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विविध उपन्यास >> बुखारी

बुखारी

श्यामल भट्टाचार्य

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4048
आईएसबीएन :81-7043-546-3

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ग्लेशियर युद्ध पर आधारित बांग्ला उपन्यास

Bukhari a hindi book by Shyamal Bhattacharya - बुखारी - श्यामल भट्टाचार्य

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राकृतिक आपदाओं के कारण ही हर रोज दुनिया के सबसे ऊँचे युद्धक्षेत्र में माइनस चालीस-पचास डिग्री तापमान में चल रहे इस युद्ध में सबसे ज्यादा मौतें होती हैं। इस भयानक परिस्थिति में हरेक सैनिक के लिए सबसे बड़ी आकांक्षा होती है, थोड़ी सी ऊष्मा। इस ऊष्मा को पाने के लिए वह अलग-अलग प्राकृतिक और अप्राकृतिक, घातक और आत्मघाती रास्ता अपनाता है। स्वप्न और दुःस्वप्न के बीच उसकी जिन्दगी और मौत झूलती रहती है। जहाँ देश-प्रेम और पेट के लिए नौकरी जैसी भावनात्मक बातें हरेक के लिए अलग-अलग संदर्भ खड़ा कर देती हैं, यह कथा वैसे ही संदर्भों के आधार पर रची गई है। इसके पढ़ने पर पाठकों को कई तरह की अजीब सूचनाएँ मिलेंगी।

बंगाली में लिखे इस उपन्यास का हिन्दी अनुवाद रूपाली मजुमदार ने बहुत ही उत्तम ढंग से किया है।
यह उपन्यासनुमा आख्यान जम्मू-कश्मीर के उत्तरी भाग में सन् 1984 से चल रहे अघोषित युद्ध के आधार पर लिखा गया है। प्राकृतिक आपदाओं के कारण ही हर रोज दुनिया के सबसे ऊँचे युद्धक्षेत्र में माइनस चालीस – पचास डिग्री तापमान में चल रहे इस हरेक सैनिक के लिए सबसे बड़ी आकांक्षा होती है, थोड़ी सी उष्मा। इस उष्मा को पाने के लिए वह अलग-अलग प्राकृतिक और अप्राकृतिक, घातक व आत्मघाती रास्ता अपनाता है। स्वप्न और दु:स्वप्न के बीच उसकी जिन्दगी और मौत झूलती रहती है। जहाँ देशप्रेम और पेट के लिए नौकरी जैसी भावात्मक बातें हरेक के लिए अलग-अलग संदर्भ खड़ा कर देती हैं।

यह कथा वैसे ही संदर्भों के आधार पर रची गई है। पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा तथा बँगलादेश के प्रमुख अखबारों ने इसकी प्रशंसा की। बँगला की कई साहित्यिक पत्रिकाओं में भी इसकी समालोचनाएँ छप चुकी हैं ? मैं रूपालीजी का आभारी हूँ जिन्होंने इसे हिन्दी में अनुवाद किया। मैं आभारी हूँ परमेश्वरजी का जिन्होंने ऐन मौके पर अपने परिश्रम से मेरे विचार और रूपालीजी के अनुवाद के बीच की अनदेखी दूरी को दूर किया। सुमिता व संदीप सरकार, रविप्रकाश शरद, संजीव सुमन, मुकेश भादौरिया, सौरभ शुक्ल, प्रणय रथ और कुरमा वैकंटरमण जैसे मित्रों को भी कैसे भूल सकता हूँ जिन्होंने इस पाठ को सुनकर अध्ययन कर अपने विचारों और सुझावों से इस लेख को समृद्ध किया। रूपालीजी के पति श्री विश्वजीत मजुमदार और परमेश्वरजी की पत्नी उषाजी को कभी नहीं भुलाया जा सकता है, जिनको इस दरमियान काफी तकलीफें झेलनी पड़ीं।

मैं आभारी हूँ पंजाबी व हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार श्री जसवन्त सिंह विरदी का, जिन्होंने इस पाण्डुलिपि की कुछ त्रुटियों को दूर किया। मैं आभारी हूँ सन् 1987 में पंजाबी उपन्यास ‘कोठे खड़क सिंह’ के लिए भारतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त पंजाबी व हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार श्री रामस्वरूप अणखीजी का जिन्होंने इस लेख के प्रकाशन के लिए अपने प्रकाशक से संपर्क किया, और एक महत्त्वपूर्ण भूमिका लिखकर मेरा सम्मान बढ़ाया। आशा है, पाठकों को यह लेख पसन्द आएगा।

श्यामल भट्टाचार्य

भूमिका


श्यामल भट्टाचार्य को वर्षो से जानता हूँ। मैंने उनकी बँगला कहानियों के हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद पढ़े। लगा कि लड़के की भाषा-शैली में जान है। वह उठता-बैठता, चलता-फिरता, यहाँ तक कि खाना खाते समय भी साहित्य की बातें करता है। गोया कि साहित्य द्वारा ही उसे साँस आती है।

वह भारत की वायुसेना से संबंधित है। इसीलिए सैनिक जीवन की कठिनाइयों और दिलचस्पियों से बाखूबी वाकिफ है। वह अपनी बाँगला भाषा और कथा-शिल्प में आर्टफुल है।
‘बुखारी’ सियाछेन ग्लेशियर की पृष्ठभूमि को लेकर लिखा गया अद्भुत उपन्यास है। पाठकों तक अजीब सूचनाएँ पहुँचती हैं। रूपाली मजुमदार द्वारा अनुवाद कार्य भी काफी सफल रहा है। मैं इस उपन्यास को पंजाबी में अनुवाद करना चाहूँगा।

रामसरूप अणखी

किस मिट्टी की बनी हो चिड़िया !


गों-गों आवाज़ करता हुआ गजराज आकाश में अपने रुपहले पंख फैलाकर बड़ी तेजी से उड़ रहा है। शिमला की पहाड़ियों के आकाश में अब भी घने सफेद बादल तैर रहे हैं। इस विशाल चिड़िया के पेट में 180 हट्टे-कट्टे सैनिक बैठे हैं। शिमला को पीछे छोड़कर और ऊपर उठने पर सुबह की रोशनी और उज्जवल होती है। पूर्व से सूरज की किरणें आकाश को अपने रंग में रँग देती हैं। इन रंगीन बादलों में अपने पंख छुआता है। इस वक्त नीचे कुल्लू-मनाली का आकाश तैर रहा है। हिमालय की चोटियाँ इन रंगीन बादलों के समुद्र में विशाल लहरों की तरह दिखाई देती हैं। इसी तरह बादलों और गजराज का आँखमिचौनी का खेल लगभग आधे घण्टे तक चलता रहता है।

फिर धीरे-धीरे वह चिड़ियाँ धरती को छूने के लिए बढ़ती है। इस समय चारों तरफ सफेद-ही-सफेद नज़ारा है। लद्दाख रेंज और जाँसकर पर्वतमाला की ऊँची-ऊँची शिखरों के बीच एक भूरी घाटी, रास्तों पर चलती हुई खिलौनों जैसी कुछ रंगबिरंगी गाड़ियाँ।
और तभी उस विशाल चिड़िया के पेट से बीस पहिए निकलते हैं। आलोक मित्र जहाज की खिड़की से पृथ्वी के सबसे ऊँचे हवाई अड्डे की एक झलक देखता है। बहुत ही बेसुरी आवाज़ में एक फौजी माइक में घोषणा करता है कि, बाहर का तापमान इस वक्त माइनस – 7.90C है। आलोक अपनी जैकेट की जेब से कानों को ढँकने के लिए टोपी निकाल लेता है, और दोनों हाथों में दस्ताने पहन लेता है। हवाई पट्टी को छूते ही एक झटका लगता है, फिर आवाज़ धीरे-धीरे कम होने लगती है। ‘टारमेक’ में पहुँचते ही जहाज के पीछे का दरवाज़ा धीरे-धीरे खुल जाता है। यंत्रपक्षी आई-एल 76 के चार इंजनों में से दो बन्द होने पर भी, बाकी दो की आवाज़ कानों में ताले लगा देती है। लेकिन तुरन्त ही वे दोनों इंजन भी बन्द हो जाते हैं।
आलोक हाथों में सूटकेस, बैग व बैड़िंग को उठा कर बाकी सैनिकों के साथ जहाज़ धीरे-धीरे नीचे उतर आता है। टारमेक पर सबको ले जाने के लिए थ्री-टनर गाड़ियाँ खड़ी थीं रनवे के किनारे बर्फ जमी थी जिस पर पाँव का दबाव पड़ते ही अनोखी आवाज़ से आलोक काँप उठता है। उसका शरीर कई प्रकार के गर्म कपड़ों से ढका हुआ है, परन्तु दोनों गालों व नाक में उसे एक अद्भुत-सी ठण्ड महसूस हो रही है। ठण्डी हवा साँस के साथ फेफड़ों तक पहुँचती है।

गाड़ी के पीछे सामान लादकर वो भी चढ़कर गाड़ी में बैठ जाता है। तभी वह महसूस करता है कि उसकी साँस फूल रही है और गले से भी अजीब तरह की आवाज़ निकल रही है, इन सबके बीच आलोक घबरा जाता है। उसके चारों तरफ शून्यता छा जाती है। सूरज एक तापहीन बुलबुला-सा लगता है, बर्फ से प्रतिबिम्बित रोशनी से आलोक की आँखें चौंधिया जाती हैं, उसे लगता है एक सफेद बुलबुले के अन्दर से, एक काली संगीन उसके दिमाग में घुस रही है

और वो उसके दिमाग में घुसती ही चली जा रही है। दर्द के कारण वह अपने दोनों हाथों को उठा लेता है, ठीक वैसे ही जैसे इंसान डूबने से पहले उठा लेता है, उसके चिल्लाने से पहले ही उसे आभास होता है कि कोई उसके सीने में मालिश कर रहा है, कोई उसकी पीठ भी सहला रहा है और कोई उसे थरमस से गर्म पानी पीने को दे रहा है। अपनी बंद आँखों से वह उस संगीन को वापस उस सफेद बुलबुले में लौटते हुए देखता है। आँखें खोलते ही खुशी होती है कि मरते-मरते बच गया। गाड़ी चलने लगती है

लेकिन वे तीनों जिन्होंने उसे नया जीवन दिया, उसे पकड़े रहते हैं, परन्तु अभी तक उसके हाथ-पाँव की पेशियाँ काँप रही हैं। आलोक का परिचय उन तीनों से होता है, दाईं तरफ है, ‘सरोज कुमार झा’, पीछे जो उसे अभी तक पकड़े है वह है ‘विनोद कुमार’ और बाईं तरफ जो उसके सीने में अब तक मालिश कर रहा है वह है, ‘सार्जेण्ट नन्द सिंह’। ये तीनों छुट्टी से वापस आ रहे हैं।
आलोक गाड़ी से बाहर देखता है, रास्तों के दोनों तरफ कतारों में आर्मी के बैरेक हैं और उन बैरकों में से धुँआ निकल रहा हैं। बर्फ के बीच बैरकों की छतों से धुआँ निकलते ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो किसी विदेशी फिल्म में कारखानों का दृश्य दिखाया जा रहा हो, परन्तु बस अन्तर इतना है कि यहाँ गाड़ियों के इंजनों के अलावा और कोई आवाज़ नहीं सुनाई दे रही है।
बिलेट के सामने उन सबको उतार कर गाड़ी से आवाज़ करती हुई वहाँ से चली जाती है। वहीं पास में दो लद्दाखी किशोर दो केरोसीन के बैरलों को सीढ़ी से एक-एक कर उतार रहे हैं। उन सबके बिलेट में घुसते ही कुछ लोग हल्ला करते हुए उनके पास आकर हाथ मिलाते हैं और देखते-ही-देखते उनका सामान निश्चित स्थान पर रख देते हैं।

एक चोंगा के आकार की चीज़ के सामने लगे स्टूलों पर सबके सब एक-दूसरे से चिपककर बैठ जाते हैं। इस बड़े-से चोंगा आकार की चीज़ से एक छोटा चोंगा छत की ओर निकल गया है जिसमें से निकल रहा है काला धुँआ, ठीक वैसा ही धुँआ जो आलोक ने गाड़ी से देखा था। यही है ‘बुखारी’ ! बन्द खिड़की की सलाखों के साथ एक जेरीकेन रस्सी से बँधा हुआ है, उस जेरीकेन से एक रबर पाईप के माध्यम से बूँद-बूँद कर केरोसीन उस बुखारी में गिर रहा है जो उसकी आग को हमेशा जलाए रखता है, ठीक वैसे ही जैसे कि एक बीमार व्यक्ति के शरीर में खून या ग्लूकोस की बोतल से बूँद-बूँद कर डाली जाती है। वे सब लोग हाथ सेंकते हैं, तभी कोई आलोक को मग में चाय लाकर देता है। चाय पीकर उसका शरीर गर्म हो जाता है और वह अपने आपको अब ठीक-ठाक महसूस करता है।

तभी एक तेज़ आवाज़ से, बिलेट की मेज, कुर्सियाँ व खिड़की में कंपन होती है। पता चलता है कि गजराज आर्मी का बैकलोड लेकर वापस चंडीगढ़ की ओर आकाश में उड़ गया है। आलोक अजीब-सा महसूस करता है। वह सोचता है कि जिस दिन वह अपने माँ-बाप, भाई-बहन व शहर को छोड़कर पहली बार बेलगाँव ट्रेनिंग के लिए गया था क्या तब भी उसे ऐसी ही अजीब लगा था ? वह सब के बीच में होते हुए भी अपने आपको अकेला महसूस करता है।
अचानक उसे नज़र आता है कि सामने की स्टूल पर बैठा कोई उसकी तरफ एकटक देखकर मुस्करा रहा है। थोड़ी देर पहले ही उसके साथ आलोक ने हाथ मिलाया था। कहीं देखा हुआ चेहरा लगता है। अब उसे मुस्कुराते देख आलोक की यादों की खिड़की खुल जाती है।
‘‘जयन्त ?’’ आलोक की आँखों में बिजली दौड़ जाती है। जयन्त हँसकर सर हिलाता है। जो ज्यादा भावुक होता है वही इतना सर हिलाकर बातें करता है। ‘‘साले, पहचानने में इतनी देर !’’
‘‘मैं सोच भी नहीं सकता कि तुझे दाढ़ी-मूँछों में ! पहचानूँगा कैसे ?’’ दोनों एक-दूसरे को अपनी बाँहों में भींच लेते हैं।
‘‘तू भी तो काफी बदल गया है, लेकिन मैंने पहचान लिया। हा-हा। एयरफोर्स में हाफपैण्ट का दोस्त जो ठहरा !’’
आलोक खुश होता है। वही आवाज़, वही हँसी; इतने सालों बाद, सोच भी नहीं सकता ! जोर से हँसता ह
ै आलोक।
यादों के पर्दे में अतीत जाग उठता है। कदम-कदम बढ़ाए जा...., एक साथ हजारों घण्टे परेड़ और ड्रिल सीखना, एक साथ जंगल ट्रेनिंग, और उस निष्ठुर ड्रिल शिक्षक कारपोरल मुथ्थु का मुर्गा थे वे लोग ! कई सौ घण्टों का फ्राग-जाम्प, रोलिंग या क्रोलिंग की वे भयानक यादें। तब वे लोग बस किशोरावस्था पार करके आए थे। स्कूल और घर की कहानियाँ अक्सर रुला देती थीं। एक-दूसरे के बीच झूलती थी कोई मन को भाएँ सुन्दरी परी की कहानी। एक के सपनों की रानी अनायास ही दूसरे की रातों की नींद चुरा लेती थीं। भले ही वह कोई अपरिचित सुन्दरी ही क्यों न हो।

नया शहर, नए लोग, अपना रूप-यौवन लेकर प्रस्तुत होता है। कितनी आशाएँ, कितनी गुप्त इच्छाएँ। साथ-ही-साथ खूनी शासन ! घण्टों लगातार सजा ! कोहनियाँ और घुटनों के चमड़े छिल कर खून मिल जाती थी बेलगाँव की पथरीले लाल मिट्टी के साथ। लाल मिट्टी शरीर में प्रवेश करने से, सर चकराने लगता था। उल्टियाँ होती हैं। तब एक-दूसरे की सेवा करके स्वस्थ होते हैं। इसी तरह हर सैनिक कठिन सच्चाई के साथ-साथ लड़ – लड़कर पीटे हुए लोहे की तरह बनता है। कुछ दिनों के बाद इस सबकी आदत-सी पड़ जाती है। हर तरह के शारीरिक कष्टों से एक अलग आनन्द का स्वाद लेने की क्षमता वे लोग अर्जन करते हैं। आज इतने सालों बाद जयंत को पाकर उसकी स्मृति में पुराने दिनों की यादें जाग उठती हैं,

बातों-बातों में दोपहर गुजर जाती है। शाम को स्पेशल क्लोदिंग इश्यू होता है, स्टोर के कंदों पर लादकर दस कदम चलकर बिलेट में घुसते ही फिर से दम घुटने लगता है। फिर से सफेद बुलबुला और उसमें निकलता काला संगीन धीरे-धीरे लंबा होकर उसकी ओर बढ़ने लगता है, वह बिस्तर पर लेट जाता है। जयन्त उसके सीने में मसाज़ करता है। सरोज गर्म पानी पिलाता है। जयन्त बड़ी-बड़ी आँखें करके कहता है, ‘‘एकदम दादागिरी नहीं, यहाँ पंगा लेने से ही मरेगा। सावधान रहना ! एक्लिमेटाइजेशन होने में तीन-चार दिन तो लग ही जायँगे।’’
शाम को वह कागज लेकर चिट्ठी लिखने बैठता है, ‘‘प्रियतमा,.....बिना किसी प्राकृतिक आवाज़ के इतना विशाल प्राकृतिक परिदृश्य हो सकता है मुझे पता नहीं था। सिर्फ कठोर पत्थर, बर्फ और बर्फ से ढका हुआ रेत। ठण्ड से यहाँ के पेड़ सब सूखे हुए खम्भों की तरह दूर-दूर अकेले खड़े हैं। एक-एक करके पत्ते उनके शरीर से गिर रहे हैं। सिर्फ यादों की तरह सूखे पत्ते इधर-उधर उड़ते रहते हैं। कोई चिड़िया नहीं है। कम-से-कम मुझे दिखाई नहीं देती, न ही अब तक सुन पाया हूँ, उनकी चहचहाहट।
‘‘वायुसेना के जहाज़ में चढ़ते वक्त अपना सामान अपने ही कंधों पर लादकर चलना पड़ता है, एयरमैन होकर भी यह मुझे मालूम नहीं था। इसलिए इतना भारी ट्रंक ले आया था। चण्डीगढ़ में कुछ साथियों से पता चला कि गर्मी के अलावा यहाँ पढ़ाई-लिखाई असंभव है। इसलिए किताबों का ट्रंक एक दोस्त के घर छोड़ आया हूँ।’’
इतना लिखकर आलोक उदास हो जाता है। वह ट्रंक उसके बहुत दिनों का साथी है। एक-एक करके किताब खरीद कर जमा किया है। अनेक एयरमैनों की तरह आलोक भी खाली समय पढ़ाई करता है। आज उस ट्रंक के लिए उसे बहुत दु:ख होता है। और लिख नहीं सकता है। चिट्ठी और कलम डायरी में रख देता है। आज वह और कुछ नहीं कर सकेगा। दोपहर को खास कुछ खा नहीं सका क्योंकि जी मचल रहा था। अब सर तथा सारे बदन में दर्द है। कम ऑक्सीजन की वजह से ही ये सब हो रहा है क्या ?
एक युग से भी ज्यादा समय से उसके नींद के साथ लुंगी का एक मधुर संबंध है। पर आज उसने ऊन से बना इनर पहन रखा है। कितने सख्ती से इनर उसके निम्नांग के साथ चिपका हुआ है। उसे अटपटा लगता है। उसके पावों में खुजली होती है और तभी उसकी आँखों के सामने ‘अंतरा’ का चेहरा आ जाता है, और वह रो पड़ता है। वह अपने आप को अकेला महसूस करता है क्योंकि अन्तरा आज उसके पास नहीं है। एक अव्यक्त बेचैनी रूपी घोड़े की पीठ पर सवार होकर आलोक अपनी बीवी व बेटी तोड़ा के साथ घण्टे-भर आकाश-पाताल घूमते-घूमते सो जाता है।
नींद में ही उसे अपना बचपन याद आता है, वह स्कूल याद आता है जिसके सामने मंटू की आईसक्रीम की दुकान थी; जहाँ पर पाँच पैसे ‘जोड़े’ आईसक्रीम मिलती थी, कोई लाल, कोई सफेद। चूसते-चूसते जैसे ही आईसक्रीम खत्म होने लगती थी, तब स्कूल की घण्टी बज जाती थी, उसी समय सबको मौका मिल जाता था अपनी बची आईसक्रीम को एक-दूसरे की ‘पीठ’ में डालने का और शुरू हो जाती थी हर्षोल्लास, उछल-कूद व गाली-गलौज़ का माहौल !
आलोक की पीठ में भी कोई कई बार ऐसे ही...। लेकिन बर्फ के प्रति उनका लगाव काफी दिनों में जन्मा, शायद 1980 के बाद ही, जब पहली बार दूरदर्शन में प्रसारित एक वृत्तचित्र में उसने बर्फीले मैदान में कुत्तों को स्लेज़ गाड़ी खींचते हुए देखा था। वो किसी विदेशी इलाके का दृश्य था।
तभी से वह अपने मन में एक फैण्टासी को पाल रहा था। फिल्मों में भी उसने इस प्राकृतिक सौन्दर्य को कई बार देखा था शायद यही चाहत उसे हमेशा ‘इच्छा’ रूपी गुब्बारे में उड़ाकर ले चलती थी। सिनेमा में देखा शिमला व श्रीनगर, संगीत व प्रेम, बदली का आदेश पाकर गर्म गैस से वो गुब्बारा भर उठता है। शायद इसीलिए आज वह इन बर्फीली वादियों के बीच है। तब से हर मिनट बेचैनी का, अच्छा लगता है कि नहीं उसे खुद ही नहीं मालूम। वह सिर्फ आश्चर्यचकित होकर ग्रहण करता है वक्त और प्रकृति का शिल्प।

दूसरे लोगों के ऊपर सर्दी का असर जितना है, आलोक महसूस करता है कि इतना नहीं होना चाहिए। मनुष्य को वक्त के अनुसार समाज तथा देश व जाति की सुरक्षा की खातिर इतना प्रेम तो सहन कर लेना चाहिए। पता नहीं आगे चलकर वह अपने आपको सँभाल पाएगा कि नहीं !
बाथरूम के बड़े बर्तन में हमेशा पानी गर्म होता रहता है, वही पानी खाना बनाने, नहाने-धोने व हर काम में प्रयोग में लाया जाता है। आलोक शौच करके वहीं पड़े ठण्डे पानी को शौचालय में डालने लगता है। पास खड़ा सरोज चिल्ला पड़ता है, ‘‘बर्फ जम जाएगी।’’
‘‘तो क्या वहाँ पर भी गर्म पानी डालना होगा ?’’ आलोक घबराकर पूछता है।
‘‘जी हाँ !’’ सरोज हँसकर कहता है, ‘‘इसीलए तो यहाँ ‘फ्लेश’ का प्रबंध नहीं है।’’
तब से आलोक हमेशा कोई भी काम करने से पहले सतर्क रहता है, क्योंकि न जाने उसे अभी कैसे-कैसे अनोखे अनुभव से गुजरना होगा !
चिट्ठी लिखते-लिखते बार-बार उसका पेन रुक जाता है और वह तभी दोबारा काम करता है जब उसे दोबारा बुखारी में गर्म किया जाए। इस वक्त तापमान माइनस ग्यारह दशमलव सात डिग्री सेल्सियस है। शरीर में काफी ठण्ड लग रही है परन्तु उसका मन यह मानने को तैयार नहीं है कि क्या तापमान वाकई इतना कम है। उसे विश्वास ही नहीं होता !
चारों तरफ पहाड़ों पर बर्फ की चादर और सूरज की रेशमी किरणें एक उज्वल धूप को जन्म देती हैं,

धूप इतनी साफ है कि आँखें चौंधिया जाती हैं। हर दिन तापमान घटता जा रहा है, बर्फ की चादर अपना साम्राज्य फैलाती जा रही है। अगर दो दिन आकाश साफ रहता तो चार-पाँच दिन बादलों से ढका रहता। दिन-रात हिमपात हो रही है, मानों एक सपनों का देश हो। एक अजीब से नशे में दिन-रात गुजर रहा है। वादियों में किसी भी पेड़ पर एक भी हरी पत्ती नहीं है। पेड़ इस डर से कि पत्तियों का रस वाष्प बनकर उड़ न जाए, अपनी पत्तियों का सारा रस तनों में छुपा कर रखे हुए हैं। पेड़ों की सारी पत्तियाँ पीली व फीकी होते-होते बादामी हो जाने के बाद, एक समय हवा के झोके से पेड़ से गिर जाती हैं। तना भी यहाँ के तिब्बतियों की तरह इंतज़ार करते हैं गर्मियों की सुनहरी धूप का, ठीक वैसे ही जैसे कि एक शिशु बड़ा होने का व एक किशोर यौवन का इंतज़ार करता है। ऐसे ही महीनों गुज़र जाते हैं, इन्तज़ार करते-करते।
आलोक भी इसी तरह मन-ही-मन अपने आपको तैयार कर रहा है—ग्लेशियर में जाने की, लेकिन पहले उसे वहाँ की स्ट्रेटजी का ज्ञान लेना नितांत ज़रूरी है, मसलन कि अगर आक्रमण हो तो कौन-सा कौशल किस प्रकार कब उपयोग किया जाए, शत्रु के ठिकाने व उनके अस्त्र-शस्त्रों की जानकारी, और भी ऐसी ही गोपनीय जानकारी ग्लेशियर में जाने से पहले बहुत ज़रूरी है, इसलिए वह हर रोज़ ‘क्लास अटेण्ड’ कर रहा है। वह युद्ध में जाने के खयालों में डूबा हुआ है।
एक अद्भुत उत्तेजना हर वक्त उसे और भी एकाग्र कर देती है। सामने मानों विशाल कौरव सेना हो। उसे लगता है, अब सेना में आना सार्थक होने जा रहा है। बचपन में सुनी और बाद में किताबों में पढ़ी सब युद्ध की यादें घुल-मिलकर एक सी हो गई हैं।
चारों तरफ बर्फ से ढके पहाड़ जो क्रमशः ढके रहते हैं, यह पहाड़ कहाँ से शुरू हैं और कहाँ खत्म, कुछ समझ नहीं आता और न ही पहाड़ियों के पीछे आसमान ही दिखाई पड़ता है। तापमान जो इस वक्त माइनस उन्नीस दशमलव आठ डिग्री है, आज सुबह से ही ठण्ड की वजह से आलोक के सीने में दर्द हो रहा है, उसे तोड़ा की याद भी बहुत आ रही है।
दोपहर को उसे एक अजीब से पक्षी की आवाज़ सुनाई देती है, दोयल और कोयल की मिश्रित आवाज—एक करुणा भरी आवाज़ उसे चौंका देती है। वह आवाज़ उसे दो बार सुनाई देती है और वह उस चिड़िया को देखने बाहर निकलता है। बिलेट की छत, गार्डरूम की दीवारें, चारों तरफ वह उस चिड़िया को ढूँढ़ता है परन्तु वह चिड़िया उसे कहीं नहीं दिखाई देती। अलबत्ता वह थक हार कर बिलेट वापस आता है। यह बात वह सभी दोस्तों को बताता है, परन्तु उस पर कोई विश्वास नहीं करता। उसे रुक-रुक फिर वही आवाज़ सुनाई देती है, फिर वह बाहर आता है। उसे देखकर जयन्त और सरोज भी बाहर आ जाते हैं और उससे कहते हैं, ‘‘तू पगला तो नहीं गया, यहाँ कोई चिड़िया नहीं है।’’ उस दिन शाम को उसकी बेचैनी और बढ़ जाती है। इसी बेचैनी में चार सुन्दर गिलास उसके हाथ से गिरकर टूट जाते हैं। उसकी यह हालत जयन्त से नहीं देखी जाती, वह उससे कहता है—
‘‘तू इतना बेचैन क्यों होता है ? कल से हम लोग घूमने जाया करेंगे, तुझे अच्छा लगेगा। हर वक्त लड़ाई के ही बारे में सोचता रहता है !’’
‘‘तेरे कहने से क्या मैं बिना सोचे रह पाऊँगा, क्या तू रह सकता है, युद्ध तो चल रहा है न।’’ आलोक उदास मन से कहता है।
उसकी बातें सुन जयन्त की आँखों में भी उदासी छा जाती है और वह आलोक की पीठ थपथपा कर उसे सांत्वना देता है, ‘‘चल अब काम करते हैं !’’
बिलेट को सजाया जा रहा है सबके बक्सों को एक कतार में लगा कर उसके ऊपर सफेद चादर ढक दी गई थी। सरोज रूम फ्रेशनर स्प्रे कर रहा है। चलो हर रोज़ की असहनीय बदबू से कुछ पल के लिए राहत तो मिली ! विनोद, काँच के गिलास व कई तरह की शराब की बोतलों को सजा रहा है।





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