नारी विमर्श >> लापता लड़की लापता लड़कीअरविन्द जैन
|
4 पाठकों को प्रिय 57 पाठक हैं |
नारी जीवन पर आधारित उपन्यास....
वह निस्संग है, आखेटित है, लापता है। वही यहाँ है। परम्पराएँ उसे लापता करती हैं। बाज़ार उसे निस्संग और उसका आखेट करता है। हर धर्म, हर जाति उसके संग ऐसा ही सलूक करती है। ये कहानियाँ इसी स्त्री या लिंग संवेदनशीलता से शुरू होती हैं और इस लापता कर दी गई स्त्री की खोज का आवेशमय विमर्श बन जाती हैं। ये औरत को किसी घटना या किस्से के ब्यौरे में नहीं दिखातीं, उसे खोजती हैं, बनाती हैं और जितना बनाती हैं, पाठक को उतना ही सताती हैं। स्त्री लेखन स्त्री ही कर सकती है, यह सच है लेकिन ‘स्त्रीवादी’ लेखन पुरुष भी कर सकता है - यह भी सच है। यह तभी सम्भव है, जब वह लिंग भेद के प्रति आवश्यक संवेदनशील हो क्योंकि वह पितृसत्ता की नस-नस बेहतर जानता है। मर्दवादी चालें! मर्दों की दुनिया में औरत एक जिस्म, एक योनि, एक कोख भर है और मर्दों के बिछाए बाज़ार में वह बहुत सारे ब्रांडों में बंद एक विखंडित इकाई है। अरविंद, जो बहुत कम कहानी लिखते हैं, इस औरत को हर तरह से, हर जगह पूरी तदाकारिता से खोजते हैं। अरविंद कहीं पजैसिव हैं, कहीं कारुणिक हैं, लेकिन प्रायः बहुत बेचैन हैं। यहाँ स्त्री के अभिशाप हैं जिनसे हम गुजरते हैं। मर्दों की दुनिया द्वारा गढ़े गए अभिशाप, आज़ादी चाहकर भी औरत को कहीं आज़ाद होने दिया जाता है? अरविंद की इन वस्तुतः छोटी कहानियों में मर्दों की दुनिया के भीतर, औरत के अनन्त आखेटों के इशारे हैं। यह ‘रसमय’ जगत नहीं, मर्दों की निर्मित स्त्री का ‘विषमय’ जगत है। अरविंद की कहानी इशारों की नई भाषा है। उनकी संज्ञाएँ, सर्वनाम, विशेषण सब सांकेतिक बनते जाते हैं। वे विवरणों, घटनाओं में न जाकर संकेतों, व्यंजकों में जाते हैं और औरत की ओर से एक जबर्दस्त जिरह खड़ी करते हैं। स्त्री को हिन्दी कथा में किसी भी पुरुष लेखक ने इतनी तदाकारिता से नहीं पढ़ा जितना अरविंद ने। इन कहानियों को पढ़ने के बाद पुरुष पाठकर्ता संतप्त होगा एवं तदाकारिता की ओर बढ़ेगा और स्त्री पाठकर्ता अपने पक्ष में नई कलम को पाएगी - वहाँ भी, जहाँ स्त्री सीधा विषय नहीं है। अरविंद जैन का यह पहला कथा संग्रह बताता है कि हिन्दी कहानी में निर्णायक ढंग से फिर बहुत कुछ बदल गया है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
स्त्री लेखन स्त्री ही कर सकती है, यह सच है लेकिन
‘स्त्रीवादी’ लेखन पुरुष भी कर सकता है- यह भी सच है। यह तभी
संभव है, जब वह लिंग भेद के प्रति आवश्यक संवेदनशील हो क्योंकि वह
पितृसत्ता की नस-नस बेहतर जानता है। मर्दवाली चालें! मर्दों की दुनिया
में औरत एक जिस्म, एक योनि, एक कोख भर है और मर्दों के बिछाये
बाज़ार में वह बहुत सारे ब्रांडों में बंद एक विखंडित इकाई है।
अरविंद, जो बहुत बहुत कम कहानी लिखते हैं, इस औरत को हर तरह से, हर जगह पूरी तदाकारिता से खोजते हैं। वैसे ही जैसे आसपड़ौस की गायब होती लड़कियों को संवेदनशील पाठक खोजते-बचाते हैं।
अरविंद कहीं पजैसिव है, कहीं कारुणिक हैं, लेकिन प्रायः बहुत बेचैन हैं। यहाँ स्त्री के अभिशाप हैं जिनसे हम गुजरते हैं। मर्दों की दुनिया द्वारा गढ़े गए अभिशाप, आजादी चाह कर भी औरत को कहाँ आजाद होने दिया जाता है?
अरविंद की इन वस्तुतः छोटी कहानियों में मर्दों की दुनिया के भीतर, औरत के अनंत आखेटों के इशारे हैं। यह ‘रसमय’ जगत नहीं, मर्दों की निर्मित स्त्री का ‘विषमय’ जगत है।
अरविंद की कहानी इशारों की नई भाषा है। उनकी संज्ञाएँ, सर्वनाम, विशेषण सब सांकेतिक बनते जाते हैं। वे विवरणों, घटनाओं में न जाकर संकेतों, व्यंजकों में जाते हैं और औरत की ओर से एक जबर्दस्त जिरह खड़ी करते हैं।
अरविंद, जो बहुत बहुत कम कहानी लिखते हैं, इस औरत को हर तरह से, हर जगह पूरी तदाकारिता से खोजते हैं। वैसे ही जैसे आसपड़ौस की गायब होती लड़कियों को संवेदनशील पाठक खोजते-बचाते हैं।
अरविंद कहीं पजैसिव है, कहीं कारुणिक हैं, लेकिन प्रायः बहुत बेचैन हैं। यहाँ स्त्री के अभिशाप हैं जिनसे हम गुजरते हैं। मर्दों की दुनिया द्वारा गढ़े गए अभिशाप, आजादी चाह कर भी औरत को कहाँ आजाद होने दिया जाता है?
अरविंद की इन वस्तुतः छोटी कहानियों में मर्दों की दुनिया के भीतर, औरत के अनंत आखेटों के इशारे हैं। यह ‘रसमय’ जगत नहीं, मर्दों की निर्मित स्त्री का ‘विषमय’ जगत है।
अरविंद की कहानी इशारों की नई भाषा है। उनकी संज्ञाएँ, सर्वनाम, विशेषण सब सांकेतिक बनते जाते हैं। वे विवरणों, घटनाओं में न जाकर संकेतों, व्यंजकों में जाते हैं और औरत की ओर से एक जबर्दस्त जिरह खड़ी करते हैं।
ये कहानियाँ
वह निस्संग है, आखेटित है, लापता है। वही यहाँ है।
परंपराएँ उसे लापता करती हैं। बाज़ार उसे निस्संग और उसका आखेट करता है। हर धर्म, हर जाति उसके संग ऐसा ही सलूक करती है।
ये कहानियाँ इसी स्त्री या लिंग संवेदनशीलता से शुरू होती हैं और इस लापता कर दी गई स्त्री की खोज का आवेशमय विमर्श बन जाती हैं। ये औरत को किसी घटना या किस्से के ब्यौरे में नहीं दिखातीं, उसे खोजती हैं, बनाती हैं और जितना बनाती हैं, पाठक को उतना ही सताती हैं।
स्त्री लेखन स्त्री ही कर सकती है यह सच है लेकिन ‘स्त्रीवादी’ लेखन पुरुष भी कर सकता है-यह भी सच है। यह तभी संभव है, जब वह लिंग भेद के प्रति आवश्यक संवेदनाशील हो क्योंकि वह पितृसत्ता की नस-नस बेहतर जानता है। मर्दवादी चालें ! मर्दों की दुनिया में औरत एक जिस्म, एक योनि, एक कोख भर है और मर्दों के बिछाए बाज़ार में वह बहुत सारे ब्रांडों में बंद एक विखंडित इकाई है।
अरविंद, जो बहुत बहुत कम कहानी लिखते हैं, इस औरत को हर तरह से, हर जगह पूरी तदाकारिता से खोजते हैं। वैसे ही जैसे आसपड़ोस की गायब होती लड़कियों को संवेदनशील पाठक खोजते-बचाते हैं।
अरविंद कहीं पजैसिव हैं, कहीं कारुणिक हैं, लेकिन प्रायः बहुत बेचैन हैं। यहाँ स्त्री के अभिशाप हैं जिनसे हम गुजरते हैं। मर्दों की दुनिया द्वारा गढ़े गए अभिशाप, आजादी चाह कर भी औरत को कहाँ आज़ाद होने दिया जाता है ?
अरविंद की इन वस्तुतः छोटी कहानियों में मर्दों की दुनिया के भीतर, औरत के अनंत आखेटों के इशारे हैं। यह रसमय जगत नहीं, मर्दों की निर्मित स्त्री का ‘विषमय’ जगत है।
अरविंद की कहानी इशारों की नई भाषा है। उनकी संज्ञाएं, सर्वनाम, विशेषण सब सांकेतिक बनते जाते हैं। वे विवरणों, घटनाओं में न जाकर संकेतों व्यंजकों, में जाते हैं और औरत की ओर से एक जबर्दस्त जिरह खड़ी करते हैं।
स्त्री को हिन्दी कथा में किसी भी पुरुष लेखक ने इतनी तदाकारिता से नहीं पढ़ा जितना अरविंद ने। ये कहानियों उनके उत्कट उद्वेग का विमर्श हैं और स्त्री के पक्ष में एक पक्की राजनीतिक जिरह पैदा करती हैं।
इन कहानियों को पढ़ने के बाद पुरुष पाठकर्ता संतप्त होगा एवं तदाकारिता की ओर बढ़ेगा और स्त्री पाठकर्ता अपने पक्ष में नई कलम को पाएगी-वहाँ भी, जहाँ स्त्री सीधा विषय नहीं है।
अरविंद जैन का यह पहला कथा संग्रह बताता है कि हिन्दी कहानी में निर्णायक ढंग से फिर बहुत कुछ बदल गया है।
परंपराएँ उसे लापता करती हैं। बाज़ार उसे निस्संग और उसका आखेट करता है। हर धर्म, हर जाति उसके संग ऐसा ही सलूक करती है।
ये कहानियाँ इसी स्त्री या लिंग संवेदनशीलता से शुरू होती हैं और इस लापता कर दी गई स्त्री की खोज का आवेशमय विमर्श बन जाती हैं। ये औरत को किसी घटना या किस्से के ब्यौरे में नहीं दिखातीं, उसे खोजती हैं, बनाती हैं और जितना बनाती हैं, पाठक को उतना ही सताती हैं।
स्त्री लेखन स्त्री ही कर सकती है यह सच है लेकिन ‘स्त्रीवादी’ लेखन पुरुष भी कर सकता है-यह भी सच है। यह तभी संभव है, जब वह लिंग भेद के प्रति आवश्यक संवेदनाशील हो क्योंकि वह पितृसत्ता की नस-नस बेहतर जानता है। मर्दवादी चालें ! मर्दों की दुनिया में औरत एक जिस्म, एक योनि, एक कोख भर है और मर्दों के बिछाए बाज़ार में वह बहुत सारे ब्रांडों में बंद एक विखंडित इकाई है।
अरविंद, जो बहुत बहुत कम कहानी लिखते हैं, इस औरत को हर तरह से, हर जगह पूरी तदाकारिता से खोजते हैं। वैसे ही जैसे आसपड़ोस की गायब होती लड़कियों को संवेदनशील पाठक खोजते-बचाते हैं।
अरविंद कहीं पजैसिव हैं, कहीं कारुणिक हैं, लेकिन प्रायः बहुत बेचैन हैं। यहाँ स्त्री के अभिशाप हैं जिनसे हम गुजरते हैं। मर्दों की दुनिया द्वारा गढ़े गए अभिशाप, आजादी चाह कर भी औरत को कहाँ आज़ाद होने दिया जाता है ?
अरविंद की इन वस्तुतः छोटी कहानियों में मर्दों की दुनिया के भीतर, औरत के अनंत आखेटों के इशारे हैं। यह रसमय जगत नहीं, मर्दों की निर्मित स्त्री का ‘विषमय’ जगत है।
अरविंद की कहानी इशारों की नई भाषा है। उनकी संज्ञाएं, सर्वनाम, विशेषण सब सांकेतिक बनते जाते हैं। वे विवरणों, घटनाओं में न जाकर संकेतों व्यंजकों, में जाते हैं और औरत की ओर से एक जबर्दस्त जिरह खड़ी करते हैं।
स्त्री को हिन्दी कथा में किसी भी पुरुष लेखक ने इतनी तदाकारिता से नहीं पढ़ा जितना अरविंद ने। ये कहानियों उनके उत्कट उद्वेग का विमर्श हैं और स्त्री के पक्ष में एक पक्की राजनीतिक जिरह पैदा करती हैं।
इन कहानियों को पढ़ने के बाद पुरुष पाठकर्ता संतप्त होगा एवं तदाकारिता की ओर बढ़ेगा और स्त्री पाठकर्ता अपने पक्ष में नई कलम को पाएगी-वहाँ भी, जहाँ स्त्री सीधा विषय नहीं है।
अरविंद जैन का यह पहला कथा संग्रह बताता है कि हिन्दी कहानी में निर्णायक ढंग से फिर बहुत कुछ बदल गया है।
सुधीश पचौरी
बुलैट-प्रूफ
‘ब्यूटी क्लीनिक’ से घर आते-आते मिस मर्यादा उर्फ
‘ब्यूटी विद द ब्रेन’ को अचानक ऐसा लगने लगा कि वह
जादू की
देह है और देह के जादू से, मिट्टी को सोने में बदल सकती है।
‘बर्थ डे-सूट’ में झूला झूलते-झूलते, दिगम्बरा की खरगोश सी मासूम आँखों में ‘ग्लोब’ घूमने लगा और वह लाखों डॉलर के हीरों की ‘ब्रॉ’ पहनने जा पहुँची-लन्दन-पेरिस-रोम।
होश आया तो फैशन शो कब का खत्म हो चुका था।
न मालूम कब तक, वह कभी ‘नाइटक्रीम’ कभी ‘मिडनाइटक्रीम’ और कभी ‘ड्रीमक्रीम’ लगाती रही। सारी रात सपने से समय में ‘ब्यूटी ब्रिगेड’ चीखती-पुकारती रही- ‘सेट द नाइट ऑन फायर।’ फायर...फायर !!...फायर प्ली..ज।’
सुबह उठी तो ड्रसिंग टेबल के सामने, प्रतिमा बिन्दी-लिपस्टिक पोत रही थी। प्रेरणा ने उछलते हुए कहा, ‘मिस ब्यूटीफुल हेयर का टाइटल मिलने के बाद बस मेरे बालों के ही चर्चे हैं।’ चारों तरफ दीवार पर महकती चंपा-चमेली, रंग-बिरंगी तितलियाँ और कस्तूरी बिखेरती हिरणियाँ ही हिरणियाँ नजर आ रही थीं। कोमे में पड़े सोफे पर कृति-आकृति अंगड़ाई ले रही थी। और मेज पर बेतरतीब रखे छायाचित्रों में ‘ग्लैमर गर्ल्स’ होली खेल रही थीं। खिड़की में ब्लैक-कैट समाधि लगाए बैठी थी और सामने कैलेण्डर में दूध पीते बच्चे गुड.. ड... मो.....र्नि..ग कर रहे थे। जादू की देह गुलाबी गाऊन पहन, बिस्तर से बाहर निकली और गुडमार्निग...गुडमार्मिग...टिलमार्निंग कहती हुई रसोई में घुस गई।
कुछ देर बाद गिलास में नींबू की चाय लेकर आई, सिगरेट सुलगाई और कुर्सी पर पाँव पसार, सिल्वर प्लेटिड ऐशट्रे में से उठते धुएँ के बादल देखने लगी। चाय खत्म कर, अखबार उठाए और बाथरूम की तरफ जाने लगी तो फोन की घंटी बजनी शुरू हो गई। उसने फटाफट फोन उठाया, ‘‘हैलो गुडमार्निंग सर। जी नहीं...दरअसल पापा मम्मी आए हुए हैं। उन्हीं के साथ कहीं जाना है। नो सर नो...नॉट पोसिबल सर !’’ कहा और रख दिया। आतंकित सी मर्यादा ने कमरे की चिटकनी चैक की और बड़बड़ाने लगीं, ये ससुरा बॉस भी जब देखो दूसरी दुल्हन की खोज में लगा रहता है। हर संडे फोन..क्या कर रही हो ? मैं सोच रहा था, खाली हो तो हमारे साथ लंच करो। कौन जाएगा लंगूर के साथ ‘लंच’ करने ?’’
‘‘बाथरूम में बैठी-बैठी राम जाने ‘सुटेबल ब्वॉय’ ढूँढ़ रही है या ‘पेइंग गेस्ट’ ?’’ कृति बड़बड़ाई।
आकृति बोली, ‘‘अनलिमिटेड ‘फेन्टैसीज’ में खो गई होगी।’’
प्रेरणा ने बालों में से जूँ पकड़ते हुए कहा, ‘‘आजकल न जाने क्या क्या सोचती रहती है-ऊल, जलूल, फिजूल। घंटों चाय, सिगरेट, अखबार, फोन, फैक्स और इंटरनेट में उलझी रहती है।’’
बीच में टपकते हुए प्रतिमा भी बोलने लगी, ‘‘कागज पर लिख-लिख कर, अपने आप समझती समझाती रहती है-बी कूल, एक्ट बोल्ड, लुक सैक्सी।’’
इतने में ‘कोल्ड एंड बोल्ड’ लड़की चीखी, ‘आई डोंट वांट टू लुक मेकअप जस्ट ब्यूटीफुल।’’ और बुरी तरह झल्लाते हुए चिकने रंगीन कागज फाड़ कर रद्दी की टोकरी में डाल गाऊन से ही हाथ पौंछ लिए।
नैचुरल ब्यूटी’ काफी देर तक एक पत्रिका के आवरण पृष्ठ पर छपी कलाकृति को देखती रही, जिसमें दो बुर्के और एक घूंघट वाली औरतें, सामने दीवार में टंगी ‘न्यूड पेंटिंग’ को बड़े गौर से देख रही हैं। देह ने हड़बड़ा कर, कई बार छू-छू कर देखा कि गाऊन पहन रखा है या नहीं। उसे फिर से महसूस हुआ कि वह पारदर्शी गाऊन, बिकनी या बुर्के में भी जादू की देह है और देह के जादू से मिट्टी को सोने में बदल सकती है। देखो...देखो...तुम भी देखो, कितनी गौर से देख रही हो ना ! बुर्को उतारकर देखो, बेगम !....घूंघट खोल कर देखो, रानी साहिबा !...जादू की देह और देह का जादू।’ कन्या ने मन ही मन में कहा और कहते-कहते कैनवस के उस पार गायब हो गई। कुर्सी की पीठ पर लटका गाऊन, गुलाबी पंखुड़ियों की तरह हवा में फड़फड़ाता रहा। अंधेरे बन्द कमरे में ऐसा लग रहा है, जैसे हर व्यक्ति/वस्तु ‘फ्रीज’ हो गई हो। घड़ी की टिक्क...टिक्क...भी सुनाई नहीं दे रही। जैसे घड़ी नहीं, महीनों से समय ठहरा हो।
बहुत देर तक सन्नाटा रहा। फिर मध्यम स्वर में आह !...ऊह !..उफ्फ...! के बाद, हा हा, हू हू होती रही। धीरे-धीरे आवाजें गालियों में बदलती चली गईं। बेशर्म...बेहया...हरामजादी...छिनाल कुतिया.....चुड़ैल भूतनी ! सुनते-सुनते गालियों की भाषा भी बदलने लगी। हिन्दी और संस्कृत के श्लोक कभी अंग्रेजी में अनुवाद होने लगते और कभी फ्रैंच या जर्मन में। बीच-बीच में लगता जैसे सीमा के उस ओर, कोई उर्दू अरबी या फारसी में चीख चिल्ला रही है। पर्दा हटा तो मर्यादा एंड कंपनी के चाकलेटी चेहरों पर इंद्रधनुष बिखरा था।
‘बर्थ डे-सूट’ में झूला झूलते-झूलते, दिगम्बरा की खरगोश सी मासूम आँखों में ‘ग्लोब’ घूमने लगा और वह लाखों डॉलर के हीरों की ‘ब्रॉ’ पहनने जा पहुँची-लन्दन-पेरिस-रोम।
होश आया तो फैशन शो कब का खत्म हो चुका था।
न मालूम कब तक, वह कभी ‘नाइटक्रीम’ कभी ‘मिडनाइटक्रीम’ और कभी ‘ड्रीमक्रीम’ लगाती रही। सारी रात सपने से समय में ‘ब्यूटी ब्रिगेड’ चीखती-पुकारती रही- ‘सेट द नाइट ऑन फायर।’ फायर...फायर !!...फायर प्ली..ज।’
सुबह उठी तो ड्रसिंग टेबल के सामने, प्रतिमा बिन्दी-लिपस्टिक पोत रही थी। प्रेरणा ने उछलते हुए कहा, ‘मिस ब्यूटीफुल हेयर का टाइटल मिलने के बाद बस मेरे बालों के ही चर्चे हैं।’ चारों तरफ दीवार पर महकती चंपा-चमेली, रंग-बिरंगी तितलियाँ और कस्तूरी बिखेरती हिरणियाँ ही हिरणियाँ नजर आ रही थीं। कोमे में पड़े सोफे पर कृति-आकृति अंगड़ाई ले रही थी। और मेज पर बेतरतीब रखे छायाचित्रों में ‘ग्लैमर गर्ल्स’ होली खेल रही थीं। खिड़की में ब्लैक-कैट समाधि लगाए बैठी थी और सामने कैलेण्डर में दूध पीते बच्चे गुड.. ड... मो.....र्नि..ग कर रहे थे। जादू की देह गुलाबी गाऊन पहन, बिस्तर से बाहर निकली और गुडमार्निग...गुडमार्मिग...टिलमार्निंग कहती हुई रसोई में घुस गई।
कुछ देर बाद गिलास में नींबू की चाय लेकर आई, सिगरेट सुलगाई और कुर्सी पर पाँव पसार, सिल्वर प्लेटिड ऐशट्रे में से उठते धुएँ के बादल देखने लगी। चाय खत्म कर, अखबार उठाए और बाथरूम की तरफ जाने लगी तो फोन की घंटी बजनी शुरू हो गई। उसने फटाफट फोन उठाया, ‘‘हैलो गुडमार्निंग सर। जी नहीं...दरअसल पापा मम्मी आए हुए हैं। उन्हीं के साथ कहीं जाना है। नो सर नो...नॉट पोसिबल सर !’’ कहा और रख दिया। आतंकित सी मर्यादा ने कमरे की चिटकनी चैक की और बड़बड़ाने लगीं, ये ससुरा बॉस भी जब देखो दूसरी दुल्हन की खोज में लगा रहता है। हर संडे फोन..क्या कर रही हो ? मैं सोच रहा था, खाली हो तो हमारे साथ लंच करो। कौन जाएगा लंगूर के साथ ‘लंच’ करने ?’’
‘‘बाथरूम में बैठी-बैठी राम जाने ‘सुटेबल ब्वॉय’ ढूँढ़ रही है या ‘पेइंग गेस्ट’ ?’’ कृति बड़बड़ाई।
आकृति बोली, ‘‘अनलिमिटेड ‘फेन्टैसीज’ में खो गई होगी।’’
प्रेरणा ने बालों में से जूँ पकड़ते हुए कहा, ‘‘आजकल न जाने क्या क्या सोचती रहती है-ऊल, जलूल, फिजूल। घंटों चाय, सिगरेट, अखबार, फोन, फैक्स और इंटरनेट में उलझी रहती है।’’
बीच में टपकते हुए प्रतिमा भी बोलने लगी, ‘‘कागज पर लिख-लिख कर, अपने आप समझती समझाती रहती है-बी कूल, एक्ट बोल्ड, लुक सैक्सी।’’
इतने में ‘कोल्ड एंड बोल्ड’ लड़की चीखी, ‘आई डोंट वांट टू लुक मेकअप जस्ट ब्यूटीफुल।’’ और बुरी तरह झल्लाते हुए चिकने रंगीन कागज फाड़ कर रद्दी की टोकरी में डाल गाऊन से ही हाथ पौंछ लिए।
नैचुरल ब्यूटी’ काफी देर तक एक पत्रिका के आवरण पृष्ठ पर छपी कलाकृति को देखती रही, जिसमें दो बुर्के और एक घूंघट वाली औरतें, सामने दीवार में टंगी ‘न्यूड पेंटिंग’ को बड़े गौर से देख रही हैं। देह ने हड़बड़ा कर, कई बार छू-छू कर देखा कि गाऊन पहन रखा है या नहीं। उसे फिर से महसूस हुआ कि वह पारदर्शी गाऊन, बिकनी या बुर्के में भी जादू की देह है और देह के जादू से मिट्टी को सोने में बदल सकती है। देखो...देखो...तुम भी देखो, कितनी गौर से देख रही हो ना ! बुर्को उतारकर देखो, बेगम !....घूंघट खोल कर देखो, रानी साहिबा !...जादू की देह और देह का जादू।’ कन्या ने मन ही मन में कहा और कहते-कहते कैनवस के उस पार गायब हो गई। कुर्सी की पीठ पर लटका गाऊन, गुलाबी पंखुड़ियों की तरह हवा में फड़फड़ाता रहा। अंधेरे बन्द कमरे में ऐसा लग रहा है, जैसे हर व्यक्ति/वस्तु ‘फ्रीज’ हो गई हो। घड़ी की टिक्क...टिक्क...भी सुनाई नहीं दे रही। जैसे घड़ी नहीं, महीनों से समय ठहरा हो।
बहुत देर तक सन्नाटा रहा। फिर मध्यम स्वर में आह !...ऊह !..उफ्फ...! के बाद, हा हा, हू हू होती रही। धीरे-धीरे आवाजें गालियों में बदलती चली गईं। बेशर्म...बेहया...हरामजादी...छिनाल कुतिया.....चुड़ैल भूतनी ! सुनते-सुनते गालियों की भाषा भी बदलने लगी। हिन्दी और संस्कृत के श्लोक कभी अंग्रेजी में अनुवाद होने लगते और कभी फ्रैंच या जर्मन में। बीच-बीच में लगता जैसे सीमा के उस ओर, कोई उर्दू अरबी या फारसी में चीख चिल्ला रही है। पर्दा हटा तो मर्यादा एंड कंपनी के चाकलेटी चेहरों पर इंद्रधनुष बिखरा था।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book