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नारी विमर्श >> सफर

सफर

गायत्री वर्मा

प्रकाशक : एम. एन. पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4028
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास....

Safar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तावना

प्राचीन इतिहास अब अपना मूल्य खो बैठा है। अतीत की नारी की कोई मांग नहीं थी, जो उसे मिलता था उसमें संतुष्ट रहती थी। अतः स्त्री-पुरुष संबंधों में दरार या जटिलता भी नहीं थी। आधुनिक नारी, पुत्री हो चाहे पत्नी, मां हो चाहे प्रेयसी, अपनी पहचान चाहती है। पुरुष उसमें वहीं पूर्व रूप देखना चाहता है। अतः टकराल प्रारंभ से ही होने लगता है।
नारी अपनी उपेक्षा सहन नहीं कर पाती। अपनी ओर ध्यानाकर्षण के लिए कुछ भी करने को प्रस्तुत हो जाती है। कभी-कभी कदम गलत पड़ जाते हैं, जिसका मूल्य उसे चुकाना पड़ता है। वह चुकाती है पर दूसरे को आहत किए बिना नहीं, यद्यपि वह स्वयं भी इसमें आहत होती है।

-गायत्री वर्मा

आमुख


विद्रोह विध्वंस है, विनाशक है। वह ज्वालामुखी है, जब फूटती है तो विध्वस ही लाती है पर इस पर नवीन ढांचा भी तैयार होता है। यह सुखद भी है और दुखद भी, पर प्रगति का मूल अवश्य है और जगत् संस्कृति और मानव को जीवंत रखने के लिए अनिवार्य भी।

प्यार की स्वीकृति के लिए जान लड़ाकर भी यदि वह न मिले तो अंदर-ही-अंदर एक ज्वालामुखी सुलगती रहती है। जब वह फूटती है तो विध्वंश और सृष्टि दोनों ही लाती है।

-गायत्री वर्मा

ज्वालामुखी


‘लोग समझते हैं कि सुख तक जाने-माने रास्तों से ही पहुंचा जा सकता है पर वे अपने रास्ते का स्वयं अन्वेषण नहीं करते। कभी-कभी वे उस रास्ते पर से निकल भी जाते हैं पर उन्हें एहसास नहीं होता कि वे उसे पीछे छोड़ आए हैं। सुख के विषय में पहले से सोची हुई कल्पनाएं उनकी दृष्टि को अंधा कर देती हैं और इसीलिए उन्हें जो अचानक मिल जाता है वे उसे सुख मानने को प्रस्तुत नहीं होते। वे अपनी कल्पना से, उसका मुकाबला करके उसे खारिज कर देते हैं।’’

देवव्रत आज प्रातःकाल यह कहीं पढ़कर आए थे। इसकी गंभीरता उनके मन में प्रश्न बनकर बार-बार गूंज उठती थी। यह तो सही है कि जीवन को सुखी बनाने के लिए खुद रास्ता ढूंढ़ना चाहिए। जब मिल जाए तब बिना किसी शंका और संकोच के उस पर दृढ़ होकर चल देना चाहिए। हिचककर जीने से कुछ नहीं मिलता। बस तो सही है पर...
देवव्रत ने खिड़की के बाहर देखा, सामने लाखों-करोड़ों दिये वाला गुलमोहर का महान् वृक्ष झकोरे ले रहा था। उसके तले अधसूखे, मुरझाए और ताजे गिरे फूल बिखरे पड़े थे।

उन्होंने आंखें हटा लीं और सामाने पड़ी पुस्तक के पृष्ठ पलटे। परंतु उनका मन अशांत था। वे सोच रहे थे कि जिंदगी की न जाने कितनी लंबी-चौड़ी संभावनाएं हैं फिर भी हम कभी-कभी अपनी कमजोरी में जिंदगी को सिर्फ एक संभावना के साथ, मसलन प्यार के साथ जोड़ देते हैं। इसलिए इसमें निराशा होने पर लगता है कि जिंदगी में ब्लैक आउट हो गया। जबकि कुछ लोग मन के रेशे-रेशे में एक आकांक्षा को बुनकर उसके लिए ही जीवित रहना जीवन की सार्थकता समझते हैं।
उन्होंने भी जीवन में किसी को प्यार किया था पर वह प्यार एकतरफा ही रहकर समाप्त हो गया। तब से वे एकाकी ही रहे। उन्हें उनके मित्रों ने बहुत समझाने का प्रयत्न किया कि अपने दरवाजे बंद न रखो, विकल्प खुले रहने चाहिए।
एक विकल्प यदि धोखा देता है तो उस पर क्रास का चिह्न बना दो और दूसरे को अपना लो।

देवव्रत न सहमत थे। उनके अनुसार जिंदगी में कोई फार्मूला लागू नहीं किया जा सकता, कोई स्थायी व्यवस्था नहीं लाई जा सकती। इसमें केवल ‘केयोस’ हैं अपने को कुछ समय भुलावे में रखना, यही भुलावा है या अपने को सीधा खड़ा रखने की कसरत है।
एक लंबी सांस के साथ उनके मुख से निकला—एक भ्रम मेरे जीवन में से आकर निकल गया लेकिन उस भ्रम में कितनी मादकता थी, कितनी पुलक थी। भ्रम ही सही पर यदि वह कुछ समय के लिए ही मिल जाता—कितना अच्छा होता। बड़ी खुशी यदि नहीं मिल सकती तो छोटी-छोटी खुशियां भी कम जीवन को सरस नहीं करतीं।
उन्होंने फिर खिड़की के बाहर देखा—एक पतली छरहरी आकृति जल्दी-जल्दी डग बढ़ाती उनके आफिस की ओर आ रही थी।

उनका ऑफिस सड़क के किनारे था। दूर से सभी-कुछ स्पष्ट दृष्टगत होता था। स्पष्ट था कि वे किसी की प्रतीक्षा कर रहे थे अन्यता एक तक वे अपने दूसरे केसों में उलझ जाते थे। उन्हें अपना पेशा पसंद था जो उन्हें यथेष्ट व्यस्त रखता था और उनका ध्यान इधर-उधर नहीं जाने देता था। सब के जीवन में ही कुछ-न-कुछ ऐसी टीस होती है जो जीने भी नहीं देती और मरने भी नहीं देती। उनके जीवन का विफल प्यार उन्हें झकझोर गया था पर अब वे उसे लगभग भूल गए थे। मां और छोटी बहन की देखरेख करते और प्रसन्न रहने की चेष्टा करते। छोटा शांत जीवन था। बहन मुंबई में ब्याही थी। अंधेरी में उसका घर था। वे जुहू में रहते थे। वकालत की प्रैक्टिस अच्छी चलती थी।
मुस्कराती आकृति ने अंदर प्रवेश किया, ‘‘देर हो गई अंकल, यह मुंबई है। कितनी ही प्रयास करो, कभी समय पर नहीं पहुंच पाते।’’

सामने की पुस्तक हटाते हुए वे मुस्कराए।
‘‘अंकल, आपके पास मेरे लिए कितना समय है ?’’
‘‘जितना तुम चाहो। कहो, क्या प्रॉब्लम है ? वही पुरानी पापा की ?’’
‘‘उन पर मैं बहुत समय नष्ट नहीं करती, अंकल। अपने जीवन का सबसे सुंदर समय उन्हें प्रसन्न करने में गवां चुकी अब मैं अपने लिए जीना चाहती हूं।’’
‘‘फिर अब कौन-सी समस्या उठ खड़ी हुई, सुप्रिया ?’’
‘‘मैं शादी करना चाहती हूं, अंकल।’’
‘‘ओ मेरी बिटिया, कब बड़ी हो गई मुझे पता ही नहीं लगा। किसके साथ ?’’
‘‘तेजस्विन है एक।’’
‘‘ड्रैस डिजाइनर ?’’
‘‘आप जानते हैं ?’’

‘‘थोड़ा-थोड़ा। अपनी बहन के लिए ड्रैस लेने के लिए बुटीक में गया था। डैडी के पास सिफारिश पहुंचानी है ?’’
‘‘नहीं, उसकी आवश्यकता मैं नहीं समझती। अपना निर्णय स्वयं मैंने ले लिया है।’’
‘‘फिर भी सूचित तो करना ही होगा। अभिभावक हैं, बड़े हैं, तुम्हारे डैडी हैं।’’
‘‘कैसे डैडी ? खाली पैदा करने के ? कोई और फर्ज नहीं था उनका, और तब जब मम्मी नहीं हैं ?’’
देवव्रत ने चुभती आंखों से उसकी ओर देखा। कैसी ज्वालामुखी है, ‘‘शांत होओ सुप्रिया। लोकाचार निभाना तो पड़ता है, इच्छा हो या अनिच्छा।’’
‘‘ठीक है, कर दूंगी सूचित जब समय आएगा। अभी तो मेरी अपनी प्रॉब्लम है जिसके लिए मैं यहां, आपके पास आई हूं।’’
‘‘बोलो।’’

‘‘कल तेजस्विन ने मुझसे विवाह का प्रस्ताव किया था। वह जल्दी ही मुझे सगाई की अंगूठी पहनाना चाहता है।’’
‘‘अड़चन क्या है ?’’
‘‘अंकल, मेरा विवाह हो चुका है। तीन साल हो गए।’’ सुप्रिया ने अपनी आंखें उसकी आंखों में गड़ा दीं, ‘‘मैं उस विवाह को तोड़ना चाहती हूं...किसी भी शर्त पर, जो भी मुझे मूल्य चुकाना पड़े। इसमें मैं आपकी सहायता चाहती हूं।’’
देवव्रत एकदम गंभीर हो गए। इस लड़की ने क्या मुसीबत खड़ी कर दी वे सोचने लगे।
‘‘शमशेर को यह मालूम है ?’’
‘‘नहीं, इस विवाह का मैंने किसी से जिक्र नहीं किया।’’


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