सामाजिक >> आखिरी पन्ना आखिरी पन्नारवि रंजन सांकृत्यान
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मृत्युदंड की सजा पाये एक मुजरिम की अन्तर्व्यथा और मनौवैज्ञानिक विश्लेषण है।
भूमिका
प्रस्तुत पुस्तक में मृत्युदंड की सजा पाये एक मुजरिम की
अन्तर्व्यथा और मनौवैज्ञानिक विश्लेषण है। ‘आखिरी पन्ना’ लघु
उपन्यास पाठकों को पल-पल नजदीक आती हुई परिस्थितियों में एक मुजरिम को जो
यंत्रणा होती है उससे अवगत कराती है। वह अपने आपको इन क्षणों से गुजर पाने
में सर्वथा असमर्थ पाता है और सामाजिक विषमता और भेदभाव को भी जुर्म का
वास्तविक कारण मानता है। साथ ही इससे जुड़े अन्य मुद्दे भी उठाये गये हैं
जिनकी बारीकियों से गुजरना पाठकों के लिए एक नया अनुभव होगा।
लघु उपन्यास के अतिरिक्त नारी विमर्श एवं नारी अस्मिता से जुड़ी आठ कहानियाँ भी पठनीय हैं। तो प्रस्तुत हैं पाठकों के लिए मेरी यह रचना; रचनाधर्मिता से जुड़े अगर पाठकों के कोई सुझाव हों तो मैं उसका तहेदिल से स्वागत करूँगा।
लघु उपन्यास के अतिरिक्त नारी विमर्श एवं नारी अस्मिता से जुड़ी आठ कहानियाँ भी पठनीय हैं। तो प्रस्तुत हैं पाठकों के लिए मेरी यह रचना; रचनाधर्मिता से जुड़े अगर पाठकों के कोई सुझाव हों तो मैं उसका तहेदिल से स्वागत करूँगा।
1
मैं अपना क्या परिचय दूँ ? बस इतना समझ लीजिए
कि मैं बहुत
बुरा आदमी हूँ। न जाने कितने पाप किए हैं मैंने इस जहाँ में; तभी तो आज
न्याय-अन्याय के कटघरे में खड़े होकर मृत्युदंड जैसी सजा का मुजरिम घोषित
हुआ हूँ। मुझे न्याय मिला या नहीं यह शायद मेरे कुकर्मों की गम्भीरता ही
समझेगी पर मैं समझता हूँ कि अगर कोई इससे भी गम्भीर सजा हो सकती है तो वह
भी मेरे लिए क्षमा के काबिल नहीं हो सकती। हत्या, लूटपाट, बलात्कार,
तस्करी, और भी न जाने क्या-क्या ये सब अपराध मेरे जीवन की दैनन्दिनी में
शामिल हो गया था। इन सारे अपराधों को करते हुए मैंने ये कभी नहीं सोचा कि
इनका अंजाम क्या होगा ? बस एक नशा-सा सवार रहता था, एक बदले की भावना से
समाज को देखता था। हत्या से जो आनन्द मुझे मिलता था वह मैं आपको बयाँ नहीं
कर सकता। लोगों के चेहरे पर उड़ती हुई हवाइयाँ और चेतना को कुन्द करती हुई
पल-पल नजदीक आती हुई मौत कैसे आदमी की मनश्चेतना को सर्द कर देती है ? आज
वैसा ही अहसास मैं अपने लिए महसूस कर रहा हूँ। शायद ईश्वर ने ऐसा कर ठीक
ही किया है, तभी तो आज वो सारे दर्द मैं महसूस कर रहा हूँ और लगता है जीवन
किस कदर अपने अंत के भय से खौफ खाता है ? शायद कोई और मेरे जैसा होता मेरी
जगह पर तो उसे भी अपना अपराधबोध ऐसा ही होता। यह जीवन अपराधों का पर्याय
नहीं है इसे मैं पहली बार समझ रहा हूँ। जीवन तो क्षमा, दया, तप, त्याग और
मनोबल से ही समृद्ध होता है और स्वाभाविक ढंग से अपने अन्त को पाता है। इस
कालक्रम को जो तोड़ता है जाने या अनजाने, अँधेरों में मेरी तरह भटकने के
लिए अभिशप्त हो जाता है। यह भटकाव उसे ऐसे-ऐसे मोड़ों से ले जाता है जहाँ
अपराध की गम्भीरता कुछ कम नहीं होती बल्कि और भी बढ़ जाती है। आदमी समझ
नहीं पाता कि वह ऐसा क्यों कर रहा है। आपने ठीक ही कहा कि अशिक्षा ही सारे
अपराधों का मूल है। मैं भी पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। अन्तर आलोकित रहे तो मन
में अच्छे विचार आते हैं और अगर वहाँ अविद्या है तो अच्छे विचार भी अच्छे
नहीं लगते। आदमी शोषण को भूल जाए तो मेरे जैसा अपराधी पैदा नहीं हो सकता
और अगर यह कृत्य अपराधों से भरा कोई अन्याय लगे तो समझ लीजिए कि अपराधी की
पैदाइश यहीं से शुरू होती है और समाज को दहलाने लगती है। समाज के चाहे जो
भी समुदाय हों उन्हें आपस में वैर-भाव नहीं रखना चाहिए—यही सुखी
जीवन का एक मात्र महामंत्र है जिसे मैं आज तक महसूस नहीं कर पाया, तभी तो
आज विडम्बनाओं से गुजर रहा हूँ और गुजरते हुए हर लम्हे के साथ मौत मेरे
कुछ और करीब आ रही है। अब मेरे जीवन के चन्द गिने-चुने दिन ही बच गए हैं
और मैं इन्हें यूँ ही गुजरने देना नहीं चाहता। अपने हर अच्छे-बुरे कर्मों
को याद करना चाहता हूँ ताकि मेरा अपराधबोध कुछ कम हो, गुनाहों का असीम बोझ
लेकर मैं मरना नहीं चाहता कि मेरा आने वाला जन्म भी खराब हो जाए। मैं
चाहता हूँ जिस न्याय ने मुझे मृत्युदंड का अपराधी समझा है वही अन्याय मैं
अपनी अन्तरात्मा से भी महसूस करूँ ताकि मेरा अपराध कुछ तो कम हो। मैं अपने
गुजरे हुए दिनों को और उसकी गम्भीरता को किसी न्यायाधीश की तरह ही निस्पृह
रहकर ही स्वीकारना चाहता हूँ जो मुझे भी अगर अन्याय है तो अन्याय लगे और
अगर न्याय है तो वह मेरे पुण्य के खाते में चला जाए और मैं कह सकूँ कि कुछ
अच्छा मैंने भी तो किया है। हालाँकि ऐसा सच मेरे जीवन में कम ही अवतरित
हुआ है पर मुझे याद है कि एक बार मैंने जब एक बच्चे को फिरौती के लिए अगवा
किया था तो उसके करुण विलाप से विगलित होकर उसे छोड़ भी दिया था। पर
नहीं-नहीं, आप मेरे लिए इतना द्रवित मत होइए। क्योंकि ये अभी साबित नहीं
करता कि दया जैसा कोई तत्त्व मेरे अन्दर भी है; बल्कि बिल्कुल इसके विपरीत
मैंने कितने ही बच्चों को फिरौती न मिलने पर बेदर्दी से मार डाला है। उस
दिन कैसे मैंने उसे छोड़ दिया, यह ठीक-ठीक मैं भी नहीं जानता। शायद कोई
अचरज ही रहा होगा जो उसने ऐसे असम्भवों को भी सम्भव बना दिया; क्योंकि
उसकी शक्ल कुछ मेरे छोटे भाई से मिलती थी जिसे मेरे सामने ही कुछ आतताइयों
ने एक दिन बेदर्दी से काट डाला था और मैं रोता-चिल्लाता रह गया पर उन्हें
जरा भी दया नहीं आई। शायद यही पहली सीढ़ी थी जिस पर चढ़कर मेरे जीवन की
धारा बदल गई और एक बिलकुल डरपोक और शर्मीला लगनेवाला लड़का आगे चलकर एक
निहायत ही दुर्दान्त अपराधी बन गया। उस बच्चे पर कैसे दया की ? आइए, मैं
उस घटना को आपको विस्तार से बताऊँ ताकि आप कह सकें कि या रब ! इस नासमझ
अपराधी के लिए अपने दिल में तुम भी कुछ दयाभाव रखना, क्योंकि चाहे एक बार
ही सही इसने भी किसी के प्रति दया तो दिखाई है।
एक बार जब मेरे महल्ले में एक निहायत ही रईस परिवार किराएदार बनकर आया तो उसकी चमचमाती हुई नई कार और उस परिवार की चमक-दमक से मुझे अन्दाजा हो गया कि इसका परिवार बहुत धनी है। उसकी खूबसूरत-सी बीवी सोलहों-श्रृंगार कर गहने-जेवरातों से लकदक होकर जब बाहर निकलती तो मैं उसे ललचाई हुई नजरों से बस देखता ही रह जाता। उनका एक छोटा-सा बच्चा भी था जो नित्य सुबह नौकर के साथ स्कूल जाता था और छुट्टी होने पर उसी नौकर के साथ घर आता था। जब मैंने उसे एक दिन छुट्टी के समय अपने नौकर का इन्तजार करते हुए स्कूल से बाहर अकेला खड़ा पाया तो मुझे लगा—यही वक्त है जब मैं इसे अपने कब्जे में लेकर अच्छी फिरौती हासिल कर सकता हूँ। बस फिर क्या था, मैंने कुछ चॉकलेट खरीदे और उसके बगल में कुछ इस तरह से आत्मीयता से जाकर खड़ा हो गया कि किसी को बेवजह मुझ पर शक न हो और उससे बड़े प्यार से बोला—बेटा, तुम्हारा नाम क्या है ? उसने अपनी मासूमियत से कहा—अमित। मैंने फिर पूछा—किस क्लास में पढ़ते हो ? तो उसने कहा—पहली में। मैंने पूछा—चॉकलेट खाओगे तो उसने खुश होते हुए कहा—हाँ, अंकल ! आप तो बहुत अच्छे हो, कहाँ है चॉकलेट ? मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। मैं तुम्हें चॉकलेट भी खिलाऊँगा और गाड़ी से शहर भी घुमाऊँगा, आइसक्रीम भी खिलाऊँगा, ढेर सारे खिलौने ले दूँगा। वह तो तालियाँ बजाते हुए एकदम से बिल्कुल खुश हो गया और मेरे हाथ से सारे चॉकलेट ले लिए। मुझे अपनी योजना कामयाब होती हुई दिखी जैसाकि मैं चाहता था। मैंने उसका हाथ पकड़ा और पास से गुजर रही टैक्सी को हाथ देकर रुकवाया और उस पर सवार हो गया। पहले उसे एक आइसक्रीम पार्लर ले गया और वहाँ उसे आइसक्रीम खिलाई तो उसने कहा—मैं अपनी मम्मी से बोलूँगा कि मैं रामू के साथ स्कूल बिल्कुल नहीं जाऊँगा क्योंकि वह कभी भी मुझे चॉकलेट-आइसक्रीम नहीं खिलाता है; उल्टे स्कूल आते हुए रोने पर डाँटता-डपटता है। आप क्या मुझे रोज स्कूल पहुँचाओगे और छुट्टी होने पर घर छोड़ दोगे ?-उसने अपनी छोटी-छोटी आँखों को खुशी से मटकाते हुए कहा। मुझे एक पल के लिए उस पर दया आई पर मेरे अन्दर का हिंसक जीव फिर भी नहीं पिघला। उसने कहा—नादान मत बन, जैसा कि यह बच्चा है। नासमझ ! तूने जरा भी अगर दया दिखाई तो पैसा कमाने का यह बेहतरीन अवसर बिल्कुल खो देगा और उल्टे कहीं कानून के शिकंजे में फँस गया तो जो फजीहत होगी उसकी शायद तू कल्पना भी न कर सके। मैंने तत्क्षण संभलते हुए कहा—हाँ, हाँ, क्यों नहीं ? मैं तुम्हें स्कूल पहुँचा दिया भी करूँगा और छुट्टी होने पर रोज लेने भी आऊँगा। उसने हँसते हुए कहा-Promise। मैंने भी उसके जैसा बच्चा बनते हुए कहा—Promise। जब उसने आइसक्रीम खा लिया तो पार्लर से बाहर निकला और दूसरी टैक्सी पकड़ी और शहर के नितान्त एक वीरान जगह में उसे ले गया जो मेरी ऐसे अवसरों के लिए फेवरिट जगह भी थी फिर उसे एक बहुत दिनों से निर्जन पड़े मकान में ले गया।
अब वह बच्चा कुछ शक की निगाह से मुझे देखने लगा और भयभीत लगा। अंकल, क्या आप ऐसी डरावनी जगह पर रहते हो ? मेरा प्रेमभाव तिरोहित हो गया और अपराधीभाव व्यक्तित्व पर हावी। मैं यह भी जानता था कि इतनी देर बाद उसके घर में उसके न पहुँचने पर सरगोशियाँ शुरू हो गई होंगी और बहुत सम्भव है कि मामला कानून तक भी चला गया हो। अतः कोई भी नासमझी मुझे फँसा सकती है। मैंने उसे डाँटते हुए कहा—अबे तेरा अंकल होगा तेरा बाप ! ज्यादा चपड़चपड़ की तो सीधे टेंटुआ दबा दूँगा। मुझे पैसा चाहिए पैसा, जो तेरा बाप मुझे देगा, वह भी कोई एक-दो लाख नहीं पूरे-पूरे पचास लाख। मैं जानता हूँ कि तेरे बाप के लिए यह भी रकम बहुत कम होगी। वह बच्चा सहम गया और रोने लगा—अंकल, मुझे घर जाने दो। मेरी माँ मेरा इन्तजार कर रही होगी और रो भी रही होगी। वह करुण विलाप करने लगा। मुझे लगा—अगर इसने रोना बन्द न किया तो कोई इस तरफ आकृष्ट भी हो सकता है। मैंने उसके मुश्कें कस दीं और मुँह पर पट्टी बाँध दी। वह बच्चा अब मुझे बड़े अविश्वास से देख रहा था—क्या यह वही अंकल है जिसने मीठी-मीठी बातें कीं, उसे चॉकलेट और आइसक्रीम खिलाई और अब उसकी मुश्कें भी कस रहा है और डाँट-डपट भी रहा है ? वह बेहद डर गया था और जार-जार रो रहा था, हिचकियाँ ले-लेकर। आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी फिर जाने क्यों मुझे उस पर रहम तब भी नहीं आया। पर तभी लगा कोई पुराना जख्म हरा हो आया है, कहीं से करुण आर्तनाद और चीखें सुनाई पड़ रही हैं और कोई बड़े ही भयानक स्वर में अट्टहास कर रहा है पर कौन ? मैंने सोचने की कोशिश की तो मुझे लगा शायद कोई मुझ जैसा ही दरिन्दा जो बच्चों का मासूम हत्यारा है, अबोधता का अपराधी और मासूम किलकारियों का दुश्मन, जो आज मैं भी व्यक्त रूप से हो रहा हूँ। फिर मुझे एहसास हुआ कि एक क्षण के लिए मेरे छोटे भाई की तस्वीर कौंधी है और कोई उसका गला काट रहा है किसी तेज धारदार हथियार से—ऐसा वीभत्स दृश्य, लहू और चीख-पुकार सब आपस में गड्डमड्ड होकर मेरा दिल दहलाने लगे, मैंने डरकर सोचना छोड़ दिया; अपनी आँखें बन्द कर लीं, फिर एक अन्तिम पुकार और चीखें बन्द और मेरे सामने छोटे भाई का बेजान पड़ा शरीर जिसका गुनाह सिर्फ इतना था कि उससे अपनी सगी बहन की आबरू लुटते नहीं देखी गई और वह आतताइयों से उलझ पड़ा और बदले में मौत पाई, वह भी बेहद दर्दनाक। जिसने तब ऐसा किया था वह भी एक अपराधी था और जो आज मैं कर रहा हूँ वह भी एक अपराध है। अक्षम्य, बर्बर और हिंसक। मानव पशु हो जाए तो मानवता कहाँ शेष बची रह जाती है ? और पशु मानव से भी सरल और ऊँचे पद को रेखांकित करते हैं। कभी-कभी तो मानवता के सारे गुनाह शर्मसार हो जाते हैं अपनी व्यथा से। क्या वह भी एक हिंस्र पशु है; शायद हाँ। क्या वह भी दुर्दम्य है; शायद हाँ, क्या वह भी विवेकहीन हो गया है, शायद हाँ। विवेक जब आदमी का साथ छोड़ जाए तभी तो अपराध होता है जो आज तक यह समझ नहीं पाया कि हिंसा से हिंसा नहीं मिटती, बर्बरता से संस्कृति नहीं बचती और गुनाह से गुनाह नहीं मिटता। गुनाह चाहे जो भी करे उसे कोई भी न्याय अमान्य करार देता है; फिर भी वह कैसे अपने-आपको दोषी न समझे और तत्क्षण उदारता का धीमे-धीमे मुझमें आर्विभाव होने लगा। मेरे अपराधी भाव ने भरसक कोशिश की मुझे चेताने की पर कुछ था एक मधुर स्मृति जो अपराधीभाव पर हावी हो रहा था। मैंने महसूस किया कि इस समय जो बच्चा मेरे सामने करुण-क्रन्दन कर रहा है व्यक्त और अव्यक्त दोनों रूप से उसकी शक्ल में आज मेरा वही सगा भाई अवतरित हो रहा है जिसका कभी दुर्दान्त अन्त कभी इन्हीं आँखों से मैनें देखा था। पर मैंने अपने-आपको पिघलने नहीं दिया और तेजी से बाहर निकल गया; क्या पता अगर यह बच्चा उसके सामने कुछ देर और रहा तो मेरा विचार बदल जाए और मैं उसे छोड़ दूँ, यह भी सम्भव हो जाए ? कभी-कभी सम्भव भी असम्भव हो जाते हैं और असम्भव-सम्भव। सम्भव को सम्भव होना है किसी भी तरह। यह भी एक असम्भव नहीं है और मुझे लग रहा था पहली बार कोई अप्रत्याशित चीज होने वाली है—कब, कहाँ और कैसे, मैं नहीं जानता।
मैं पास के एक पब्लिक टेलीफोन बूथ पर गया और उस बच्चे के घर का नम्बर मिलाते हुए रिंग किया। उधर टेलीफोन बजने लगा और साथ-साथ में मेरा दिल भी, जो अन्दर-अन्दर तेजी से धड़क रहा था। एक विह्वल नारी स्वर जैसे ही गूँजा मैंने अपनी आवाज बदलकर कहा—मैं जानता हूँ आप सब अपने बेटे के लिए परेशान हो रहे हैं। वह मेरे कब्जे में है। अगर उसकी खैरियत चाहते हैं तो आपको ज्यादा नहीं बस पचास लाख देने होंगे। कब और कहाँ ? मैं फिर बताऊँगा। उधर से हैलो-हैलो आवाजें आती रहीं पर मैंने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया। फिर बाहर आया, रात गहरी हो आई थी और मुझे तेज भूख महसूस हो रही थी। फिर ध्यान आया कि उस बच्चे ने भी सुबह से कुछ नहीं खाया है। फिर पास के एक रेस्टोरेंट में जाकर मैंने दो जगह खाना पैक करवाया और पुरानी जगह वापस आ गया। बच्चा रोते-रोते जाने कब सो गया था ? पर उसके गालों पर आँसुओं ने गहरी लकीर खींच रखी थी, कहा—खाना खा लो। वह बच्चा फिर रोने लगा। कहा—मुझे भूख नहीं है; मुझे मेरी माँ के पास पहुँचा दो। मैंने कहा—ठीक है, पहुँचा दूँगा पर पहले खाना तो खा लो। नहीं, मैं नहीं खाऊँगा, आप बहुत गन्दे, अंकल हो, पहले चॉकलेट और आइसक्रीम खिलाते हो फिर डराते हो, मुझे अपनी माँ के पास जाने दो। रोज रात में मेरे पापा ही मुझे खिलाते हैं। मैं अभी तुमसे खाने के लिए तैयार नहीं हूँ और फिर वह सुबकियाँ लेने लगा। आखिर, मुझे तरस आ ही गया। कहा—पहले एक वादा करो। उसने बेहद मासूमियत से कहा—क्या ? आज के बाद अपनी मम्मी-पापा की हर बात मानोगे और कहोगे कि मैं एक अंकल के साथ अपने दोस्त की तरह गया था पर मुझे मालूम नहीं था कि वह मेरा दुश्मन कैसे हो गया ? और जितना मैंने तुम्हें रुलाया है अपने भगवान से कहना कि मुझे माफ कर दे और किसी जन्म में वह मुझे भी तुम्हारी तरह एक बेटा दे पर उसे रुलाने के लिए नहीं हँसाने के लिए। उसने हाँ में सिर हिला दिया, फिर कहा—मेरी रस्सी खोलो और मुझे ले चलो। मैंने उसे उसके घर के सामने ले जाकर छोड़ दिया और रातों-रात अपना ठिकाना बदल दिया किसी भी तरह की गिरफ्तारी से बचने के लिए।
एक बार जब मेरे महल्ले में एक निहायत ही रईस परिवार किराएदार बनकर आया तो उसकी चमचमाती हुई नई कार और उस परिवार की चमक-दमक से मुझे अन्दाजा हो गया कि इसका परिवार बहुत धनी है। उसकी खूबसूरत-सी बीवी सोलहों-श्रृंगार कर गहने-जेवरातों से लकदक होकर जब बाहर निकलती तो मैं उसे ललचाई हुई नजरों से बस देखता ही रह जाता। उनका एक छोटा-सा बच्चा भी था जो नित्य सुबह नौकर के साथ स्कूल जाता था और छुट्टी होने पर उसी नौकर के साथ घर आता था। जब मैंने उसे एक दिन छुट्टी के समय अपने नौकर का इन्तजार करते हुए स्कूल से बाहर अकेला खड़ा पाया तो मुझे लगा—यही वक्त है जब मैं इसे अपने कब्जे में लेकर अच्छी फिरौती हासिल कर सकता हूँ। बस फिर क्या था, मैंने कुछ चॉकलेट खरीदे और उसके बगल में कुछ इस तरह से आत्मीयता से जाकर खड़ा हो गया कि किसी को बेवजह मुझ पर शक न हो और उससे बड़े प्यार से बोला—बेटा, तुम्हारा नाम क्या है ? उसने अपनी मासूमियत से कहा—अमित। मैंने फिर पूछा—किस क्लास में पढ़ते हो ? तो उसने कहा—पहली में। मैंने पूछा—चॉकलेट खाओगे तो उसने खुश होते हुए कहा—हाँ, अंकल ! आप तो बहुत अच्छे हो, कहाँ है चॉकलेट ? मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। मैं तुम्हें चॉकलेट भी खिलाऊँगा और गाड़ी से शहर भी घुमाऊँगा, आइसक्रीम भी खिलाऊँगा, ढेर सारे खिलौने ले दूँगा। वह तो तालियाँ बजाते हुए एकदम से बिल्कुल खुश हो गया और मेरे हाथ से सारे चॉकलेट ले लिए। मुझे अपनी योजना कामयाब होती हुई दिखी जैसाकि मैं चाहता था। मैंने उसका हाथ पकड़ा और पास से गुजर रही टैक्सी को हाथ देकर रुकवाया और उस पर सवार हो गया। पहले उसे एक आइसक्रीम पार्लर ले गया और वहाँ उसे आइसक्रीम खिलाई तो उसने कहा—मैं अपनी मम्मी से बोलूँगा कि मैं रामू के साथ स्कूल बिल्कुल नहीं जाऊँगा क्योंकि वह कभी भी मुझे चॉकलेट-आइसक्रीम नहीं खिलाता है; उल्टे स्कूल आते हुए रोने पर डाँटता-डपटता है। आप क्या मुझे रोज स्कूल पहुँचाओगे और छुट्टी होने पर घर छोड़ दोगे ?-उसने अपनी छोटी-छोटी आँखों को खुशी से मटकाते हुए कहा। मुझे एक पल के लिए उस पर दया आई पर मेरे अन्दर का हिंसक जीव फिर भी नहीं पिघला। उसने कहा—नादान मत बन, जैसा कि यह बच्चा है। नासमझ ! तूने जरा भी अगर दया दिखाई तो पैसा कमाने का यह बेहतरीन अवसर बिल्कुल खो देगा और उल्टे कहीं कानून के शिकंजे में फँस गया तो जो फजीहत होगी उसकी शायद तू कल्पना भी न कर सके। मैंने तत्क्षण संभलते हुए कहा—हाँ, हाँ, क्यों नहीं ? मैं तुम्हें स्कूल पहुँचा दिया भी करूँगा और छुट्टी होने पर रोज लेने भी आऊँगा। उसने हँसते हुए कहा-Promise। मैंने भी उसके जैसा बच्चा बनते हुए कहा—Promise। जब उसने आइसक्रीम खा लिया तो पार्लर से बाहर निकला और दूसरी टैक्सी पकड़ी और शहर के नितान्त एक वीरान जगह में उसे ले गया जो मेरी ऐसे अवसरों के लिए फेवरिट जगह भी थी फिर उसे एक बहुत दिनों से निर्जन पड़े मकान में ले गया।
अब वह बच्चा कुछ शक की निगाह से मुझे देखने लगा और भयभीत लगा। अंकल, क्या आप ऐसी डरावनी जगह पर रहते हो ? मेरा प्रेमभाव तिरोहित हो गया और अपराधीभाव व्यक्तित्व पर हावी। मैं यह भी जानता था कि इतनी देर बाद उसके घर में उसके न पहुँचने पर सरगोशियाँ शुरू हो गई होंगी और बहुत सम्भव है कि मामला कानून तक भी चला गया हो। अतः कोई भी नासमझी मुझे फँसा सकती है। मैंने उसे डाँटते हुए कहा—अबे तेरा अंकल होगा तेरा बाप ! ज्यादा चपड़चपड़ की तो सीधे टेंटुआ दबा दूँगा। मुझे पैसा चाहिए पैसा, जो तेरा बाप मुझे देगा, वह भी कोई एक-दो लाख नहीं पूरे-पूरे पचास लाख। मैं जानता हूँ कि तेरे बाप के लिए यह भी रकम बहुत कम होगी। वह बच्चा सहम गया और रोने लगा—अंकल, मुझे घर जाने दो। मेरी माँ मेरा इन्तजार कर रही होगी और रो भी रही होगी। वह करुण विलाप करने लगा। मुझे लगा—अगर इसने रोना बन्द न किया तो कोई इस तरफ आकृष्ट भी हो सकता है। मैंने उसके मुश्कें कस दीं और मुँह पर पट्टी बाँध दी। वह बच्चा अब मुझे बड़े अविश्वास से देख रहा था—क्या यह वही अंकल है जिसने मीठी-मीठी बातें कीं, उसे चॉकलेट और आइसक्रीम खिलाई और अब उसकी मुश्कें भी कस रहा है और डाँट-डपट भी रहा है ? वह बेहद डर गया था और जार-जार रो रहा था, हिचकियाँ ले-लेकर। आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी फिर जाने क्यों मुझे उस पर रहम तब भी नहीं आया। पर तभी लगा कोई पुराना जख्म हरा हो आया है, कहीं से करुण आर्तनाद और चीखें सुनाई पड़ रही हैं और कोई बड़े ही भयानक स्वर में अट्टहास कर रहा है पर कौन ? मैंने सोचने की कोशिश की तो मुझे लगा शायद कोई मुझ जैसा ही दरिन्दा जो बच्चों का मासूम हत्यारा है, अबोधता का अपराधी और मासूम किलकारियों का दुश्मन, जो आज मैं भी व्यक्त रूप से हो रहा हूँ। फिर मुझे एहसास हुआ कि एक क्षण के लिए मेरे छोटे भाई की तस्वीर कौंधी है और कोई उसका गला काट रहा है किसी तेज धारदार हथियार से—ऐसा वीभत्स दृश्य, लहू और चीख-पुकार सब आपस में गड्डमड्ड होकर मेरा दिल दहलाने लगे, मैंने डरकर सोचना छोड़ दिया; अपनी आँखें बन्द कर लीं, फिर एक अन्तिम पुकार और चीखें बन्द और मेरे सामने छोटे भाई का बेजान पड़ा शरीर जिसका गुनाह सिर्फ इतना था कि उससे अपनी सगी बहन की आबरू लुटते नहीं देखी गई और वह आतताइयों से उलझ पड़ा और बदले में मौत पाई, वह भी बेहद दर्दनाक। जिसने तब ऐसा किया था वह भी एक अपराधी था और जो आज मैं कर रहा हूँ वह भी एक अपराध है। अक्षम्य, बर्बर और हिंसक। मानव पशु हो जाए तो मानवता कहाँ शेष बची रह जाती है ? और पशु मानव से भी सरल और ऊँचे पद को रेखांकित करते हैं। कभी-कभी तो मानवता के सारे गुनाह शर्मसार हो जाते हैं अपनी व्यथा से। क्या वह भी एक हिंस्र पशु है; शायद हाँ। क्या वह भी दुर्दम्य है; शायद हाँ, क्या वह भी विवेकहीन हो गया है, शायद हाँ। विवेक जब आदमी का साथ छोड़ जाए तभी तो अपराध होता है जो आज तक यह समझ नहीं पाया कि हिंसा से हिंसा नहीं मिटती, बर्बरता से संस्कृति नहीं बचती और गुनाह से गुनाह नहीं मिटता। गुनाह चाहे जो भी करे उसे कोई भी न्याय अमान्य करार देता है; फिर भी वह कैसे अपने-आपको दोषी न समझे और तत्क्षण उदारता का धीमे-धीमे मुझमें आर्विभाव होने लगा। मेरे अपराधी भाव ने भरसक कोशिश की मुझे चेताने की पर कुछ था एक मधुर स्मृति जो अपराधीभाव पर हावी हो रहा था। मैंने महसूस किया कि इस समय जो बच्चा मेरे सामने करुण-क्रन्दन कर रहा है व्यक्त और अव्यक्त दोनों रूप से उसकी शक्ल में आज मेरा वही सगा भाई अवतरित हो रहा है जिसका कभी दुर्दान्त अन्त कभी इन्हीं आँखों से मैनें देखा था। पर मैंने अपने-आपको पिघलने नहीं दिया और तेजी से बाहर निकल गया; क्या पता अगर यह बच्चा उसके सामने कुछ देर और रहा तो मेरा विचार बदल जाए और मैं उसे छोड़ दूँ, यह भी सम्भव हो जाए ? कभी-कभी सम्भव भी असम्भव हो जाते हैं और असम्भव-सम्भव। सम्भव को सम्भव होना है किसी भी तरह। यह भी एक असम्भव नहीं है और मुझे लग रहा था पहली बार कोई अप्रत्याशित चीज होने वाली है—कब, कहाँ और कैसे, मैं नहीं जानता।
मैं पास के एक पब्लिक टेलीफोन बूथ पर गया और उस बच्चे के घर का नम्बर मिलाते हुए रिंग किया। उधर टेलीफोन बजने लगा और साथ-साथ में मेरा दिल भी, जो अन्दर-अन्दर तेजी से धड़क रहा था। एक विह्वल नारी स्वर जैसे ही गूँजा मैंने अपनी आवाज बदलकर कहा—मैं जानता हूँ आप सब अपने बेटे के लिए परेशान हो रहे हैं। वह मेरे कब्जे में है। अगर उसकी खैरियत चाहते हैं तो आपको ज्यादा नहीं बस पचास लाख देने होंगे। कब और कहाँ ? मैं फिर बताऊँगा। उधर से हैलो-हैलो आवाजें आती रहीं पर मैंने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया। फिर बाहर आया, रात गहरी हो आई थी और मुझे तेज भूख महसूस हो रही थी। फिर ध्यान आया कि उस बच्चे ने भी सुबह से कुछ नहीं खाया है। फिर पास के एक रेस्टोरेंट में जाकर मैंने दो जगह खाना पैक करवाया और पुरानी जगह वापस आ गया। बच्चा रोते-रोते जाने कब सो गया था ? पर उसके गालों पर आँसुओं ने गहरी लकीर खींच रखी थी, कहा—खाना खा लो। वह बच्चा फिर रोने लगा। कहा—मुझे भूख नहीं है; मुझे मेरी माँ के पास पहुँचा दो। मैंने कहा—ठीक है, पहुँचा दूँगा पर पहले खाना तो खा लो। नहीं, मैं नहीं खाऊँगा, आप बहुत गन्दे, अंकल हो, पहले चॉकलेट और आइसक्रीम खिलाते हो फिर डराते हो, मुझे अपनी माँ के पास जाने दो। रोज रात में मेरे पापा ही मुझे खिलाते हैं। मैं अभी तुमसे खाने के लिए तैयार नहीं हूँ और फिर वह सुबकियाँ लेने लगा। आखिर, मुझे तरस आ ही गया। कहा—पहले एक वादा करो। उसने बेहद मासूमियत से कहा—क्या ? आज के बाद अपनी मम्मी-पापा की हर बात मानोगे और कहोगे कि मैं एक अंकल के साथ अपने दोस्त की तरह गया था पर मुझे मालूम नहीं था कि वह मेरा दुश्मन कैसे हो गया ? और जितना मैंने तुम्हें रुलाया है अपने भगवान से कहना कि मुझे माफ कर दे और किसी जन्म में वह मुझे भी तुम्हारी तरह एक बेटा दे पर उसे रुलाने के लिए नहीं हँसाने के लिए। उसने हाँ में सिर हिला दिया, फिर कहा—मेरी रस्सी खोलो और मुझे ले चलो। मैंने उसे उसके घर के सामने ले जाकर छोड़ दिया और रातों-रात अपना ठिकाना बदल दिया किसी भी तरह की गिरफ्तारी से बचने के लिए।
2
मेरे गुनाहों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है और
रहम करने के
अवसर बिल्कुल नगण्य। कहाँ तक बयाँ करूँ ? जब भी ऐसी कोशिश करता हूँ तो
मुझे खुद अपने आप पर भी रहम नहीं आता। आए भी क्यों ? जब अपनी पूरी जिन्दगी
मैंने किसी पर रहम नहीं की, किसी की जान नहीं बख्शी तो कोई मेरी जान क्यों
बख्शे ? आज जो सजा मुझे मिली है, वह मेरे ही ऐसे जाने कितने ही किए
अपराधों का सिला है; तभी तो वक्त आज मुझसे गिन-गिनकर सारे हिसाब चुका रहा
है। हालाँकि मेरी बड़ी लालसा है कि कोई मुझ पर रहम खाए और मेरा मृत्युदंड
माफ कर दिया जाए। पर मैं जानता हूँ कि ऐसा कोई नहीं करेगा। इसलिए मैं
हालात से मजबूर हूँ और मानसिक यन्त्रणा भोगने के लिए विवश। जिन्हें
मृत्युदंड मिलता है उसका पल-पल कैसा गुजरता है और कैसी यन्त्रणाओं से होकर
उसे गुजरना पड़ता है, मैं भी कुछ वैसी ही अनुभूतियों से होकर गुजर रहा
हूँ। एक लम्हा अगर बिना भय का गुजर गया तो राहत महसूस करता हूँ पर अगले ही
पल मौत का जो खौफ फिर हावी हो जाता है तो लगता है कि बार-बार मरने से तो
एक बार मरना कहीं ज्यादा अच्छा है। कभी-कभी लगता है जो मौत मुझे कल मिलनी
है वह आज क्यों नहीं दे दी जाती ? कम-से-कम जिन खौफनाक हालात से इस तरह
रूबरू होना पड़ता है उससे निजात तो मिल जाती। जब जीवन ही नहीं रहेगा तो
खौफ, संशय, जिजीविषा कैसे हावी होगी ? मृत्यु-उपरान्त कोई फिर मरने के लिए
बाध्य तो नहीं होगा ? पर ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा। जब तक किसी के मुकद्दर
में सौ-सौ मौतें हर क्षण में लिखी हुई हों उसे एक बार में मृत्यु कैसे मिल
सकती है ? और जाहिर है मुझे भी नहीं मिलेगी। मैं अपने सारे किए गुनाहों का
प्रायश्चित भी करना चाहता हूँ अगर कोई मृत्युदंड की सजा आजीवन कारावास में
बदलवा दे पर जब भी औरों को देखता हूँ उनमें जरा भी दया मुझे अपने-आपके लिए
नहीं दिखती। कहीं से उम्मीद की कोई भी किरण नहीं, बस अँधेरा-ही-अँधेरा है,
डर-ही-डर है, निराशा-ही-निराशा है। उसमें कब तक और कहाँ तक कोई अपनी
परिस्थितियों को अनदेखा कर सके ? मेरी सजा में अब मात्र सात दिन रह गए हैं
और गुजरने वाले हर क्षण के साथ मैं पसीने-पसीने होने को बाध्य हूँ। भय की
जो सर्द लहर रीढ़ों से होकर गुजरती है वह अच्छे-अच्छों की चेतना सन्न करने
के लिए काफी है तो फिर मैं इससे कैसे बच सकता हूँ ? मुझे याद है किसी ने
एक बार मुझसे कहा था—यार, तू तो बड़ा बहादुर है। किसी की जान
लेने
से तुझे कभी कोई डर नहीं लगता। ट्रिगर दबाया और शाला सामनेवाला खलास, मुझे
तो ऐसा करने में पसीने छूटने लगते हैं। पर आज जो कुछ अनुभव हो रहा है उससे
मैं कितना बहादुर हूँ यह उसका किया दावा मुझे भी पसीने छुड़ा रहा है।
अच्छे-अच्छों की बुद्धि सरक जाएगी जब उसे पता चलेगा कि वह अगले पल मरने
वाला है। यूँ देखा जाए तो उसूलों की मौत पहले होती है और शारीरिक मौत बाद
में। मैंने भी उसूलों को पहले कभी त्यागा था और आज न्याय-अन्याय के कटघरे
में खड़े होकर इस तरह मरने को विवश हुआ हूँ। पर जब मैंने सारे आदर्शों को
दफनाने का फैसला किया था तब यह फैसला निस्सन्देह मेरा नहीं था, उस जालिम
समाज का था जिसने मुझे ऐसा करने को बाध्य किया। अगर समाज न चाहे तो इस
दुनिया में एक भी अपराधी पैदा नहीं हो सकता। और अपराध कहाँ नहीं होते हैं
? मैं तो सिर्फ हालात द्वारा विवश किए गए ढकोसलों और पाखंडों का एक
छोटा-सा नमूना हूँ। तथाकथित सभ्य और सम्भ्रान्त समाज में छिपे तौर पर
वास्तविक अपराध से कहीं ज्यादा अपराध होते हैं। फिर उन पर हल्ला क्यों
नहीं होता ? बस इसलिए कि उनका रसूख ऊँचा है, उनकी पहुँच ऊँची है। छोटे लोग
ही क्यों न्याय-अन्याय के उसूलों पर लटकाए जाते हैं ? जब तक यह समाज विभेद
करेगा; अन्याय कभी नहीं मिटेगा, अपराध कभी नहीं खत्म होंगे। अपराधी इसी
समाज में पैदा होते हैं और होते रहेंगे और बड़ी-से-बड़ी सजा भी उनकी
पैदाइश, उनकी बाढ़ नहीं रोक सकती। आज जो मैं हूँ या कोई है वह बिल्कुल
निर्दोष है, ऐसा कोई भी अपराध नहीं कहता पर इतना जरूर कहता है, अगर हमारे
अस्तित्व पर कभी सवाल उठाते हो तो पहले अन्दर झाँककर देखो ! शायद मुझसे भी
बड़ा कोई अपराधी वहाँ बैठा हुआ है। पहले उसे मारो फिर हमें मारना। पर हम
लोग अपने अन्दर के अपराधी को मारना नहीं चाहते और कहते हैं समाज से अपराध
मिटने चाहिए; मगर कैसे ? इस पर अपनी अन्तहीन चुप्पी साध जाते हैं ! मगर
चुप्पी किसी समस्या का समाधान तो नहीं है न, फिर दोहरा मापदंड क्यों
अपनाते हो ? और अगर अपनाते हो तो फिर दूसरों पर दोष मत मढ़ो। पर शायद ही
कोई ऐसा सोचे ? और नहीं सोचता तो जाने-अनजाने अन्याय होते रहेंगे,
दिन-दहाड़े भी और रात के अँधेरे में भी। तो मैं ही क्यों आज इस तरह फँस
गया हूँ हालाँकि पूरी कोशिश की थी कि कानून की पकड़ में न आऊँ पर कोई भी
अपराधी अपनी पूरी जिन्दगी बेखौफ नहीं गुजार पाता और एक दिन प्रशासन और
कानून की बलिदेवी पर चढ़ ही जाता है जैसा कि आज मैं चढ़ा हुआ हूँ।
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