नाटक-एकाँकी >> खूब लड़ी मर्दानी वह तो... खूब लड़ी मर्दानी वह तो...लालबहादुर सिंह चौहान
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स्वतंत्रता-संग्राम में लड़ी रानी लक्ष्मीबाई के जीवन पर आधारित नाटक
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
भारत के स्वतन्त्रता-संग्राम में केवल पुरुषों ने ही मर-मिटकर अपनी
जिन्दगियाँ तबाह नहीं की थीं, अपितु वीर-बाँकुरी नारियाँ भी घर की
चहारदीवारी से बाहर निकली थीं और उन्होंने भी बहादुरी तथा अदम्य साहस का
परिचय देते हुए रणभूमि में युद्ध कर दुश्मनों के दाँत खट्टे कर दिए थे।
कौन नहीं जानता कि सन् 1857 के स्वातन्त्र्य-समर में महारानी लक्ष्मीबाई
ने इंग्लैंड की अपार शक्ति को छका-छका कर छक्के छुड़ा दिए थे।
झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई भी जंगे आजादी में विशिष्ट योगदान करनेवाली अविस्मरणीय एक ऐसी ही वीराँगना थीं। जिस समय अंग्रेज शासक देशी रियासतों को एक-एक करके अपनी अधीनता स्वीकार कराते जा रहे थे और उनके राज्य को अपने में मिलाते जा रहे थे, तभी महारानी लक्ष्मीबाई ने कहा था-‘‘मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।’’
झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई भी जंगे आजादी में विशिष्ट योगदान करनेवाली अविस्मरणीय एक ऐसी ही वीराँगना थीं। जिस समय अंग्रेज शासक देशी रियासतों को एक-एक करके अपनी अधीनता स्वीकार कराते जा रहे थे और उनके राज्य को अपने में मिलाते जा रहे थे, तभी महारानी लक्ष्मीबाई ने कहा था-‘‘मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।’’
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
मोरोपन्त महाराष्ट्र में सतारा के समीप कृष्णा नदी के किनारे बाई नामक
गाँव में रहते थे। साधारण परिवार था। उनकी फिर भी बड़ों-बड़ों तक पुहँच
थी। चिमाजी आपा साहब उन्हें बहुत मानते थे। वह काशी में रहते थे, इसलिए
उन्होंने मोरोपन्त को पचास रुपए मासिक वेतन पर अपने पास काशी में बुला
लिया था। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती भागीरथी बाई भी उन्हीं साथ काशी चली गईं।
वहीं काशी में दिनाँक 16 नवम्बर, सन् 1835 ई. को मनु का जन्म हुआ।
मोरोपन्त का शुष्क दाम्पत्य जीवन सर-सब्ज हो गया। परन्तु अधिक दिनों तक यह
अवस्था न रहने पाई। तीन-चार वर्ष बाद ही आपा साहब का निधन हो गया।
मोरोपन्त को इस घटना से बड़ा दुःख हुआ। अब उनके लिए काशी में रहना कठिन हो
गया। तब फिर उन्होंने बाजीराव को पत्र लिखा।
बाजीराव चिमाजी के भाई थे। उन्हें ब्रिटिश सरकार से आठ लाख रुपया वार्षिक पेंशन मिलती थी। भाई की मृत्यु का समाचार सुनकर उन्हें बहुत दुःख हुआ। उन्होंने मोरोपन्त को अपने पास बुला लिया।
मनुबाई की माता भागीरथी बाई बहुत सुन्दर, सामाजिक और धार्मिक विचारों की विदुषी महिला थीं। मनु अभी बेचारी चार-पाँच वर्ष की अबोध बालिका थी कि अकस्मात् उनकी माता भागीरथी बाई का देहान्त हो गया। मनु के पिता मोरोपन्त पेशवा बाजीराव की सेवा में ही थे और घर में छोटी-सी मनु की देखभाल करने वाला कोई अन्य न था। अतः उनके पिताश्री मोरोपन्त अपनी बेटी को अपने साथ पेशवा बाजीराव के दरबार में ले गए। नटखट, गोरे रंग की बेहद खूबसूरत मनु ने वहाँ सबका मन मोह लिया और उसे लोग छबीली कहने लगे। मनुबाई का पालन-पोषण पिता ने ही किया।
बाजीराव पेशवा के बच्चों के पढ़ाने के लिए कई अध्यापक आते थे; मनु भी उनके बच्चों के साथ बैठकर पढ़ने-लिखने लगी। प्राथमिक शिक्षा के साथ-साथ मनु ने तलवार चलाना और बन्दूक का निशाना साधना बाल्यकाल में ही सीख लिया था। बाजीराव पेशवा के बच्चों के साथ मनु रहती ही थी, इसलिए उन बच्चों के साथ ही अभ्यास करके उसने निपुणता हासिल कर ली और घुड़सवारी करने में भी बहुत माहिर हो गई। छोटी-सी बालिका को तीर, तलवार और बन्दूक चलाते देखकर लोग आश्चर्य में पड़ जाते थे। बचपन में यह सब विद्याएँ मनु ने खेल-खेल में ग्रहण कर लीं।
झाँसी के राजा गंगाधर राव के साथ मनु का विवाह बड़ी धूमधाम और गाजे-बाजे के साथ सम्पन्न हुआ। विवाहोपरान्त मनु का नाम परिवर्तित कर लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार बाल्यकाल की मनु और छबीली नाम की लड़की झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई बन गई।
उन दिनों भारत में पर्दा-प्रथा का अधिक जोर था, इसलिए शादी के उपरान्त झाँसी में महारानी लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था और उन्हें बाहर जाने की मनाही थी। स्वच्छन्द और खुले वातावरण में पली और बढ़ी मनु को किले के भीतर राजभवन का यह परतन्त्र जीवन रास नहीं आया और मनु ने राजा से कहकर दुर्ग के अन्दर ही व्यायामशाला बनवाई और शस्त्र चलाने तथा घोड़े की सवारी का अभ्यास करने की भी अपने लिए व्यवस्था करा ली। महारानी लक्ष्मीबाई ने महिलाओं की एक सेना भी तैयार की। राजा गंगाधर राव महारानी लक्ष्मीबाई की वीरता, योग्यता तथा सुन्दरता से बेहद प्रभावित व प्रसन्न थे और रानी को बहुत प्यार करते थे।
महारानी लक्ष्मीबाई बड़ी दयालु प्रकृति की थीं। एक दिन महारानी जब अपनी कुल देवी महालक्ष्मी के मन्दिर से दर्शन-अर्चन कर वापस लौट रही थीं तो मार्ग में कुछ गरीब, अनाथ और बेसहारा लोगों ने उन्हें रोक लिया। महारानी के पूछने पर उन्होंने बताया कि इस सर्द ऋतु के कड़ाके की ठण्ड से बचने के लिए हमारे पास कपड़े-लत्ते नहीं हैं, हम बड़े लाचार लोग हैं और उन्होंने अपनी विपन्नता की व्यथा-कथा महारानी को कह सुनाई। उनको दुःखी देखकर महारानी लक्ष्मीबाई का हृदय द्रवित हो गया और वे अपनी आँखों में आँसू भर लाईं। तत्पश्चात् उन्होंने नगर में डुग्गी पिटवाकर घोषणा करा दी कि अमुक दिन सब गरीब और असहायजन अमुक मैदान में एकत्रित हों। वहाँ में सबके दुःख-दर्द की बात सुनूँगी और उनके कल्याणार्थ कुछ उपाय करूँगी। मुनादी के अनुसार सब निर्धन व असहायजन निश्चित तिथि पर मैदान में एकत्रित हुए। महारानी ने सबसे वार्ता की, गौर से उन्हें सुना और फिर उन्होंने प्रत्येक गरीब को रुई भी फतूरी, टोपी और एक-एक कम्बल अपने हाथ से वितरित किया। ऐसी थीं करुणामयी महारानी लक्ष्मीबाई। कई बार उन्होंने निर्धनों के हितार्थ ऐसे आयोजन किए।
कुछ वर्षों बाद महारानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। झाँसी के चारों ओर अपार खुशियाँ मनाई गईं, जगह-जगह जश्न हुए परन्तु कुछ महीनों के पश्चात् वह शिशु बीमार पड़ा और उसको बचाया नहीं जा सका, उसका प्राणान्त हो गया। झाँसी में सर्वत्र शोक छा गया और महारानी बहुत दुःखी रहने लगीं। दुर्भाग्य और बुरे समय ने महारानी का पीछा नहीं छोड़ा। कुछ दिनों पश्चात् बच्चे के गम में राजा गंगाधर राव को गम्भीर बीमारी ने यकायक धर दबाया, उनके जीवन-रक्षा की कोई आशा नहीं रही। तब दरबार के लोगों ने पुत्र गोद लेने की सलाह दी। अस्तु, अपने ही परिवार के एक पंच वर्षीय बालक को उन्होंने गोद ले लिया अपना दत्तक पुत्र बनाया। बालक का नाम दामोदर राव रखा गया। गोद लेने के केवल दो दिन बाद ही 21 नवम्बर, सन् 1853 ई. को राजा गंगाधर राव का निधन हो गया। 18 वर्ष की युवा लक्ष्मीबाई विधवा हो गईं और पति-वियोग में शोकसागर में डूब गईं। इस घड़ी पर झाँसी का हर नागरिक गमगीन व व्याकुल था।
राजा गंगाधर राव के निधन के पश्चात् झाँसी की जनता की जिम्मेदारी महारानी लक्ष्मीबाई के कन्धों पर आ गई। महारानी ने अपने मन में निश्चय किया-‘‘झाँसी के लोगों का भाग्य अब मेरे हाथों में है। मैं उनका विश्वास नहीं तोड़ूँगी।’’
महारानी लक्ष्मीबाई ने अपने को अच्छी तरह से राजकाज चलाने के लिए तैयार किया और अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को मान्यता दिलाने के लिए महारानी ने अंग्रेज गवर्नर जनरल को प्रस्ताव भेजा, परन्तु उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया।
उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेज शासन कर रहे थे। वे झाँसी को भी अपने आधिपत्य में लाना चाहते थे। उन्हें यह मौका अच्छा लगा। वे जानते थे कि महारानी लक्ष्मीबाई महिला हैं और युद्ध में हम अंग्रेजों का सामना नहीं कर सकतीं।
इसलिए गवर्नर जनरल ने लिखकर भेजा कि राजा गंगाधर राव को कोई पुत्र नहीं है। अस्तु, अब झाँसी पर अंग्रेजों का अधिकार होगा। वीरांगना लक्ष्मीबाई यह समाचार पाकर क्रोध से भभक उठीं और उन्होंने घोषणा की कि ‘‘मैं अपनी झाँसी कभी नहीं दूँगी।’’ झाँसी की स्वामिभक्त और मातृभूमि की रक्षा में जान निछावर करने वाली प्रजा ने भी यह नारा गर्व से बुलन्द किया कि ‘‘हम अपनी झाँसी नहीं देंगे।’’ जनता का सहयोग व समर्थन पाकर महारानी में एक नई ताकत पैदा हो हुई। उधर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की तैयारियाँ देश भर में प्रारम्भ हो गई थीं।
10 मई, सन् 1857 को मेरठ छावनी में सैनिकों ने खुला विद्रोह कर दिया। उन्होंने अंग्रेज अफसरों पर गोलियाँ चलाईं और अपने बन्दी साथियों को मुक्त करा लिया। मेरठ और दिल्ली के सैनिकों ने मिलकर दिल्ली पर अपना कब्जा कर लिया और बहादुर शाह को दिल्ली के सिंहासन पर बैठाकर भारत का राजा घोषित कर दिया।
देशभक्त जवानों के सम्मुख अंग्रेज पूर्णतया कमजोर साबित हुए और उनकी हिम्मत पस्त हो गई। देशभक्तों ने झाँसी में कहा, ‘‘लक्ष्मीबाई झाँसी पर राज्य करें, हम दिल्ली चलते हैं।’’
महारानी लक्ष्मीबाई ने एक दिन जनता के सभी वर्गों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया और कहा-‘‘मैं चाहती हूँ कि यह निर्णय जनता करे कि झाँसी पर कौन राज्य करे ?’’ जनप्रतिनिधियों ने फैसला किया, ‘‘झाँसी पर हमेशा के लिए महारानी लक्ष्मीबाई का राज्य रहेगा। हम पूरी तरह से महारानी के साथ हैं।’’ महल के बाहर खड़ी राज्य की पूरी जनता ने एक स्वर में कहा, ‘‘झाँसी स्वतन्त्र राज्य होगा और महारानी लक्ष्मीबाई उस पर राज्य करेंगी।’’
सन् 1857 में महारानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी का शासन अपने हाथों में लिया और वहाँ काफी सुधार किया। खजाना भरा गया और सेना को शक्तिशाली बनाया गया। पुरुषों के साथ-साथ महिला-सेना भी तैयार की गई।
महारानी लक्ष्मीबाई के शासन को सबसे पहली चुनौती स्वर्गीय महाराजा के भतीजे सदाशिव राव ने अपने को झाँसी का राजा घोषित करके दी। लक्ष्मीबाई की सेना ने एक ही झटके में सदाशिव राव को परास्त कर भगा दिया। दतिया और ओरछा के पड़ोसी राज्यों के राजाओं ने भी झाँसी को लक्ष्मीबाई से छीनने की कोशिश की, परन्तु उन्हें भी पराजय का सामना करना पड़ा।
उधर अंग्रेजों ने फिर से दिल्ली को जीतकर अपने कब्जे में कर लिया। दिल्ली के बादशाह को कैद कर लिया और उसके लड़कों को गोलियों से भून दिया गया। कानपुर और अवध आदि को भी अंग्रेजों ने फिर से जीत लिया और अब अंग्रेजों का निशाना झाँसी ही थी। सेना लेकर अंग्रेजों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। महारानी लक्ष्मीबाई ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। बन्दूकों, तोपों, रसद तथा चारे का पर्याप्त प्रबन्ध कर लिया और सेना में भरती होने की लोगों से अपील की।
25 मार्च, सन् 1858 को सुबह-सवेरे अंग्रेजों की तोपों ने झाँसी पर गोलाबारी शुरू कर दी। महारानी लक्ष्मीबाई जानती थीं कि अंग्रेज तोपों से लड़ेंगे। इसलिए उन्होंने भी दुर्ग की दीवारों पर तोपें लगा दीं। महारानी ने अपने महल के सोने और चाँदी के सामान को भी तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया। महारानी लक्ष्मीबाई के विश्वासपात्र और कुशल तोपची गुलाम मुहम्मद गौस खाँ तथा खुदाबक्श थे। महारानी ने सब सरदारों को बुलवाया और झाँसी के दुर्ग के चारों ओर सुदृढ़ किलाबन्दी की। महारानी के किलेबन्दी की व्यवस्था देखकर अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेजी फौज ने दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया और दुर्ग पर आक्रमण होने लगे। महारानी लक्ष्मीबाई के सैनिकों ने भी अंग्रेजों के प्रत्येक गोले का जवाब गोले से ही दिया।
अंग्रेज आठ दिन तक लगातार किले पर गोले बरसाते रहे, परन्तु वे झाँसी का किला न जीत सके। महारानी और उनकी स्वामिभक्त प्रजा ने दृढ़ संकल्प किया था कि आखिरी साँस तक झाँसी के दुर्ग पर फिरंगियों का झण्डा नहीं फहराने देंगे। अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज ने यह भली प्रकार जान लिया कि सैनिक-शक्ति के बल पर हम झाँसी पर अधिकार नहीं कर सकेंगे। अतः उसने छल और चालाकी से काम लिया। झाँसी के एक सरदार दूल्हासिंह को सर ह्यूरोज अंग्रेज सेनापति ने लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। जब अंग्रेजों का रात को आक्रमण हुआ तो दूल्हासिंह ने दक्षिण दुर्ग के फाटक को खोल दिया। बस, फिर क्या था ? फिरंगियों ने नगर में घुसकर बहुत लूटपाट की और हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। यहाँ तक कि महिलाओं और अबोध बच्चों तक को भी मौत की नींद सुला दिया।
झाँसी की बहादुर फौज ने अपनी महारानी के नेतृत्व में मजबूती से दुश्मन का मुकाबला किया। युद्ध का भयंकर दृश्य उपस्थित था। महारानी लक्ष्मीबाई रणचण्डी की मूर्ति बनी शत्रु-सेना पर टूट पड़ीं और शत्रु-पक्ष के सैनिकों को गाजर-मूली की भाँति काटने लगीं। जय भवानी और हर-हर महादेव के नारों से आकाश गूँज उठा।
उधर ताँत्याटोपे झाँसी की सहायता के लिए आया। झाँसी की सेना में और जोश उत्पन्न हो गया। सैनिकों के जोश और उत्साह का पता इस बात से चलता है कि सैनिकों ने कहा-‘‘अंग्रेज झाँसी पर कभी राज्य नहीं कर पाएँगे।’’ रात को अंग्रेजों ने और तोपें मँगाकर ताँत्याटोपे की फौज पर गोलाबारी प्रारम्भ कर दी और अगले दिन अंग्रेजों ने ताँत्याटोपे की सेना को एक ही आक्रमण में साफ कर दिया।
महारानी लक्ष्मीबाई अपने समस्त सेनापतियों को इकट्ठा किया और कहा-‘‘हमें हिममत नहीं छोड़नी है। हम अकेले भी अंग्रेजों से लड़ सकते हैं। आज तक आप लोग जिस बहादुरी और वीरता से युद्ध कर रहे हैं, मुझे पूर्णविश्वास है कि आप रणभूमि में अवश्य विजय प्राप्त करेंगे।’’
सेनापतियों ने निर्णय किया कि जब तक एक भी आदमी जीवित रहेगा, हम डटकर प्राण-पण के दुश्मन से लड़ते-रहेंगे। आखिरी विजय हमारी ही होगी। हम हथियार कभी नहीं छोड़ेंगे और फिरंगियों को मौत के घाट अन्त तक उतारते रहेंगे।
थोड़े समय के पश्चात् अंग्रेजों ने फिर से युद्ध शुरू कर दिया। झाँसी को चारों ओर से घेर लिया गया। कहाँ झाँसी की थोड़ी-सी फौज और कहाँ अंग्रेजों की विशाल सेना। महारानी लक्ष्मीबाई जब युद्ध में चारों ओर से घिर गईं तो उन्होंने अपने सेनापतियों से कहा-‘‘मैंने यह फैसला किया है कि मैं समर्पण नहीं करुँगी, जो मरने को तैयार हैं वह मेरे साथ रहें। बाकी किला छोड़े सकते हैं।’’ कई सेनापतियों ने कहा कि हम आपके साथ हैं। महारानी के विश्वसनीय सरदारों ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ कालपी जाने का परामर्श दिया।
तद्नुसार अपने कुछ विश्वासपात्र सरदारों के साथ महारानी लक्ष्मीबाई आधी रात को किले से निकल गईं और कालपी की ओर बढ़ीं। अंग्रेजों को पता लगा कि महारानी लक्ष्मीबाई झाँसी से बच निकलीं, तो उन्होंने अपने कुछ अंग्रेज सैनिक महारानी का पीछा करने के लिए भेजे। ये घुड़सवार अंग्रेज सैनिक महारानी के पीछे लग गए। दो सैनिकों ने महारानी को पकड़ने की कोशिश की, परन्तु महारानी ने उन्हें मार गिराया।
कालपी में महारानी लक्ष्मीबाई राव साहब पेशवा के पास पहुँचीं। राव साहब पेशवा ने महारानी का स्वागत करते हुए कहा कि मुझे अपने संघर्ष में आपकी नितान्त आवश्यकता है। महारानी लक्ष्मीबाई ने कहा-‘‘मराठों की शान व गौरव की रक्षा करने में युद्ध के मैदान में मरने से अधिक मुझे और कोई खुशी नहीं हो सकती।’’
अंग्रेज-फौज ने कालपी के आसपास घेरा डालना प्रारम्भ कर दिया। अंग्रेजों की सेना से देशभक्त सैनिकों ने घमासान युद्ध किया, परन्तु अन्त में कालपी की सेना पराजित हो गई। कालपी के राव साहब पेशवा ने सोचा के अब समर्पण के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं रहा और हम पूरी तरह पराजित हो चुके हैं। महारानी लक्ष्मीबाई ने कहा कि हमें हिम्मत नहीं छोड़नी चाहिए और आगे की कार्यवाही के लिए सोचना व विचारना चाहिए। अन्त में यह निर्णय हुआ कि हम आखिरी दम तक युद्ध करते रहेंगे।
महारानी लक्ष्मीबाई अपने घोड़े पर सवार होकर शेरनी की तरह अंग्रेजी सेना पर टूट पड़ीं और दूसरे सेनापति भी महारानी के साथ-साथ दुश्मन की फौज से भिड़ गए। परन्तु अंग्रेजों की चतुर रणनीति सफल हो गई और राव साहब पेशवा की सेना पराजित हो गई। तब अन्ततः 24 मई, 1858 को अंग्रेजों ने कालपी के दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया।
इसके पश्चात् देशभक्त रावसाहब पेशवा, ताँत्याटोपे, बांदा के नवाब और महारानी लक्ष्मीबाई की बैठक हुई। महारानी लक्ष्मीबाई ने कहा कि मेरा विचार है कि ग्वालियर का किला पास ही है, हम ग्वालियर चलकर वहाँ से सहायता प्राप्त करें। यदि वह किला हमें मिल गया तो हम युद्ध कर सकते हैं और पूर्ण आशा है कि हम दुश्मन को अवश्य परास्त कर देंगे। ग्वालियर की सेना और वहाँ की जनता अंग्रेजों के विरुद्ध है।
महारानी लक्ष्मीबाई तांत्याटोपे के साथ एक सेना लेकर ग्वालियर पहुँचीं। महारानी लक्ष्मीबाई को देखते ही ग्वालियर की सेना ने अपने हथियार महारानी के सामने डाल दिए और ‘महारानी झाँसी की जय’ के नारे लगाए। ग्वालियर का महाराजा जयाजी राव सिंधिया भागकर आगरा आया और आगरा में अंग्रेजों की शरण में पहुँच गया।
ग्वालियर में कालपी के राव साहब पेशवा ने एक विशाल दरबार बुलाकर अपने को ‘मराठा राज्य-संघ’ का प्रधान घोषित कर दिया। इस उपलक्ष में खुशी के माहौल में एक भव्य समारोह आयोजित किया गया। सभी लोग समारोह में मस्त हो रहे थे, परन्तु महारानी लक्ष्मीबाई के मन में चिन्ता व्याप्त थी। अंग्रेज सेना ने जब ग्वालियर में प्रवेश किया तो राव साहब पेशवा को इस बात का पता ही न था। अंग्रेजों ने आक्रमण प्रारम्भ कर दिया। ग्वालियर में सेना तैयार नहीं थी, इसलिए महारानी ने राव साहब से कहा कि सेना को युद्ध के मैदान में उतारिए। महारानी लक्ष्मीबाई ने पुरुषों के वस्त्र पहने और युद्ध में कूद पड़ीं। परन्तु अंग्रेजों की फौज ने ग्वालियर की सेना को काफी नुकसान पहुँचाया।
महारानी लक्ष्मीबाई ने फैसला किया कि मैं कभी हार नहीं मानूँगी और आत्म-समर्पण नहीं करूँगी। उधर महारानी घायल हो गई थीं और दोनों ओर से सेनाएँ जमकर लड़ रही थीं तथा अंग्रेज सेना तेजी से किले में घुस रही थी। महारानी के समक्ष अब भागने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प न था। घोड़े की लगाम अपने दाँतों में दबाकर और दोनों हाथों से तलवार चलाती हुई महारानी आगे बढ़ती रहीं। घुड़सवार अंग्रेज सैनिक महारानी का पीछा कर रहे थे और दुर्भाग्य से एक गोली महारानी की जाँघ में घुस गई; इससे उनकी गति कुछ धीमी पड़ गई। इतने में घुड़सवार अंग्रेज उनके निकट आ पहुँचे। दोनों दलों में भयंकर युद्ध होने लगा। महारानी श्रान्त व काफी जख्मी हो चुकी थीं परन्तु फिर भी उनके पराक्रम व साहस में कोई कमी नहीं आई।
एक सवार उनके बिल्कुल पास आ पहुँचा और उसने महारानी पर वार करना चाहा, परन्तु महारानी की तलवार ने बिजली की गति से घूमकर उसे तत्काल यमलोक पहुँचा दिया। महारानी ने पुनः अपना घोड़ा दौड़ाया पर उसी समय उन्हें अपनी प्रिय सखी मुन्दर की चीत्कार सुनाई दी। वे तुरन्त घूम पड़ीं। उन्होंने देखा कि एक अंग्रेज घुड़सवार ने तलवार से मुन्दर को मार दिया है; तो वे क्रोध से तमतमा उठीं और उन्होंने अपनी सखी मुन्दर के हत्यारे पर झपटकर भीषण प्रहार किया और उसे मौत के घाट उतार दिया।
तदुपरान्त महारानी लक्ष्मीबाई ने पुनः अपना घोड़ा दौड़ाया, परन्तु मार्ग में एक नाला आ गया। महारानी ने अपने घोड़े को नाले के पार कुदाने का भरसक प्रयास किया, किन्तु वह नाले को पार न कर सका। इतने में अंग्रेज घुड़सवार पास आ गए। एक अंग्रेज ने पीछे से महारानी के मस्तक पर प्रहार किया। इससे महारानी के सिर का दाहिना भाग कट गया और उनकी एक आँख बाहर निकल आई। इस सवार ने महारानी के हृदय पर संगीन से वार किया। भयंकर रूप से घायल होने पर भी महारानी के हाथ की तलवार चलती रही। अपने आक्रमणकारी पर महारानी ने ऐसा जबरदस्त वार किया वह चीखकर धराशायी हो गया और उसके साथ ही महारानी स्वयं भी जमीन पर गिर पड़ीं। पठान सरदार गुलाम मुहम्मद जो अब भी महारानी के साथ था, प्रतिशोध से पागल होकर अंग्रेज घुड़सवारों पर झपटा। उसका रौद्र रूप देखकर वे फिरंगी घुड़सवार भाग खड़े हुए।
स्वामिभक्त रामराव देशमुख आखिरी तक महारानी लक्ष्मीबाई के साथ थे। महारानी के रक्त से बुरी तरह सने हुए शरीर को वे निकटवर्ती गंगादास बाबा की कुटिया पर ले गए। महारानी ने व्याकुल होकर पानी माँगा। गंगादास बाबा ने उन्हें गंगाजल पिलाया।
महारानी के शरीर में असह्य वेदना हो रही थी, पर उनके चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा था। एक बार उन्होंने अपने पुत्र दामोदर राव की ओर देखा और फिर उनके नेत्र सदा-सदा के लिए बन्द हो गए। दिनाँक 18 जून, सन् 1858 को क्रान्ति की यह ज्योति हमेशा-हमेशा के लिए लुप्त हो गई। उसी कुटिया के निकट एक चिता तैयार की गई और महारानी का पार्थिव शरीर इस चिता पर रखा गया। उनके पुत्र दामोदर राव ने चिता में अग्नि प्रज्वलित की। महारानी की काया धू-धू कर जलने लगी। महारानी लक्ष्मीबाई मरकर भी अमर हो गईं। वास्तव में ही नारी-गौरव महारानी लक्ष्मीबाई राष्ट्र-रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग करने वाली वीरांगनाओं में अग्रगण्य थीं। आज भी उनकी अमर-गाथा घर-घर में गूँज रही है।
अक्सर जब मैं रात को अपनी नन्हीं पोती तेजस्विनी को सुलाने के लिए अपने पास लिटाकर महारानी लक्ष्मीबाई की जीवन-कथा सुनाता हूँ तो वह उसे बार-बार सुनाने का आग्रह तो करती ही है, साथ ही जिज्ञासावश कभी-कभी कुछ प्रश्न भी। ‘‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो...’’शीर्षक (ऐतिहासिक नाटक) मेरी कृति उसी को सस्नेह समर्पित है।
अन्त में भाई डॉ. जयसिंह ‘नीरद’ तथा श्रद्धेय आचार्य डॉ. चन्दन लाल पाराशर का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपनी अत्याधिक व्यस्तता के बावजूद भी उक्त कृति का अवलोकन कर अपने विचार प्रकट करते हुए मुझे प्रोत्साहित किया।
बाजीराव चिमाजी के भाई थे। उन्हें ब्रिटिश सरकार से आठ लाख रुपया वार्षिक पेंशन मिलती थी। भाई की मृत्यु का समाचार सुनकर उन्हें बहुत दुःख हुआ। उन्होंने मोरोपन्त को अपने पास बुला लिया।
मनुबाई की माता भागीरथी बाई बहुत सुन्दर, सामाजिक और धार्मिक विचारों की विदुषी महिला थीं। मनु अभी बेचारी चार-पाँच वर्ष की अबोध बालिका थी कि अकस्मात् उनकी माता भागीरथी बाई का देहान्त हो गया। मनु के पिता मोरोपन्त पेशवा बाजीराव की सेवा में ही थे और घर में छोटी-सी मनु की देखभाल करने वाला कोई अन्य न था। अतः उनके पिताश्री मोरोपन्त अपनी बेटी को अपने साथ पेशवा बाजीराव के दरबार में ले गए। नटखट, गोरे रंग की बेहद खूबसूरत मनु ने वहाँ सबका मन मोह लिया और उसे लोग छबीली कहने लगे। मनुबाई का पालन-पोषण पिता ने ही किया।
बाजीराव पेशवा के बच्चों के पढ़ाने के लिए कई अध्यापक आते थे; मनु भी उनके बच्चों के साथ बैठकर पढ़ने-लिखने लगी। प्राथमिक शिक्षा के साथ-साथ मनु ने तलवार चलाना और बन्दूक का निशाना साधना बाल्यकाल में ही सीख लिया था। बाजीराव पेशवा के बच्चों के साथ मनु रहती ही थी, इसलिए उन बच्चों के साथ ही अभ्यास करके उसने निपुणता हासिल कर ली और घुड़सवारी करने में भी बहुत माहिर हो गई। छोटी-सी बालिका को तीर, तलवार और बन्दूक चलाते देखकर लोग आश्चर्य में पड़ जाते थे। बचपन में यह सब विद्याएँ मनु ने खेल-खेल में ग्रहण कर लीं।
झाँसी के राजा गंगाधर राव के साथ मनु का विवाह बड़ी धूमधाम और गाजे-बाजे के साथ सम्पन्न हुआ। विवाहोपरान्त मनु का नाम परिवर्तित कर लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार बाल्यकाल की मनु और छबीली नाम की लड़की झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई बन गई।
उन दिनों भारत में पर्दा-प्रथा का अधिक जोर था, इसलिए शादी के उपरान्त झाँसी में महारानी लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था और उन्हें बाहर जाने की मनाही थी। स्वच्छन्द और खुले वातावरण में पली और बढ़ी मनु को किले के भीतर राजभवन का यह परतन्त्र जीवन रास नहीं आया और मनु ने राजा से कहकर दुर्ग के अन्दर ही व्यायामशाला बनवाई और शस्त्र चलाने तथा घोड़े की सवारी का अभ्यास करने की भी अपने लिए व्यवस्था करा ली। महारानी लक्ष्मीबाई ने महिलाओं की एक सेना भी तैयार की। राजा गंगाधर राव महारानी लक्ष्मीबाई की वीरता, योग्यता तथा सुन्दरता से बेहद प्रभावित व प्रसन्न थे और रानी को बहुत प्यार करते थे।
महारानी लक्ष्मीबाई बड़ी दयालु प्रकृति की थीं। एक दिन महारानी जब अपनी कुल देवी महालक्ष्मी के मन्दिर से दर्शन-अर्चन कर वापस लौट रही थीं तो मार्ग में कुछ गरीब, अनाथ और बेसहारा लोगों ने उन्हें रोक लिया। महारानी के पूछने पर उन्होंने बताया कि इस सर्द ऋतु के कड़ाके की ठण्ड से बचने के लिए हमारे पास कपड़े-लत्ते नहीं हैं, हम बड़े लाचार लोग हैं और उन्होंने अपनी विपन्नता की व्यथा-कथा महारानी को कह सुनाई। उनको दुःखी देखकर महारानी लक्ष्मीबाई का हृदय द्रवित हो गया और वे अपनी आँखों में आँसू भर लाईं। तत्पश्चात् उन्होंने नगर में डुग्गी पिटवाकर घोषणा करा दी कि अमुक दिन सब गरीब और असहायजन अमुक मैदान में एकत्रित हों। वहाँ में सबके दुःख-दर्द की बात सुनूँगी और उनके कल्याणार्थ कुछ उपाय करूँगी। मुनादी के अनुसार सब निर्धन व असहायजन निश्चित तिथि पर मैदान में एकत्रित हुए। महारानी ने सबसे वार्ता की, गौर से उन्हें सुना और फिर उन्होंने प्रत्येक गरीब को रुई भी फतूरी, टोपी और एक-एक कम्बल अपने हाथ से वितरित किया। ऐसी थीं करुणामयी महारानी लक्ष्मीबाई। कई बार उन्होंने निर्धनों के हितार्थ ऐसे आयोजन किए।
कुछ वर्षों बाद महारानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। झाँसी के चारों ओर अपार खुशियाँ मनाई गईं, जगह-जगह जश्न हुए परन्तु कुछ महीनों के पश्चात् वह शिशु बीमार पड़ा और उसको बचाया नहीं जा सका, उसका प्राणान्त हो गया। झाँसी में सर्वत्र शोक छा गया और महारानी बहुत दुःखी रहने लगीं। दुर्भाग्य और बुरे समय ने महारानी का पीछा नहीं छोड़ा। कुछ दिनों पश्चात् बच्चे के गम में राजा गंगाधर राव को गम्भीर बीमारी ने यकायक धर दबाया, उनके जीवन-रक्षा की कोई आशा नहीं रही। तब दरबार के लोगों ने पुत्र गोद लेने की सलाह दी। अस्तु, अपने ही परिवार के एक पंच वर्षीय बालक को उन्होंने गोद ले लिया अपना दत्तक पुत्र बनाया। बालक का नाम दामोदर राव रखा गया। गोद लेने के केवल दो दिन बाद ही 21 नवम्बर, सन् 1853 ई. को राजा गंगाधर राव का निधन हो गया। 18 वर्ष की युवा लक्ष्मीबाई विधवा हो गईं और पति-वियोग में शोकसागर में डूब गईं। इस घड़ी पर झाँसी का हर नागरिक गमगीन व व्याकुल था।
राजा गंगाधर राव के निधन के पश्चात् झाँसी की जनता की जिम्मेदारी महारानी लक्ष्मीबाई के कन्धों पर आ गई। महारानी ने अपने मन में निश्चय किया-‘‘झाँसी के लोगों का भाग्य अब मेरे हाथों में है। मैं उनका विश्वास नहीं तोड़ूँगी।’’
महारानी लक्ष्मीबाई ने अपने को अच्छी तरह से राजकाज चलाने के लिए तैयार किया और अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को मान्यता दिलाने के लिए महारानी ने अंग्रेज गवर्नर जनरल को प्रस्ताव भेजा, परन्तु उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया।
उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेज शासन कर रहे थे। वे झाँसी को भी अपने आधिपत्य में लाना चाहते थे। उन्हें यह मौका अच्छा लगा। वे जानते थे कि महारानी लक्ष्मीबाई महिला हैं और युद्ध में हम अंग्रेजों का सामना नहीं कर सकतीं।
इसलिए गवर्नर जनरल ने लिखकर भेजा कि राजा गंगाधर राव को कोई पुत्र नहीं है। अस्तु, अब झाँसी पर अंग्रेजों का अधिकार होगा। वीरांगना लक्ष्मीबाई यह समाचार पाकर क्रोध से भभक उठीं और उन्होंने घोषणा की कि ‘‘मैं अपनी झाँसी कभी नहीं दूँगी।’’ झाँसी की स्वामिभक्त और मातृभूमि की रक्षा में जान निछावर करने वाली प्रजा ने भी यह नारा गर्व से बुलन्द किया कि ‘‘हम अपनी झाँसी नहीं देंगे।’’ जनता का सहयोग व समर्थन पाकर महारानी में एक नई ताकत पैदा हो हुई। उधर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की तैयारियाँ देश भर में प्रारम्भ हो गई थीं।
10 मई, सन् 1857 को मेरठ छावनी में सैनिकों ने खुला विद्रोह कर दिया। उन्होंने अंग्रेज अफसरों पर गोलियाँ चलाईं और अपने बन्दी साथियों को मुक्त करा लिया। मेरठ और दिल्ली के सैनिकों ने मिलकर दिल्ली पर अपना कब्जा कर लिया और बहादुर शाह को दिल्ली के सिंहासन पर बैठाकर भारत का राजा घोषित कर दिया।
देशभक्त जवानों के सम्मुख अंग्रेज पूर्णतया कमजोर साबित हुए और उनकी हिम्मत पस्त हो गई। देशभक्तों ने झाँसी में कहा, ‘‘लक्ष्मीबाई झाँसी पर राज्य करें, हम दिल्ली चलते हैं।’’
महारानी लक्ष्मीबाई ने एक दिन जनता के सभी वर्गों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया और कहा-‘‘मैं चाहती हूँ कि यह निर्णय जनता करे कि झाँसी पर कौन राज्य करे ?’’ जनप्रतिनिधियों ने फैसला किया, ‘‘झाँसी पर हमेशा के लिए महारानी लक्ष्मीबाई का राज्य रहेगा। हम पूरी तरह से महारानी के साथ हैं।’’ महल के बाहर खड़ी राज्य की पूरी जनता ने एक स्वर में कहा, ‘‘झाँसी स्वतन्त्र राज्य होगा और महारानी लक्ष्मीबाई उस पर राज्य करेंगी।’’
सन् 1857 में महारानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी का शासन अपने हाथों में लिया और वहाँ काफी सुधार किया। खजाना भरा गया और सेना को शक्तिशाली बनाया गया। पुरुषों के साथ-साथ महिला-सेना भी तैयार की गई।
महारानी लक्ष्मीबाई के शासन को सबसे पहली चुनौती स्वर्गीय महाराजा के भतीजे सदाशिव राव ने अपने को झाँसी का राजा घोषित करके दी। लक्ष्मीबाई की सेना ने एक ही झटके में सदाशिव राव को परास्त कर भगा दिया। दतिया और ओरछा के पड़ोसी राज्यों के राजाओं ने भी झाँसी को लक्ष्मीबाई से छीनने की कोशिश की, परन्तु उन्हें भी पराजय का सामना करना पड़ा।
उधर अंग्रेजों ने फिर से दिल्ली को जीतकर अपने कब्जे में कर लिया। दिल्ली के बादशाह को कैद कर लिया और उसके लड़कों को गोलियों से भून दिया गया। कानपुर और अवध आदि को भी अंग्रेजों ने फिर से जीत लिया और अब अंग्रेजों का निशाना झाँसी ही थी। सेना लेकर अंग्रेजों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। महारानी लक्ष्मीबाई ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। बन्दूकों, तोपों, रसद तथा चारे का पर्याप्त प्रबन्ध कर लिया और सेना में भरती होने की लोगों से अपील की।
25 मार्च, सन् 1858 को सुबह-सवेरे अंग्रेजों की तोपों ने झाँसी पर गोलाबारी शुरू कर दी। महारानी लक्ष्मीबाई जानती थीं कि अंग्रेज तोपों से लड़ेंगे। इसलिए उन्होंने भी दुर्ग की दीवारों पर तोपें लगा दीं। महारानी ने अपने महल के सोने और चाँदी के सामान को भी तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया। महारानी लक्ष्मीबाई के विश्वासपात्र और कुशल तोपची गुलाम मुहम्मद गौस खाँ तथा खुदाबक्श थे। महारानी ने सब सरदारों को बुलवाया और झाँसी के दुर्ग के चारों ओर सुदृढ़ किलाबन्दी की। महारानी के किलेबन्दी की व्यवस्था देखकर अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेजी फौज ने दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया और दुर्ग पर आक्रमण होने लगे। महारानी लक्ष्मीबाई के सैनिकों ने भी अंग्रेजों के प्रत्येक गोले का जवाब गोले से ही दिया।
अंग्रेज आठ दिन तक लगातार किले पर गोले बरसाते रहे, परन्तु वे झाँसी का किला न जीत सके। महारानी और उनकी स्वामिभक्त प्रजा ने दृढ़ संकल्प किया था कि आखिरी साँस तक झाँसी के दुर्ग पर फिरंगियों का झण्डा नहीं फहराने देंगे। अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज ने यह भली प्रकार जान लिया कि सैनिक-शक्ति के बल पर हम झाँसी पर अधिकार नहीं कर सकेंगे। अतः उसने छल और चालाकी से काम लिया। झाँसी के एक सरदार दूल्हासिंह को सर ह्यूरोज अंग्रेज सेनापति ने लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। जब अंग्रेजों का रात को आक्रमण हुआ तो दूल्हासिंह ने दक्षिण दुर्ग के फाटक को खोल दिया। बस, फिर क्या था ? फिरंगियों ने नगर में घुसकर बहुत लूटपाट की और हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। यहाँ तक कि महिलाओं और अबोध बच्चों तक को भी मौत की नींद सुला दिया।
झाँसी की बहादुर फौज ने अपनी महारानी के नेतृत्व में मजबूती से दुश्मन का मुकाबला किया। युद्ध का भयंकर दृश्य उपस्थित था। महारानी लक्ष्मीबाई रणचण्डी की मूर्ति बनी शत्रु-सेना पर टूट पड़ीं और शत्रु-पक्ष के सैनिकों को गाजर-मूली की भाँति काटने लगीं। जय भवानी और हर-हर महादेव के नारों से आकाश गूँज उठा।
उधर ताँत्याटोपे झाँसी की सहायता के लिए आया। झाँसी की सेना में और जोश उत्पन्न हो गया। सैनिकों के जोश और उत्साह का पता इस बात से चलता है कि सैनिकों ने कहा-‘‘अंग्रेज झाँसी पर कभी राज्य नहीं कर पाएँगे।’’ रात को अंग्रेजों ने और तोपें मँगाकर ताँत्याटोपे की फौज पर गोलाबारी प्रारम्भ कर दी और अगले दिन अंग्रेजों ने ताँत्याटोपे की सेना को एक ही आक्रमण में साफ कर दिया।
महारानी लक्ष्मीबाई अपने समस्त सेनापतियों को इकट्ठा किया और कहा-‘‘हमें हिममत नहीं छोड़नी है। हम अकेले भी अंग्रेजों से लड़ सकते हैं। आज तक आप लोग जिस बहादुरी और वीरता से युद्ध कर रहे हैं, मुझे पूर्णविश्वास है कि आप रणभूमि में अवश्य विजय प्राप्त करेंगे।’’
सेनापतियों ने निर्णय किया कि जब तक एक भी आदमी जीवित रहेगा, हम डटकर प्राण-पण के दुश्मन से लड़ते-रहेंगे। आखिरी विजय हमारी ही होगी। हम हथियार कभी नहीं छोड़ेंगे और फिरंगियों को मौत के घाट अन्त तक उतारते रहेंगे।
थोड़े समय के पश्चात् अंग्रेजों ने फिर से युद्ध शुरू कर दिया। झाँसी को चारों ओर से घेर लिया गया। कहाँ झाँसी की थोड़ी-सी फौज और कहाँ अंग्रेजों की विशाल सेना। महारानी लक्ष्मीबाई जब युद्ध में चारों ओर से घिर गईं तो उन्होंने अपने सेनापतियों से कहा-‘‘मैंने यह फैसला किया है कि मैं समर्पण नहीं करुँगी, जो मरने को तैयार हैं वह मेरे साथ रहें। बाकी किला छोड़े सकते हैं।’’ कई सेनापतियों ने कहा कि हम आपके साथ हैं। महारानी के विश्वसनीय सरदारों ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ कालपी जाने का परामर्श दिया।
तद्नुसार अपने कुछ विश्वासपात्र सरदारों के साथ महारानी लक्ष्मीबाई आधी रात को किले से निकल गईं और कालपी की ओर बढ़ीं। अंग्रेजों को पता लगा कि महारानी लक्ष्मीबाई झाँसी से बच निकलीं, तो उन्होंने अपने कुछ अंग्रेज सैनिक महारानी का पीछा करने के लिए भेजे। ये घुड़सवार अंग्रेज सैनिक महारानी के पीछे लग गए। दो सैनिकों ने महारानी को पकड़ने की कोशिश की, परन्तु महारानी ने उन्हें मार गिराया।
कालपी में महारानी लक्ष्मीबाई राव साहब पेशवा के पास पहुँचीं। राव साहब पेशवा ने महारानी का स्वागत करते हुए कहा कि मुझे अपने संघर्ष में आपकी नितान्त आवश्यकता है। महारानी लक्ष्मीबाई ने कहा-‘‘मराठों की शान व गौरव की रक्षा करने में युद्ध के मैदान में मरने से अधिक मुझे और कोई खुशी नहीं हो सकती।’’
अंग्रेज-फौज ने कालपी के आसपास घेरा डालना प्रारम्भ कर दिया। अंग्रेजों की सेना से देशभक्त सैनिकों ने घमासान युद्ध किया, परन्तु अन्त में कालपी की सेना पराजित हो गई। कालपी के राव साहब पेशवा ने सोचा के अब समर्पण के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं रहा और हम पूरी तरह पराजित हो चुके हैं। महारानी लक्ष्मीबाई ने कहा कि हमें हिम्मत नहीं छोड़नी चाहिए और आगे की कार्यवाही के लिए सोचना व विचारना चाहिए। अन्त में यह निर्णय हुआ कि हम आखिरी दम तक युद्ध करते रहेंगे।
महारानी लक्ष्मीबाई अपने घोड़े पर सवार होकर शेरनी की तरह अंग्रेजी सेना पर टूट पड़ीं और दूसरे सेनापति भी महारानी के साथ-साथ दुश्मन की फौज से भिड़ गए। परन्तु अंग्रेजों की चतुर रणनीति सफल हो गई और राव साहब पेशवा की सेना पराजित हो गई। तब अन्ततः 24 मई, 1858 को अंग्रेजों ने कालपी के दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया।
इसके पश्चात् देशभक्त रावसाहब पेशवा, ताँत्याटोपे, बांदा के नवाब और महारानी लक्ष्मीबाई की बैठक हुई। महारानी लक्ष्मीबाई ने कहा कि मेरा विचार है कि ग्वालियर का किला पास ही है, हम ग्वालियर चलकर वहाँ से सहायता प्राप्त करें। यदि वह किला हमें मिल गया तो हम युद्ध कर सकते हैं और पूर्ण आशा है कि हम दुश्मन को अवश्य परास्त कर देंगे। ग्वालियर की सेना और वहाँ की जनता अंग्रेजों के विरुद्ध है।
महारानी लक्ष्मीबाई तांत्याटोपे के साथ एक सेना लेकर ग्वालियर पहुँचीं। महारानी लक्ष्मीबाई को देखते ही ग्वालियर की सेना ने अपने हथियार महारानी के सामने डाल दिए और ‘महारानी झाँसी की जय’ के नारे लगाए। ग्वालियर का महाराजा जयाजी राव सिंधिया भागकर आगरा आया और आगरा में अंग्रेजों की शरण में पहुँच गया।
ग्वालियर में कालपी के राव साहब पेशवा ने एक विशाल दरबार बुलाकर अपने को ‘मराठा राज्य-संघ’ का प्रधान घोषित कर दिया। इस उपलक्ष में खुशी के माहौल में एक भव्य समारोह आयोजित किया गया। सभी लोग समारोह में मस्त हो रहे थे, परन्तु महारानी लक्ष्मीबाई के मन में चिन्ता व्याप्त थी। अंग्रेज सेना ने जब ग्वालियर में प्रवेश किया तो राव साहब पेशवा को इस बात का पता ही न था। अंग्रेजों ने आक्रमण प्रारम्भ कर दिया। ग्वालियर में सेना तैयार नहीं थी, इसलिए महारानी ने राव साहब से कहा कि सेना को युद्ध के मैदान में उतारिए। महारानी लक्ष्मीबाई ने पुरुषों के वस्त्र पहने और युद्ध में कूद पड़ीं। परन्तु अंग्रेजों की फौज ने ग्वालियर की सेना को काफी नुकसान पहुँचाया।
महारानी लक्ष्मीबाई ने फैसला किया कि मैं कभी हार नहीं मानूँगी और आत्म-समर्पण नहीं करूँगी। उधर महारानी घायल हो गई थीं और दोनों ओर से सेनाएँ जमकर लड़ रही थीं तथा अंग्रेज सेना तेजी से किले में घुस रही थी। महारानी के समक्ष अब भागने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प न था। घोड़े की लगाम अपने दाँतों में दबाकर और दोनों हाथों से तलवार चलाती हुई महारानी आगे बढ़ती रहीं। घुड़सवार अंग्रेज सैनिक महारानी का पीछा कर रहे थे और दुर्भाग्य से एक गोली महारानी की जाँघ में घुस गई; इससे उनकी गति कुछ धीमी पड़ गई। इतने में घुड़सवार अंग्रेज उनके निकट आ पहुँचे। दोनों दलों में भयंकर युद्ध होने लगा। महारानी श्रान्त व काफी जख्मी हो चुकी थीं परन्तु फिर भी उनके पराक्रम व साहस में कोई कमी नहीं आई।
एक सवार उनके बिल्कुल पास आ पहुँचा और उसने महारानी पर वार करना चाहा, परन्तु महारानी की तलवार ने बिजली की गति से घूमकर उसे तत्काल यमलोक पहुँचा दिया। महारानी ने पुनः अपना घोड़ा दौड़ाया पर उसी समय उन्हें अपनी प्रिय सखी मुन्दर की चीत्कार सुनाई दी। वे तुरन्त घूम पड़ीं। उन्होंने देखा कि एक अंग्रेज घुड़सवार ने तलवार से मुन्दर को मार दिया है; तो वे क्रोध से तमतमा उठीं और उन्होंने अपनी सखी मुन्दर के हत्यारे पर झपटकर भीषण प्रहार किया और उसे मौत के घाट उतार दिया।
तदुपरान्त महारानी लक्ष्मीबाई ने पुनः अपना घोड़ा दौड़ाया, परन्तु मार्ग में एक नाला आ गया। महारानी ने अपने घोड़े को नाले के पार कुदाने का भरसक प्रयास किया, किन्तु वह नाले को पार न कर सका। इतने में अंग्रेज घुड़सवार पास आ गए। एक अंग्रेज ने पीछे से महारानी के मस्तक पर प्रहार किया। इससे महारानी के सिर का दाहिना भाग कट गया और उनकी एक आँख बाहर निकल आई। इस सवार ने महारानी के हृदय पर संगीन से वार किया। भयंकर रूप से घायल होने पर भी महारानी के हाथ की तलवार चलती रही। अपने आक्रमणकारी पर महारानी ने ऐसा जबरदस्त वार किया वह चीखकर धराशायी हो गया और उसके साथ ही महारानी स्वयं भी जमीन पर गिर पड़ीं। पठान सरदार गुलाम मुहम्मद जो अब भी महारानी के साथ था, प्रतिशोध से पागल होकर अंग्रेज घुड़सवारों पर झपटा। उसका रौद्र रूप देखकर वे फिरंगी घुड़सवार भाग खड़े हुए।
स्वामिभक्त रामराव देशमुख आखिरी तक महारानी लक्ष्मीबाई के साथ थे। महारानी के रक्त से बुरी तरह सने हुए शरीर को वे निकटवर्ती गंगादास बाबा की कुटिया पर ले गए। महारानी ने व्याकुल होकर पानी माँगा। गंगादास बाबा ने उन्हें गंगाजल पिलाया।
महारानी के शरीर में असह्य वेदना हो रही थी, पर उनके चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा था। एक बार उन्होंने अपने पुत्र दामोदर राव की ओर देखा और फिर उनके नेत्र सदा-सदा के लिए बन्द हो गए। दिनाँक 18 जून, सन् 1858 को क्रान्ति की यह ज्योति हमेशा-हमेशा के लिए लुप्त हो गई। उसी कुटिया के निकट एक चिता तैयार की गई और महारानी का पार्थिव शरीर इस चिता पर रखा गया। उनके पुत्र दामोदर राव ने चिता में अग्नि प्रज्वलित की। महारानी की काया धू-धू कर जलने लगी। महारानी लक्ष्मीबाई मरकर भी अमर हो गईं। वास्तव में ही नारी-गौरव महारानी लक्ष्मीबाई राष्ट्र-रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग करने वाली वीरांगनाओं में अग्रगण्य थीं। आज भी उनकी अमर-गाथा घर-घर में गूँज रही है।
अक्सर जब मैं रात को अपनी नन्हीं पोती तेजस्विनी को सुलाने के लिए अपने पास लिटाकर महारानी लक्ष्मीबाई की जीवन-कथा सुनाता हूँ तो वह उसे बार-बार सुनाने का आग्रह तो करती ही है, साथ ही जिज्ञासावश कभी-कभी कुछ प्रश्न भी। ‘‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो...’’शीर्षक (ऐतिहासिक नाटक) मेरी कृति उसी को सस्नेह समर्पित है।
अन्त में भाई डॉ. जयसिंह ‘नीरद’ तथा श्रद्धेय आचार्य डॉ. चन्दन लाल पाराशर का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपनी अत्याधिक व्यस्तता के बावजूद भी उक्त कृति का अवलोकन कर अपने विचार प्रकट करते हुए मुझे प्रोत्साहित किया।
डॉ. लालबहादुर सिंह चौहान
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