सामाजिक >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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'ओल्ड होम' !
सौम्य ने प्रवासजीवन द्वारा दिया कागज़ पढ़ने के बाद तह करके हाथ ही में रखते हुए पूछा, “यह सब क्या बकवास लिखा है तुमने? दिमाग खराब हो गया है क्या तुम्हारा? इसीलिए बुलाया था मुझे? तुम्हारे लिए 'ओल्ड होम' में इन्तजाम करना पड़ेगा?"
प्रवासजीवन बोले, "तू भी अपने भाई की तरह मिजाज गरम क्यों कर रहा है बेटा? जो कुछ कहना है यहाँ पास बैठकर कह ना।"
(अर्थात् अहिस्ता बोलो)
सौम्य बोला, “कहने-सुनने को है ही क्या? अब तो लगता है तुम्हें किसी दूसरे डॉक्टर को दिखाना होगा। ताज्जुब है। ऐसी अद्भुत बात तुम्हारे दिमाग में आयी कैसे?
प्रवासजीवन की इच्छा हई कि कह दें-एकाएक नहीं रे बेटा, धीरे-धीरे तिल-तिल करके यह इच्छा दिमाग में आयी है। नहीं, दिमाग में नहीं मन में आयी है। तू क्या समझेगा एक मालिक जो कभी सर्वेश्वर था उसे इस तरह असहाय, निभर आर सदा त्रस्त रहना पड़ता है, यह बात कितनी यातनापूर्ण है !
यही प्रवासजीवन अगर अपनी किसी इच्छा का दसांश भी प्रकट कर देते तो वह फौरन पूरी होती थी।
'सरोज लोग बहुत दिनों से नहीं आये हैं।' बातों ही बातों में कहते, 'आयें भी कैसे, कितनी दूर चले गये हैं।'
बस ! इतना कहना ही काफ़ी था।
अगले इतवार को प्रवासजीवन ने देखा सरोज सपरिवार चले आ रहे हैं। उस दिन दोपहर का खाना खाकर, सारे दिन रहकर शाम को वे लोग साल्टलेक वापस चले गये।
कौन हैं ये सरोज?
कौन होंगे? प्रवासजीवन की बड़ी दूर की रिश्ते की बुआ के लड़के हैं। एक ही पड़ोस में रहते थे और एक ही स्कूल में पढ़ते थे इसीलिए 'दूर' 'पास' में बदल गया था।
'अरे प्रनति ! देखो। गजब हो गया। इस पोस्टकार्ड को पढ़ा है? कल सुबह ही घोंतोनदा बारासत से आ रहे हैं लड़की दिखाने।'
'पता है। पोस्टकार्ड मैं पढ़ चुकी हूँ पर इसमें परेशान क्यों हो रहे हो? अपनी लड़की नहीं है। परायी ही को दिखाने में मदद कर दूंगी।'
'अरे, तुम्हारा तो काम बढ़ जायेगा !
'तो क्या हुआ? कल तुम ज़रा जल्दी निकलना बाज़ार के लिए। अच्छी एक मछली भर ला देना फिर तुम्हें कोई चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। मुँह तो ऐसा बना रहे हो जैसे तुम्हारे ही सिर पर पहाड़ टूट पड़ा है।'
ये घोंतोनदा कौन थे? ममेरे बड़े भाई। सगे ममेरे भाई।
प्रवासजीवन जिन प्रियजनों के लिए कुछ करना चाहते थे प्रनति उनके लिए बहुत कुछ करती थीं।
जब प्रवासजीवन टोकते, ‘इतना करने की क्या ज़रूरत थी?
तब कहती थीं, 'आहा ! उनके साथ खाने जब बैठे थे तब तो मुँह पर सौ पॉवर का बल्ब जल उठा था। खैर, यूँ भी वे लोग रोज़ कहाँ आते हैं।'
'अरे सुनते हो जी। तुम्हारे गाँव के घर से मझली चाची आ रही हैं "गंगा-स्नान करने। शायद दो दिन रुकें, कम से कम कहना तो पड़ेगा ही। तुम ऐसा करो, अच्छा गोविन्द भोग चावल मँगवा देना। और कल दफ़्तर से लौटते वक्त उधर से अच्छा फल-वल लेते आना। शायद शशि ठीक से न ले सकेगा।
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