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पौराणिक कथाएँ >> मां दुर्गा

मां दुर्गा

महेन्द्र मित्तल

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3966
आईएसबीएन :00000

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मां के प्यार और चमत्कार की पावन गाथा....

Maa durga

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


इस पुस्तक में मां दुर्गा के प्यार और चमत्कार की पावन गाथा का रंगीन चित्रों के माध्यम से वर्णन किया गया है।

नव दुर्गा

ब्रह्माण्ड रूपी दुर्ग की अधिष्ठापी देवी होने के कारण इन्हें दुर्गा कहा जाता है। मां दुर्गा परम आद्य शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति मानी जाती हैं। मां दुर्गा के नौ रुप हिंदू धर्म शास्त्र में माने गए हैं। ये नौ रुप इस प्रकार हैं-

शैलपुत्री

शारदीय नवरात्र का पहला दिन शैल पुत्री की उपासना का माना जाता है। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इन्हें शैलपुत्री कहा जाता है। पूर्व काल में इनका जन्म दक्षकन्या सती के रूप में हुआ था और शिव से इनका विवाह हुआ था। शैल पुत्री के रूप में इन्हें पार्वती या उमा भी कहा जाता है।

ब्रह्मचारिणी

ब्रह्मा का अर्थ है तपस्या। तप का आचरण करने वाली मां भगवती को ब्रह्मचारिणी कहा जाता है। यह दुर्गा का दूसरा रूप है। इस स्वरूप की उपासना से तप, त्याग, सदाचार, वैराग्य तथा संयम की वृद्धि होती है।

चंद्रघंटा

मां दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम ‘चन्द्रघंटा’ है। नवरात्रि उपासना में तीसरे दिन इन्हीं के विग्रह की उपासना की जाती है। इनका यह रूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनकी कृपा से समस्त पाप और बाधाएं विनष्ट हो जाती हैं

कूष्माण्डा

मां दुर्गा की चौथी शक्ति का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मंद हंसी से ब्रह्माण को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा कहा जाता है। यह सृष्टि की आद्य-शक्ति है। मां कूष्माण्डा के स्वरूप को ध्यान में रखकर आराधना करने से समस्त रोग और शोक नष्ट हो जाते हैं।

स्कंदमाता

शिव पुत्र कार्तिकेय (स्कंद) की जननी होने के कारण दुर्गा की पांचवीं शक्ति को स्कंदमाता कहा जाता है। मां स्कंदमाता की उपासना से भक्त की समस्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं। सूर्यमण्डल की अधिष्ठात्री देवी होने से, इसका उपासक अलौकिक तेज और कांति से संपन्न हो जाता है।

कात्यायनी देवी

माता दुर्गा के छटे स्वरूप का नाम कात्यायनी देवी है। महर्षि कात्यायन के घर पुत्री के रूप में जन्म देने पर इनका यह नाम पड़ा। इन्होंने ही देवी अंबा के रूप में महिषासुर का वध किया था। मां कात्यायनी की भक्ति से मनुष्य को सरलता से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

कालरात्रि

माता दुर्गा की सातवीं शक्ति ‘कालरात्रि’ के नाम से जानी जाती है। मां कालरात्रि का स्वरूप देखने में भयानक है, परंतु सदैव शुभ फल देने वाला है। इसी कारण इन्हें शुभंकरी भी कहते हैं। इसके स्वरूप को अग्नि, जल, वायु, जंतु, शत्रु, रात्रि और भूत-प्रेम का भय नहीं सताता।

महागौरी

मां दुर्गा की आठवीं शक्ति ‘महागौरी’ कहलाती है। इन्होंने पार्वती के रूप में भगवान शिव का वरण किया था। इनकी शक्ति अमोघ और शीघ्र फलदायिनी है। इनकी भक्ति से भक्त के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।

सिद्धिदात्री

मां दुर्गा का नवम स्वरूप भगवती ‘सिद्धियात्री’ है। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। देवी पुराण के अनुसार, भगवान शिव ने इनकी आराधना कर आठों सिद्धियों को प्राप्त किया था। इन्हीं की कृपा से भगवान शिव का लोक में ‘अर्द्धनारीश्वर’ स्वरूप प्रसिद्ध हुआ था।
दुर्गा माता की इन नौ मूर्तियों के अतिरिक्त देवी महालक्ष्मी, देवी सरस्वती, देवी पार्वती, महाकाली, भद्रकाली, वैष्णों देवी, ज्वालाजी आदि नाम मां दुर्गा के ही स्वरूप हैं। यह आदि शक्ति ही परम ब्रह्म है, जिसके द्वारा यह चराचर ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ है और इसी में समाहित हो जाता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की संपूर्ण शक्तियाँ, इसी आदि शक्ति की ही प्रतीक हैं।

दुर्गा

महर्षि वेद व्यास ने ‘मार्कण्डेय पुराण’ में भगवती दुर्गा का जो वर्णन किया है वह ‘दुर्गा सप्तशती’ के रूप में प्राप्त हैं। दुर्गा शक्ति की प्रतीक हैं। यह शक्ति परम ब्रह्म की प्रतिरूप है। दुर्गा, मनुष्य जाति में कर्म-शक्ति तथा विविध पुरुषार्थ साधना को बल देती है। इसी शक्ति की उपासना से हिंदू धर्म से ‘शाक्त मत’ का उदय हुआ था।
महाशक्ति दुर्गा का आधार वेद और उपनिषदों के ज्ञान में निहित है। ‘ऋग्वेद’ में शक्ति रूप में परमब्रह्म का वर्णन प्राप्त होता है। उसका सारांश यही है कि ब्रह्म से द्वेष रखने वाले नास्तिकों और असुरों का संहार करने के लिए ही परमेश्वर की शक्ति भगवती दुर्गा के रूप में जन्म देती है। यह प्रसंग इस प्रकार है-

राजा सुरथ और समाधि वैश्य

दूसरे मनु काल में इस धरती पर सुरथ नाम का एक राजा हुआ था। वह राजा अत्यन्त न्यायप्रिय और धार्मिक विचारों का था। परन्तु उसके राजकर्मचारी और मंत्रीगण बेहद दुष्ट प्रकृति के थे। वे सभी राजकोष का खुले हाथों दुरुपयोग करते थे। परिमाणत: राजा का राज कोष खाली हो गया। राजा सुरथ चिंतित रहने लगा। एक दिन अपने दुष्ट मंत्रियों से पीछा छुड़ाने के लिए उसने राज्य का मोह छोड़ दिया और जंगल में निकल आया। कई दिनों तक वह इधर-उधर भटकता रहा। भूख-प्यास में व्याकुल राजा नहीं समझ पा रहा था कि वह क्या करे, कहां जाए। तभी एक दिन उसकी दृष्टि वन में एक आश्रम पर पड़ी। उस आश्रम के बाहर एक फटेहाल व्यक्ति बैठा था। देखने में वह बहुत दु:खी लग रहा था।
राजा उसके पास पहुंचा और घोड़े से उतरकर उसने उससे पूछा, ‘‘तुम कौन हो भाई ? यह किसका आश्रम है और तुम यहां क्या कर रहे हो ?’’

वह व्यक्ति बोला, ‘‘मैं समाधि नामक वैश्य हूं। मेरे घर वालों ने मेरा सारा धन छीन लिया है। मुझे घर से निकाल दिया है। अब मैं भटकता हुआ यहां आ पहुंचा हूं। यह आश्रम महर्षि मेधा का है। परन्तु भीतर जाने का मेरा साहस नहीं हो रहा है।’’

मेधा ऋषि द्वारा दुर्गा-वृत्तांत

दोनों का दुख समान था। इसलिए दोनों जल्दी ही मित्र बन गए। राजा सुरथ ने समाधि नामक वैश्य के साथ आश्रम में प्रवेश किया और मेधा ऋषि से बोला, ‘‘मुनिवर ! मैं राजा सुरथ आपकी शरण में आया हूं। मेरा सारा धन-वैभव, राजकोष और राज्य मेरे मंत्रिय़ों ने मुझसे छीन लिया है। परंतु प्रजा के प्रति मेरा मोह समाप्त नहीं हो रहा है। यही दशा मेरे इस मित्र समाधि की है।’’

मेधा ऋषि ने स्नेहपूर्वक दोनों को आश्रम में शरण दी और एक दिन दोनों को अपने पास बुलाकर कहा, ‘‘राजन ! जिन पदार्थों का तुम मोह कर रहे हो, वे सभी पदार्थ नाश्वान हैं। तुम आत्म-ज्ञान से दूर हो चुके हो, इसीलिए तुम्हें अपना राज्य छोड़ना पड़ा है। जो व्यक्ति स्वविवेक से कर्म साधना नहीं करता, उसकी ऐसी ही दशा होती है। ब्रह्म शक्ति से विरत व्यक्ति अनेकानेक कष्टों का भोग करता है। अब तुम मुझसे क्या चाहते हो, निस्संकोच होकर कहो।’’
राजा बोला, ‘‘मुनिवर, मोह नहीं होना चाहिए। यह बात तो हम भी जानते हैं, फिर भी यह मोह क्यों होता है ?’’


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