श्रंगार - प्रेम >> मत्स्यगन्धा मत्स्यगन्धाहोमेन बरगोहाई
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साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित श्री बरगोहाई जी का असमिया भाषा का बहुचर्चित रोचक उपन्यास ‘मत्स्यगन्धा’ हिन्दी पाठकों के लिए पहली बार प्रस्तुत
Matsyagandha - A Hindi Book by - Homen Bergohai मत्स्यगन्धा - होमेन बरगोहाईं
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपनी जाति-बिरादरी को छोड़ मछुआरे के गाँव की कोई लड़की किसी ऊँची जाति के लड़के के साथ प्रेम-जाल में बँधकर शादी कर ले- इसकी कल्पना करने का साहस भी पीढ़ियों से दासता का जीवन जीते आ रहे गाँव के लोग नहीं कर सकते थे। फिर भी उस मत्स्यगन्धा ने ऐसा किया और बहुत दूर तक आगे बढ़ गई। सवाल है कि ऐसा हुआ कैसे, और इस होने का परिणाम क्या हुआ ? इसी परिपेक्ष्य को कथा का केन्द्रबिन्दु बनाकर असमिया भाषा के यशस्वी कथाकार होमेन बरगोहाईं ने अपने इस अनूठे उपन्यास ‘मत्स्यगन्धा’ की सर्जना की है।
ऊपर-ऊपर से ‘मत्स्यगन्धा’ एक सीधी-सादी कथा है। लेकिन इस तथाकथित रूमानी कथा के बीच कथाकार ने असम प्रान्तर में बसी जनजातियों के पारम्परिक साहित्यिक जीवन, उनके राग-विराग, उनके व्यथा-कथा और उनके सामाजिक संघर्षों का यथार्थपरक चित्रांकन अत्यन्त मनोहारी ढंग से किया है।
असमिया भाषा का यह बहुचर्चित रोचक उपन्यास अब हिन्दी पाठकों के लिए पहली बार प्रस्तुत है।
ऊपर-ऊपर से ‘मत्स्यगन्धा’ एक सीधी-सादी कथा है। लेकिन इस तथाकथित रूमानी कथा के बीच कथाकार ने असम प्रान्तर में बसी जनजातियों के पारम्परिक साहित्यिक जीवन, उनके राग-विराग, उनके व्यथा-कथा और उनके सामाजिक संघर्षों का यथार्थपरक चित्रांकन अत्यन्त मनोहारी ढंग से किया है।
असमिया भाषा का यह बहुचर्चित रोचक उपन्यास अब हिन्दी पाठकों के लिए पहली बार प्रस्तुत है।
कुछ विशिष्ट असमियां शब्द
(मूल उपन्यास और अनुवाद में प्रयुक्त)
खार : संस्कृत क्षार। केले के तने आदि को जलाकर बनाया जाने वाला चूर्ण। इसका उपयोग मीठा सोडा के स्थान पर किया जाता है। औषधीय गुणों से युक्त होता है और कपड़े धोने के काम आता है।
मेखेला : कमर में पहना जाने वाला महिलाओं का अधोवस्त्र। असम में साड़ी के स्थान पर मेखेला और चादर पहनने का रिवाज है।
नामघर : मध्ययुगीन असमिया वैष्णव धर्म के प्रवर्त्तक श्री शंकरदेव द्वारा स्थापित वैष्णव परम्परा का नामकीर्तन करने का स्थल। नामघर गाँव के सामाजिक जीवन का केन्द्र होता है।
घोंघा चूना : घोंघे को जलाकर बनाया गया चूना।
देउता : पिता। श्रद्धय व्यक्ति के लिए प्रयुक्त संबोधन।
मोवामरीया : निम्न और पिछड़ी जातियों तथा जनजातियों का एक वैष्णव सम्प्रदाय। अठारहवीं शताब्दी में अहोम राजसत्ता के साथ इनका लंबा संघर्ष हुआ था।
सत्र : विभिन्न वैष्णव सम्प्रदायों के केन्द्र; मठ। सभी असमिया वैष्णव किसी-न-किसी सत्र के अनुयायी होते हैं।
भाओत्ता : असमिया नाट्य-परंपरा के अन्तर्गत संगीत-नृत्य मिश्रित नाटक जो मुख्यत: सत्रों और नामघरों में खेले जाते हैं।
वासुदेव थान : लखीमपुर ज़िले के ढेकुआखना अंचल में स्थित अत्यन्त प्राचीन वैष्णव स्थान। इस अंचल में वासुदेव की बड़ी मान्यता है। ‘मत्स्यगन्धा’ का कथानक इसी अंचल से संबद्ध है।
बन-घोषा : चरवाहों द्वारा गाये जाने वाले गीत।
डोम : असम के मछुआरे लोगों का पिछड़ा वर्ग।
कैवर्त : मछुवारा जाति के लोग।
बोवाल पेड़ : एक जंगली पेड़।
पचतीया पेड़ : एक औषधीय वृक्ष जो उत्तर लखीमपुर अंचल में ही पाया जाता है।
बरहमथुरी : एक ऐसा पौधा जिसके पत्ते चबाने से ओंठ और दाँतों का रंग काला हो जाता है।
मौज़ादार : असम में कई गाँवों के समूह को मौज़ा कहते हैं। मौज़ादार इनका राजस्व अधिकारी होता है। असम में जमींदारी प्रथा नहीं रही। मौज़ादार अत्यन्त सम्मानित और सक्षम व्यक्ति होते हैं।
बिहू : असम में प्रमुख उत्सव जिनमें कई दिनों तक आनन्द मनाया जाता है। मुख्य बिहू उत्सव मकर संक्रान्ति (जनवरी) और कर्क संक्रान्ति (अप्रैल) के समय होते हैं। बिहू-नृत्य तथा गीत असमिया संस्कृति के सबसे सशक्त प्रतीक हैं।
बिहूतली : खेतों या अन्य खुले स्थानों में ‘बिहू’ नृत्य करने का स्थान।
चापरी : नदी के आस-पास की उपजाऊ भूमि।
गोसाईं: ईश्वर, भगवान्। सत्रों के प्रधान, सत्राधिकारी तथा अन्य धर्मगुरुओं को भी गोसाईं कहकर संबोधित करते हैं।
गाँव-बूढ़ा : गाँव का मुखिया।
पासनी : सत्रों में छोटे-मोटे काम करने वाला कर्मचारी।
भलुका : एक विशेष प्रकार का मोटा बाँस।
मेखेला : कमर में पहना जाने वाला महिलाओं का अधोवस्त्र। असम में साड़ी के स्थान पर मेखेला और चादर पहनने का रिवाज है।
नामघर : मध्ययुगीन असमिया वैष्णव धर्म के प्रवर्त्तक श्री शंकरदेव द्वारा स्थापित वैष्णव परम्परा का नामकीर्तन करने का स्थल। नामघर गाँव के सामाजिक जीवन का केन्द्र होता है।
घोंघा चूना : घोंघे को जलाकर बनाया गया चूना।
देउता : पिता। श्रद्धय व्यक्ति के लिए प्रयुक्त संबोधन।
मोवामरीया : निम्न और पिछड़ी जातियों तथा जनजातियों का एक वैष्णव सम्प्रदाय। अठारहवीं शताब्दी में अहोम राजसत्ता के साथ इनका लंबा संघर्ष हुआ था।
सत्र : विभिन्न वैष्णव सम्प्रदायों के केन्द्र; मठ। सभी असमिया वैष्णव किसी-न-किसी सत्र के अनुयायी होते हैं।
भाओत्ता : असमिया नाट्य-परंपरा के अन्तर्गत संगीत-नृत्य मिश्रित नाटक जो मुख्यत: सत्रों और नामघरों में खेले जाते हैं।
वासुदेव थान : लखीमपुर ज़िले के ढेकुआखना अंचल में स्थित अत्यन्त प्राचीन वैष्णव स्थान। इस अंचल में वासुदेव की बड़ी मान्यता है। ‘मत्स्यगन्धा’ का कथानक इसी अंचल से संबद्ध है।
बन-घोषा : चरवाहों द्वारा गाये जाने वाले गीत।
डोम : असम के मछुआरे लोगों का पिछड़ा वर्ग।
कैवर्त : मछुवारा जाति के लोग।
बोवाल पेड़ : एक जंगली पेड़।
पचतीया पेड़ : एक औषधीय वृक्ष जो उत्तर लखीमपुर अंचल में ही पाया जाता है।
बरहमथुरी : एक ऐसा पौधा जिसके पत्ते चबाने से ओंठ और दाँतों का रंग काला हो जाता है।
मौज़ादार : असम में कई गाँवों के समूह को मौज़ा कहते हैं। मौज़ादार इनका राजस्व अधिकारी होता है। असम में जमींदारी प्रथा नहीं रही। मौज़ादार अत्यन्त सम्मानित और सक्षम व्यक्ति होते हैं।
बिहू : असम में प्रमुख उत्सव जिनमें कई दिनों तक आनन्द मनाया जाता है। मुख्य बिहू उत्सव मकर संक्रान्ति (जनवरी) और कर्क संक्रान्ति (अप्रैल) के समय होते हैं। बिहू-नृत्य तथा गीत असमिया संस्कृति के सबसे सशक्त प्रतीक हैं।
बिहूतली : खेतों या अन्य खुले स्थानों में ‘बिहू’ नृत्य करने का स्थान।
चापरी : नदी के आस-पास की उपजाऊ भूमि।
गोसाईं: ईश्वर, भगवान्। सत्रों के प्रधान, सत्राधिकारी तथा अन्य धर्मगुरुओं को भी गोसाईं कहकर संबोधित करते हैं।
गाँव-बूढ़ा : गाँव का मुखिया।
पासनी : सत्रों में छोटे-मोटे काम करने वाला कर्मचारी।
भलुका : एक विशेष प्रकार का मोटा बाँस।
कथाप्रवेश
दो व्यक्ति नदी पार कर गाँव की ओर आ रहे थे। उन्होंने जैसे ही गाँव के रास्ते पर गाँव रखा, गाँव के स्वयम्भू प्रहरी दो-चार कुत्ते ज़ोर-ज़ोर से भूँकने लगे। घर के अन्दर आग तापते हुए लोग आपस में बतियाने लगे- ‘‘निश्चय ही दक्खिन पार के होंगे कोई। समधी के घर आये होंगे।’’
कुत्तों के भूँकने की उपेक्षा करके दोनों आगन्तुकों में एक कह उठा, ‘‘क्या कहें, इन कुत्तों को तो भूँकना-ही-भूँकना है- बस।.....साढ़ू भाई, यह गाँव भी कैसा है ! अभी अँधेरा भी नहीं हुआ, और बाहर कहीं कोई भी नजर नहीं आ रहा ! जाड़ों के दिन होने पर भी बच्चे-बूढ़े सभी इतनी जल्दी दरवाज़े बन्द कर घर में घुस जायें इसमें तो कोई तुक नहीं !’’
अँधेरे में कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, इसलिए उसके साथी का पाँव गोबर पर पड़ गया। गिरते-गिरते किसी तरह सँभल पाया। अचानक पूरे गाँव पर उसे गुस्सा आने लगा- ‘‘उत्तर पार के ये गाँव हमारे गाँव की तरह नहीं हैं- हैं न साढ़ू भाई !’’- पैर में लगा गोबर रास्ते के किनारे ओस से भीगी हुई घास में पोंछते हुए उसने आगे कहा, ‘‘यहाँ के लोग अभी भी बहुत गन्दे और असभ्य हैं। काम भी कुछ नहीं करते। देखा न, सूरज डूबा ही नहीं और रास्ते में कोई भी दिखाई नहीं देता। अभी मुश्किल से साँझ हुई है और बच्चे, बूढ़े, आदमी, औरत सब लगे घर में घुसकर आग तापने।.....साढ़ू भाई, थोड़ा ठहरिये- एक सिगरेट फूँक लूँ, ठण्ड से होंठ जम गये हैं।’’
उक्त दोनों का भाग्य अच्छा था कि जिस जगह सिगरेट पीने रुके थे, वहीं किसी के घर के सामने फूस की आग धीमी-धीमी सुलग रही थी। खार के पानी से कपड़े धोने के लिए गाँव के लोग इसी तरह फूस जलाकर दूसरे दिन के लिए रखते हैं। जो आदमी सिगरेट पीने जा रहा था वह पाँव में थोड़ी-सी गरम आँच लगते ही खुशी से लगभग चिल्ला उठा- ‘‘साढ़ू भाई, अहोभाग्य ! आइये, आग बुझने से पहले ही हम यहाँ बैठकर सिगरेट पी डालें। पुवाल की आग बुझने में समय ही कितना लगता है !’’
साथी की सहमति मिलने से पहले ही वह बैठ गया। कोई चारा न देखकर दूसरा आदमी भी बैठ गया।
अँधेरे में सिगरेट पीते हुए चारों ओर आँखें घुमाकर पहले आदमी ने कहा, ‘‘साढ़ू भाई, मुझे अँधेरे में कुछ पता ही नहीं लग रहा है। हम मोहघुलि गाँव को पार कर चुके या नहीं ? यह कौन-सा गाँव है ?’’
दूसरे ने जवाब दिया, ‘‘अरे भाई, किससे पूछ रहे हो ? मैं भी इस ओर आज पहली बार आया हूँ- भूल गये क्या ? उठिए, उठिए- हम जिसके यहाँ जा रहे हैं वहाँ पहुँचते-पहुँचते कहीं वे लोग खाना खाकर लम्बी न तान लें। ऐसा हुआ तो हमें भूख से तड़प-तड़पकर रात बितानी पड़ेगी।’’
दोनों उठकर चलने लगे। माघ मास के कृष्णपक्ष की रात। रास्ते के दोनों ओर बाँस, केला, सुपारी, कसेरू आदि तरह-तरह के पेड़। इन पेड़ों की छाया ने रात के अँधेरे को और घना कर दिया है। कोहरे के कारण मन्द पड़ी तारों की रोशनी का अनुमान लगाते हुए दोनों किसी तरह धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। इतनी रात हो जाएगी इसका उन्हें अनुमान नहीं था। ब्रह्मपुत्र के पार-घाट पर पहली नौका मिल जाती तो सूरज डूबने से पहले ही वे लोग अपने गन्तव्य स्थान तक पहुँच जाते। लेकिन रास्ते में दिसांमुख वाली बस का टायर पंक्चर हो जाने से एक घण्टा बरबाद हो गया। दूसरी पारी की नाव पकड़ने के लिए दिसांमुख पार- घाट पर ही पूरा एक पहर बैठे रहना पड़ा।
कुछ देर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। अचानक रास्ते के बिल्कुल किनारे वाले किसी के रसोईघर से गरम तेल में मछली तलने की आवाज़ सुनाई दी और दूसरे ही क्षण तली मछली की सुगन्ध दोनों की नाक में भर गयी। तत्काल दोनों को भूख लग आयी और दोनों के मुँह में पानी भर आया। मुँह का पानी गुटककर एक ने आवाज दी, ‘‘साढ़ू भाई, आपके नये समधी के घर कब पहुँचेंगे ? भूख से पेट में चूहे कूद रहे हैं।’’
दूसरा जवाब में कुछ कहता, कि अचानक उसका मुँह अपने आप ही बन्द हो गया। उसकी नाक से एक आवाज निकली जैसे वह कोई चीज़ सूँघने की कोशिश कर रहा हो। कुछ क्षण बाद उसने खखार कर थूका और उल्लसित हो जोर से बोला, ‘‘बस पहुँच गये, साढ़ू भाई। अब और अधिक दूर नहीं है। ज़्यादा-से-ज़्यादा एक मील और।’’
दूसरे आदमी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, ‘‘नाक से सूँघकर आप कब से दूरी का अनुमान लगाने लगे। ?’’
पहले आदमी ने दुबारा जोर से थूकते हुए कहा, ‘‘अरे समझिए, हम डोम गाँव पहँच गये हैं। लाहन गाँव, जिसके लिए हम निकले हैं, इस डोम गाँव से बस मील-भर की दूरी पर है।’’
‘‘वह तो ठीक है। लेकिन इतने अँधेरे में आपको कैसे मालूम हुआ कि यह डोम गाँव ही है ?’’ दूसरे ने पुन: पूछा।
‘‘साढ़ूभाई, भला यह भी कहने की बात है ? मछली की बू से ही समझ सकते हैं कि यह डोम गाँव ही है। देखते नहीं, भुनी हुई मछली की गन्ध कैसी चारों ओर की हवा में समायी हुई है ! लगता है, गाँव के सभी लोग आज किसी ताल में मछली पकड़ने गये होंगे। उत्तर के इस इलाके में अनगिनत ताल-तलैयाँ और नदियाँ है- जिस दिन गाँव के सभी लोग किसी ताल में मछली पकड़ने जाते हैं उस दिन प्रत्येक आदमी कम-से-कम सौ-सवा सौ आरि-गागल, शोल-बरालि, तरह-तरह की मछलियाँ लेकर ही घर लौटता है। हम आहोम-कसारी लोगों को यह आराम है कि हम जितनी हो सके मछली खाकर शेष साल-भर के लिए सुखाकर रख लेते हैं।
लेकिन ऊँची जाति के हिन्दुओं के लिए बड़ी मुश्किल है। जो मछली वे खा नहीं सकते उन्हें खाद बनाने के लिए सुपारी के पेड़ों तले मिट्टी में गाड़ देने के सिवाय उनके पास और कोई चारा नहीं। लगता है, आज डोम लोगों को ढेरों ढेर मछलियाँ मिली हैं। इसीलिए भुनी हुई मछली की खुशबू से सारा गाँव महक उठा है। जब काड़ी गाँव और मोहघुलि गाँव में भी लोग आग में भूनकर मछली खाते हैं, यह तो ठीक है। लेकिन उन गाँवों में मछली भूनने के साथ-साथ खटाई, उड़द की दाल, हल्दी-मसाला आदि की खुशबू भी आपको मिलेगी। डोम गाँव में आपको ये सब कुछ नहीं मिलेगा। मिलेगी केवल जिन्दा मछली की गन्ध और भुनी हुई मछली की गन्ध। शायद ये लोग तेल का इस्तेमाल करना ही नहीं जानते। आप चलते रहिए- जिस जगह इस भुनी हुई मछली की गन्ध खत्म हो जाये उसी जगह रुककर मैं आपको प्रमाणित कर दिखाऊँगा कि हम डोम गाँव.....।’’
कुत्तों के भूँकने की उपेक्षा करके दोनों आगन्तुकों में एक कह उठा, ‘‘क्या कहें, इन कुत्तों को तो भूँकना-ही-भूँकना है- बस।.....साढ़ू भाई, यह गाँव भी कैसा है ! अभी अँधेरा भी नहीं हुआ, और बाहर कहीं कोई भी नजर नहीं आ रहा ! जाड़ों के दिन होने पर भी बच्चे-बूढ़े सभी इतनी जल्दी दरवाज़े बन्द कर घर में घुस जायें इसमें तो कोई तुक नहीं !’’
अँधेरे में कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, इसलिए उसके साथी का पाँव गोबर पर पड़ गया। गिरते-गिरते किसी तरह सँभल पाया। अचानक पूरे गाँव पर उसे गुस्सा आने लगा- ‘‘उत्तर पार के ये गाँव हमारे गाँव की तरह नहीं हैं- हैं न साढ़ू भाई !’’- पैर में लगा गोबर रास्ते के किनारे ओस से भीगी हुई घास में पोंछते हुए उसने आगे कहा, ‘‘यहाँ के लोग अभी भी बहुत गन्दे और असभ्य हैं। काम भी कुछ नहीं करते। देखा न, सूरज डूबा ही नहीं और रास्ते में कोई भी दिखाई नहीं देता। अभी मुश्किल से साँझ हुई है और बच्चे, बूढ़े, आदमी, औरत सब लगे घर में घुसकर आग तापने।.....साढ़ू भाई, थोड़ा ठहरिये- एक सिगरेट फूँक लूँ, ठण्ड से होंठ जम गये हैं।’’
उक्त दोनों का भाग्य अच्छा था कि जिस जगह सिगरेट पीने रुके थे, वहीं किसी के घर के सामने फूस की आग धीमी-धीमी सुलग रही थी। खार के पानी से कपड़े धोने के लिए गाँव के लोग इसी तरह फूस जलाकर दूसरे दिन के लिए रखते हैं। जो आदमी सिगरेट पीने जा रहा था वह पाँव में थोड़ी-सी गरम आँच लगते ही खुशी से लगभग चिल्ला उठा- ‘‘साढ़ू भाई, अहोभाग्य ! आइये, आग बुझने से पहले ही हम यहाँ बैठकर सिगरेट पी डालें। पुवाल की आग बुझने में समय ही कितना लगता है !’’
साथी की सहमति मिलने से पहले ही वह बैठ गया। कोई चारा न देखकर दूसरा आदमी भी बैठ गया।
अँधेरे में सिगरेट पीते हुए चारों ओर आँखें घुमाकर पहले आदमी ने कहा, ‘‘साढ़ू भाई, मुझे अँधेरे में कुछ पता ही नहीं लग रहा है। हम मोहघुलि गाँव को पार कर चुके या नहीं ? यह कौन-सा गाँव है ?’’
दूसरे ने जवाब दिया, ‘‘अरे भाई, किससे पूछ रहे हो ? मैं भी इस ओर आज पहली बार आया हूँ- भूल गये क्या ? उठिए, उठिए- हम जिसके यहाँ जा रहे हैं वहाँ पहुँचते-पहुँचते कहीं वे लोग खाना खाकर लम्बी न तान लें। ऐसा हुआ तो हमें भूख से तड़प-तड़पकर रात बितानी पड़ेगी।’’
दोनों उठकर चलने लगे। माघ मास के कृष्णपक्ष की रात। रास्ते के दोनों ओर बाँस, केला, सुपारी, कसेरू आदि तरह-तरह के पेड़। इन पेड़ों की छाया ने रात के अँधेरे को और घना कर दिया है। कोहरे के कारण मन्द पड़ी तारों की रोशनी का अनुमान लगाते हुए दोनों किसी तरह धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। इतनी रात हो जाएगी इसका उन्हें अनुमान नहीं था। ब्रह्मपुत्र के पार-घाट पर पहली नौका मिल जाती तो सूरज डूबने से पहले ही वे लोग अपने गन्तव्य स्थान तक पहुँच जाते। लेकिन रास्ते में दिसांमुख वाली बस का टायर पंक्चर हो जाने से एक घण्टा बरबाद हो गया। दूसरी पारी की नाव पकड़ने के लिए दिसांमुख पार- घाट पर ही पूरा एक पहर बैठे रहना पड़ा।
कुछ देर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। अचानक रास्ते के बिल्कुल किनारे वाले किसी के रसोईघर से गरम तेल में मछली तलने की आवाज़ सुनाई दी और दूसरे ही क्षण तली मछली की सुगन्ध दोनों की नाक में भर गयी। तत्काल दोनों को भूख लग आयी और दोनों के मुँह में पानी भर आया। मुँह का पानी गुटककर एक ने आवाज दी, ‘‘साढ़ू भाई, आपके नये समधी के घर कब पहुँचेंगे ? भूख से पेट में चूहे कूद रहे हैं।’’
दूसरा जवाब में कुछ कहता, कि अचानक उसका मुँह अपने आप ही बन्द हो गया। उसकी नाक से एक आवाज निकली जैसे वह कोई चीज़ सूँघने की कोशिश कर रहा हो। कुछ क्षण बाद उसने खखार कर थूका और उल्लसित हो जोर से बोला, ‘‘बस पहुँच गये, साढ़ू भाई। अब और अधिक दूर नहीं है। ज़्यादा-से-ज़्यादा एक मील और।’’
दूसरे आदमी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, ‘‘नाक से सूँघकर आप कब से दूरी का अनुमान लगाने लगे। ?’’
पहले आदमी ने दुबारा जोर से थूकते हुए कहा, ‘‘अरे समझिए, हम डोम गाँव पहँच गये हैं। लाहन गाँव, जिसके लिए हम निकले हैं, इस डोम गाँव से बस मील-भर की दूरी पर है।’’
‘‘वह तो ठीक है। लेकिन इतने अँधेरे में आपको कैसे मालूम हुआ कि यह डोम गाँव ही है ?’’ दूसरे ने पुन: पूछा।
‘‘साढ़ूभाई, भला यह भी कहने की बात है ? मछली की बू से ही समझ सकते हैं कि यह डोम गाँव ही है। देखते नहीं, भुनी हुई मछली की गन्ध कैसी चारों ओर की हवा में समायी हुई है ! लगता है, गाँव के सभी लोग आज किसी ताल में मछली पकड़ने गये होंगे। उत्तर के इस इलाके में अनगिनत ताल-तलैयाँ और नदियाँ है- जिस दिन गाँव के सभी लोग किसी ताल में मछली पकड़ने जाते हैं उस दिन प्रत्येक आदमी कम-से-कम सौ-सवा सौ आरि-गागल, शोल-बरालि, तरह-तरह की मछलियाँ लेकर ही घर लौटता है। हम आहोम-कसारी लोगों को यह आराम है कि हम जितनी हो सके मछली खाकर शेष साल-भर के लिए सुखाकर रख लेते हैं।
लेकिन ऊँची जाति के हिन्दुओं के लिए बड़ी मुश्किल है। जो मछली वे खा नहीं सकते उन्हें खाद बनाने के लिए सुपारी के पेड़ों तले मिट्टी में गाड़ देने के सिवाय उनके पास और कोई चारा नहीं। लगता है, आज डोम लोगों को ढेरों ढेर मछलियाँ मिली हैं। इसीलिए भुनी हुई मछली की खुशबू से सारा गाँव महक उठा है। जब काड़ी गाँव और मोहघुलि गाँव में भी लोग आग में भूनकर मछली खाते हैं, यह तो ठीक है। लेकिन उन गाँवों में मछली भूनने के साथ-साथ खटाई, उड़द की दाल, हल्दी-मसाला आदि की खुशबू भी आपको मिलेगी। डोम गाँव में आपको ये सब कुछ नहीं मिलेगा। मिलेगी केवल जिन्दा मछली की गन्ध और भुनी हुई मछली की गन्ध। शायद ये लोग तेल का इस्तेमाल करना ही नहीं जानते। आप चलते रहिए- जिस जगह इस भुनी हुई मछली की गन्ध खत्म हो जाये उसी जगह रुककर मैं आपको प्रमाणित कर दिखाऊँगा कि हम डोम गाँव.....।’’
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