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पौराणिक कथाएँ >> श्री रामकथा

श्री रामकथा

अनिल कुमार

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3951
आईएसबीएन :81-8133-358-6

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मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जीवन चरित....

Shri Ram Katha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्रीरामावतार की पूर्व भूमिका

प्राचीन काल में मनु और शतरूपा ने वृद्धावस्था आने पर घोर तपस्या की। दोनों एक पैर पर खड़े रहकर ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ का जाप करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन दिए और वर माँगने को कहा।

‘‘प्रभु ! आपके दर्शन पाकर हमारा जीवन धन्य हो गया। अब हमें कुछ नहीं चाहिए।’’ इन शब्दों को कहते-कहते दोनों की आँखों से प्रेमधारा प्रवाहित होने लगी।
‘‘तुम्हारी भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूँ वत्स ! इस ब्रह्माण्ड में ऐसा कुछ नहीं, जो मैं तुम्हें न दे सकूँ।’’ भगवान ने कहा, ‘‘तुम निस्संकोच होकर अपने मन की बात कहो।’’

प्रभु के ऐसा कहने पर मनु ने बड़े संकोच से अपने मन की बात कही, ‘‘प्रभु ! हम दोनों की इच्छा है कि किसी जन्म में आप हमारे पुत्र रूप में जन्म लें।’’
‘‘ऐसा ही होगा वत्स !’’ भगवान ने उन्हें आशीर्वाद दिया, ‘‘त्रेता युग में तुम अयोध्या के राजा दशरथ के रूप में जन्म लोगे और तुम्हारी पत्नी शतरूपा तुम्हारी पटरानी कौशल्या होगी। तब मैं दुष्ट रावण का संहार करने माता कौशल्या की कोख में जन्म लूंगा।’’

‘‘हम धन्य हो गये प्रभु ?’’ मनु और शतरूपा में प्रभु की वन्दना की। प्रभु उन्हें आशीष देकर अंतर्धान हो गए।

श्रीराम जन्म


त्रेतायुग में अयोध्या के राजा दशरथ की तीन रानियां थीं। सबसे बड़ी कौशल्या, दूसरी सुमित्रा और तीसरी कैकेयी। परंतु तीनों निःसंतान थीं। इसी से राजा दशरथ अत्यधिक चिंतित रहते थे उन्हें चिंतित देखकर उनकी रानियाँ भी चिन्तित रहती थीं। एक बार अपनी चिंता का कारण राजा दशरथ ने राजगुरु वसिष्ठ को बताया। इस पर राजगुरु वसिष्ठ ने उनसे कहा, ‘‘राजन ! उपाय से भी सभी इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं। तुम श्रृंगी ऋषि को बुलाकर पुत्र कामेष्टि यज्ञ कराओ। तुम्हे संतान की प्राप्ति अवश्य होगी।’’

राजगुरु की बात सुनकर राजा दशरथ स्वंय श्रृंगी ऋषि के आश्रम में गए और अपने मन की इच्छा प्रकट करके उनसे पुत्र कामेष्टि यज्ञ कराने की प्रार्थना की।

ऋषि श्रृंगी ने राजा की प्रार्थना स्वीकार की और अयोध्या में आकर पुत्र कामेष्टि यज्ञ कराया। यज्ञ में राजा ने अपनी रानियों सहित उत्साह से भाग लिया। यज्ञ की पूर्णाहुति पर स्वयं अग्निदेव ने प्रकट होकर श्रृंगी को खीर का एक स्वर्णपात्र दिया और कहा, ‘‘ऋषिवर ! यह खीर राजा की तीनों रानियों को खिला दो। राजा की इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।’’

देवता से खीर का पात्र लेकर श्रृंगी ऋषि ने राजा दशरथ को दिया और जैसा अग्निदेव ने कहा था वैसा ही राजा को आदेश दिया। राजा प्रसन्न होकर अपने महल में रानियों के साथ आया। राजा ने खीर के पात्र से आधी खीर रानी कौशल्या को दी और आधी खीर सुमित्रा तथा कैकेयी को दी। सुमित्रा और कैकेयी ने आधी खीर के तीन भाग किए। खीर के दो भाग सुमित्रा ने लिए और एक भाग कैकेयी ने ग्रहण किया। खीर खाने के बाद तीनों गर्भवती हो गईं।

समय आने पर बड़ी रानी कौशल्या की कोख से राम ने जन्म लिया। सुमित्रा ने शत्रुघन और लक्ष्मण, दो पुत्रों को जन्म दिया और कैयेयी ने भरत को। दासी ने राजा दशरथ को पुत्रों के जन्म का समाचार दिया तो राजा की प्रसन्नता का पारावार न रहा। उन्होंने तत्काल अपने गले के मोतियों का हार दासी की झोली में डाल दिया और मंत्री को आदेश दिया, ‘‘मंत्रीवर ! सारे नगर को सजाओ। राजकोष खोल दो बिना दान-दक्षिणा और भोजन किए कोई भी व्यक्ति राजद्वार से वापस न जाए। सारे नगर में धूम-धाम से उत्सव मनाओ।’’
‘‘जो आज्ञा महाराज !’’ मंत्री हाथ जोड़ अभिवादन करके चला गया।
राजा दशरथ तेज कदमों से चलते हुए रनिवास में पहुँचे। अपने पुत्रों को देखकर उनकी आँखें प्रसन्नता से चमक उठीं।

ताड़का वध


चारों बच्चों का लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार से होने लगा। धीरे-धीरे समय के साथ बच्चे बड़े होने लगे। गुरु वसिष्ठ के आश्रम में उन्हें राजनीति, अस्त्र-शस्त्र संचालन तथा विविध शास्त्रों की शिक्षा दी जाने लगी।
चारों राजकुमारों का परस्पर अपूर्व प्रेम था। शस्त्र और धार्मिक आचार-विचार में वे परिपूर्ण हो गए थे। तभी एक दिन राजऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ के दरबार में आए। राजा ने उनका बड़ा आदर सम्मान किया उनके आने का कारण पूछा। ऋषि विश्वामित्र ने कहा, ‘‘राजन ! हम वन में जब यज्ञादि अनुष्ठान करते हैं तो राक्षस उसमें विघ्न डालते हैं। हम उनके विनाश के लिए आपके पुत्रों को लेने आए हैं।’’
विश्वामित्र की बात सुनकर राजा ने कहा, ‘‘मुनिवर ! राम तो अभी बच्चे हैं। राक्षसों के विनाश के लिए मैं स्वयं आपके साथ चलता हूँ।’’

‘‘नहीं राजन ! हमें राम ही चाहिए।’’ विश्वामित्र ने हठ किया।
गुरु वसिष्ठ की आज्ञानुसार राजा दशरथ ने राम के साथ लक्ष्मण को भी विश्वामित्र के साथ भेज दिया। वन में जाकर राम-लक्ष्मण ने पहले ताड़का का वध किया। फिर सुबाहू को मारा और मरीच को बाण के प्रहार से दूर फेंक दिया।

अहिल्या उद्धार



वन में ऋषि-मुनियों को राक्षसों के उत्पात से मुक्त करके राम और लक्ष्मण जब अयोध्या जाने लगे तब मुनि विश्वामित्र के एक शिष्य ने आकर उन्हें समाचार दिया कि मिथिला नरेश जनक ने अपनी पुत्री सीता का स्वयंवर रचाया है। ऋषिवर दूरदर्शी थे, इसलिए भविष्य की राजनीति को देख-समझ रहे थे।
वे राम और राजा लक्ष्मण के साथ लेकर मिथिला नगरी की ओर चल पड़े। मार्ग में एक स्थान पर पत्थर की शिला के रूप में एक नारी की मूर्ति को देखकर राम ने विश्वामित्र से पूछा-‘‘गुरुदेव ! नारी रूप यह पत्थर की शिला कैसी है ?’’

विश्वामित्र ने उत्तर दिया, ‘‘वत्स ! एक समय इंद्र ने छल से पतिव्रता अहिल्या का धर्म नष्ट कर दिया था। तब गौतम ऋषि ने इंद्र और अपनी पत्नी अहिल्या, दोनों को शाप दे डाला था। यह तभी से पत्थर बनी यहां पड़ी है।
‘‘परन्तु इसमें अहिल्या का क्या दोष था मुनिवर ?’’ राम ने कहा, ‘‘शापित तो इंद्र को ही होना था।’’ यह कहकर राम ने शिला के स्पर्श मात्र से ऋषि पत्नी अहिल्या शाप योनि से मुक्त होकर श्रीराम के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती हुई स्वर्गलोक को चली गई।


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