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पंचतंत्र की मनोरंजक कथाएं

अनिल कुमार

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :40
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3949
आईएसबीएन :81-8133-361-6

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खेल-खेल में जीने की कला सिखाने वाली मजेदार कहानियां....

Panchatantra Ki Manoranjak Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सांप की शादी

एक छोटे-से गांव में एक ब्राह्मण व उसकी पत्नी रहते थे। ब्राह्मण दंपति के कोई संतान न थी। वे रात-दिन संतान प्राप्ति की खातिर ईश्वर को याद किया करते थे।
लंबे समय तक प्रतीक्षा करने के बाद ईश्वर ने उनकी गुहार आखिर सुन ही ली और उनके यहां संतान उत्पन्न हुई। लेकिन यह देखकर सभी को बड़ी हैरानी हुई कि वह संतान मनुष्य न होकर सांप थी। ब्राह्मण दंपति के मित्रों और संबंधियों ने सांप रूपी संतान से शीघ्र छुटकारा पाने को कहा। लेकिन ब्राह्मण की पत्नी ने किसी की न सुनी और उसी सांप को ही अपनी संतान की तरह पालती-पोसती रही।

समय बीतने के साथ सांप का बच्चा भी बड़ा होकर पूर्ण सर्प बन चुका था। अब वह विवाह के योग्य हो गया था। ब्राह्मण दंपति को उसके विवाह की चिन्ता सताने लगी। वे तो उसे सांप मानते ही न थे, बल्कि सर्प-पुत्र था वह उनके लिए। अतः ब्राह्मण दंपति ने उसके लिए वधु की खोज शुरू कर दी।
सुन्दर कन्या की खोज में ब्राह्मण गांव-गांव, शहर-शहर भटकता फिरा, लेकिन उसकी सर्प संतान के लिए कोई लड़की न मिली। तब ब्राह्मण अपनी पत्नी से बोला, ‘‘कोई भी मनुष्य अपनी कन्या का विवाह हमारे सर्प-पुत्र से भला क्यों करने के तैयार होगा।’’ लेकिन उसकी पत्नी अपने सर्प-पुत्र के लिए योग्य कन्या की जिद पर अड़ी रही।
जब ब्राह्मण को सभी ओर से निराशा और हताशा ही हाथ लगी तो वह अपने एक पुराने मित्र के पास गया और उसे अपनी समस्या से अवगत कराया।

तब उसका मित्र बोला, ‘‘अरे ! बस इतनी-सी बात है, तुम्हें मुझे पहले बता देना चाहिए था। मैं तो स्वयं अपनी लड़की के लिए योग्य वर की तलाश में हूं। मैं तुम्हारे सर्प-पुत्र के साथ अपनी कन्या का विवाह करने को तैयार हूं।’’
मित्र की बात सुन ब्राह्मण को अपने कानों पर विश्वास न हुआ। घरों में विरोध के बाद भी उनका विवाह संपन्न हो गया। मित्र की लड़की भी सर्प-पुत्र से ही विवाह करने पर अड़ी थी।
विवाह के पश्चा्त सर्प-पुत्र और वह लड़की आदर्श पति-पत्नी की भांति जीवन बिताने लगे। लड़की अपने पति की हर सुख सुविधा का पूरा-पूरा ख्याल रखती। उसका सर्प-पति अपनी पत्नी के पलंग के पास कुंडली मारकर एक टोकरी में सोता था।
एक रात सर्प टोकरी में से निकलकर कमरे में रेंगने लगा। कुछ ही क्षणों बाद कमरे में एक युवक प्रकट हुआ। उसने लड़की को सोते से उठाया। उस अनजान युवक को अपने कमरे में देख लड़की अभी चिल्लाना ही चाहती थी कि वह युवक बोला, ‘‘मूर्खता मत करो ! मैं तुम्हारा पति हूं।’’
लड़की को उसकी बात पर विश्वास न हुआ। वह बोली, ‘‘जब तक मैं अपनी आंखों से न देख लूंगी मुझे भरोसा न होगा। मुझे करके दिखाओ।’’

पहले तो युवक थोड़ा सा सकपकाया, लेकिन फिर वह युवक खाली पड़ी सांप की केंचुली में प्रवेश कर गया।
कुछ देर बाद जब उससे बाहर निकला तो सुंदर युवक बन चुका था।
लड़की ऐसे अद्भुत पति को पाकर फूली न समाई।
जब ब्राह्मण व उसकी पत्नी को यह पता चला तो उनकी खुशी की सीमा न रही।
एक रात ब्राह्मण अपने सर्प-पुत्र पर निगाह रखे था। वह प्रतीक्षा कर रहा था कि कब उसका पुत्र रूप परिवर्तित कर सुंदर युवक बनता है।

जैसे ही उसका पुत्र केंचुली छोड़ बाहर निकलकर सुंदर युवक बना, वैसे ही ब्राह्मण ने केंचुली को उठाकर आग के हवाले कर दिया।
तब उसका पुत्र आकर बोला, ‘‘पिताजी ! आपने मुझे नया जीवन दिया है। अब में कभी पुनः सर्प नहीं बनूँगा। मेरी केंचुली के आग में जलते ही मुझ पर पड़ा वर्षों पुराना शाप भी दूर हो गया।’’
इसके पश्चात् ब्राह्मण परिवार खुशी-खुशी दिन बिताने लगा।
सीख—निराशा में भी आशा की किरण छिपी होती है।

गधा, शेर और चतुर लोमड़ी


एक नगर में एक मूर्ख गधा रहता था। वह जंगल किनारे बसा था। उस जंगल में राजा शेर और उसकी मंत्री लोमड़ी भी रहती थी।
एक बार शेर जंगल में हाथी से लड़ते हए बुरी तरह जख्मी हो गया और शिकार कर पाने में भी असमर्थ हो गया। तब उसने अपनी मंत्री चतुर लोमड़ी को भोजन–पानी की व्यवस्था करने को कहा। चूंकि लोमड़ी का गुजारा शेर के शेष बचे शिकार पर ही होता था, इसलिए वह तुरंत ही शिकार की खोज में निकल पड़ी।

इधर-उधर भटकती लोमड़ी की मुलाकात अचानक ही गधे से हो गई। पहली नजर में देखने पर ही गधा मूर्ख, भूखा और निराश लगता था। लोमड़ी उससे बोली, ‘‘मित्र ! तुम इस जंगल में नए आए लगते हो। कहां से आए हो तुम ?’’
‘‘मैं पास वाले नगर से आया हूं।’’ गधा बोला, ‘‘मेरा मालिक दिनभर मुझसे कमर तोड़ काम करवाता है, पर खाने के नाम पर कुछ नहीं देता। इसलिए मैं घर छोड़कर भाग आया हूं ताकि कहीं और जाकर अच्छी तरह खा-रह सकूं।’’
इस समय गधे को दूर के ढोल सुहावने लग रहे थे।

‘‘अच्छा, यह बात है।’’ लोमड़ी बोली, ‘‘तुम चिन्ता मत करो। मैं इस जंगल के राजा की मंत्री हूं। आओ, मेरे साथ राजमहल चलो। मेरे राजा को एक ऐसे अंगरक्षक की जरूरत है, जो शहर की जिंदगी से परिचित हो। तुम आराम से महल में रहना और मजे से आसपास उगी हरी घास खाकर चैन से दिन गुजारना।’’
गधा तो ऐसा ही कुछ चाहता भी था। लोमड़ी की ऐसी बातें सुनकर गधा बेहद प्रसन्न हुआ और खुशी-खुशी उसके साथ राजमहल की ओर चल दिया। बातों के पीछे छिपा कपट गधा बेचारा समझ नहीं पाया।

गधे को अपने सामने खड़ा देख कई दिनों से भूखा शेर तुरंत ही उसको मारने को झपटा लेकिन कमजोर होने के कारण वह गधे को काबू न करक पाया। खतरा सिर पर देख गधा वहां से भाग निकला।
‘‘महाराज ! आपको इस तरह जल्दबाजी नहीं दिखानी थी।’’ लोमड़ी बोली, ‘‘आखिर शिकार भाग गया ना।’’
मुझसे गलती हो गई।’’ शेर बोला, ‘‘जाओ, उसे फिर से यहां लेकर आओ।’’

लोमड़ी ने सोचा, एक बार धोखा खाने के बाद गधा दोबारा यहां क्यों आएगा। लेकिन फिर कुछ सोचकर वह चल दी।
कुटिल लोमड़ी ने उस गधे के पास पहुंचकर बोली, ‘‘तुम भी अजीब प्राणी हो। इस तरह वहां से भाग क्यों आए ?’’
‘‘जान पर बन आई थी, भागता नहीं तो क्या करता ?’’ गधा बोला।

लोमड़ी बोली, ‘‘मित्र ! वह तो शाही अंगरक्षक बनाने से पहले तुम्हारी सजगता जांची जो रही थी। अच्छा हुआ कि तुम परीक्षा में खरे उतरे, वरना तुम्हें नौकरी पर नहीं रखा जाता।’’
मूर्ख गधे ने कुटिल लोमड़ी के कहे पर विश्वास कर लिया और दोबारा उसके साथ राजमहल की ओर चल दिया। राजमहल में शेर अबकी बार घनी झाड़ियों के पीछे छिपा बैठा था। जैसे ही गधा झाड़ियों के सामने से गुजरा शेर ने मौका देख झपट्टा मारकर उसका काम तमाम कर दिया।

अभी शेर ने अपने शिकार पर हाथ साफ करना शुरू ही किया था कि लोमड़ी बोली, ‘‘महाराज ! आपको कई दिनों बाद खाना नसीब हुआ है। अच्छा होगा यदि आप पहले नहा-धोकर कुछ पूजा-पाठ कर लें।’’
‘‘हूं।’’ शेर गुर्राया बोला, ‘‘ठीक है, तुम यहीं ठहरो, मैं अभी लौटकर आता हूं।’’
इधर शेर नहाने-धोने और पूजा-पाठ में लगा और उधर लोमड़ी ने मृत गधे का दिमाग खाना शुरू कर दिया। शेर लौटकर जब शिकार खाने आया तो यह देखकर हैरान रह गया कि गधे का दिमाग गायब है।

‘‘गधे का दिमाग कहां गया ?’’ गुस्से में दहाड़कर शेर जोर से बोला।’
‘‘गधे का दिमाग !’’ कुटिल लोमड़ी ने अपनी अनभिज्ञता दर्शाई, ‘‘महाराज आप भी तो अच्छी तरह से जानते हैं कि गधों को पास दिमाग नाम की चीज नहीं होती। यदि इस गधे के पास दिमाग होता तो यह दुबारा यहां मौत के मुंह में लौट कर क्यों आता ?’’
शेर भी लोमड़ी के झांसे में आ गया। शिकार खाने की उतावली में वह यह भी न जान सका कि लोमड़ी उसे मूर्ख बना रही है।

‘‘हां, बात तो तुम ठीक कह रही हो।’’ शेर बोला।
इसके बाद वह मजे से चटखारे लेकर अपने शिकार को चट करने में जुट गया।
सीख—कई बार बुद्धि-विवेक पर अज्ञानता का आवरण पड़ जाता है, जो कि ठीक नहीं है।

निर्धन ब्राह्मण का स्वप्न


किसी समय में एक गांव में स्वभाव कृपण ब्राह्मण रहता था। वह इस दुनिया में बिल्कुल अकेला था। उसका कोई सगा-सम्बन्धी व मित्र नहीं था। वह भिक्षा मांगकर अपना जीवन निर्वाह करता था। भिक्षा में उसे जो कुछ भी अन्नादि मिलता उसे वह मिट्टी के एक बरतन में बांधकर बिस्तर के पास पैरों की ओर लटका देता। जब भी उसे भूख सताती तो वह बरतन में से निकालकर खा लेता।

बंधे-बंधाए ढर्रे पर चल रही थी उसके जीवन की गाड़ी। दिनभर भिक्षा मांगते वह बेहद थक जाता था और बिस्तर पर पड़ते ही उसे नींद आ जाती थी।
एक रात दिन भर का थका-मांदा ब्राह्मण जैसे ही बिस्तर पर लेटा कि उसे गहरी नींद आ गई। तभी नींद में उसने स्वप्न देखा—अब वह निर्धन नहीं रहा। उसके शरीर पर सुन्दर आभूषण लदे हैं। उसने सुंदर वस्त्र पहन रखे हैं। उसने बहुत-सी गाय भैंस भी खरीद ली हैं। कुछ समय बाद उन गाय-भैसों के भी बच्चे हो गए। वे बच्चे जल्दी ही बड़े होकर मजबूत बैल व गाय बन गए। चारों ओर घर में उपयोगी पशुओं की रेलम-पेल हो गई।

उन गाय-भैसों ने ढेर सारा दूध देना शुरू कर दिया। उसके घर में दूध-घी की नदियां बहने लगीं।
इतना अधिक दूध-दही व घी होता कि घर वाले छककर खा लेते, फिर भी बहुत सारा बच जाता। अब घी वह दही को वह बाजार में बेचने लगा। जल्दी ही उसकी गिनती धनवानों में होने लगी। तब उसने एक सुंदर युवती से विवाह कर लिया। जल्दी ही उनके बच्चे भी हो गए। बच्चे दिन-भर शोर मचाते धमा-चौकड़ी करते रहते। तब वह गुस्से से उन्हें चुप रहने को कहता, लेकिन बच्चे एक न सुनते। तब वह छड़ी उठाकर उनके पीछे भागता।
गहरी नींद में यह स्वप्न देखते ब्राह्मण ने तेजी से पैर चलाने शुरू कर दिए। तभी अचानक उसका पैर अन्न से भरे उस मिट्टी के बरतन से टकराया, जो समीप ही लटका था।

ठोकर लगने से बरतन गिरकर टूट गया और सारा अन्न जमीन पर बिखर गया। ब्राह्मण की नींद उचट गई थी। उसने पाया कि वह तो बिस्तर पर पड़ा है। आस-पास बिखरा अन्न भी अब खाने लायक नहीं बचा था। और उस अन्न की तरह ही बिखर गया था उसका सपना।
सीख—हवा में किले बनाना मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं।

ऊंट के गले में घंटी


एक छोटे से शहर में बैलगाड़ी आदि की मरम्मत करने वाला उज्जवलका नाम का व्यक्ति रहता था। काम-धाम उसका ठीक नहीं चल रहा था, दो समय की रोटी का जुगाड़ करना भारी हो गया था। अतः उसने किसी अन्य शहर में जाकर भाग्य आजमाने की सोची। वह अपने परिवार के साथ दूसरे शहर की ओर चल दिया।

अपनी यात्रा के बीच उज्जवलका व उसका परिवार जब जंगल से होकर गुजर रहे थे, तो उन्होंने एक ऊंटनी को प्रसव वेदना से छटपटाते देखा। उसे पीड़ा में देख उज्जवलका की पत्नी ने यात्रा को कुछ देर रोकने को कहा, ताकि इस संकट की घड़ी में उंटनी की सहयता हो सके। वे वहीं रुक गए और उज्जवलका की पत्नी ऊंटनी की देख-भाल में जुट गई। शीघ्र ही उंटनी ने बच्चे को जन्म दिया।
उज्जवलका के परिवार ने दोनों की भली-भांति देख-रेख की और बच्चे सहित ऊंटनी को लेकर घर लौट आए। धीरे-धीरे वह बच्चा जवान होकर पूरा ऊंट बन गया।

प्रेम वश उज्जवलका ने उस युवा ऊंट के गले में एक घंटी बांध दी थी। अब जब भी वह ऊंट चलता तो गले में बंधी घंटी टनटना उठती।
ऊंटनी का दूध बेचकर उज्जवलका ने काफी धन भी एकत्र कर लिया था। शीघ्र ही उसने एक और ऊंटनी खरीद ली।
भाग्य जल्दी ही उज्वलका पर मेहरबान हुआ और वह बहुत से ऊंटों का मालिक बन गया।
उसके सभी ऊंट एक साथ पास के जंगल में चरने के लिए जाते थे।

लेकिन, गले में घंटी बंधे ऊंट की आदत थी कि वह रेवड़ से प्रायः अलग हो जाता था। उसे लेकर अन्य सभी ऊंट चिंतित रहते थे। वे उसे यहां-वहां जाने पर टोकते भी थे, लेकिन वह किसी की बात पर कान नहीं देता था।
एक दिन सभी ऊंट जंगल में चर रहे थे। तभी एक शेर घंटियों की आवाज सुनकर चौंक पड़ा। उसने आवाज का पीछा किया तो पाया कि ऊंटों का पूरा रेवड़ घास चर रहा था।

उसने देखा कि गले में घंटी बाँधे एक ऊंट उन सबसे अलग रहकर घास चरने में मशगूल था।
दूसरे अन्य ऊंट पेट भरने के बाद घर लौट चले थे, लेकिन वह ऊंट यूं ही यहां-वहां घूम रहा था।
शेर यह देख झाड़ियों के पीछे छिप गया। जैसे ही चरने के लिए वह ऊंट वहां आया, शेर ने झपट्टा मारकर उसका काम तमाम कर दिया।
सीख—अच्छी सीख पर अमल न करने का परिणाम बुरा ही होता है।




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