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सुख की खोज

पदमा खेड़ा

प्रकाशक : सदाचार प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4049
आईएसबीएन :81-89354-12-4

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प्रस्तुत है सुख की खोज...

Sukh Ki Khoj

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मेरा जन्म फरवरी 1922, लाहौर (आविभाजित भारत) में हुआ। मेरे माता-पिता मध्य वर्गीय परिवार के पढ़े-लिखे उच्च विचारों वाले थे।
मेरी प्रारम्भिक शिक्षा कराची (सिन्ध) के स्कूल में हुई। कॉलेज की पढ़ाई करने के लिए मुझे लाहौर आना पड़ा। यहीं सन् 1941 में मेरी शादी हो गई। मेरे पति हंसमुख, विचारशील व उदारचित व्यक्ति थे। उन्हें अंग्रेज़ी में कहानियाँ, नाटक व लेख लिखने का शौक था। समय-समय पर वे पत्र-पत्रिकाओं में छपते भी रहे।
सन् 1947 में देश के विभाजन के पश्चात् हम दिल्ली आकर बस गए। परिस्थितियों को देखते हुए मैंने परिवार की देख-रेख के अलावा एम.ए.की परीक्षा दी और पढ़ाने की ट्रेनिंग भी ली। सन् 1958 से 1982 तक मैंने मॉर्डन स्कूल में छोटे बच्चे को पढ़ाने का कार्य किया।
अध्यापन काल में बच्चों के माता-पिता तथा अभिभावकों के सम्पर्क में आने से, बालकों के स्वभाव, बौद्धिक व भावात्मक विकास का अध्ययन करती रही।
सन् 1982 में अवकाश-प्राप्ति के पश्चात् मैंने चार से आठ वर्ष के बच्चों के लिए पाठ्य पुस्तकें ‘‘हिन्दी पढ़ो और सीखो’ लिखी इन पुस्तकों द्वारा बालकों को रुचिकर ढंग से भाषा सिखाने का प्रयत्न किया गया। मात्रा व संयुक्ताक्षर का सही उच्चारण द्वारा बोध कराया गया। बहुत से स्कूलों में अब भी ये पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं। कुछ सरल कहानियों की पुस्तकें भी छपीं। शिक्षाप्रद कविताओं की पुस्तकें ‘गाओ खुशी के गीत’ आदि आत्माराम एण्ड संस से प्रकाशित हुईं।
सन् 1991 से 2005 तक मैंने गांव के एक स्कूल में ग्रामीण बच्चों को पढ़ाने की निशुल्क सामाजिक सेवा का कार्य किया।

परिचय

बढ़ चल सुख की ओर

आन्तरिक आनन्द की अनुभूति ही मानव जीवन का उद्देश्य है जो मनुष्य निष्ठा व ज्ञान द्वारा ध्यान लगा कर पुरुषार्थ करता है, वह सभी चिन्ताओं, दुविधाओं से मुक्त हो जाता है। ऐसे शुद्ध हृदय से आनन्द का अनुभव कर उस पर ब्रह्म का सत्य-स्वरूप दृष्टिगोचर होने लगता है।
सत्य के पथ पर चल कर प्राणी
सुख की करता खोज,
अनुभव कर प्रसन्नता का
मन में भरता ओज।।

संसार की सुख-सुविधाएँ पाने के लिए मनुष्य अथक परिश्रम करता है, अनेक कठिनाइयों से जूझता हुआ, जीवन की आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, आकांक्षाएँ पूर्ण करने के हेतु तन-मन से संलग्न रहता है। परन्तु सांसारिक धन सम्पत्ति व परिवार का सुख स्थायी नहीं है। यह तो छाया की तरह आता-जाता रहता है।
आध्यात्मिक अथवा आत्मा का सच्चा सुख पाकर हम उस स्थायी सुख व प्रसन्नता का अनुभव कर सकते हैं जो जीवन भर हमें शक्ति, सन्तोष, शान्ति व आनन्द प्रदान करता रहता है। इस आत्मानन्द के सुख का धन अर्जित करने के लिये उस दिव्य शक्तिमान ने मनुष्य को विवेक कसौटी प्रदान की है। इसके द्वारा मनुष्य अपने मन में उठे विचारों, भावनाओं तथा इन्द्रियों द्वारा किए गए कर्मों का, साक्षी बनकर निरीक्षण कर सकता है।
भगवान ने मनुष्य को इस पाँच तत्व की देह और मन, प्राण बुद्धि के अतिरिक्त एक अद्भुत शक्ति (discrimination power) विवेक बुद्धि दी है। इसी विवेकशील बुद्धि को ‘प्रज्ञा’ की संज्ञा दी गई है। यही ज्ञान का प्रकाश हमारी बुद्धि को प्रकाशित कर, सत्य, असत्य, उचित-अनुचित का बोध करवा कर, हमें शुभ कार्य की ओर बढ़ने में सहायक बनती है। यही बुद्धि हमारे मन, वचन व कर्मों को प्रेरित करती है, शक्ति प्रदान कर, अन्त:करण को आलोकित कर सत्य का आनन्द स्वरूप दिखाती हैं।

आधुनिक युग की माँग सुख की चाह

भारत का यह आधुनिक समाज मनुष्य को असमंजस में डाल देता है। एक ओर हमारी पुरातन संस्कृति व दूसरी ओर पश्चिम के भौतिक जीवन की चमक दमक की ओर बेहताशा दौड़ की प्रवृत्ति। आज की पीढ़ी पूर्व और पश्चिम के विचारों से तालमेल न बैठा पाने के कारण अथवा इस स्पर्द्धा (Competition) के कारण तनाव अवस्था व निराशा का जीवन जी रही है ‘नवयुवकों’ का मन सुख की चाह’, में भटक रहा है ‘ऐसी अव्सथा से उबरने के लिए वे रात-रात भर क्लबों में घूमते हैं, नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं तथा भिन्न प्रकार के सुख साधन खोजते हैं, गाँवों की अज्ञान जनता भी इस भौतिकता की दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहती।
धन की लोलुप्ता इतनी बढ़ गई है कि मनुष्य निज स्वार्थ की पूर्ति के लिए मानवता का मूल्य नहीं समझता। हमारी शिक्षा पद्धति भी इतनी बदल गयी है कि बालक की योग्यता, नैतिक गुणों के स्थान पर केवल बौद्धिक स्तर’ पर ही आंकी जाती है। अतएव धनवान तथा चतुर व्यक्ति ही समाज के कर्णधार बन जाते हैं। राजनीति के बड़े-बड़े नेता बनकर देश का शासन चलाते हैं।

भारत की प्राचीन संस्कृति द्वार जो आध्यात्मिक व नैतिक मूल्यों की अनूठी सम्पदा देश को विरासत में मिली है वह धूल धूसरित होकर अभी भी मानवता के अन्त:करण में दबी प़ड़ी है। बालकों को नैतिक गुणों से अवगत कराना आवश्यक है। अध्यापकों तथा माता-पिता के सहयोग से ही बालक का शारीरिक (physical) बौद्धिक (mental) तथा भावनात्मक (emotional) विकास हो सकता है। बचपन से ही बालकों को सुन्दर चित्रों द्वारा ऐसी कहानियाँ व कविताएं सुनाई जाएँ, जिनके द्वारा उन्हें सत्य-असत्य, उचित-अनुचित को समझ कर, उनसे ज्ञान प्राप्त कर, जीवन में सुख पा सकें।
समाज के इस बिगड़े हुए ढाँचे का रूप शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन कर, अध्यापकों व अभिभावकों के सहयोग से ही सुधर सकता है। कच्चे फल को ठीक ढंग से मीठा व रसदार बनाने का श्रेय, माता-पिता के प्रेम से किया गया कर्तव्य तथा समाज का सहयोग ही सफल बना सकता है।
संयुक्त परिवार में रहने वाले बालक आपस में सहयोग, दया, सेवा, प्रेम, सहनशीलता त्याग जैसे गुण अनायास ही सीख लेते थे। नाना, नानी, दादा दादी से कथा कहानियाँ सुनकर उनके संस्कार व सदाचार बढ़ते थे। परन्तु अब यह सामाजिक व्यवस्था, छिन्न-भिन्न हो रही है। परिवार के सदस्यों के संघर्ष तथा स्वार्थपरता के कारण परिवार छोटी-छोटी इकाइयों में बँट गए हैं।

हमारे देश के कुछ गिने चुने अनुभवी विद्वान तथा कुछ विदेशी विचारकों व जिज्ञासुओं ने आज की युवा पीढ़ी के लिए पुरातन साहित्य के आधार पर अंग्रेजी भाषा में ऐसी पुस्तकों की रचना की है, जिन्हें पढ़ कर अँग्रेजी पढ़ी लिखी जनता प्रभावित होकर लाभ उठा रही है। परन्तु जिन लोगों की संस्कृति में यह अमूल्य निधि अथवा आध्यात्मिकता की देन छिपी हुई है, वे परम्पराओं से जकड़े, अज्ञान अविद्या का आवरण ओढ़े सोए हुए हैं। वे वेद मन्त्रों का उच्चारण करते हुए, देवी देवताओं का स्तुति गान कर, स्वयं अपने मोक्ष अथवा स्वर्ग का मार्ग ढूँढ़ रहे हैं। ऐसे लोग अपने दैनिक कर्तव्यों को भूल, रूढ़ीवादी जीवन जी रहे हैं।
आधुनिक भौतिक युग में पुरातन आदर्शों अथवा परंपराओं को, बिना सोचे समझे, अपनाने की चाह, हमारे सामाजिक ढाँचे को अस्थिर बना रही है।
इसके विपरीत प्राचीनकाल के ऋषि-मुनि प्रकृति की गोद में बने आश्रमों में रहकर आध्यात्मिक, वैज्ञानिक आर्थिक एवं भिन्न-भिन्न विषयों के तत्त्वों की खोज में अपनी जीवन व्यतीत करते थे। वनों में रहकर वे कठिन तपस्या अथवा साधना द्वारा पर-ब्रह्म परमेश्वर अथवा प्राकृतिक सृष्टि के रहस्यों का उद्घाटन करते। वे श्रेष्ठ गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों को निभाते हुए अपने शिष्यों तथा आश्रमवासियों के सम्मुख उदाहरण प्रस्तुत करते।

शिष्यों को सामाजिक ज्ञान द्वारा आपस में सहयोग, सद्व्यहार, दया, सहानुभूति इत्यादि अनेकानेक नैतिक गुणों से विभूषित कर संसार के सुख पाने की योग्यता प्रदान करते थे। उनके स्वभाव तथा संस्कारों के अनुसार उन्हें भिन्न प्रकार की परिस्थितियों से जूझना तथा ज्ञान व अनुभव द्वारा जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ने की शिक्षा देते। ऐसे ज्ञानी शिष्य ही श्रद्धा प्रेम व निष्ठा द्वारा परिवार व समाज की सुख समृद्धि बढ़ा अपने जीवन को सार्थक बनाते।
प्रकृति की गोद में पल कर अनायास ही उन्हें स्वस्थ शरीर, मन में शुभ विचार तथा शुद्ध संकल्पनों द्वारा ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता रहता था।
प्रकृति के सहयोग द्वारा जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों से प्रेम के वातावरण में रहने से उन्हें सृष्टि के रचयिता का ब्रह्म-स्वरूप स्वयंमेव ही दृष्टिगोचर होने लगता। प्रकृति के मूल तत्वों का ज्ञान छात्रावस्था में ही अपने स्वभाव तथा चरित्र का अंश मान लेते थे। तत्पश्चात् इन्हीं गुणों के अनुसार वे अपने गृहस्थ व सामाजिक जीवन के कर्तव्य निभाते।
निष्काम कर्म करते हुए गृहस्थी के कर्तव्यों को स्वधर्म मान कर पूरा करने के पश्चात् धीरे-धीरे संसार से विरक्त होते हुए वनाश्रम में प्रवेश करते। अन्तिम अवस्था में संसार से अनासक्त हो, आध्यात्मिक सुख की खोज में संन्यासी बन कर प्रकृति की गोद में विचरण करते हुए, प्रसन्नता पूर्वक मृत्यु का आलिंगन करते।

इतिहास ने रुख बदला मुसलमानों और फिर अँग्रेजों के शासन काल में पराधीन जनता को दासता की जंजीरों ने ऐसा जकड़ा कि स्वतन्त्रता के पश्चात् भी उबर नहीं पाई। ऐसे युग में कुछ संत कवियों के आगमन से देश में भक्ति की लहर आई और दुखी जनता को कुछ सान्तावना मिली। परन्तु बिना पुरुषार्थ व ज्ञान के जीवन विकास की गति धीमी पड़ गई।
आज के भौतिक जीवन को आप प्राचीन आदर्शों के माप दण्ड से कैसे नाप पाएँगे ? आधुनिक बुद्धि जीवी, विचारक व मनोवैज्ञानिक किसी एक पक्ष को लेकर, विश्लेषण करने का प्रयास करते हैं। परन्तु आज के युग की विविधता, उसकी भीष्ण समस्याएँ बढ़ती ही जाती हैं। इस जीवन के अल्प समय में असमर्थ मानव उस निराकार की सृष्टि को कैसे बाँध पाएगा ?
तब विचार के लिए गीता के प्रथम अध्याय में, जब अर्जुन ने मोह ग्रस्त हो कर अस्त्र-शस्त्र डाल दिए तब श्री कृष्ण ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘जो कार्य आपके स्वभाव, परिस्थिति तथा समय के अनुकूल होगा वही कल्याणकारी सिद्ध होगा। भावनाओं तथा आदर्शों के अनुसार जीवन नहीं जिया जा सकता। वर्तमान ही हमारा जीवन है, न बीता हुआ कल और न आने वाला भविष्य। यदि वर्तमान को सुधारने का प्रयास करेंगे तो भविष्य स्वयं ही सुधर जाएगा। आज की घटती घटनाओं, समस्याओं, परिस्थितियों का सामना करना है, समाधान ढूँढ़ना है। इसके लिए हमें आत्म-निष्ठ, दृढ़ संकल्प (self confidence and will power) से मन की अपार शक्ति को खोजना होगा। मन को अपने स्वभावमत कर्म के प्रति जाग्रत कर, विचारों को विवेक की कसौटी (discrimination) पर परखना होगा। शुद्ध ज्ञान का प्रकाश बुद्धि के सहयोग से तुम्हें धर्म पर चलने को उद्यत करेगा, तुम्हारा उत्साह बढ़ाएगा।

गीता के श्रीकृष्ण व सरल हृदय अर्जुन हमारे ही मन के दो पहलू हैं। अर्जुन की तरह पूर्ण रूप से आत्म-समर्पण कर दो। श्रीकृष्ण स्वयं सारथि बन कर तुम्हारे जीवन का रथ हाँकने आ जाएँगे।
आज की आवश्यकता है ऐसे विद्वानों की विचारकों की जो नई पीढ़ी के विचारों का मनोविश्लेषण कर, कम से कम समय में शुद्ध भारतीय संस्कृति तथा आज की शैक्षिक प्रणाली (educational system) में भौतिक तथा नैतिक (moral) आवश्यकताओं का ताल मेल बैठा कर उनको जीवन मूल्यों (values of life) का उचित मार्ग दर्शन करा सकें।
निम्नलिखित लेख ‘बढ़ चल सुख की ओर’ में ऐसे चौदह उपाय सुझाव गए हैं जिनका विचारपूर्वक चिन्तन, मनन करके अपनी दिनचर्या में उनका उचित प्रयोग कर, हम स्थायी सुख अथवा अन्तरात्मा में भरे आनन्द को प्राप्त कर सकते हैं। इन उपायों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

प्रथम उपाय-उचित आरम्भ (Right Beginning)

कोई भी काम हो, उसके करने का उचित आरम्भ यह है कि उसे करने का सही ढंग और ठीक ढाँचा ध्यान में रख लिया जाए।

दूसरा-छोटे-छोटे काम और कर्तव्य (Small tasks and duties)

हृदय में जैसे भाव रखकर, हम किसी कर्तव्य को पूरा करते हैं, हमारा सुख और दुख उन्हीं भावों पर निर्भर करता है।

तीसरा-कठिनाइयाँ और उलझनें (transcending difficulties)

कठिनाइयों और उलझनों पर विजय प्राप्ति के बिना किसी भी प्रकार की उन्नति नहीं हो सकती। कठिनाइयाँ वास्तव में वेश बदला हुआ एक फरिश्ता है जो मनुष्य का मित्र और गुरु है।

चौथा-बोझ उतारना (Burden dropping, self pily)

जो काम करो खुशी-खुशी करो। अपने ऊपर तरस खाने से दुख बढ़ता है।

पाँचवा-आत्म त्याग (Hidden sacrifices)

सच्चा जीवन, आनन्दमय जीवन, वह जीवन जिसमें दुख और आपदाएँ नहीं, कुछ त्याग करने से ही प्राप्त होता है।

छठवाँ-(छठा) सहानुभूति (Sympathy)

जो हमें प्रेम करते हैं, उनके साथ प्रेम करना मनुष्यता है, किन्तु उन्हें प्रेम करना जो हमें प्रेम नहीं करते, सहानुभूति कहलाता है।

सातवाँ-क्षमा (Forgiveness)

घृणा को घृणा से नहीं जीता जा सकता, वरन् प्रेम से जीता जा सकता है। क्षमाशीलता प्रतिशोध से श्रेष्ठ है।

आठवाँ-बुराई न देखना (Seeing no evil)

नेक जीवन व्यतीत करने का अर्थ है दूसरों में बुराई अथवा उसके दोषों को छोड़ कर अपने हृदय को पवित्र बनाने का प्रयत्न करना।

नवाँ-स्थायी प्रसन्नता ( Abiding joy)

स्थायी प्रसन्नता वहाँ मिल सकती है जहाँ पाप नहीं, पवित्र हृदय में उसका वास है।

दसवाँ-मौन (Silentness )

मौन रहनेवाला व्यक्ति जबान और दिल पर काबू पा लेता है और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से शक्तिशाली होता है।

ग्यारहवाँ-एकान्त (Solitude)

आत्मा को भी नियमित रूप से एकान्त में उचित और पवित्र विचारों का भोजन मिलना चाहिए।

बारहवाँ-आत्मविश्वास (Self confidence)

आनन्दमय जीवन जीने के लिये अपने आप पर विश्वास अत्यन्त आवश्यक है।

तेरहवाँ-जीवन जीने का सात्विक लक्ष्य (Understanding the simple laws of life)

स्थायी आनन्द से पूर्ण जीवन तक पहुँचने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।

चौदहवाँ-परिणाम ( Happy ending)

जो व्यक्ति सत्य की खोज करता है उसे नेक परिमाम खोजने की आवश्यकता ही नहीं होती। नेक परिणाम दो प्रकार के होते हैं-
(1) सांसारिक
(2) आध्यात्मिक
ऊपर दिए गये उपायों को विस्तापूर्वक उदाहरणों सहित पढ़, समझ कर, जीवन को सुखमय ढंग से जीने का प्रयास कीजिए।
-लेखिका

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