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दरारों के बीच

से. रा. यात्री

प्रकाशक : एम. एन. पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4005
आईएसबीएन :81-7900-047-8

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एक संघर्षशील युवक की कथा....

dararon ke beech

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


दरारों के बीच से. रा. यात्री का नवीनतम उपन्यास है। भूमण्डलीय बदलते परिवेश में हमारे समाज के सभी महान मूल्य स्खलित हो रहे हैं। हमारी परम्पराएँ ही नहीं टूट रही हैं वरन् उनसे जुड़े परम्परागत आर्थिक आधार भी चरमरा उठे हैं। दरारों के बीच एक ऐसे क्षरणशील परिवार की कथा है जिसमें नई पीढ़ी को कहीं ठहराव नहीं मिल रहा है। पुरोहितों का पुश्तैनी धन्धा करने वालों के बच्चे इस कर्मकाण्ड के प्रति विमुख होकर उसे ग्रहण नहीं करना चाहते। उधर उनके सामने कोई ऐसे सम्भावनाशील विकल्प नहीं हैं जहाँ विस्तार की गुंजाइश हो।
से. रा. यात्री ने दरारों के बीच एक संघर्षशील युवक की कथा को केन्द्र में रखकर गहरे मर्म से भाषित अभिव्यक्त की है।

दरारों के बीच


खंदक में पुराने चलन की कोठरियों, दालानों और तंग से सहन वाला कोई डेढ़ सौ साल पुराना तो होगा ही वह मकान। यह घर एक ऐसे मोहल्ले में बसा हुआ था, जहाँ एक तरफ तो लम्बे-चौड़े रकबे में फैली पुराने वक्तों के रईसों की किलेनुमा हवेलियाँ थीं तो दूसरी तरफ कमजोर तबके के लोगों के कच्चे-पुराने पुश्तैनी घरौंदे थे। इन दोनों तरह के बाशिन्दों को देखकर सहज ही यह आभास हो जाता था कि एक ओर भाग्यवान और ऐश्वर्य का भोग करने वाले बसते हैं तो दूसरी ओर उनकी सेवा और चाकरी करने वाले गरीब-गुरबा। हमेशा से यही कहानी चली आ रही है कि एक तरफ उत्पादक दास हैं तो दूसरी ओर भोग में आकंठ डूबा भोगी समाज। मेरे घर के चारों ओर के घरौंदों में सड़क छाप दुकानदार दफ्तरों के हम्माल, चपरासी, फेरी वाले महाब्राह्मण जिन्हें, आचारज या आचार्य कहकर पुकारा जाता था। यह मुर्दघाट में मुर्दों के शव ठिकाने लगाने के क्रम में भ्रष्ट संस्कृत का आधा अधूरा मंत्र पढ़ना सीख लेते थे और पीढ़ी-दर पीढ़ी उसी के सहारे अपना धन्धा चलाते चले आते थे। इन्हीं की एक और श्रेणी थी जो घरों में आए दिन होने वाले धार्मिक, अनुष्ठानों में पंडिताई करके अपना पेट पालते थे। गली के नुक्कड़ पर तीस चालीस घर खटीकों के थे। ये बस्ती में इक्के ताँगे चलाकर अपनी गुजर-बसर करते थे। मेरे घर की गली एकदम सँकरी और वर्तुलाकार थी। उसकी सर्पीली डगर पर टलते हुए भूल भुलैयों में भटकने का डर बना रहता था। आगे जाकर जो कोठियाँ और हवेलियाँ थीं उनके भीतर कितनी फैली और खुली हुई जगह होती थी-बाहर गली से गुजरने वाले को उसका एकाएक अनुमान नहीं हो सकता था। इन इमारतों के भीतर के रहस्य को गली के कदीमी बाशिन्दे ही जानते-समझते थे। यह भवन भीतर-ही-भीतर सुरसा के मुँह की तरह अनाप-शनाप फैले हुए थे।
किले जैसी ऊँची-ऊँची दीवारों और उनकी मोटाई का क्या कहना ! बारजों और लकड़ी के लम्बे-चौड़े फाटकों को देखकर लगता था जैसे किसी महल या किले के सामने से गुजर रहे हों। फाटकों पर लोहे की लम्बी-लम्बी कीलें ठुकी हुई दीखती थीं तो पीतल और दूसरी धातुओं से की गई तरह-तरह की पच्चीकारी भी अपनी ओर ध्यान आकर्षित करती थी।

यह शान बघारती छोटी छोटी गढ़ियाँ लोगों के मन में पुरातन के प्रति एक ललक जगाती थी और इनके सामने से गुजरने वाले साधारण लोग इनके भीतर रहने वालों के प्रति विनम्रता के भाव से बिछ-से जाते थे। उन्हें यह सारा कुछ बहुत अलौकिक लगता था क्योंकि इसका निर्माण सर्व शक्तिमान ईश्वर की इच्छा से सम्पन्न हुआ माना जाता था। इन आरामदेह आवासों में जौहरी सर्राफ, कई कई गाँवों की मिल्कियत वाले जमींदार रावसाहब कुँवर साहेबान और शान से जीने वाले जागीरदार निवास करते थे। इसके अलावा इन ऊँचे खानदानी लोगों को भरपूर धन मुहैया कराने वाले खानदानी खत्री और मोटे सूद पर ऋण देने वाले महाजन भी ऐसी ही लम्बी-चौड़ी शानदार हवेलियों में निवास करते थे।

अधिकांश आवासों में लम्बे-चौड़े दीवानखाने थे जहाँ शाम होते ही मजलिसे गुलजार होने लगती थीं, पता नहीं कहाँ-कहाँ से गाने-बजाने वाले कलावन्त और अप्सरा जैसी नवोढ़ा नर्तकियाँ आ जुटती थीं। साधारण जन के लिए राव-रईसों की यह दिलजोई सहज स्वाभाविक दिनचर्या का हिस्सा मानी जाती थी और इसे वह हमेशा से स्वीकार करते चले आ रहे थे।
इन अलौकिक से दिखाई पड़ने वाले ब्यौरों से आप यह न सोचें कि मैं इन सम्पन्न लोगों की कोई कटु आलोचना करने जा रहा हूँ उन्हें किसी कठघरे में खड़ा करने वाला हूँ। मैंने जब से होश सँभाला था अपने चारों ओर के परिवेश को जैसा देखा-जाना था उसका वैसा ही यथा तथ्य स्वरूप आपके सामने रख रहा हूँ। इन भव्य भवनों में रहने वाले चाहे कितने भी अलग ढंग से और सम्पन्न दिखलाई पड़ते थे पर उन्हें अपने आस-पास की जिन्दगी की धड़कनों का राई-रत्ती पता रहता था। वह धनवान और हर प्रकार से सामर्थ्यवान और शक्तिसम्पन्न श्रीमन्त थे। वह दर्शनीय तो होते ही थे मगर साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि वह झूठी शान और चमक दमक के पीछे भागने वाले बदहवास लोग नहीं थे। मोहल्ले पड़ोस की जिन्दगी से उनके सरोकार गहरे जुड़े रहते थे। आस पास की हारी बीमारी और गम तथा खुशियाँ वह भीतर तक महसूस करते थे। शादी विवाह किसी भी राव राजा अथवा रंक के घर में हो पड़ोसीपन का भरपूर निर्वाह किया जाता था।

मैंने जब से होश सँभाला या कहिए इस दुनिया को थोड़ा-सा समझने योग्य हुआ तभी से कई स्तरों पर बँटी हुई दुनिया को देखकर चकित हो जाता था। वहाँ कई तहों की जिन्दगी एक साथ चल रही थी मगर फिर भी उसमें जुड़ने का सहज बोध था। थोपा हुआ अलगाव अथवा तटस्थता वहाँ नाम को भी नहीं थी।
बहुत छोटी आयु का होते हुए भी मैंने अपने घर का सबसे बड़ा बच्चा था। यह वह दिन थे जब सबसे बड़ा बच्चा छह या सात वर्ष का होता था। और उससे छोटे उसके कई भाई-बहन भी उसी घर में होते थे।

मैंने घर में सबसे अधिक कहिए पकी उम्र वाले जिस बूढ़े को देखा वह मेरे पितामह थे। यह दादाजी तब तक अन्धे हो चुके थे। पर वह उस घर में लम्बे समय तक रहे थे। उनके घर-भर में कहीं भी आने-जाने पर कोई रोक टोक नहीं थी। पर वह प्रायः गली से जुड़ी एक छोटी सी बैठक में ही रहते थे। इस बैठक का एक दरवाजा सहन में तो दूसरा गली में खुलता था। इसी प्रकार सहन का एक दरवाजा गली में खुलता था।

मेरे यह काफी बूढ़े दादाजी विवशता के भाव से पराश्रित होकर एक विकलांग का जीवन नहीं जीते थे। उनके चलने फिरने को देखकर कोई भी एकाएक यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि वह अपनी दोनों आँखों की रोशनी गँवाकर निपट अन्धे हो चुके हैं। इस जमाने में तो आँखों की पूरी रोशनी जाने से पहले ही ज्यादातर लोग आँखों का ऑपरेशन करा लेते हैं और उनकी नजर भी अक्सर वापस आ जाती है पर तब तक साधारण लोगों की नजर चली जाती थी। फिर वह शेष जीवन बिना बिनाई के ही काँट देते थे। इसी प्रकार दाँत झड़ जाने के बाद ज्यादातर पोपले ही रह जाते थे। मुँह में डेन्चर तो बहुत थोड़े-से और वह भी अच्छे मध्यवित्त या राव रईस लोग ही लगवा पाते थे। अंग-भंग हो जाना, दाँत झड़ जाना या अन्धे हो जाना एक सहज नियति की तरह स्वीकार कर लिया जाता था।

मेरे बाबाजी या पितामह को मोहल्ले पड़ोस के लोग ‘बब्बाजी’ अथवा ‘प्रोतजी’ कहकर सम्बोधित करते थे। साधारण बोलचाल में पुरोहित का कर्म करने वाले या पूजा पाठी ब्राह्मण को प्रोतजी कहा जाता था। वह पुश्तैनी पेशे से जुड़े रहने वाले लोगों की बस्ती थी। वही क्या सारे देश की ही ऐसी स्थिति थी। कुम्हार का बेटा कुम्हार तो पटवारी का बेटा पटवारी। यही हालत रेलवे और पुलिस तथा दूसरे महकमों की थी। पीढ़ी-दर पीढ़ी लोग अपने परम्परागत धन्धे या चाकरी से जुड़े चले आते थे। उसमें उन्हें सहजता और सुरक्षा का अहसास होता था। हमारे घर में भी कई पीढ़ियों से यह पूजा पाठ वाला सिलसिला चला आ रहा था। सो बाबाजी भी किशोरावस्था से इसी धन्धे में दीक्षित हो गए थे। जाहिर है मेरे पड़बाबा भी सारे जीवन इसी (अगर इसे व्यवसाय कहा जा सके तो) धंधे में रहे थे।

बाबा अपने जमाने के सरनाम पुरोहितों में से एक थे। उन्हें संस्कृत का अच्छा ज्ञान था। वह पूरे आठ-दस वर्ष तक एक गुरुकुल में रहकर वेदपाठी बटुक की स्थिति में रहे थे। पाँच छह साल की उम्र में उन्हें नगर से दूर एक गुरुकुल में डाल दिया गया था। वहाँ से आते ही उनका विवाह कर दिया गया और पौरोहित्य कर्म की बागडोर भी उनके किशोर हाथों में थमा दी गई थी।

मेरे बाबाजी को मैंने उनकी जिस आयु में देखा था वह उनके वानप्रस्थ की सीमा को भी पार कर रही थी मगर उनकी देह तब भी अच्छी भारी थी। वृद्धावस्था के कारण हर अंग-प्रत्यंग की खाल लटक गई थी। चेहरे पर भी सघन झुर्रियों का जाल फैल चुका था पर उनका ललाट खूब प्रशस्त था। घनी सफेद बरौनियाँ, धौली चिट्टी सघन दाढ़ी और खूब फैली हुई मूछें उनके चेहरे को अनोखी दिव्यता प्रदान करती थीं। आँखों में दृष्टि विहीनता के कारण राख की-सी सफेदी नजर आती थी। वह बदन पर धोती के अतिरिक्त और कोई वस्त्र धारण नहीं करते थे। आधी धोती उनके अधोभाग में लिपटी रहती थी और आधी को वह चादर की तरह शरीर के ऊर्ध्वभाग पर डाले रहते थे। होली से लेकर दशहरे तक उनके शरीर पर यही एक धोती बनी रहती थी। जनेऊ को वह हर सप्ताह बदल देते थे। हम बच्चों की समझ में यह बात कभी नहीं आती थी कि वह उस मोटे धागे को कन्धे से लेकर पेट तक क्यों डाले रहते थे।

अपनी पितामही की मुझे कोई याद नहीं है। मुझे बताया गया था कि मेरे जन्म होने तक वह जीवित थी। चूँकि उस दौर में साधारण लोगों की तस्वीरें नहीं खींची जाती थीं (हालाँकि नगरों में फोटो खींचने की मशीनें आ चुकी थीं।) इसलिए हमारे घर में उनकी या बाबाजी की कोई तस्वीर नहीं थी।
अब तो मैं देखता हूँ कि बहुत सी स्त्रियों के पति उनसे पहले ही दिवगंत हो जाते हैं मगर उन दिनों औरतें प्रायः पति से पहले ही प्रस्थान कर जाती थीं। इतने पर भी देखा यही जाता था कि विधवाओं की संख्या कहीं अधिक होती थी क्योंकि बचपन में विवाह होने के कारण लड़के अकाल मौत मर जाते थे और उन विधवा बालिकाओं का पुनर्विवाह होने की कोई परम्परा नहीं थी। हर घर में सामान्यता एक अथवा दो विधवाएँ जरूर होती थीं।

मेरे बाबा और पड़बाबा दोनों की ही समाज में जबरदस्त प्रतिष्ठा थी। उनके यजमानों में सेठ, साहूकार और नगर के प्रतिष्ठित नागरिकों के अलावा आला अफसरों की संख्या भी कुछ कम नहीं होती थी। जिस मकान में हम लोग रहते थे वह मेरे पड़बाबा धाँधू वशिष्ट को पत्थर वाले रईसों ने अपने पिताश्री के श्राद्ध कर्म में पुरोहिताई करने की एवज दक्षिणा स्वरूप दान दिया था।

पड़बाबा को देखने का तो कोई सवाल ही नहीं था पर जिन लोगों ने उन्हें देखा था उनका कहना था कि उनकी आवाज इतनी बुलन्द थी कि जब वह ध्रुपद धमार गाते थे तो दूर दूर तक उसकी धमक सुनाई पड़ती थी। मेरे बाबा को विरासत में उनकी आवाज की उतनी बुलन्दी चाहे न मिली हो मगर उसमें मिठास की मात्रा भरपूर थी। रात को हम उनके गाए हुए भजन सुनते थे तो वह लोरियों का काम करते थे।

जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ उनकी बैठक गली से लगी हुई थी। उसमें एक लम्बा-चौड़ा मजबूत काठ का तख्त पड़ा रहता था। उस तख्त पर रजाई, गद्दा, मोटे गोल तकिए मौजूद रहते थे। चैत-बैसाख के शुरू होते ही उनके रजाई, गद्दे कम्बल वगैरह मोटी चादर या दुतई के नीचे चले जाते थे और दीवाली बीतते ही वह पुनः नीचे से निकलकर ऊपर आ जाते थे। कहने का आशय यह है कि उनके सभी मौसमों के बिस्तर तख्त पर स्थाई रूप से विद्यमान रहते थे। जाड़ों में वह रुई वाली मिर्जई अथवा रुई की बंडी पहनते थे। कभी तंग मोहरी का पाजामा और कभी रुई भरा सूथन भी पहन लेते थे। उनके बिस्तर और रुई भरे कपड़ों को मेरी माँ यदा कदा सहन में खाट पर फैलाकर सुखाती रहती थी जिससे कि उनमें खटमल या जू न पड़ जाएँ।

एक अन्धा आदमी बेबस होकर पराश्रित हो जाता है क्योंकि वह कमाने-धमाने के मतलब का रहता नहीं है। वह एक तरह से अपरिहार्य बोझ खयाल किया जाने लगता है और उसे घर के किसी उपेक्षित कोने में फालतू सामान की तरह पटक दिया जाता है। पर मेरे बाबा पं. छेदा लाल वशिष्ट की स्थिति एकदम अलग थी। अपनी सभी नियमित क्रियाओं में वह पूर्णतया आत्मनिर्भर थे। हम बच्चों तथा पास पड़ोस के लोगों की आँखें भिनसारे उनकी ‘जागिये रघुराज कुँवर बन पंछी-बोले’ की माधुर्व मंडित स्वर लहरी से ही खुलती थी। उनकी वाणी की खरज सारे वातावरण में गमक उठती थी। घनघोर बुढ़ा़पे के बावजूद उनकी आवाज में वार्धक्य की थकन कतई नहीं थी बल्कि स्वर में मिठास और करुणा का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण था कि श्रोता के मन में गहरी पवित्रता और सात्तिवकता की भावना जगा देता था। भक्ति में जो एक सहज समर्पण का भाव निहित होता है वह उनके व्यक्तित्व में कूट-कूटकर भरा हुआ था।

‘जागिये रघुराज कुँवर बन पंछी बोले’ की आर्त्त पुकार जहाँ मन में श्रद्धा का भाव उत्पन्न कर देती थी, वहीं साथ में जगार का सन्देश भी प्रसारित करने वाली सिद्ध होती थी। संगीत की लहरियों के रुकते न रुकते गली में प्रातःकालीन जगार और चहल-पहल का सिलसिला आरम्भ हो जाता था।

बाबा की दिनचर्या का सम्बन्ध, एक अनाम घड़ी से जुड़ा हुआ था। आँखों की बिनाई खोने से पहले तो वह घर में कभी शौचालय जाते ही नहीं थे। भगवत नाम का स्मरण करते-करते मुँह अँधेरे जंगल की दिशा में निकल जाते थे। हालाँकि नगर तो बड़ा ही था और उसे कमिश्नरी का दर्जा प्राप्त था पर भीड़-भाड़ उतनी नहीं थी। इसी कारण जंगल और बाग बगीचे भी शहर से कहीं दूर नहीं थे। नगर का परकोटा पार करते ही दूर-दूर तक खेत फैले हुए थे। सैकड़ों घने बागों और बगीचियों ने शहर को चारों तरफ से आवृत्त कर लिया था।

उस जमाने में जहाँ जहाँ बाग बगीचे और वाटिकाएँ थीं-उन सबमें चूने की पक्की जगत वाले कुएँ जरूर होते थे-कहीं साधारण तो कहीं घिर्री वाले। साथ ही खेतों की सिंचाई के लिए रहट वाले कुओं का जाल भी फैला हुआ नजर आता था। शिवालयों और देवालयों की संख्या भी बाग-बगीचियों में सैकड़ों की संख्या में होगी।

नगर के अधिकांश पुरुष और बच्चे अलस्सुबह घर छोड़कर दिशा मैदान के लिए जंगल में ही जाते थे इसलिए बाग बगीचों के कुओं की जगत पर पीतल के बीसियों गोल लोटे पड़े नजर आते थे। इन बाग बगीचियों में अखाड़े भी होते थे। जहाँ सुबह ही सुबह अखाड़ों में जवान लड़के दंड बैठकें करते या कुश्ती लड़ते भी दिखाई पड़ जाते थे। कुश्ती लड़ना एक आम फहम व्यायाम था। इसमें धर्म अथवा सम्प्रदाय का कोई दखल नहीं होता था। खलीफा, उस्ताद गुरु बिना किसी ऊँच-नीच के भेद भाव के अपने शिष्यों को उत्साहित कर करके दाँव पेंच सिखाते थे तथा कुश्ती लड़ाने में गहरी दिलचस्पी लेते थे। हिन्दू मुसलमानों के तीज त्योहारों पर गदा पटका का चमत्कार दिखाते युवा सबका दिल मोह लेते थे। कभी कभी उन नौजवानों के कारनामे दिल दहलाने वाले होते थे। मुहर्रम पर ताजियों की झाकियाँ तथा रामलीला की विविध लीलाएँ बैल ठेलों पर निकाली जाती थीं। इन प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वाले बहुत मामूली श्रेणी के लड़के होते थे जो शहर के रुई के कारखाने में मेहनत मजदूरी करके पेट पालते थे अथवा अनाज की मंडी में पल्लेदारी का काम करते थे। मजबूत कलाई और पट्टे वाले अनाज तौलने का काम सरंजाम देते थे।

इन अनाज तौलने वाले तोलाओं और पल्लेदारों को देखकर चकित रह जाना पड़ता था। पल्लेदार पूरे ढाई मन की बोरी बिना किसी की सहायता के किस अद्भुत कौशल से अपनी पीठ पर लादकर बैलगाड़ियों से उतार-चढ़ा लेते थे यह अपनी आँखों से देखे बिना विश्वास करना मुश्किल है।

नरजा (तराजू) और पंसेरी लेकर तोला जब अनाज के पहाड़ को तौलने बैठ जाता था तो वह फिर पूरा अनाज तौले बिना सिर इधर से उधर भी नहीं घुमाता था। एक ही आसन में उकड़ूँ बैठकर वह कई-कई बैलगाड़ियों पर लादकर लाया हुआ अनाज अथवा दूसरी चीजें तौल डालता था। यही नहीं तौलने वाले की तुरत बुद्धि और याददाश्त इतनी खरी होती थी कि वह सैकडों मन अनाज तथा अन्य तिलहनों का हिसाब मुँह जुबानी बतला देता था। उस जमाने में आजकल की तरह न तो काँटों की और न धर्मकाटों की जरूरत महसूस की जाती थी। यही नहीं तब तक हिसाब लगाने के लिए केलकुलेटर की कल्पना भी किसी के दिमाग में नहीं थी। चुटकी बजाते हजारों लाखों का तखमीलाना लगा लिया जाता था।

राग रंग, हास परिहास और बोली ठोली जनजीवन में गहराई तक बसी हुई थी। तब भी बजरंग दल और महावीर दल के अन्तर्गत युवक शहर की जिन्दगी में तथा मेलों-ठेलों में सामाजिक कार्यों में सम्मिलित होते थे और लोगों की तरह तरह से सहायता और सेवा करते थे। उस दौर में साल भर तक मेला और अनेक प्रकार के उत्सवों की धूम मची रहती थी। धर्म के नाम पर कोई साम्प्रदायिक दुर्भावना पूरी जीवनचर्या में कहीं भी नजर नहीं आती थी। युवकों की संगठित मंडलियों की व्यवस्था देखने योग्य होती थी। रामलीला तथा नाटकों को देखने आने वाली भीड़ को नियन्त्रित कर काबू में रखना युवकों के विभिन्न संगठनों का ही काम था।

ऐसा नहीं है कि तब हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच कुछ घटनाओं को लेकर उबाल नहीं उठते थे पर धीरज और सहिष्णुता से दोनों सम्प्रदायों के समझदार, नागरिक मामले को तूफान का स्वरूप धारण नहीं करने देते थे। मुख्य दृष्टि पारस्परिक सहयोग, भाई चारे और पड़ोसीपन पर केन्द्रित रहती थी।

मुझे याद है कि ताजिये के दिनों में शहर के कोने में भावना का ज्वार आ जाता था। मुसलिम युवकों की उस समय की जीदारी देखने से ताल्लुक रखती थी। जब वह ताजियों के आगे ‘हा हस्सन हा हस्सन’ कहते और अपनी खुली छातियों को लोहे की मोटी-मोटी साँकलों से पीटते हुए चलते थे। यह एक ऐसा अनोखा अवसर होता था जब शहर की हिन्दू-मुसलिम आबादी के सारे आपसी भेदभाव मिट जाते थे। हिन्दू औरतें और युवतियाँ सड़कों के किनारे छज्जों तथा मकानों के जंगलों से ताजिये का जुलूस देखने के लिए पहले से ही आ खड़ी होती थी। माताएँ अपने बच्चों को ताजियों की छाँव में ले जाती थी। सैकड़ों मन बताशे और खाँड़ का दुधिया शर्बत गली मोहल्लों में तकसीम हो जाता था।

मुझे अपने बचपन की जहाँ तक याद पड़ती है, कोई ऐसा हादसा जहन में उभरता दिखलाई नहीं पड़ता जब शहर में कोई बड़ा हिन्दू-मुसलिम दंगा हुआ हो। हाँ छोटी-छोटी वारदात नादानी में हो गई हो तो अलग बात है। उस जमाने में अकाल बहुत पड़ते थे। कई कई सालों तक अच्छी बारिश न होने के कारण दूर दराज के बाशिन्दे जिन्हें बागड़िये कहा जाता, शहर की गलियों में घूमते नजर आते थे। उन लोगों की यानी मर्द-औरतों का लिबास बड़ा विचित्र होता था। उनकी बोली भी शहर के लोग नहीं समझते थे मगर उनकी भरपूर सहायता की जाती थी। यही लोग कठपुतलियों का नाच भी दिखाया करते थे।

नगर के बहुत-से हिन्दू सेठों, रईसों और मुसलमान नवाबों खान साहबों के यहाँ अपने से अलग धर्म सम्प्रदाय के कारिन्दे और मुनीम हुआ करते थे। अगर दोनों सम्प्रदायों की बाहरी भिन्नता पर विचार किया जाए तो दोनों के रहन-सहन और लिबास में आकाश-पाताल का अंतर दिखाई पड़ता था। भिन्नता इतनी कि जैसे दोनों के बीच लोहे की दीवार खिंच गई हो। हिन्दू लोग मुसलमानों का पानी तो क्या उनकी छुई हुई वस्तुओं तक को हाथ नहीं लगाते थे। मुसलमान कुँजड़ों के यहाँ से सब्जी खरीदने के बाद उसे बार बार पानी से धोया जाता था। कोई मुसलमान हिन्दुओं के घरों में खाने पर आमंत्रित नहीं होता था। अगर कभी कोई भूल भटका खाने पर आ भी जाता था तो उसके इस्तेमाल किए हुए बर्तन-भाँड़ों को अलग रख दिया जाता था अथवा उनमें आग डालकर उनको ‘शुद्ध’ अथवा पवित्र कर लिया जाता था। समाज के बहुत प्रतिष्ठित और आधुनिक कहे या माने-जाने लोगों में हिन्दू मुसलमान का फर्क इस कदर ज्यादा नहीं था पर दोनों का साथ में खाना-पीना अपवाद स्वरूप ही सम्भव था। बिडम्बना तो यहाँ तक थी कि रेलवे स्टेशनों पर ‘हिन्दू पानी’ और मुसलमान पानी तक अलग अलग होते थे। कपड़े लत्ते से हिन्दू-मुसलमानों का फर्क अलग से नजर आता ही था-वह फुदनेदार तुर्की टोपी लगाते थे, शेरवानी अचकन छोटी मोहरी का पाजामा पहनते थे और दाढ़ी रखते थे, तो यह कुर्ता कमीज धोती और सिर पर टोपी या साफा धारण करते थे। कुछ लोग तो रामनामी दुपट्टा-सा गले में सफेद पटका तक डालकर अपने धर्म की ध्वजा लहराते नजर आते थे। परन्तु यह अपने धर्म और आस्था के प्रति गौरव का द्योतक होते थे न कि दूसरे धर्म सम्प्रदाय वालों को चिढ़ाने या खिझाने के लिए।


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