लैट किराये पर लेने जा रहे थे। पर दोनों ही नौकरी करते हैं अतएव उन्हें एक काम करने के लिए आदमी चाहिए। इसीलिए 'भवेश भवन' के आश्रित उदय को ले जाने के लिए इच्छुक हैं। कुछ भी हो लौंडा विश्वासी है। इतने दिनों से देख तो रहे हैं उसे।
सौम्य ने कहा, "लेकिन तुम लोग शायद भूल रहे हो कि वह अभी भी शिशु वर्ग में शामिल है इसीलिए."
गौतम बोला, “अरे छोड़ो शिशु वर्ग। यह लड़का ऐसा उस्ताद है कि इसे आसानी से अडल्ट कहा जा सकता है।"
“कहा जा सकता है लेकिन वह है तो नहीं न?
अत्री बोल बैठी, “इसके मतलब ये हुए कि तुम हमें इस सुविधा से वंचित करना चाहते हो।"
"कितने आश्चर्य की बात है ! हमारा असली उद्देश्य ही भूल रही हो तुम। भवेशदा."
अत्री बोली, “यहाँ उसे श्रमिक वर्ग में डालने की बात ही कहाँ उठती है? आश्रय के अभाव में यहाँ अकेले पड़ा हुआ है। वहाँ तो अच्छा आश्रय मिलेगा, अच्छा खाने को मिलेगा घर के लड़के की तरह रहेगा। देख लेना प्रस्ताव सुनकर 'डैम ग्लैड' हो जायेगा।"
इसके बाद सौम्य ने प्रतिवाद नहीं किया। सोचा, सच ही तो कह रही है। सौम्य क्यों विरोधी बने।
|