कहानी संग्रह >> अनजाने रिश्ते अनजाने रिश्तेमधुप शर्मा
|
2 पाठकों को प्रिय 389 पाठक हैं |
मधुप शर्मा की कहानियाँ मनुष्य की दुर्बलता और नियति को स्वीकार करने के लिए उसे विवश नहीं करतीं, बल्कि उसके संघर्ष, साहस और आत्म-विश्वास को रेखांकित करती हैं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मधुप शर्मा की कहानियाँ मनुष्य की दुर्बलता और नियति को स्वीकार करने के
लिए उसे विवश नहीं करतीं, बल्कि उसके संघर्ष, साहस और आत्म-विश्वास को
रेखांकित करती हैं।
मधुप शर्मा की कहानियाँ एक तरह से सच्चाइयों के भीतर स्पंदनों के मार्मिक रेखाचित्र और सच के साक्षात्कार की कहानियाँ हैं। इस लेखक की एक बड़ी विशेषता और सफलता इस बात में है कि यह घटनाओं से कहीं अधिक उनके अर्थों को जीने लगता है और उसके पास प्रतीक होने का एहसास दिये बिना प्रतीक बन जाते हैं। और, यहीं उसकी कहानियाँ मामूली कहानियों से अलग हो जाती हैं।
ये कहानियाँ अपनी प्रस्तुति में बेहद रोचक और जीवंत हैं। श्री मधुप शर्मा में शब्दों को चित्रात्मक रूप देने की अद्भुत क्षमता है। किस्सागोई में वे अमृतलाल नागर की तरह बड़े माहिर हैं। एक बार पाठक को अपनी बात सुनाना आरम्भ करने के बाद उसे अपनी शैली के जादू में बाँध लेते हैं और वह मंत्रमुग्ध होकर कहानी को पढ़ता जाता है।
मधुप शर्मा की कहानियाँ एक तरह से सच्चाइयों के भीतर स्पंदनों के मार्मिक रेखाचित्र और सच के साक्षात्कार की कहानियाँ हैं। इस लेखक की एक बड़ी विशेषता और सफलता इस बात में है कि यह घटनाओं से कहीं अधिक उनके अर्थों को जीने लगता है और उसके पास प्रतीक होने का एहसास दिये बिना प्रतीक बन जाते हैं। और, यहीं उसकी कहानियाँ मामूली कहानियों से अलग हो जाती हैं।
ये कहानियाँ अपनी प्रस्तुति में बेहद रोचक और जीवंत हैं। श्री मधुप शर्मा में शब्दों को चित्रात्मक रूप देने की अद्भुत क्षमता है। किस्सागोई में वे अमृतलाल नागर की तरह बड़े माहिर हैं। एक बार पाठक को अपनी बात सुनाना आरम्भ करने के बाद उसे अपनी शैली के जादू में बाँध लेते हैं और वह मंत्रमुग्ध होकर कहानी को पढ़ता जाता है।
भूमिका
‘अनजाने रिश्ते’ श्री
मधुप शर्मा का चौथा कहानी-संग्रह है, जो वर्तमान परिवेश में मनुष्य के
बदलते सम्बन्धों को रेखांकित कर मानवीय अस्मिता की तलाश करता है। आज के
मनुष्य का सबसे बड़ा संकट यह है कि वह भौतिकता के दबाव में संवेदनाशून्य
और अमानवीय होकर स्वयं ही अपना शत्रु बनता जा रहा है। संकट की इस घड़ी में
साहित्य ही एक ऐसा साधन है, जो छीजती हुई इंसानियत को ज़िन्दा रख कर उसके
अस्तित्व को बचाये रखने में सहायक हो सकता है। साहित्यरूपों में अपनी
व्यापक प्रेषणीयता तथा बढ़ती लोकप्रियता के कारण कहानी की भूमिका और भी
प्रभावी हो सकती है, बशर्ते कि कहानीकार अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी को
महसूस करते हुए रचनाकर्म में प्रवृत्त हो। प्रसन्नता की बात है कि इन
कहानियों का लेखक चौथे कहानी-संकलन तक आते-आते पूरी तरह संवेदना का
कहानीकार बन गया है। ये सभी कहानियाँ किसी-न-किसी रूप में मानवीय संबंधों
की दरार को परत-दर-परत उघाड़ती हुई अन्ततः मनुष्य के अन्तर्मन को गहरे में
झकझोरती हैं और उसे अपनी नियति पर सोचने के लिए के लिए मजबूर करती हैं। इन
कहानियों की अन्तर्वस्तु में गुँथा हुआ आज के कड़वे-कसैले यथार्थ का दंश
और आघात इतना गहरा है कि पाठक की समूची चेतना एकसाथ झनझना उठती है और उसे
मानवता की सामान्य भावभूमि पर पहुँचा देती है। संवेदना के स्तर पर
कहानियों की यह विशेषता पं. मधुप शर्मा को आज के मानवतावादी लेखकों की
अग्रिम पंक्ति में प्रतिष्ठित करती है।
संकलन का नामकरण जिस कहानी के शीर्षक से किया गया है उसकी अन्तर्वस्तु लेखकीय आशय को बड़ी शिद्दत से उजागर करती है। कहानी के गंगा (गाय) मोती (कुत्ता) की अपने पूर्व मालिक के प्रति उमड़ती हुई स्नेहिल भावनाएँ जहाँ लेखक को द्रवित करती हैं वहाँ आज के मनुष्य की जड़ होती हुई संवेदना उसे भीतर से कचोटती है। अत्यन्त मर्मस्पर्शी कहानी ‘आत्महत्या’ की बेगम (कुतिया) भी अपनी सांकेतिकता में हमारे समय के मनुष्य की त्रासदी को रेखांकित करती है। ‘रामकली’ में यह वैषम्य और भी मुखर हो गया है। सोने के कड़े की खातिर अपनी सास की हत्या करने वाली रामकली तो गिद्ध से भी बदतर है। गिद्ध कम-से-कम मरणासन्न पशु को उसकी मृत्यु से पूर्व नहीं खसोटता। लेखक की यही दृष्टि ‘और उसने कहानी लिखी’ में समाज की आर्थिक विषमता से पैदा हुई दीनता का कारुणिक चित्र प्रस्तुत करती है, जहाँ कथानायक के मासूम बच्चों और युवा पत्नी के अरमानों के फूल खिलने से पहले ही मुरझा जाते हैं और वह स्वयं यह सब देखकर गहरे विषाद में डूब जाता है। वस्तुतः यह कहानी लेखक की रचनादृष्टि को इंगित करती है, गोया इसके माध्यम से वह यह कहना चाहता है कि वह कहानी क्यों लिखता है ! मनुष्य की संवेदना को विस्तार देकर मानव-विरोधी परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष की चेतना जगाना ही इन कहानियों का उद्देश्य है।
आज के मनुष्यों के बदलते और तनावपूर्ण सम्बन्धों का चित्रण करने की दृष्टि से ये कहानियाँ बड़ी सशक्त हैं। लेखक भारतीय परिवेश में पति-पत्नी, भाई-बहन, माँ-बेटी, देवरानी-जेठानी, पिता, प्रति-पुत्री, मालिक-नौकर आदि के आपसी सम्बन्धों में आये बदलाव का चित्रण करता हुआ समाज के यथार्थ का व्यापक परिदृश्य निर्मित करता है, जो जीवन के लेखक की गहरी समझ का परिचायक है। उल्लेखनीय है कि यथार्थ का निर्मम चित्रण करते हुए भी लेखक की मानवतावादी दृष्टि सदैव सक्रिय रहती है। मनुष्यों के आपसी जटिल सम्बन्धों का प्रभावी अभिव्यक्ति की दृष्टि से ‘खून का क़र्ज़’ इस संकलन की श्रेष्ठ कहानी है। पारिवारिक सम्बन्ध-सूत्रों की विषम परिस्थितियों से गुज़रती हुई सावित्री खोखले सम्बन्धों की तोड़कर अपने जीवन को आत्मनिर्भर बना लेती है और इस प्रकार अपनी अदम्य जिजीविषा और उद्दीप्त स्वाभिमान का परिचय देती है। इन सबके बावजूद वह अमानवीय नहीं होती। ‘मोहभंग’ की स्नेहशील नेहा अपने पुत्रों के अमानवीय व्यवहार से क्षुब्ध होती है। ‘लावारिस लाश’, ‘संकल्प’, ‘कान्ता बहन जी’ आदि मनुष्य के घिनौने चहरे को उघाड़ती हैं पर अपने प्रभाव से वे मानवीय संवेदना को जागती हैं। मानवीय संस्पर्श से कहानी मार्मिक होने के साथ हमारे मन में भविष्य के प्रति आशा जागती है। जिजीविषा और आस्था के स्वर से मुखरित ये कहानियाँ मूल्यचेतना से अनुप्राणित हैं। लेखक का कौशल इस बात से ज़ाहिर होता है कि विचार, आदर्श या मूल्य कहानी की मूल संवेदना में संश्लिष्ट और एकाकार होकर आये हैं। यथार्थ की संवेदना के साथ मूल्यों का एकरस गुंफन कहानी के कलात्मक उत्कर्ष को प्रकट करता है।
संकलन में कहानियों के और भी अनेक आयाम हैं। ‘बुज़दिल’ तथा ‘और वह चली गयी’ संवाद शैली में लिखी हल्के-फुल्के प्रेमप्रसंगों की कहानियाँ हैं। ‘सुख की फुहार’ एक प्रतीकात्मक कहानी है, जो दो चिड़ियों के माध्यम से दो मनःस्थितियों का सुन्दर चित्रण है। ‘तीन खज़ाने’ लोककथा शैली में लिखी गयी एक रोचक कहानी है, जो मानवीय दुर्बलता को उजागर करती है। ‘पुराने स्लीपर’ दाम्पत्य जीवन के परस्पर त्याग और सौहार्द की भावपूर्ण कथा है। ‘नारियल वाला बंगला’ एक ही अभाव की दो भिन्न प्रतिक्रियाएँ दिखाने वाली मनोवैज्ञानिक कहानी है, जो अत्यन्त मर्मस्पर्शी है। ये सभी कहानियाँ हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी की छोटी-छोटी स्थितियों के माध्यम से जीवन के बड़े सत्य का उद्घान कर हमें सोचने की दिशा देती हैं।
ये कहानियाँ अपनी प्रस्तुति में बेहद रोच़क और जीवंत हैं। दीर्घकाल तक फिल्म-जगत् से सम्बद्ध रहने के कारण श्री मधुप शर्मा में शब्दों को चित्रात्मक रूप देने की अद्भुत क्षमता है। क़िस्सागोई में वे अमृतलाल नागर की तरह बड़े माहिर हैं। एक बार अपनी बात पाठक को सुनाना प्रारम्भ करने के बाद उसे अपनी शैली के जादू में बाँध लेते हैं और वह मन्त्रमुग्ध होकर कहानी को पढ़ता जाता है। जीवन की जटिल स्थिति को वे इतने सहज और सरस रूप में प्रस्तुत करते हैं कि उसका एक-एक पक्ष स्फटिक की तरह पारदर्शी हो जाता है। जीवन का गुरुगम्भीर सत्य उनकी सुकोमल शैली में संप्रेषित होकर अत्यन्त मोहक बन जाता है। मुझे विश्वास है कि श्री मधुप शर्मा के इस कहानी-संग्रह का हिन्दी-जगत में स्वागत होगा।
संकलन का नामकरण जिस कहानी के शीर्षक से किया गया है उसकी अन्तर्वस्तु लेखकीय आशय को बड़ी शिद्दत से उजागर करती है। कहानी के गंगा (गाय) मोती (कुत्ता) की अपने पूर्व मालिक के प्रति उमड़ती हुई स्नेहिल भावनाएँ जहाँ लेखक को द्रवित करती हैं वहाँ आज के मनुष्य की जड़ होती हुई संवेदना उसे भीतर से कचोटती है। अत्यन्त मर्मस्पर्शी कहानी ‘आत्महत्या’ की बेगम (कुतिया) भी अपनी सांकेतिकता में हमारे समय के मनुष्य की त्रासदी को रेखांकित करती है। ‘रामकली’ में यह वैषम्य और भी मुखर हो गया है। सोने के कड़े की खातिर अपनी सास की हत्या करने वाली रामकली तो गिद्ध से भी बदतर है। गिद्ध कम-से-कम मरणासन्न पशु को उसकी मृत्यु से पूर्व नहीं खसोटता। लेखक की यही दृष्टि ‘और उसने कहानी लिखी’ में समाज की आर्थिक विषमता से पैदा हुई दीनता का कारुणिक चित्र प्रस्तुत करती है, जहाँ कथानायक के मासूम बच्चों और युवा पत्नी के अरमानों के फूल खिलने से पहले ही मुरझा जाते हैं और वह स्वयं यह सब देखकर गहरे विषाद में डूब जाता है। वस्तुतः यह कहानी लेखक की रचनादृष्टि को इंगित करती है, गोया इसके माध्यम से वह यह कहना चाहता है कि वह कहानी क्यों लिखता है ! मनुष्य की संवेदना को विस्तार देकर मानव-विरोधी परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष की चेतना जगाना ही इन कहानियों का उद्देश्य है।
आज के मनुष्यों के बदलते और तनावपूर्ण सम्बन्धों का चित्रण करने की दृष्टि से ये कहानियाँ बड़ी सशक्त हैं। लेखक भारतीय परिवेश में पति-पत्नी, भाई-बहन, माँ-बेटी, देवरानी-जेठानी, पिता, प्रति-पुत्री, मालिक-नौकर आदि के आपसी सम्बन्धों में आये बदलाव का चित्रण करता हुआ समाज के यथार्थ का व्यापक परिदृश्य निर्मित करता है, जो जीवन के लेखक की गहरी समझ का परिचायक है। उल्लेखनीय है कि यथार्थ का निर्मम चित्रण करते हुए भी लेखक की मानवतावादी दृष्टि सदैव सक्रिय रहती है। मनुष्यों के आपसी जटिल सम्बन्धों का प्रभावी अभिव्यक्ति की दृष्टि से ‘खून का क़र्ज़’ इस संकलन की श्रेष्ठ कहानी है। पारिवारिक सम्बन्ध-सूत्रों की विषम परिस्थितियों से गुज़रती हुई सावित्री खोखले सम्बन्धों की तोड़कर अपने जीवन को आत्मनिर्भर बना लेती है और इस प्रकार अपनी अदम्य जिजीविषा और उद्दीप्त स्वाभिमान का परिचय देती है। इन सबके बावजूद वह अमानवीय नहीं होती। ‘मोहभंग’ की स्नेहशील नेहा अपने पुत्रों के अमानवीय व्यवहार से क्षुब्ध होती है। ‘लावारिस लाश’, ‘संकल्प’, ‘कान्ता बहन जी’ आदि मनुष्य के घिनौने चहरे को उघाड़ती हैं पर अपने प्रभाव से वे मानवीय संवेदना को जागती हैं। मानवीय संस्पर्श से कहानी मार्मिक होने के साथ हमारे मन में भविष्य के प्रति आशा जागती है। जिजीविषा और आस्था के स्वर से मुखरित ये कहानियाँ मूल्यचेतना से अनुप्राणित हैं। लेखक का कौशल इस बात से ज़ाहिर होता है कि विचार, आदर्श या मूल्य कहानी की मूल संवेदना में संश्लिष्ट और एकाकार होकर आये हैं। यथार्थ की संवेदना के साथ मूल्यों का एकरस गुंफन कहानी के कलात्मक उत्कर्ष को प्रकट करता है।
संकलन में कहानियों के और भी अनेक आयाम हैं। ‘बुज़दिल’ तथा ‘और वह चली गयी’ संवाद शैली में लिखी हल्के-फुल्के प्रेमप्रसंगों की कहानियाँ हैं। ‘सुख की फुहार’ एक प्रतीकात्मक कहानी है, जो दो चिड़ियों के माध्यम से दो मनःस्थितियों का सुन्दर चित्रण है। ‘तीन खज़ाने’ लोककथा शैली में लिखी गयी एक रोचक कहानी है, जो मानवीय दुर्बलता को उजागर करती है। ‘पुराने स्लीपर’ दाम्पत्य जीवन के परस्पर त्याग और सौहार्द की भावपूर्ण कथा है। ‘नारियल वाला बंगला’ एक ही अभाव की दो भिन्न प्रतिक्रियाएँ दिखाने वाली मनोवैज्ञानिक कहानी है, जो अत्यन्त मर्मस्पर्शी है। ये सभी कहानियाँ हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी की छोटी-छोटी स्थितियों के माध्यम से जीवन के बड़े सत्य का उद्घान कर हमें सोचने की दिशा देती हैं।
ये कहानियाँ अपनी प्रस्तुति में बेहद रोच़क और जीवंत हैं। दीर्घकाल तक फिल्म-जगत् से सम्बद्ध रहने के कारण श्री मधुप शर्मा में शब्दों को चित्रात्मक रूप देने की अद्भुत क्षमता है। क़िस्सागोई में वे अमृतलाल नागर की तरह बड़े माहिर हैं। एक बार अपनी बात पाठक को सुनाना प्रारम्भ करने के बाद उसे अपनी शैली के जादू में बाँध लेते हैं और वह मन्त्रमुग्ध होकर कहानी को पढ़ता जाता है। जीवन की जटिल स्थिति को वे इतने सहज और सरस रूप में प्रस्तुत करते हैं कि उसका एक-एक पक्ष स्फटिक की तरह पारदर्शी हो जाता है। जीवन का गुरुगम्भीर सत्य उनकी सुकोमल शैली में संप्रेषित होकर अत्यन्त मोहक बन जाता है। मुझे विश्वास है कि श्री मधुप शर्मा के इस कहानी-संग्रह का हिन्दी-जगत में स्वागत होगा।
-डॉ. राधेश्याम शर्मा
दो शब्द
डॉ. राधेश्याम जी शर्मा से मेरा परिचय पत्र-व्यवहार तक ही सीमित था, लेकिन
यह कहते हुए मुझे तनिक भी संकोच नहीं कि उनके पहले पत्र ने ही मुझे एक
अनजाने अपनेपन और स्नेहसूत्र में बाँध लिया था। और फिर एक दिन पता चला कि
वे राजस्थान के कुछ विद्वानों को साथ लेकर अन्तर्प्रान्तीय साहित्यकार
बन्धुत्व यात्रा पर मुम्बई आ रहे हैं, तब तो एक अजीब ही आनन्द की सी
अनुभूति हुई थी।
और फिर वह दिन भी आ पहुँचा जब राधेश्याम जी से मैं पहली बार मिला। हृदय-पटल पर बनी उनकी तस्वीर के अनुरूप ही उन्हें पाया-सहज, स्नेही, सरल और सहृदय। उनका विद्वत्तापूर्ण भाषण सुनकर तो और भी प्रसन्नता हुई। उस पहली मुलाक़ात पर ही पता नहीं कौन-सी अधिकार भावना के तहत मैं उनसे कह उठा था, ‘मेरे अगले कहानी-संग्रह की भूमिका आपको लिखनी है।’ और उन्होंने भी बड़े सहज भाव से कहा था, ‘हाँ, हाँ, पाण्डुलिपि भेज दीजिएगा।’
भेजने के तीन सप्ताह बाद ही भूमिका के साथ पाण्डुलिपि लौट आई। मैं हैरान ! इतनी जल्दी !! अत्यधिक व्यस्त होते हुए भी कैसे निकाल पाये होंगे समय, इस काम के लिए ? धन्यवाद का पत्र लिखा। जवाब आया-अपनों को धन्यवाद नहीं दिया जाता। और मैंने तो आपकी कहानियाँ पढ़ते समय तथा भूमिका लिखते समय, आनन्द का ही अनुभव किया है। तो धन्यवाद के पात्र आप हैं या मैं ?...चाहिए हिसाब बराबर।....
पुस्तक प्रेस में चली गई। पिछले सप्ताह प्रकाशक महोदय ने प्रूफ़ भेजा। राधेश्याम जी की लिखी हुई भूमिका ही पढ़ रहा था, जब हृदय विदारक यह समाचार मिला कि डाक्टर साहब नहीं रहे। दिल धक्क-से रह गया।...फिर याद आया, गीता में लिखा-मरता तो केवल शरीर है, आत्मा कभी नहीं मरती।...सोचता हूँ, भाई राधेश्याम जी के साथ, मेरा संबंध भी तो दो आत्माओं का ही संबंध था। पिछले किसी जन्म का अनजाना रिश्ता। उनके स्नेह और अपनेपन के सूत्र तो बने ही रहेंगे, जन्म-जन्मांतर तक।
और फिर वह दिन भी आ पहुँचा जब राधेश्याम जी से मैं पहली बार मिला। हृदय-पटल पर बनी उनकी तस्वीर के अनुरूप ही उन्हें पाया-सहज, स्नेही, सरल और सहृदय। उनका विद्वत्तापूर्ण भाषण सुनकर तो और भी प्रसन्नता हुई। उस पहली मुलाक़ात पर ही पता नहीं कौन-सी अधिकार भावना के तहत मैं उनसे कह उठा था, ‘मेरे अगले कहानी-संग्रह की भूमिका आपको लिखनी है।’ और उन्होंने भी बड़े सहज भाव से कहा था, ‘हाँ, हाँ, पाण्डुलिपि भेज दीजिएगा।’
भेजने के तीन सप्ताह बाद ही भूमिका के साथ पाण्डुलिपि लौट आई। मैं हैरान ! इतनी जल्दी !! अत्यधिक व्यस्त होते हुए भी कैसे निकाल पाये होंगे समय, इस काम के लिए ? धन्यवाद का पत्र लिखा। जवाब आया-अपनों को धन्यवाद नहीं दिया जाता। और मैंने तो आपकी कहानियाँ पढ़ते समय तथा भूमिका लिखते समय, आनन्द का ही अनुभव किया है। तो धन्यवाद के पात्र आप हैं या मैं ?...चाहिए हिसाब बराबर।....
पुस्तक प्रेस में चली गई। पिछले सप्ताह प्रकाशक महोदय ने प्रूफ़ भेजा। राधेश्याम जी की लिखी हुई भूमिका ही पढ़ रहा था, जब हृदय विदारक यह समाचार मिला कि डाक्टर साहब नहीं रहे। दिल धक्क-से रह गया।...फिर याद आया, गीता में लिखा-मरता तो केवल शरीर है, आत्मा कभी नहीं मरती।...सोचता हूँ, भाई राधेश्याम जी के साथ, मेरा संबंध भी तो दो आत्माओं का ही संबंध था। पिछले किसी जन्म का अनजाना रिश्ता। उनके स्नेह और अपनेपन के सूत्र तो बने ही रहेंगे, जन्म-जन्मांतर तक।
-मधुप शर्मा
मोह-भंग
बड़ी देर से धीरज अपने मुक़द्दर और मित्रों को कोस रहा था। बोला,
‘‘जब मेरे हालात अच्छे थे तो दोस्तों की भी कमी नहीं
थी। बरसाती मेंढकों की तरह जमघट लगाये रहते थे। और जब मेरे ऊपर मुसीबत आई
तो कोई साला काम नहीं आया। बल्कि कुछेक तो अचानक कहीं मिल भी जाएँ तो
किसी-न-किसी बहाने इस तरह पीछा छुड़ा कर भागते हैं, जैसे मैं दोस्त नहीं,
छूत की बीमारी हूँ। तुम्हारे घर के अलावा अब तो कोई ऐसा ठिकाना भी नहीं
रहा, जहाँ जाकर मन की भड़ास निकाल लूँ।...ओफ़्फ़, किसी ने सच ही कहा है,
‘धीरज, धरम, मित्र अरु नारी, आपत काल परखिए चारी।’
’’
विश्वनाथ जो अभी तक चुपचाप धीरज की बातें सुन रहा था, चाय की एक चुस्की लेकर प्याला रखते हुए बोला, ‘‘अब तो यह कहावत भी पुरानी पड़ गयी दोस्त। मित्र ही नहीं, कोई भी रिश्ता, कोई भी सम्बन्ध ऐसा नहीं बचा, जिसे एक ठोस आधार समझ कर उसका सहारा लिया जा सके, उस पर भरोसा किया जा सके। जहाँ ज़रा-सा स्वार्थ सामने आया, सारे रिश्तों की चूलें चरमरा उठती हैं, कोमल भावनाएँ और अपनापन दम तोड़ने लगता है और आजकल के पारिवारिक सम्बन्धों का खोखलापन खुले आम उजागर हो जाता है।’’
‘‘परिवारिक सम्बन्धों का व्यक्तिगत अनुभव मुझे है ही कहाँ विश्वा। मैंने तो जब से होश सँभाला, अकेला ही पाया है अपने आप को। यतीम जो था। बड़ा होकर भी अपना कोई कुनबा नहीं जोड़ा। पहले ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई थी। घर बसाने की सोची तो पता लगा उम्र निकल गई है। कनपटियों पर आये सफ़ेद बालों को देखकर जवान लड़कियाँ अंकल कहने लगी हैं।’’
धीरज ने हँसने की कोशिश की, लेकिन फिर तुरन्त ही संजीदा होकर बोला, ‘‘सारे रिश्तों को मैंने तो दोस्तों की मार्फ़त ही जाना था, उन्हीं के घरों में। दादी, नानी, माँ-बाप, भाई-बहन, देवर-भाभी, सब।’’
‘‘नेहा भाभी को जानते हो ?’’
‘‘उदयपुर वाले आत्माराम की बेवा न ?’’
‘‘हाँ, हाँ वही।’’
‘‘आत्मा से तो मेरी अच्छी दोस्ती थी। जब से मैंने अपना कारोबार अहमदाबाद में फैला लिया, सूरत आना-जाना बहुत कम हो गया है। कैसे हैं वे लोग ? सुना है, अच्छा काम जमा लिया है उसके बेटों ने।’’
‘‘हाँ, काम तो अच्छा ही है पर....।’’
‘‘पर क्या ?’’
‘‘तुम रिश्तों की बात कर रहे थे न। मुझे नेहा भाभी की याद आ गई। बड़ी जीवट वाली औरत है। तुम शायद नहीं जानते कि आत्माराम दरअसल सूरत में आया था, मेरी ही वजह से। वह उदयपुर से भाग आया, बम्बई जा रहा था काम-धन्धे की तलाश में। गाड़ी में मुझसे मुलाक़ात हो गई। मैं उन दिनों एक कपड़ा मिल में काम करता था, सूरत में। मैंने ही पूछा था, ‘बम्बई में कोई जान-पहचान है ?’ ’’
‘‘सहमा-सहमा-सा वह बोला था, ‘नहीं।’’
‘‘ ‘तो तुम्हारे लिए जैसी बम्बई, वैसा सूरत। सूरत में तो कपड़ा मिल में काम तुम्हें मैं दिलवा दूँगा।’’
‘‘सूरत स्टेशन पर वह मेरे साथ ही उतर पड़ा था। रहा भी काफ़ी दिनों तक मेरे साथ ही। पढ़ा-लिखा होने के कारण मिल मालिक ने उसे दफ़्तर में नौकरी दे दी थी। उसी दफ़्दर में नेहा काम करती थी। जान-पहचान हुई। कुछ अर्से के बाद शादी हो गई।
‘‘आत्माराम काम ज़रूर कपड़ा मिल में करता था, लेकिन हीरों की चमक-दमक उसे हमेशा आकर्षित करती रही। वह हमेशा हीरों का व्यापारी बनने के सपने देखा करता था। आखिरकार उसने मिल का काम छोड़कर, एक हीरा व्यापारी के यहाँ नौकरी कर ली। वहीं हीरे तराशने का काम सीखा, और कुछ वर्षों बाद पति-पत्नी दोनों घर पर ही हीरे तराशने का काम करने लगे। नेहा भी हिम्मत और हौसले में आत्माराम से चार कदम आगे ही थी। दोनों ने स्वतन्त्र रूप से अपना व्यवसाय जमा लिया। लेकिन दुर्भाग्य से, उनका साथ सिर्फ़ आठ साल रहा।....’’
...‘‘ आत्मा काम के ही सिलसिले में बम्बई गया था। वहाँ रेल लाइन क्रॉस करते समय लोकल गाड़ी की चपेट में आ गया। तीसरे दिन खबर मिली तो मैं ही गया था नेहा भाभी के साथ। लाश इतनी ख़राब हालत में थी कि नेहा ने कपड़ों और अँगूठी को देखकर ही उसे पहचाना।’’
‘‘तब तक नेहा दो बेटों की माँ बन चुकी थी। छोटा संजय तीन साल का, और बड़ा सुधीर पाँच का था। इतने बड़े सदमें के बाद भी वह पति का तेरहवाँ होते ही आँसू पोंछ कर इस तरह खड़ी हो गई जैसे बहुत ही साधारण-सी घटना घटी हो। बोली थी, ‘आप चिन्ता न कीजिए भैया, मैं हौसला नहीं हारूँगी। अब तो मेरी ज़िम्मेदारी बहुत बढ़ गई है। माँ भी मैं हूँ, बाप भी मैं ही। मुझे कमाना भी है, घर भी चलाना है। बच्चों को पढ़ाना-लिखाना है, और आपके दोस्त का देखा हुआ सपना भी साकार करना है। उनकी बड़ी इच्छा थी कि चाहे छोटा-सा ही हो, उनका अपना धन्धा हो, अपना मकान हो। मैं उनका शुरू किया हुआ काम बन्द नहीं होने दूँगी। उनकी बड़ी चाह थी कि जिन रिश्तेदारों ने उन्हें निखट्टू समझ कर गाँव से दुत्कार दिया था, वो उन्हीं रिश्तेदारों के लिए, उसी गाँव में, अपनी कमाई से कुआँ खुदवाएँ, धर्मशाला बनवाएँ और स्कूल खुलवाएँ। उनके वे सारे सपने तो शायद मैं कभी पूरे नहीं कर सकूँगी, पर हो सकता है उनके ये बेटे उन्हें साकार कर दें। इन्हें पढ़ा-लिखा कर किसी काम में लगा सकूँ तो मैं समझूँगी मैंने कुछ तो अपना फ़र्ज़ निभाया।’ ’’
‘‘और नेहा भाभी ने अपना फ़र्ज़ निभाने में सचमुच अपनी जान लड़ा दी। अपनी सारी जवानी, अपनी सारी ज़िन्दगी न्यौछावर कर दी बेटों की सुख-सुविधा के लिए। एक तपस्विनी का सा जीवन भोगा है उस औरत ने। एक बार मैंने कहा भी था, ‘बेटों को अगर धन्धे में ही लगाना है तो क्या फ़ायदा कॉलेज पढ़ाने का ?’ पर उसने कहा था, ‘इनके पिता की इच्छा थी, और मैं भी समझती हूँ, कि काम कोई भी करें, पढ़े-लिखे हों तो काम का शऊर आ जाता है। बड़े लोगों में बैठने-उठने लायक़ हो जाता है आदमी।’ ’’
‘‘बड़े को बी.ए. करवाया। छोटे का ध्यान पढ़ने-लिखने में उतना नहीं था, बड़ी मुश्किल से उसने एफ़ वाई किया। दोनों मिलकर हीरे का कारखाना चलाने लगे। अच्छे घरों में शादियाँ कीं, दोनों की। बड़े की बीवी अहमदनगर के एक कपड़ा व्यापारी की बेटी है। छोटी बहू का पिता डी.एस.पी. है, दिल्ली में।
‘‘नेहा भाभी पहले बेटों के लालन-पालन में लगी रही, फिर बहुओं के लाड़-प्यार में लग गई, और फिर पोते-पोतियों की मोह-माया में आकण्ठ डूब गई। मैं कभी जाता और उसे काम में लगी देखकर कहता, ‘अब तो दो-दो बहुएँ हैं घर में। अब तो थोड़ा-बहुत आराम किया करो भाभी।’ तो वह कहती, ‘आराम ही तो करती हूँ, काम ही क्या है मेरे पास। पर सोचती हूँ भैया, बहुएँ भी तो किसी की बेटियाँ हैं, उन्हीं को सारा दिन काम में लगाए रखूँ, यह भी तो मन नहीं मानता। जब तक ये हाथ-पाँव चलते हैं, चलने दूँ। मेरे मन की तो बहुत-सी मुरादें पूरी हो गईं। बड़ी सुखी हूँ भैया मैं तो।’ ’’
विश्वनाथ और धीरज बातों में लगे थे। विश्वनाथ की पत्नी भामा बैठक में आई तो बोली, ‘‘अरे आप लोगों की चाय तो बिलकुल पानी हो गई। ऐसी क्या बातें कि चाय पीना ही भूल गये ?’’
धीरज ने प्याला उठाया तो हाथ से प्याला लेते हुए भामा ने कहा, ‘‘रहने दीजिए भैया इसे। यह अब रह कहाँ गई है पीने लायक़। मैं दूसरी बना लाती हूँ।’’
विश्वनाथ ने पत्नी की बात जैसे सुनी ही नहीं। एक लम्बी-सी आह भर कर बोला, ‘‘नेहा भाभी सुखी तो थी, पर पता नहीं किसकी नज़र लग गई उसके सुख को। बरसों के बनाए हुए सुखों के महल अचानक ढह गए बेचारी के। देखते-ही-देखते सब कुछ बदल गया।’’
‘‘क्या हुआ ? परिवार में फिर कोई मौत ?’’ तकिये का सहारा छोड़ कर सीधा बैठते हुए धीरज बोला।
‘‘नहीं, नहीं, मौत तो नहीं, लेकिन मैं समझता हूँ कुछ हादसे शायद मौत से भी ज्यादा दुःखदायी होते हैं। लेकिन वाह री नेहा भाभी।’’
‘‘साफ़-साफ़ बताओ न यार, हुआ क्या ?’’ धीरज की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।
‘‘कुछ महीने पहले इसी सूरत क़स्बे में प्लेग की शुरुआत हुई थी....’’
‘‘हाँ, हाँ, मगर....’’
‘‘बहुत बरसों बाद देश में इस भयानक महामारी के फैलने की खबर सुनकर, थोड़ा-बहुत तो सभी लोग आतंकित हो उठे थे, लेकिन सूरत में तो ऐसा तहलका मचा कि रातों-रात सैकड़ों लोग घर-बार छोड़ कर भागने लगे। न किसी ने यह सोचा कि जहाँ-जहाँ भी वे जाएँगे, प्लेग को और फैलाएँगे, न सरकार की अपील और डॉक्टरों के अनुरोध को सुना कि अब प्लेग पर आसनी से क़ाबू पाया जा सकता है। नई-नई असरदार दवाइयों की वजह से अब यह कोई असाध्य बीमारी नहीं रह गई है। और दवाइयाँ सबको मिलेंगी, मुफ़्त मिलेंगी। घबरा कर भागिए नहीं। बस अपने आसपास सफ़ाई का ध्यान रखिए। गंदगी, न फैलाइए न फैलाने दीजिए।’’
‘‘हाँ, हाँ, वो तो जानता हूँ लेकिन...’’ धीरज का धैर्य टूट रहा था।
लेकिन विश्वनाथ अपनी ही धुन में कहता जा रहा था, ‘‘अपने मुहल्ले में आतंक और पलायन को रोकने में, मैं काफ़ी सफल रहा। तीसरे दिन मुझे नेहा भाभी और उसके परिवार का ख्याल आया। कुछ दवाइयाँ लेकर वहाँ पहुँचा तो हैरान रह गया। भाभी बिस्तर में पड़ी कराह रही थी। इधर-उधर देखा, घर खाली था, सुना। सन्नाटा। समझते देर नहीं लगी कि भाभी अकेली ही है, फिर भी पूछा था, ‘भाभी, बाक़ी लोग कहाँ हैं ?’
‘‘भाभी से तुरंत कुछ कहते नहीं बना। कई क्षणों के बाद ही कह पाई थी, ‘वो...वो...बीमारी फैली है न भैया...’
‘तो फिर ?’
‘तुम जानो...बच्चे बीमार पड़ जाते तो...मैंने ही कहा...तुम लोग चले जाओ...सो कल....’
‘बड़े फ़र्माबरदार निकले, तुमने कहा और वो चले गए, तुम्हें अकेली छोड़ कर।’
‘‘मैं बहुत ही हैरान, परेशान और दुखी हो उठा था।
‘‘नेहा बोली थी, ‘नहीं...नहीं भैया, अकेली कहाँ...वह काम वाली जमना...मेरे ही पास रहती है...अभी आती होगी।’
‘‘बस बस भाभी। समझ गया। कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है।’ कहते हुए मैंने उसका माथा छूकर देखा। बुख़ार काफ़ी था। जेब में से दवाइयाँ निकाल कर मैंने मेज़ पर रखीं। एक कैप्सुअल भाभी की हथेली पर रखते हुए कहा, ‘यह अभी ले लो।’ पानी का गिलास पास ही तिपाई पर पड़ा था। वह उठाते हुए मैंने कहा, ‘मैं डाक्टर महता को बुला कर लाता हूँ।’
‘‘नहीं...डाक्टर भैया को तो...परसों ही...बड़ा बुला लाया था।...आज सवेरे भी वो...देखकर गए हैं...’
‘‘मेरा दिया हुआ कैप्सुअल भाभी हाथ में ही लिए हुए थी। दूसरे हाथ से तकिए के नीचे टटोलते हुए, रुक-रुक कर उसने कहा, ‘आज सवेरे भी...कुछ दवाइयाँ..दे गए हैं...देखो तो भैया...यही है क्या जो...आपने दी है...एक बार सवेरे ले चुकी हूँ।’ ’’
‘‘मैंने देखते हुए कहा था, ‘हाँ है तो वही। सवेरे एक बार ले भी चुकी हो, तो अब दूसरी खुराक का वक्त भी हो गया है। ले लो भाभी।’ ’’
नेहा करवट लेकर, कोहनी के बल अधलेटी-सी हो गई। उसने कैप्सुअल मुँह में डालकर एक घूँट पानी पिया। पर इतने में ही जैसे थक गई हो। लेट गई निढाल। कुछ क्षणों के बाद बोली, ‘लड़के तो कल-परसों आ जाएँगे...जा ही नहीं रहे थे...पगले।’
‘‘मेरे मन में आया कि कह दूँ, ‘इतनी जल्दी कोई नहीं आयेगा। यह तुम भी जानती हो। फिर क्यूँ रहना चाहती हो भ्रम में ?’ पर कह नहीं पाया।
‘‘कुछ समय तक खामोशी छाई रही। शायद हम दोनों ही सोच रहे थे, सच्चाई का सामना जब आदमी नहीं कर पाता, तब इस तरह के भ्रम ही तो उसका हाथ थाम कर सहारा देते हैं।
‘‘उठते हुए मैंने कहा, ‘अच्छा भाभी चलता हूँ। शाम को भामा आ जाएगी तुम्हारे पास।’
‘नहीं, नहीं भैया...तुम लोगों का भी तो...अपना परिवार है...भामा दीदी को मत भेजना जमना तो है...मेरे पास...यहीं रहती है..लो वो आ गई।’
‘ठीक है। तुमने भी दवाई ली जमना ?’
‘‘जवाब भाभी ने दिया था, ‘हाँ भैया...दी है इसे भी।’
‘‘मैंने कहा, ‘मैं कल फिर आऊँगा। बस तुम घबराना नहीं भाभी, अकेली भी मत समझना अपने आप को। हम हैं न।’
‘‘नेहा का गला भर आया था। उसकी आँखें डबडबा आईं। उसने चुपचाप हाथ जोड़ दिए।’’
विश्वनाथ जो अभी तक चुपचाप धीरज की बातें सुन रहा था, चाय की एक चुस्की लेकर प्याला रखते हुए बोला, ‘‘अब तो यह कहावत भी पुरानी पड़ गयी दोस्त। मित्र ही नहीं, कोई भी रिश्ता, कोई भी सम्बन्ध ऐसा नहीं बचा, जिसे एक ठोस आधार समझ कर उसका सहारा लिया जा सके, उस पर भरोसा किया जा सके। जहाँ ज़रा-सा स्वार्थ सामने आया, सारे रिश्तों की चूलें चरमरा उठती हैं, कोमल भावनाएँ और अपनापन दम तोड़ने लगता है और आजकल के पारिवारिक सम्बन्धों का खोखलापन खुले आम उजागर हो जाता है।’’
‘‘परिवारिक सम्बन्धों का व्यक्तिगत अनुभव मुझे है ही कहाँ विश्वा। मैंने तो जब से होश सँभाला, अकेला ही पाया है अपने आप को। यतीम जो था। बड़ा होकर भी अपना कोई कुनबा नहीं जोड़ा। पहले ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई थी। घर बसाने की सोची तो पता लगा उम्र निकल गई है। कनपटियों पर आये सफ़ेद बालों को देखकर जवान लड़कियाँ अंकल कहने लगी हैं।’’
धीरज ने हँसने की कोशिश की, लेकिन फिर तुरन्त ही संजीदा होकर बोला, ‘‘सारे रिश्तों को मैंने तो दोस्तों की मार्फ़त ही जाना था, उन्हीं के घरों में। दादी, नानी, माँ-बाप, भाई-बहन, देवर-भाभी, सब।’’
‘‘नेहा भाभी को जानते हो ?’’
‘‘उदयपुर वाले आत्माराम की बेवा न ?’’
‘‘हाँ, हाँ वही।’’
‘‘आत्मा से तो मेरी अच्छी दोस्ती थी। जब से मैंने अपना कारोबार अहमदाबाद में फैला लिया, सूरत आना-जाना बहुत कम हो गया है। कैसे हैं वे लोग ? सुना है, अच्छा काम जमा लिया है उसके बेटों ने।’’
‘‘हाँ, काम तो अच्छा ही है पर....।’’
‘‘पर क्या ?’’
‘‘तुम रिश्तों की बात कर रहे थे न। मुझे नेहा भाभी की याद आ गई। बड़ी जीवट वाली औरत है। तुम शायद नहीं जानते कि आत्माराम दरअसल सूरत में आया था, मेरी ही वजह से। वह उदयपुर से भाग आया, बम्बई जा रहा था काम-धन्धे की तलाश में। गाड़ी में मुझसे मुलाक़ात हो गई। मैं उन दिनों एक कपड़ा मिल में काम करता था, सूरत में। मैंने ही पूछा था, ‘बम्बई में कोई जान-पहचान है ?’ ’’
‘‘सहमा-सहमा-सा वह बोला था, ‘नहीं।’’
‘‘ ‘तो तुम्हारे लिए जैसी बम्बई, वैसा सूरत। सूरत में तो कपड़ा मिल में काम तुम्हें मैं दिलवा दूँगा।’’
‘‘सूरत स्टेशन पर वह मेरे साथ ही उतर पड़ा था। रहा भी काफ़ी दिनों तक मेरे साथ ही। पढ़ा-लिखा होने के कारण मिल मालिक ने उसे दफ़्तर में नौकरी दे दी थी। उसी दफ़्दर में नेहा काम करती थी। जान-पहचान हुई। कुछ अर्से के बाद शादी हो गई।
‘‘आत्माराम काम ज़रूर कपड़ा मिल में करता था, लेकिन हीरों की चमक-दमक उसे हमेशा आकर्षित करती रही। वह हमेशा हीरों का व्यापारी बनने के सपने देखा करता था। आखिरकार उसने मिल का काम छोड़कर, एक हीरा व्यापारी के यहाँ नौकरी कर ली। वहीं हीरे तराशने का काम सीखा, और कुछ वर्षों बाद पति-पत्नी दोनों घर पर ही हीरे तराशने का काम करने लगे। नेहा भी हिम्मत और हौसले में आत्माराम से चार कदम आगे ही थी। दोनों ने स्वतन्त्र रूप से अपना व्यवसाय जमा लिया। लेकिन दुर्भाग्य से, उनका साथ सिर्फ़ आठ साल रहा।....’’
...‘‘ आत्मा काम के ही सिलसिले में बम्बई गया था। वहाँ रेल लाइन क्रॉस करते समय लोकल गाड़ी की चपेट में आ गया। तीसरे दिन खबर मिली तो मैं ही गया था नेहा भाभी के साथ। लाश इतनी ख़राब हालत में थी कि नेहा ने कपड़ों और अँगूठी को देखकर ही उसे पहचाना।’’
‘‘तब तक नेहा दो बेटों की माँ बन चुकी थी। छोटा संजय तीन साल का, और बड़ा सुधीर पाँच का था। इतने बड़े सदमें के बाद भी वह पति का तेरहवाँ होते ही आँसू पोंछ कर इस तरह खड़ी हो गई जैसे बहुत ही साधारण-सी घटना घटी हो। बोली थी, ‘आप चिन्ता न कीजिए भैया, मैं हौसला नहीं हारूँगी। अब तो मेरी ज़िम्मेदारी बहुत बढ़ गई है। माँ भी मैं हूँ, बाप भी मैं ही। मुझे कमाना भी है, घर भी चलाना है। बच्चों को पढ़ाना-लिखाना है, और आपके दोस्त का देखा हुआ सपना भी साकार करना है। उनकी बड़ी इच्छा थी कि चाहे छोटा-सा ही हो, उनका अपना धन्धा हो, अपना मकान हो। मैं उनका शुरू किया हुआ काम बन्द नहीं होने दूँगी। उनकी बड़ी चाह थी कि जिन रिश्तेदारों ने उन्हें निखट्टू समझ कर गाँव से दुत्कार दिया था, वो उन्हीं रिश्तेदारों के लिए, उसी गाँव में, अपनी कमाई से कुआँ खुदवाएँ, धर्मशाला बनवाएँ और स्कूल खुलवाएँ। उनके वे सारे सपने तो शायद मैं कभी पूरे नहीं कर सकूँगी, पर हो सकता है उनके ये बेटे उन्हें साकार कर दें। इन्हें पढ़ा-लिखा कर किसी काम में लगा सकूँ तो मैं समझूँगी मैंने कुछ तो अपना फ़र्ज़ निभाया।’ ’’
‘‘और नेहा भाभी ने अपना फ़र्ज़ निभाने में सचमुच अपनी जान लड़ा दी। अपनी सारी जवानी, अपनी सारी ज़िन्दगी न्यौछावर कर दी बेटों की सुख-सुविधा के लिए। एक तपस्विनी का सा जीवन भोगा है उस औरत ने। एक बार मैंने कहा भी था, ‘बेटों को अगर धन्धे में ही लगाना है तो क्या फ़ायदा कॉलेज पढ़ाने का ?’ पर उसने कहा था, ‘इनके पिता की इच्छा थी, और मैं भी समझती हूँ, कि काम कोई भी करें, पढ़े-लिखे हों तो काम का शऊर आ जाता है। बड़े लोगों में बैठने-उठने लायक़ हो जाता है आदमी।’ ’’
‘‘बड़े को बी.ए. करवाया। छोटे का ध्यान पढ़ने-लिखने में उतना नहीं था, बड़ी मुश्किल से उसने एफ़ वाई किया। दोनों मिलकर हीरे का कारखाना चलाने लगे। अच्छे घरों में शादियाँ कीं, दोनों की। बड़े की बीवी अहमदनगर के एक कपड़ा व्यापारी की बेटी है। छोटी बहू का पिता डी.एस.पी. है, दिल्ली में।
‘‘नेहा भाभी पहले बेटों के लालन-पालन में लगी रही, फिर बहुओं के लाड़-प्यार में लग गई, और फिर पोते-पोतियों की मोह-माया में आकण्ठ डूब गई। मैं कभी जाता और उसे काम में लगी देखकर कहता, ‘अब तो दो-दो बहुएँ हैं घर में। अब तो थोड़ा-बहुत आराम किया करो भाभी।’ तो वह कहती, ‘आराम ही तो करती हूँ, काम ही क्या है मेरे पास। पर सोचती हूँ भैया, बहुएँ भी तो किसी की बेटियाँ हैं, उन्हीं को सारा दिन काम में लगाए रखूँ, यह भी तो मन नहीं मानता। जब तक ये हाथ-पाँव चलते हैं, चलने दूँ। मेरे मन की तो बहुत-सी मुरादें पूरी हो गईं। बड़ी सुखी हूँ भैया मैं तो।’ ’’
विश्वनाथ और धीरज बातों में लगे थे। विश्वनाथ की पत्नी भामा बैठक में आई तो बोली, ‘‘अरे आप लोगों की चाय तो बिलकुल पानी हो गई। ऐसी क्या बातें कि चाय पीना ही भूल गये ?’’
धीरज ने प्याला उठाया तो हाथ से प्याला लेते हुए भामा ने कहा, ‘‘रहने दीजिए भैया इसे। यह अब रह कहाँ गई है पीने लायक़। मैं दूसरी बना लाती हूँ।’’
विश्वनाथ ने पत्नी की बात जैसे सुनी ही नहीं। एक लम्बी-सी आह भर कर बोला, ‘‘नेहा भाभी सुखी तो थी, पर पता नहीं किसकी नज़र लग गई उसके सुख को। बरसों के बनाए हुए सुखों के महल अचानक ढह गए बेचारी के। देखते-ही-देखते सब कुछ बदल गया।’’
‘‘क्या हुआ ? परिवार में फिर कोई मौत ?’’ तकिये का सहारा छोड़ कर सीधा बैठते हुए धीरज बोला।
‘‘नहीं, नहीं, मौत तो नहीं, लेकिन मैं समझता हूँ कुछ हादसे शायद मौत से भी ज्यादा दुःखदायी होते हैं। लेकिन वाह री नेहा भाभी।’’
‘‘साफ़-साफ़ बताओ न यार, हुआ क्या ?’’ धीरज की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।
‘‘कुछ महीने पहले इसी सूरत क़स्बे में प्लेग की शुरुआत हुई थी....’’
‘‘हाँ, हाँ, मगर....’’
‘‘बहुत बरसों बाद देश में इस भयानक महामारी के फैलने की खबर सुनकर, थोड़ा-बहुत तो सभी लोग आतंकित हो उठे थे, लेकिन सूरत में तो ऐसा तहलका मचा कि रातों-रात सैकड़ों लोग घर-बार छोड़ कर भागने लगे। न किसी ने यह सोचा कि जहाँ-जहाँ भी वे जाएँगे, प्लेग को और फैलाएँगे, न सरकार की अपील और डॉक्टरों के अनुरोध को सुना कि अब प्लेग पर आसनी से क़ाबू पाया जा सकता है। नई-नई असरदार दवाइयों की वजह से अब यह कोई असाध्य बीमारी नहीं रह गई है। और दवाइयाँ सबको मिलेंगी, मुफ़्त मिलेंगी। घबरा कर भागिए नहीं। बस अपने आसपास सफ़ाई का ध्यान रखिए। गंदगी, न फैलाइए न फैलाने दीजिए।’’
‘‘हाँ, हाँ, वो तो जानता हूँ लेकिन...’’ धीरज का धैर्य टूट रहा था।
लेकिन विश्वनाथ अपनी ही धुन में कहता जा रहा था, ‘‘अपने मुहल्ले में आतंक और पलायन को रोकने में, मैं काफ़ी सफल रहा। तीसरे दिन मुझे नेहा भाभी और उसके परिवार का ख्याल आया। कुछ दवाइयाँ लेकर वहाँ पहुँचा तो हैरान रह गया। भाभी बिस्तर में पड़ी कराह रही थी। इधर-उधर देखा, घर खाली था, सुना। सन्नाटा। समझते देर नहीं लगी कि भाभी अकेली ही है, फिर भी पूछा था, ‘भाभी, बाक़ी लोग कहाँ हैं ?’
‘‘भाभी से तुरंत कुछ कहते नहीं बना। कई क्षणों के बाद ही कह पाई थी, ‘वो...वो...बीमारी फैली है न भैया...’
‘तो फिर ?’
‘तुम जानो...बच्चे बीमार पड़ जाते तो...मैंने ही कहा...तुम लोग चले जाओ...सो कल....’
‘बड़े फ़र्माबरदार निकले, तुमने कहा और वो चले गए, तुम्हें अकेली छोड़ कर।’
‘‘मैं बहुत ही हैरान, परेशान और दुखी हो उठा था।
‘‘नेहा बोली थी, ‘नहीं...नहीं भैया, अकेली कहाँ...वह काम वाली जमना...मेरे ही पास रहती है...अभी आती होगी।’
‘‘बस बस भाभी। समझ गया। कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है।’ कहते हुए मैंने उसका माथा छूकर देखा। बुख़ार काफ़ी था। जेब में से दवाइयाँ निकाल कर मैंने मेज़ पर रखीं। एक कैप्सुअल भाभी की हथेली पर रखते हुए कहा, ‘यह अभी ले लो।’ पानी का गिलास पास ही तिपाई पर पड़ा था। वह उठाते हुए मैंने कहा, ‘मैं डाक्टर महता को बुला कर लाता हूँ।’
‘‘नहीं...डाक्टर भैया को तो...परसों ही...बड़ा बुला लाया था।...आज सवेरे भी वो...देखकर गए हैं...’
‘‘मेरा दिया हुआ कैप्सुअल भाभी हाथ में ही लिए हुए थी। दूसरे हाथ से तकिए के नीचे टटोलते हुए, रुक-रुक कर उसने कहा, ‘आज सवेरे भी...कुछ दवाइयाँ..दे गए हैं...देखो तो भैया...यही है क्या जो...आपने दी है...एक बार सवेरे ले चुकी हूँ।’ ’’
‘‘मैंने देखते हुए कहा था, ‘हाँ है तो वही। सवेरे एक बार ले भी चुकी हो, तो अब दूसरी खुराक का वक्त भी हो गया है। ले लो भाभी।’ ’’
नेहा करवट लेकर, कोहनी के बल अधलेटी-सी हो गई। उसने कैप्सुअल मुँह में डालकर एक घूँट पानी पिया। पर इतने में ही जैसे थक गई हो। लेट गई निढाल। कुछ क्षणों के बाद बोली, ‘लड़के तो कल-परसों आ जाएँगे...जा ही नहीं रहे थे...पगले।’
‘‘मेरे मन में आया कि कह दूँ, ‘इतनी जल्दी कोई नहीं आयेगा। यह तुम भी जानती हो। फिर क्यूँ रहना चाहती हो भ्रम में ?’ पर कह नहीं पाया।
‘‘कुछ समय तक खामोशी छाई रही। शायद हम दोनों ही सोच रहे थे, सच्चाई का सामना जब आदमी नहीं कर पाता, तब इस तरह के भ्रम ही तो उसका हाथ थाम कर सहारा देते हैं।
‘‘उठते हुए मैंने कहा, ‘अच्छा भाभी चलता हूँ। शाम को भामा आ जाएगी तुम्हारे पास।’
‘नहीं, नहीं भैया...तुम लोगों का भी तो...अपना परिवार है...भामा दीदी को मत भेजना जमना तो है...मेरे पास...यहीं रहती है..लो वो आ गई।’
‘ठीक है। तुमने भी दवाई ली जमना ?’
‘‘जवाब भाभी ने दिया था, ‘हाँ भैया...दी है इसे भी।’
‘‘मैंने कहा, ‘मैं कल फिर आऊँगा। बस तुम घबराना नहीं भाभी, अकेली भी मत समझना अपने आप को। हम हैं न।’
‘‘नेहा का गला भर आया था। उसकी आँखें डबडबा आईं। उसने चुपचाप हाथ जोड़ दिए।’’
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book