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रहीम के दोहे

आबिद रिजवी

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4000
आईएसबीएन :81-8133-711-5

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जिन्दगी के अलग-अलग पहलुओं को परखने की समझ देने वाले सूत्रों का संग्रहणीय संकलन...

Rahim ke dohe - A Hindi Book on Rahim by Aabid Rizvi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘खानखाना’ रहीम ने ज़िन्दगी  के ऊंच-नीच को काफी नजदीक से देखा-परखा था। यही वजह है कि प्रत्येक दोहे में उनकी आपबीती मुखर होती है। जीवन के अलग-अलग पहलुओं की झलकियों को अपने में समेटे यह संकलन प्रत्येक के लिए संग्रह करने योग्य है।


रहिमन मोम तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक मांहि।
प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नांहि।।

रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट है जात।
नारायण हू को भयो, बावन आंगुर गात।।

रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार।
चोरी  करि  होरी रची, भई तनिक में छार।।

समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक।
चतुरन चित रहिमन लगी,  समय चूक की हूक।।

चाह  गई  चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह।।


रहीम के दोहे


ज़िन्दगी की समझ देने वाले सूत्रों का संग्रहणीय संकलन


दोहे की प्रकृति ‘गागर में सागर’ भरने की होती है। दिल की जितनी गहराई से उठा भाव दोहे की शक्ल लेता है, उतना ही गहरा होता है उसका घाव।

रहीम के दोहों में ये दोनों खूबियाँ हैं। उनमें तेज धार है और ग़जब का पैनापन भी। तभी तो वे एक बारगी दिलो-दिमाग़ को झकझोर देते हैं। उनके नीतिपरक दोहों में जहां अपने-पराए ऊंच-नीच तथा सही-गलत की समझ है, वहीं ज़िन्दगी के चटक रंग भी श्रृंगार के रूप में दिखाई देते हैं। रहीम की ज़िन्दगी पर जहां एक ओर तलवार की चमक का साया रहा, वहीं उन्हें सियासत की शतरंजी चालों का म़ुकाबला भी क़दम- क़दम पर करना पड़ा। उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत कुछ ऐसा महसूस किया जिसके बारे में उनके ही माहौल में रहने वाला कभी सोच भी नहीं सकता, फिर आम आदमी की तो बात ही क्या है। क्योंकि ऐसी सोच के लिए जिस दूरदृष्टि और ऊंचे दर्जे की संवेदना की जरूरत हुआ करती है, वह उसमें नहीं होती। रहीम के दोहे इसी मायने में खास है। इनमें उनकी ज़िन्दगी का निचोड़ है। इसीलिए इन्हें पढ़कर कई बार तो आप ऐसा महसूस करेंगे कि क्या ज़िन्दगी को इस नजरिए से भी देखा जा सकता है। यही इनकी सार्थकता है।
विश्वास है, हमारा यह प्रयास भी आपको पसंद आएगा।

-प्रकाशक

ओछे को सतसंग, रहिमन तजहु अंगार ज्यों।
तातो जारै अंग, सीरे पै कारो लगै।।

एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड।
कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड।

रहिमन जग की रीति मैं देख्खो रस ऊख में।
ताहू में परतीति, जहां गांठ तहं रस नहीं।

कलवारी रस प्रेम कों, नैननि भरि भरि लेति।
जोबन मद भांति फिरै, छाती छुवन न देति।।

कबहू मुख रूखौ किए, कहै जीभ की बात।
वाको करुओ वचन सुनि, मुख मीठो ह्वौ जात।।


जीवन- परिचय


अब्दुल रहीम ख़ानख़ान का जन्म 17 दिसम्बर 1556 ई. को सम्राट अकबर के प्रसिद्ध अभिभावक बैरम ख़ां (60 वर्ष) के यहां लाहौर में हुआ था। उस समय रहीम के पिता बैरम ख़ां पानीपत के दूसरे युद्ध में हेमू को हराकर बाबर के साम्राज्य की पुनर्स्थापना कर रहे थे। बैरम ख़ां, अमीर अली शकूर बेर के वंश में से थे। जबकि इनकी मां सुलताना बेगम मेवाती जमाल ख़ां की दूसरी पुत्री थीं। कविता करना बैरम ख़ां के वंश की ख़ानदानी परम्परा थी। बाबर की सेना में भरती होकर रहीम के पिता बैरम ख़ां अपनी स्वामीभक्ति और वीरता से हुमायूं के विश्वासपात्र बन गये थे।  

हुमायूं की मृत्यु के बाद बैरम ख़ां ने 14 साल के शहज़ादे अकबर को राजगद्दी पर बैठा दिया था और खुद उसका संरक्षक बनकर मुग़ल साम्राज्य को स्थापित किया था। लेकिन वर्दी ख़ानख़ाना के प्राणदण्ड, दरबारियों की ईर्ष्या, अकबर की माता हमीदा बानो और धाय माहम अनगा की दुरभिसन्धि एवं बाबर की बेटी गुलरुख़ बेगम की लड़की सईदा बेगम से शादी तथा अमीरों के सामने अकबर के रूप में उपस्थित होने के विकल्प ने बैरम ख़ां को सन् 1560 में अकबर के पूर्ण राज्य ग्रहण करने से धीरे- धीरे विद्रोही बना दिया था।


पिता बैरम ख़ां की हत्या



आख़िरकार हारकर अकबर के कहने पर बैरम ख़ां हज के लिए चल पड़े। वह गुजरात में पाटन, के प्रसिद्ध सहस्रर्लिंग तालाब में नौका विहार या नहाकर जैसे ही निकले, तभी इनके एक पुराने विरोधी-अफ़ग़ान सरदार मुबारक ख़ां ने धोखे से उनकी पीठ में छुरा भोंककर वध कर डाला। कुछ भिखारी लाश उठाकर फक़ीर हुसामुद्दीन के मक़बरे में ले गए और वहीं बैरम ख़ां को दफ़ना दिया गया। ‘मआसरे रहीमी’ ग्रंथ में मृत्यु का कारण शेरशाह के पुत्र सलीम शाह की कश्मीरी बीवी से हुई लड़की को माना गया है, जो हज के लिए बैरम ख़ां के साथ जा रही थी। इससे अफ़ग़ानियों को अपनी बेइज्ज़ती महसूस हुई और उन्होंने हमला करके बैरम ख़ां को समाप्त कर दिया।

लेकिन यह संभव नहीं लगता, क्योंकि ऐसा होने पर तो रहीम के लिए भी ख़तरा बढ़ जाता। उस वक्त पूर्ववर्ती शासक वंश के उत्तराधिकारी को समाप्त कर दिया जाता था। व अफ़ग़ानी मुबारक ख़ां मात्र बैरम ख़ां का वध कर ही नहीं रुका, बल्कि डेरे पर आक्रमण करके लूटमार भी करने लगा। तब स्वामीभक्त बाबा जम्बूर और मुहम्मद अमीर ‘दीवाना’ चार वर्षीय रहीम को लेकर किसी तरह अफ़ग़ान लुटेरों से बचते हुए अहमदाबाद जा पहुंचे। चार महीने वहां रहकर फिर वे आगरा की तरफ चल पड़े। अकबर को जब अपने संरक्षक की हत्या की ख़बर मिली तो उसने रहीम और परिवार की हिफ़ाजत के लिए कुछ लोगों को इस आदेश के साथ वहां भेजा कि उन्हें दरबार में ले आएं।


रहीम को अकबर का संरक्षण



बादशाह अकबर का यह आदेश बैरम ख़ां के परिवार के जालौर में मिला, जिससे कुछ आशा बंधी। रहीम और उनकी माता परिवार के अन्य सदस्यों के साथ सन् 1562 में राजदरबार पहुंचे। अकबर ने बैरम ख़ां के दुश्मन कुछ दरबारियों के विरोध के बावजूद बालक रहीम को बुद्धिमान समझकर उसके पालन-पोषण का दायित्व स्वयं ग्रहण कर लिया। अकबर ने रहीम का पालन-पोषण तथा शिक्षा-दीक्षा शहजादों की तरह शुरू करवाई, जिससे दस बारह साल की उम्र में ही रहीम का व्यक्तित्व आकार ग्रहण करने लगा। अकबर ने शहजादों को प्रदान की जाने वाली उपाधि ‘मिर्ज़ा ख़ां’ से रहीम को सम्बोधित करना शुरू किया।

अकबर रहीम से बहुत अधिक प्रभावित था और उन्हें अधिकांश समय तक अपने साथ रखता था। रहीम को ऐसे उत्तरदायित्व पूर्ण काम सौंपे जाते थे जो किसी नए सीखने वाले को नहीं दिए जा सकते थे। परन्तु उन सभी कामों में ‘मिर्ज़ा ख़ां’ अपनी योग्यता के बल पर सफल होते थे। अकबर ने रहीम की शिक्षा के लिए मुल्ला मुहम्मद अमीन को नियुक्त किया। रहीम ने तुर्की, अरबी एवं फ़ारसी भाषा सीखी। उन्होंने छन्द रचना, कविता करना, गणित तर्क शास्त्र और फ़ारसी व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया। संस्कृत का ज्ञान भी उन्हें अकबर की शिक्षा व्यवस्था से ही मिला। काव्य रचना, दानशीलता, राज्य संचालन, वीरता और दूरदर्शिता आदि गुण उन्हें अपने माँ-बाप से संस्कार में मिले थे। सईदा बेगम उनकी दूसरी मां थी वह भी कविता करती थीं।

रहीम शिया और सुन्नी के विचार-विरोध से शुरू से आजाद थे। इनके पिता तुर्कमान शिया थे और माता सुन्नी। इसके अलावा रहीम को छः साल की उम्र से ही अकबर जैसे उदार विचारों वाले व्यक्ति का संरक्षण प्राप्त हुआ था। इन सभी ने मिलकर रहीम में अद्भुत विकास की शक्ति उत्पन्न कर दी। किशोरावस्था में ही वे यह समझ गए कि उन्हें अपना विकास अपनी मेहनत, सूझबूझ और शौर्य से करना है। रहीम को अकबर का संरक्षण ही नहीं, बल्कि प्यार भी मिला। रहीम भी उनके हुक्म का पालन करते थे, इसलिए विकास का रास्ता खुल गया। अकबर ने रहीम से अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा का भी ज्ञान प्राप्त करने को कहा। अकबर के दरबार में संस्कृत के कई विद्वान थे; बदाऊंनी खुद उनमें से एक था।

रहीम ‘मिर्ज़ा ख़ां की कार्यकुशलता लगन और योग्यता देखकर अकबर ने उनको शासक वंश से सीधे सम्बद्ध करने का फैसला किया, क्योंकि ऐसा करके ही रहीम के दुश्मनों का मुह बन्द किया जा सकता था और उन्हें अन्तःपुर की राजनीति से बचाया जा सकता था। अकबर ने अपनी धाय माहम अनगा की पुत्री और अज़ीज कोका की बहन माहबानो से रहीम का निकाह करा दिया। माहबानो से रहीम के तीन पुत्र और दो पुत्रियां हुईं। पुत्रों का नाम इरीज़, दाराब और करन अकबर द्वारा ही दिया गया था। पुत्री जाना बेगम की शादी शहज़ादा दानियाल से सन् 1599 में और दूसरी पुत्री की शादी मीर अमीनुद्दीन से हुई। रहीम को सौधा जाति की एक लड़की से रहमान दाद नामक पुत्र हुआ और एक नौकरानी से मिर्ज़ा अमरुल्ला हुए। एक पुत्र हैदर क़ुली हैदरी की बचपन में ही मृत्यु हो गई थी।


रहीम का भाग्योदय



रहीम के भाग्य का उत्कर्ष सन् 1573 से शुरू होता है जो अकबर के समय सन् 1605 तक चलता रहा। इसी बीच बादशाह अकबर एक बार रहीम से नाराज़ भी हो गए, लेकिन ज्यादा दिनों तक यह नाराज़गी नहीं रह सकी। सन् 1572 में जब अकबर पहली बार गुजरात विजय के लिए गया तो 16 वर्षीय रहीम मिर्ज़ा ख़ां उसके साथ ही थे। ख़ान आज़म को गुजरात का सूबेदार नियुक्त करके बादशाह अकबर लौट आए। लेकिन उसके लौटते ही ख़ान आज़म को गुजराती परेशान करने लगे। उसे चारों ओर से नगर में घेर लिया गया। यह समाचार पाकर बादशाह अकबर सन् 1573 में 11 दिनों में ही साबरमती नदी के किनारे पहुंच गया। रहीम मिर्ज़ा ख़ां को अकबर के नेतृत्व में मध्य कमान का कार्यभार सौंपा गया। मिर्ज़ा ख़ां ने बड़ी बहादुरी से युद्ध करके दुश्मन को परास्त कर दिया। यह उनका पहला युद्ध था।


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