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जमना की तलाश

शिवकुमार कौशिक

प्रकाशक : सुयोग्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1993
पृष्ठ :278
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4038
आईएसबीएन :0000

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प्रस्तुत है एक श्रेष्ठ उपन्यास...

Jamana Ki Talash

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

मालवा की काली माटी, जिसके गेहूँ के आटे से बनी और देशी घी में तर बाटी और थूली अपना अलग जायका रखती थीं। थूली दलिए गेहूँ के दरदरे दलिए की तरह होती थीं। और रवे के हलवे की भाँति बनती थी। वहाँ का कद्दू भी अपने ढंग का निराला और जायकेदार होता था। तिल का आम तौर पर इस्तेमाल होता है, जो स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा होता है। वहाँ ज्वार बहुतायत से होती है और उसकी रोटियाँ खास खुराक है। वैसे अब वहाँ सोयाबीन भी होता है। आनन्दा के अनुसार उसे काली तूअर कहा जाता है। सूरजमुखी की भी खेती होने लगी है, पर बताया गया है कि उसके फूलों में बीजों को पक्षियों से बचा पाना बहुत मुश्किल होता है। यह प्रोटीन के लिहाज से बहुत अच्छा होता है और उसका तेल दिल के मरीजों के लिए बड़ा फायदेमंद  है।

पहले वह गेहूँ आम मिलता था, पर अब बहुत ढूँढ़ने पर मुश्किल से नसीब होता है—जैसे गेहूँ की नहीं जमना की तलाश की जा रही हो। हाँ, जमना की ही। इन पक्तियों का लेखक बाल्यकाल में उस काली माटी पर ही खेला है, और प्रारम्भिक पढ़ाई के अलावा पिता श्री जगराम सिंह शर्मा से ‘किंग्स प्राइमर’ पढ़ी है। यह सन् 1937 के लगभग की बात है। तब उपरोक्त पुस्तक अंग्रेजी सीखने में बहुत उम्दा मानी जाती थी।
मालवा में भोपाल और उज्जैन के बीच तत्कालीन जी.आई.पी. (ग्रेट इंडियन पेननशुला) की एक शाखा (सेक्शनल) गाड़ी चलती थी। पिता जी उस तत्कालीन   रेलवे के छोटे स्टेशन पर पूर्व ग्वालियर रियासत की जमीन पर एक वेयरहाउस के इंचार्ज थे।

माल की इशू के हफ्ते में दो दिन होते थे और गाँजा, अफीम, भाँग, तथा शराब लेने के लिए ठेकेदारों की उन दिनों में भारी भीड़ रहती थी। ये ठेकेदार विभिन्न स्थानों से होते थे और अपने घोड़ों या गधों पर पीपों में शराब व अन्य माल लाद कर ले जाते थे। ये ठेकेदार तरह-तरह की खैरात भी लाते थे जिनमें मुझे खिरनियां बहुत भाती थीं। कुछ कभी-कभी मुझे इनाम के तौर पर पैसे भी दे जाते, जिनसे मैं मोहन महाराज की दुकान से कलाकंद व बेसन के सेव वगैरह खरीदा करता था। तब उन्हें मैं बड़े चाव से खाता। इनके लिए बाबूजी (पिता श्री) भी नियमित रूप से अधन्ना देते थे। यह रियासती अधन्ना स्थानीय पैसे के एक-दम दोगुना होता। वह तांबे का बना हुआ रहता था। अब उसी ताँबे की कीमत एक तरह से आसमान छू रही है। और चीजों की महँगाई का भी यही हाल है।

वह स्टेशन भक्सी कहलाता था। स्टेशन की हद तारों से घिरी थी। उसके बाहर पिता श्री वाले वेयरहाउस के अलावा कच्चे झोपड़ों की एक छोटी-सी बस्ती भी बसी थी। इस बस्ती में कुछ मराठा परिवार भी थे। हर मराठा हालाँकी स्टेशन के गोदाम पर हम्माली व झोंकर के एक जमींदार की भूमि पर बटाई पर खेती करता था, पर इस सब कुछ गरीबी के बावजूद वह अपने को एक ‘राजा’ समझता था। कारण ? ग्वालियर रियासत के महाराजा सिंधिया मराठा ही थे। ऐसे मराठाओं में आनन्दा व मल्हारी मेरे साथी थे। तब मराठा स्त्रियाँ सुबह चक्की चलाते हुए पूना के मराठा क्षेत्र के गीत गाती थीं। और बड़ी भली लगती थीं। अब न वे चक्कियाँ है न मधुर गीत ही....कारण ? वहाँ अब बिजली आ गई है। नए कानूनों के अनुसार मराठा जमीन के मालिक भी बन गए हैं।

भक्सी स्टेशन की दुनियाँ में स्टेशन स्वयं की बिल्डिंग, उससे उत्तर में आती हुई सड़क के दाईं ओर बड़े व छोटे बाबू के अलग-अलग क्वार्टर, बाईं ओर टाइम कीपर के ठीक वेयरहाउस के सामने पत्थरों की बनी कोठी और उससे कुछ दूर प्लेटियर साहब का बंगला। इन दिनों प्लेटियर साहब एकदम काले रंग के ईसाई थे। वह कुछ लंगड़ाकर चलते थे। उनकी एक बिलकुल गोरी एंग्लो इंडियन मेम थी। बच्चे सभी अपनी माँ पर गए थे और वे कहीं और पढ़ा करते थे। बड़े दिन की छुट्टियों में जब वह आते तो खूब जश्न मनाया जाता। हमें भी उसमें बुलाया जाता तथा अंग्रेजी मिठाई बताकर मीठी गोलियाँ दी जातीं। उनकी खानसामा एक ईसाई विधवा महिला थी जिसका लड़का जोन हमारे साथ पढ़ता था। उसकी माँ शैतानी करने पर कमर में बाँधने वाली चमड़े की पेटी से पिटाई करती। वह होली पर रंग के दिन शेर का रूप धारण करने वेयरहाउस पर आता और अच्छा इनाम पाता। प्लेटियर साहब के बंगले के साथ ही कुछ छोटे-छोटे से क्वार्टर बने होते, जहाँ एक खाती (बढ़ई) भी रहता था। उसका लड़का लाली हमारा दोस्त था और हमारे साथ पढ़ने जाता। रियासती जमीन पर बंगले के सामने एक जिनिंग फैक्टरी थी। वहाँ जाड़ों में कपास ओटी जाती। तब वह क्षेत्र एक किस्म से व्यस्त हो जाता। पटरियों के उत्तर में अन्य रेलवे कर्मचारियों के छोटे-छोट क्वार्टर बने होते थे तथा उनके पश्चिम में एक बहुत बड़ा गोदाम बना हुआ था। रियासती क्षेत्र में वेयरहाउस के एक ओर जानकीदास का मकान था, तो दूसरी ओर भंडारी की धर्मशाला-वेयरहाउस की दाईं ओर एकदम सटी हुई। वहाँ बहुधा जैनी यात्री गाँवड़े में बने दो मंदिरों में दर्शन करने के लिए आते।

अवकाश प्राप्त बाबू जानकीदास की एक छोटी-सी लड़की जमना मेरे साथ खेलती थी। लेकिन एक दिन वह यकायक गायब हो गई। बाद में मेरठ पढ़ते हुए कई बार भक्सी गया तो आँखें उसे तलाशती रहतीं। बस एक बार मौसी यह कहते हुए अवश्य रो पड़ीं कि जमना की माँ सचमुच बड़ी डायन है। उसने वह फूल जैसी बच्ची किसी डाकू को बेंच दी। पिताश्री वाले महकमे-कस्टम एंड एक्साइज—में ही बाबू जानकीदास भी पहले कर्मचारी थे, पिताश्री ने सुवासरे से आकर उन्हीं से चार्ज लिया था। बाबू जानकीदास ने अवकाश ग्रहण करने के बाद वहीं अपना कच्चा मकान बना लिया था, जो हमारे वाले वेयरहाउस से सटा हुआ था। उन्हें मामूली रियासती पेंशन मिलती थी। अतः कुछ खेती करा गुजारा कर किसी प्रकार अपना काटते थे। जमना का रंग कुछ साँवला था और उसके गालों की लालिमा वैसी ही थी, जैसे ढाके के लाल-लाल फूल। जब वह हँसती तो ऐसे लगती जैसे काली माटी पर खिली सफेद कपास। सबसे बड़ी बात यह कि वह ममतामयी थी। उसी को खोजने मैं एक बार फिर दिल्ली से गया। यह उपन्यास उसी की तलाश पर है। दूसरे, मुख्यतः वहाँ के स्टेशन मास्टर श्री पी.एन. शर्मा के भय विशेष पर आधारित है। वह भय तत्कालीन आरक्षण के नाम पर होने वाली धाँधली पर आधारित था। दरअसल, आरक्षण को भी एक अफीम माना गया है।

जब मैं बाद में वहाँ गया तो भक्सी स्टेशन भूतपूर्व ग्वालियर रियासत के ही एक अन्य स्थान गुना से भी जुड़ चुका था। यहाँ यह अवश्य बता दूँ कि मुख्य  भक्सी स्टेशन से लगभग डेढ़ मील दूर आगरा-बम्बई सड़क पर बसे कस्बा-नुमा गाँवड़े भक्सी से जुड़ा हुआ था। वहीं के बाजार में मैंने एक दिन किसी टैक्सटाइल मिल की खादी पर गाँधी जी की तस्वीर छपी देखी थी। उसने मेरे मन में एक भाव-विशेष बना छोड़ा है, यह कि स्वतन्त्रता से वास्तव में उद्योगपतियों को ही लाभ है। वहाँ के प्राइमरी स्कूल में मैंने पूर्व केन्द्रीय मन्त्री माधव राव सिंधिया के पिता की युवराज भेष में एक लम्बा फोटो देखा था, जिसके सामने हम सभी बालक सिर झुकाते थे। फिर उनकी दीर्घ आयु के लिए प्रार्थना होती थी। स्कूल के एकमात्र अध्यापक अनोखीलाल थे। वह एक खास किस्म की गोल टोपी पहनते थे और उनकी आँखें शायद अफीम खाने के कारण हमेशा लाल रहती थीं। घोड़ी को पानी पिलाकर लाना उनकी एक खास आतंककारी सजा थी। मुझे सचमुच खेद है कि मुझे कभी घोड़ी को पानी पिला कर लाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, पर मेरी आँखों के सामने अब भी वह दृश्य है, जब किसी बालक को एक फाँसीनुमा रस्सी पर लटकाया जाता था, तथा जब वह चिल्लाता तो बेंत मार कर घोड़ी को और तेज दौड़ाए जाने के लिए डाँटा-फटकारा जाता था। मेरी आँखों के सामने वह दृश्य आता है तो सारा गात कँपकँपा जाता है। बालक के चिल्ला कर ‘‘फिर कभी ऐसा नहीं होगा, मास्टर साहब’’ चीत्कार करता कानों में गूँज जाता है। उसकी गिड़गिड़ाने की आवाज भी आखिर इस सजा के बाद आनन्दा ने स्कूल छोड़ दियाः स्साला हमारी प्रजा होकर हमें ही मारता है ! उन दिनों पढ़ाई का यही आलम था। उज्जैन में भी सिर्फ इण्टर तक माधव कॉलेज था।

यह उपन्यास सन् 1991 की पहली जनवरी से दो वर्ष पहले लिखा जा चुका था। अतः इसमें आरक्षण के परिणामों की पहली वाली तस्वीर ही है। 1990 में वी. पी. सरकार ने आरक्षणों में और वृद्धि कर एक भीषण आंदोलन, आत्महत्याओं तथा आत्मदाहों के जिस दौर को जन्म दिया और तथाकथित ‘वोट बैंक’ बनाया, वे एक प्रकार से पहले वाले आरक्षण पर चक्रवृद्धि भयंकरताएँ ही हैं। वी. पी. सिंह की सरकार कुल 11 महीने ही चल पाई। उसके बाद कांग्रेस के समर्थन से चन्द्रशेखर जी प्रधानमन्त्री बने। फिर चार माह बाद वह भी गए। असल में पहले से टाइपिस्ट ही नहीं मिल सका। इत्तफाक से केन्द्रीय सरकार में कार्यरत रहे श्री कृष्णलाल शर्मा ने इसे टाइप करने का बीड़ा उठाया। फलस्वरूप यह उपन्यास अब तैयार है। वह जैसा भी बना हो, पर ‘वैशाली की दत्तक पुत्री’ और ‘प्रियदर्शनी इन्दिरा गांधी’ के बाद यह नया व तीसरा प्रयास है।

सन् 1977 में मैं फिर उज्जैन गया था-साँची भी। भक्सी स्टेशन अब एक जंक्शन का रूप ले चुका था और एक लाइन शायद देवास के लिए और डाले जाने की पेशकश थी। जैसे आरक्षण की भलाई कुछ ही लोग हड़प जाते हैं, और मलाईविहीन दूध औरों में बाँटने की बजाय बिखेर दिया जाता है, वैसे ही विकाश के नाम क्या कुछ शान-शौकत, घोटाले और भ्रष्टाचार हो रहे हैं, यह सभी कुछ इस उपन्यास में दिखाने का प्रयास किया गया है। जनवृद्धि व ‘मेड इन वार’ (युद्ध में बने) की तरह ‘मेड इन डेवलपमेंट’ (विकाश का कारण बनने वालों या मालामाल होने वालों) की भी इसमें चर्चा है। यह सब बुराइयाँ यहाँ भक्सी के नाम पर जरूर हैं, पर वास्तव में अन्य तथ्यों पर भी आधारित हैं। लोकतन्त्र वास्तव में हमें क्या कुछ दे रहा है, इसकी भी इसमें पोल खोली गई है। कुल मिलाकर कई आयाम छुए गए हैं और अपने को पहचानने के लिए यह उपन्यास पढ़ने की दृष्टि से अनिवार्य हो जाता है। निःसंदेह इस उपन्यास में भी कल्पना सहारा बनी है, पर वे कल्पनाएँ वास्तविकताओं व अनुभूतियों पर आधारित हैं। भक्सी की नहीं, बल्कि अन्य स्थानों की भी। भक्सी तो सिर्फ एक बहाना बना है उदाहरण के तौर पर।

अतः संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि इस उपन्यास का एक उद्देश्य तो जमना की पुनः तलाश है, दूसरे शर्मा जी का भय इसमें दिखाया गया है। तीसरे लोकतन्त्र की वर्तमान पोल खोलने का प्रयास किया गया है। ये सब कुछ चूँकि एक कथानक में ही गूँथे गए हैं, अतः उन सभी का व्यापक रूप तो नहीं आया है, एक परिचय के रूप में एक प्रेरणात्मक झाँकी अवश्य मिल जाती है। अतः पर्दे पर सभी घटनाओं को देखना लाजमी हो जाता है। आशा है, पाठकों को यह सिर्फ पसन्द नहीं आएगा बल्कि यह बता पाने में भी समर्थ हो सकेगा कि हम कितने और कैसे पानी में डुबकी लगाए हुए हैं। एक प्रकार से उतना जनना आवश्यक हो जाता है—नितान्त आवश्यक। कम से कम यह जानना हमारा फर्ज हो जाता है कि हम कहाँ हैं ?

शेष सभी को शुभकामनाएँ। हाँ, एक जरूरी बात बताना तो भूल ही गया कि सहायक स्टेशन मास्टर दयानन्द एक हरिजन है पर वह भी पीड़ित है। भला है, पर वह भी जातिभेद का भंयकर शिकार है।

एक


‘‘अब आप क्या किसी का इंतज़ार कर रहे हैं टिकिट बाबूसा...ब ?’’
काफी देर से अपने सवाल के जवाब का इंतजार करते हुए यात्री ने आखिर स्टेशन मास्टर से पूछा। सहायक स्टेशन बाहरी दरवाजे पर खड़ा था। उसका खिड़की नुमा दरवाजा आधा बंद था और वह काफी बीती रात में आई रेलगाड़ी से उतरे यात्रियों से टिकट वसूल रहा था। टिकट वसूलते समय भी वह किसी ध्यान में था और एक मशीन की तरह निकलते हुए यात्रियों से टिकट ले रहा था। अब वे सब ही जा चुके थे और वहाँ अब सूना हो गया था। पर वह उसके बाद भी ध्यान में डूबा खड़ा कुछ सोचता-सा रहा।

यात्री के उक्त सवाल के शब्द-स्वर टिकट बाबू के कानों में जैसे गूँज गए। उसकी तन्द्रा टूटी और वह अपनी दाईं बाजू उत्सुकता से देख उठा। सामने एक व्यक्ति अपने कंधों से दो झोले लटकाए और दोनों  हाथों में सामान सँभाले खड़ा था—एक हाथ में अटैची और दूसरे में होलडोल। दोनों कंधे से लटकते थैलों की पट्टियाँ उसके सीने पर ‘क्रास’ बनाए हुए थीं। टिकट बाबू को अपनी ओर देखते हुए देख वह किंचित् मुस्करा कर बोलाः ‘‘माफ करना, मैंने आपका ध्यान भंग किया, इसका मुझे अफसोस है, पर मैंने आपसे कोई सवाल किया था, और उसके जवाब का ख्वाहिशगार था।’’
‘‘क्या आप ने मुझसे कोई सवाल किया था’’ टिकट बाबू ने पूछा। उसका स्वर कुछ-कुछ थका-सा था, हालाँकि वह देखने में जवान ही था। सामान से लदा यात्री फिर मुस्कराया, ‘‘हाँ, मेरा तो यही  खयाल है। मैंने आपसे पूछा था-क्या आज रात मैं इसी स्टेशन पर ठहर सकता हूँ—मेरा मतलब फर्स्ट क्लास के वेटिंग रूम से है ?’’

‘‘आपका टिकिट ?’’ टिकिट बाबू ने पूछा। यात्री ठहाका दे उठाः ‘‘वह तो अब आपके पास ही है-मैं कभी का वह आपके हवाले कर चुका हूँ और तभी मैंने आपसे यहाँ ठहरने के लिए पूछा था।’’
टिकट बाबू ने अपने हाथों के टिकटों पर एक निगाह मारी और फिर पूछ उठा : ‘‘आप क्या बम्बई से तशरीफ लाए हैं ?’’
यात्री फिर ठहाका दे उठा : ‘‘वह तो मैंने आज तक नहीं देखी।’’
टिकट बाबू मुस्कराया-‘‘आप बहका रहे हैं।’’
‘‘बहका रहा हूँ-क्यों ? दिल्ली से आया हूँ। शायद दिन में ही यहाँ पहुँच जाता, पर साँची का स्तूप देखने के लिए भूपाल से पहले ही उतर गया था, वहीं से यह टिकट भी लिया।
‘‘क्या आपको मालूम है—साँची का स्तूप किसने बनवाया था ?’’
‘‘वाह, वह तो सभी को मालूम है—उसे सम्राट अशोक ने बनवाया था।’’

टिकिट बाबू के इस उत्तर पर यात्री फिर ठहाका दे उठा : ‘‘यह भी पुरुष का स्त्री पर श्रेष्ठता का खास उदाहरण है।’’ यह कह यात्री ने टिकट बाबू की ओर गौर से  देखा, और फिर आगे बोला : ‘‘जाति-भेद का भी। वह बिदिशा की ‘श्री’ और अशोक की पत्नी ने बनवाया था।’’
‘‘कैसे ?’’ टिकिट बाबू ने पूछना चाहा, पर मन में उभरे सवाल को दबा वह बोला, ‘‘आइए, पहले मैं आपके ठहरने का इंतजाम करक दूँ—वैसे, आपको जाना कहाँ है ?’’
यात्री आगे बढ़ते हुए बता उठा : ‘‘यहीं—यहाँ रहते कहीं और जाने का प्रोग्राम बन जाए, तो वह अलग बात है।’’ उसका स्वर अकस्मात् बोझिल हो आया। टिकट बाबू को उसमे एक टीस का आभास हुआ। उसने उत्सुकता से यात्री की ओर देखा, और फिर बोला : ‘‘लेकिन वेटिंग रूम आ गया, लेकिन मैं इसका ताला खुलवा दूँ।’’ यह कह उसने इधर-उधर देखा, और फिर रामजीलाल को पुकार उठा। यात्री  बोला : ‘‘इसकी चाबी तो आपके पास, ही होगी ?’’
‘‘हाँ, चाबी तो आफिस में ही है, पर साला न जाने कहाँ चला गया- उसे कई बार डाँटा है कि दिन छिपते ही अफीम मत चढ़ाया कर, पर...’’

टिकट बाबू आगे कुछ कहे कि यात्री बीच में ही पूछ उठा : ‘‘क्या यहाँ अब भी अफीम खूब चलती है ?’’
‘‘क्या मतलब ? अफीम यहाँ पहले भी खूब चलती थी—आपको यह  कैसे मालूम ?’’ यात्री ने टिकट बाबू की ओर गौर से देखा और उसे कुछ बताना चाहा, किन्तु वह बता पाए कि उसके पहले ही एक भारी साँस लेता हुआ रह गया। कुछ खामोशी के बाद बोला : ‘‘माफ कीजिए, मैंने आपका काफी वक्त खराब किया—अभी तो आपको काम करना होगा—पता नहीं रामजीलाल कब आए, इसलिए खुद ही ताला खोल दिया जाए।’’
टिकिट बाबू बोला : ‘‘वह खुल जाएगा, पर मेरे वक्त की आप कोई फिक्र न करें। बस ये टिकिट चढ़ाने हैं, और बिके टिकटों का हिसाब करना है-फिर रात को दो पैंतीस पर एक मालगाड़ी आएगी, वह भी ‘थ्रू’ जाएगी—आप यहाँ कितने दिन ठहरेंगे—लगता है मैंने इससे पहले भी कभी आपको देखा है।’’
शायद बम्बई में ही देखा होगा, ‘‘यह कह यात्री मुस्कराया।
टिकिट बाबू बोला : ‘‘वह तो मैंने भी अभी तक नहीं देखी।’’
‘‘तो फिर आपको ज़रूर गलतफहमी हुई है।’’

‘‘गलतफहमी ?’’ टिकट बाबू ने जैसे यात्री की बात को दृढ़ता से काटा, और फिर चाभी लाने के खयाल से अपने दफ्तर की ओर बढ़ लिया। लौटने पर वेटिंग रूम का ताला खोलते हुए बोला : ‘‘मुझे दयानन्द कहते हैं—आपका शुभ नाम ?’’
‘‘सदाशिव, ‘‘यात्री ने बताया।
दयानंद ने पूछा : ‘‘आपके खाने का क्या इन्तजाम है ?’’
सदाशिव बोला : ‘‘ भोपाल में सोचा था, आज मोहन महाराज के हाथ का कलाकन्द और सेव खाए जाएँगे,  लेकिन वह तो प्लेफार्म पर दीखे ही नहीं।’’
‘‘कौन मोहन महाराज ?’’ दयानन्द ने पूछा और फिर बोला : ‘‘कोई बात नहीं। मैं घर कहला देता हूँ, आपका भी खाना आ जाएगा। आपको हमारे यहाँ के खाने का कोई एतराज तो नहीं होगा ?’’
‘‘क्या मतलब ?’’ सदाशिव ने दयानन्द की ओर ऐसे देखा, गोया उसने कोई आपत्तिजनक बात कह दी हो। फिर बड़े ही मृदुल स्वर में बोला : ‘‘आपकी यह सद्भावना दुर्लभ है, और मैं इसका सदा आभारी  रहूँगा। लगता है यह मकसी अभी मेरे लिए उतनी बेजानी नहीं हुई, जितनी मैं स्टेशन पर उतरने के बाद समझ बैठा था -’’

सदाशिव रात को देर से सो पाया था, अतः देर से ही उठा, लेकिन नींद खुलने के बाद भी वह चारपाई पर लेटा रहा। आँखे बंद ही रहीं, गोया वे खुलने को तैयार नहीं थीं, इस भय से कि कहीं उनमें समाया चित्र रोशनी की झलक पाते ही गायब न हो जाए। सदासिव लेटे हुए उन्माद और आह्लाद का अनुभव कर रहा था। उन्मादाह्लाद से अभीभूत उसने एकबारगी तनिक अपनी आँखें खोलीं, पास पड़ी मेज़ और उसी से सटी कुर्सी की ओर देखा और फिर अपनी आँखें बंद कर लेटा रहा : मैंने इसी कुर्सी पर बैठकर कभी कपिला को पत्र लिखा था : ‘प्रिय कपिला, संभवतः यह मेरा तुम्हें पहला और आखिरी पत्र है—शायद यह भी नहीं लिखता, लेकिन एक हकीकत मुझे यह खत लिखने के लिए मजबूर कर रही है—आखिर वह हकीकत क्या है ? पर इससे पहले मैं एक और तथ्य लिख देना आवश्यक समझता हूँ—कॉलेज खुलने के कुछ दिनों बाद ही कमला की अकस्मात् मृत्यु से मेरा दिल एकदम टूट गया था, और आँखों के सामने ऐसा अंधकार छा गया था कि कुछ भी सूझ नहीं पा रहा था-मेरे जीवन की दूसरी महान, दुर्घटना थी, पहली  दुर्घटना क्या थी, उसका दर्द अब तक दिल में इतना दब चुका है कि उसकी कसक महसूस करके भी लिख नहीं पाऊँगा, और शायद अब तुम सोचोगी कि.....

‘मुझे पता नहीं तुम क्या सोचोगी और तुम पर मैं अपनी कोई सोच थोपूँ भी क्यों ? आखिर  तुम कोमलांगी हो, और सम्भवतः किसी सोच का बोझ उठा भी नहीं पाओ, किसी और मार से तुम्हारा सिर पहले ही झुका रहता है, और आँखें भी, तुमने जब भी कभी आँखें उठाकर देखा, लगा, वे फिर झुक जाएँगी—और उसी के साथ तुम्हारा सौन्दर्य और उभर आता था—पर शायद अब मुझे तुम्हारे सौन्दर्य के बारे में कुछ भी लिखने का हक नहीं। पर संभवतः यह मेरा भ्रम है, और मेरी कृतघ्नता से अधिक सौन्दर्य का अपमान, जो पाप के समान है। कम-से-कम मेरी  दृष्टि में।

‘वस्तुतः सौन्दर्य क्या है ? इसकी परिभाषा कर पाना मेरी क्षमता और समझ से बाहर है, पर एक बात का अहसास अवश्य है, जो दिन-प्रतिदिन गहराता ही चला जा रहा है और वह यह कि जिस मनोभावना को प्रेम की संज्ञा दी जाती है, मैं उससे अब डरने लगा हूँ, और यह भय निरन्तर बढ़ता ही चला जा रहा है। सामाजिक कारणों से नहीं, बल्कि एक अभिशाप-विशेष के कारण-जिस ठिकाने से इस समय मैं तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ, यहीं मेरा बचपन बीता था, यहाँ प्रायः हर चीज़ मुझे अपनी ओर खींचती रही है, और मेरठ में रहते हुए सदैव मेरे मन में इस जगह का साया साथ चलता रहा है, उससे भी अधिक एक लड़की का—जमना का—कमला से पहले मेरे जीवन में जमना ही आई थी—बहुत पहले—बचपन में उसके साथ जो मन का भाव जुड़ा, वह अपरिभाषित है, वैसे ही कमला के साथ जुड़ा भाव भी...
‘जमना और कमला का क्या सौन्दर्य था, यह कभी मैं फिर बताने की कोशिश करूँगा-अगर मौका मिला- लेकिन शायद अब वह मौका कभी मिलेगा नहीं, क्योंकि....

‘जीवन के सौन्दर्य का रहस्य संभवतः उसकी गतिशीलता और उभार से गर्भित है—भारत आज संभवतः परतंत्रता में स्वतन्त्रता के लिए इसलिए संघर्षशील है, क्योंकि इसके विकास की गति अवरूद्ध हो गई है। इस संघर्ष का कब क्या परिणाम निकलेगा, अभी बता पाना कठिन है-शायद मैंने तुम्हें कभी यह नहीं बताया कि मैं भी इसी संघर्ष से जुड़ गया था और इसके लिए एक बार दंडित भी हो चुका हूँ—यह तब की बात है जब मैं हाई स्कूल का ही छात्र था, और फिर बड़ी मुश्किल से वापिस लिवाया गया था।      

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