सामाजिक >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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भवेश भौमिक का दाह-संस्कार करके लौटे तो वे लोग उनके उसी कमरे में आकर बैठे। यह मकान भवेश ने 'शिशकल्याण' कार्य के लिए उत्सर्ग कर दिया था। ये सब ट्रस्टी थे। भवेश जैसे भोले-भाले व्यक्ति में ऐसी निपुण बुद्धि थी।
भवेश की उपस्थिति अनुभव कर रहे थे सब। लुंगी और आधी बाँह वाला कुर्ता, बढ़ी हुई दाढ़ी और बात करने का वैसा ही ढंग-फिर भी इतने सारे सुन्दर, शिक्षित, सभ्य लड़के-लड़कियाँ उनके लिए हाहाकार कर रहे थे, यह देखकर आश्चर्य होता है।
सुकुमार आहिस्ते से बोला, “मैं तो सोच भी नहीं सकता हूँ। ठीक कह रहे हो।"
अत्री बोली, “इतने दिनों से अस्पताल में जा-जाकर देख आते थे तब लगता था कोई और इन्सान है। चले गये, तब भी इतना महसूस नहीं हुआ था। लेकिन आज यहाँ आकर महसूस कर रही हूँ..." कहते-कहते चुप हो गयी। सिर झुका लिया।
गौतम वाला, “अन्तिम दिनों में ऐसा कष्ट पा रहे थे कि देखकर लगता था अपने स्वार्थ के कारण उन्हें जिलाये रखने की कोशिश अमानुषिकता है।"।
“अभी कुछ दिनों पहले ही सवका हाथ पकड़कर बोले थे, 'तुम लोग रहोगे। मैं तुम्हीं लोगों में रहूँगा। ...वैसे इन्सान की आँखों में आँसू, मैं तो सोच भी नहीं सकता हूँ।"
ब्रतती लम्बी साँस छोड़ते हुए बोली, “जो स्वयं आनेस्ट होते हैं, सच्चे और खरे होते हैं उनका विश्वास होता है कि और लोग भी ऐसे ही होंगे। लेकिन हम सब क्या ऐसे हैं? या हम क्या वैसे रह गये?'
सौम्य ने दृढ़तापूर्वक कहा, “रहना पड़ेगा। ठीक पहले जैसे चल रहा था वैसा ही चलाना है।”
लेकिन जब से भवेश भौमिक अस्पताल में भर्ती हुए थे तब से क्या वैसा ही चल रहा था? सबके मन में एक अवलम्बन शून्य हताशा के भाव आ गये थे। मन शिथिल और क्लान्त हो गया था।
तस्वीर टाँगकर माला पहनाकर स्मृतिपूजन कर नहीं सकते थे। भवेश दा का विद्रूप करता चेहरा हर वक्त सामने रहेगा।
फिर तस्वीर है ही कहाँ?
एक तस्वीर होनी चाहिए थी। तस्वीर रहने पर साल में दो बार (जन्मदिन और मृत्युदिन) तस्वीर को फूलों की माला पहनाकर, सामने फूलदानी में फूलों का गुलदस्ता रख, अगरबत्ती जलाकर, भावपूर्ण गम्भीरतापूर्वक मिलकर गाना गाते। निरवलम्ब स्मृति को सहेजकर रखना बड़ा कठिन होता है।
इन्सान बड़ा ही शक्तिहीन होता है।
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