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न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

26


रात को खाने बैठे थे दिव्य, सौम्य और चैताली। न जाने क्यों चैताली अपने देवर को नेकनजर से देखती है। उसकी अवहेलना तो करती ही नहीं है बल्कि ख़ातिर तवज्जो ही करती है। सौम्य के लौटने में कितनी भी देर क्यों न हो जाये, मेज़ पर उसकी प्रतीक्षा करती है। खाना स्वयं परोसकर देती है। भूषण केवल मेज़ पर खाना रख भर जाता है।

दो बड़े साइज़ के मछली के टुकड़े कटोरी में रखकर चैताली ने आगे बढ़ाते हुए कहा, “आज तो तुमने नया रिकार्ड बना डाला है।"

"किस बात का रिकार्ड?"

“यही, जल्दी घर लौटने का। शाम से पहले ही..."

सौम्य बोला, “पूछिए मत, ऐसा साधु संकल्प रोज़ ही रहता है लेकिन पूरा ही नहीं कर पाता हूँ। काटुम काटाम से तो जाने कब से मुलाक़ात नहीं हुई है। सो जाते हैं बेचारे। और पिताजी के साथ तो..”, ज़रा-सा हँसकर बात यहीं खत्म कर दी उसने।

सौम्य पिता को 'तुम', पाँच साल बड़े भाई को 'तू' और भाभी को 'आप' कहता है।

शुरू-शुरू में दिव्य टोकता था, “अरे इन्हें तू 'आप' ‘महाशया' वगैरह क्यों कहता है?"

सौम्य कहता था, “महिला हैं, सम्मान देने के लिए कहता हूँ।"

यही बात चालू रह गयी थी। परन्तु बातचीत में सहजता, हल्कापन बराबर बना रहता है। अभी भी था।

लेकिन सामने बैठा दिव्यजीवन नामक इन्सान इस सहजालाप के दृश्य को देखकर मन ही मन खूब गुस्सा हो रहा था। आश्चर्य तो उसे हो ही रहा था।

यही महिला न अभी तक सर्पिणी की भाँति फुफकार रही थी? ओफ़ ! कैसी भयंकर अभिनयपटु है !

दिव्य में यह गुण रत्ती भर नहीं है। धैर्य धारण करने की क्षमता ही नहीं है। अतएव उसी क्षण दिव्य बोल उठा, “तो वह दुःख शायद आज दूर हो गया है?"

"माने?'

“माने यही कि खूब महफ़िल ज़मी थी आज तो। रह-रहकर हँसी के ठहाके आसमान छू रहे थे। तो आज की बैठक में क्या तय हुआ?"

सौम्य ने एक बार मियाँ-बीवी को देखा फिर कौतुकपूर्ण स्वर में बोला, “बात करनेवाले के अभाव के कारण ‘बढे महाशय' का दिल घबराता है। इसलिए उन्हें कुछ बढों की जरूरत है। और इसी बावत मेरे आगे अर्जी पेश कर रहे थे कि एक 'ओल्डहोम' का पता लगाऊँ।"

न ! दिव्य चौंका नहीं। अवाक होकर प्रश्न नहीं पूछा। केवल क्रुद्ध होकर बोला, "ओ ! तो वे अपने स्वोपार्जित धन से निर्मित अट्टालिका को तजकर 'होम' में जा कर क्यों रहें? बल्कि जिनके कारण असुविधा हो रही है वे ही अपना रास्ता नाप लें। वे अपने घर में 'अपनों' को ले आयें, प्रतिष्ठित करें और सुख से रहें।"

सौम्य ने भाई के मुँह की तरफ़ देखा।

उसके बाद ठण्डी-सी आवाज़ में बोला, “महाशय की असली असुविधा क्या है जानते हो दादा? हर समय, हर मामले में उन पर जासूसी करना। नज़रबन्दियों जैसी दशा है। जी का छटपटाना स्वाभाविक है। और ऐसा करना सिवाय बचपना ही कहलाता है। एक अर्थहीन नीचता।"

मछली वाली कटोरी उसने अपने सामने खींचकर खाना शुरू कर दिया।

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