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पंचतंत्र की नैतिक कथाएं

अनिल कुमार

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :40
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3948
आईएसबीएन :81-8133-362-4

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सही-गलत की समझ देने वाली कहानियो का अनूठा संकलन....

Panchtantra Ki Naitik Kahaniyan Vishnu Sarma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बातूनी कछुआ

एक समय की बात है, किसी नदी में संकट और विकट नाम के दो हंस कम्बुग्रीव कछुए के साथ रहते थे। तीनों अच्छे मित्र थे। एक बार उस क्षेत्र में अकाल पड़ गया और जल के सभी स्रोत नदियां, झीलें, तथा तालाब आदि सूख गए। पक्षियों तथा जानवरों के पीने के लिए पानी की बूंद भी न बची। वे बेचारे प्यास के मारे दम तोड़ने लगे।
नदी में रहने वाले उपरोक्त तीनों मित्र आपस में बातें करते हुए इस समस्या के समाधान का प्रयास करने के चक्कर में पानी की खोज में लगे रहते। लेकिन अथक प्रयासों के बावजूद उन्हें आसपास कहीं पानी न मिला।

कोई अन्य रास्ता न देखकर तीनों मित्रों ने तय किया कि दूर स्थित कोई ऐसा जलस्रोत खोजा जाए, जो हमेशा पानी से भरा रहता हो और जहां आराम से रहा जा सके। लेकिन दूर कहीं जाने के रास्ते में एक अड़चन थी। हंस तो आराम से उड़कर वहां जा सकते थे, लेकिन कछुए के लिए इतनी दूरी चलकर तय करना कठिन था।
तभी कछुए के दिमाग में एक विचार कौंधा। वह बोला, ‘‘क्यों न एक लम्बी लकड़ी लाई जाए। उस लकड़ी के दोनों सिरे तुम अपनी चोचों में दबा लेना और मैं बीच के हिस्से को पकड़कर लटक जाऊंगा। इस तरह मैं भी तुम्हारे साथ उड़ सकूंगा।
दरअसल, उन तीनों को साथ रहते काफी समय हो चुका था। साथ ही कछुए के दिमाग में यह विचार भी था कि यदि हंस चले गए तो वह बिना पानी के यहां अकेला कैसे रह पाएगा।

कछुए का यह विचार सुनकर हंसों ने उसे चेताया, ‘‘विचार तुम्हारा अच्छा है। हम वैसा कर सकते हैं, जैसा तुम कह रहे हो। लेकिन तुम्हें सावधान रहना होगा। तुम्हारे साथ समस्या यह है कि तुम बेहद बातूनी हो। जब हम आकाश में उड़ रहे होंगे और तब तुमने कुछ कहने के लिए अपना मुंह खोला तो निश्चय ही नीचे गिरकर तुम्हारे पुर्जे बिखर जाएंगे। इसलिए उस समय बिल्कुल न बोलना, जब तुम मुंह से लकड़ी पकड़े हमारे साथ उड़ रहे होगे।’’
हंसों के कहे की गंभीरता को कछुआ समझ गया और उड़ते समय उसने कुछ न बोलने की कसम खाई। अब हंसों ने लकड़ी के दोनों सिरे चोंच में दबाए, कछुआ बीच से लकड़ी मुंह से पकड़कर लटक गया। हंस उड़ चले।
पानी की तलाश न जाने उन्हें कहां ले जाने वाली थी। सभी कुछ वैसा ही ही चल रहा था, जैसा उन्होंने तय किया था।
वे नदी, घाटी, गांव, जंगल, मैदान पार करते हुए एक शहर के ऊपर आ पहुंचे।

जब वे शहर के ऊपर से उड़ रहे थे तो बहुत से स्त्री-पुरुष व बच्चे इस अनोखे दृश्य को देखने घरों से बाहर निकल आए। बच्चे ताली बजाकर चिल्लाने लगे।
बातूनी कछुआ यह देख भूल गया कि वह हवा में मुंह से लकड़ी पकड़े लटका है। वह इस शोर व तालियों का कारण जानने को उत्सुक था। उसने अपने मित्रों से यह पूछने के लिए मुंह खोला तो लकड़ी से उसकी पकड़ छूट गई और वह जमीन पर गिरकर तुरंत दम तोड़ गया।

सीख-अच्छी सलाह पर ध्यान देने में ही भलाई है।

चूहा और संन्यासी


किसी जंगल में रहकर एक संन्यासी तपस्या करता था। जंगल के जानवर उस संन्यासी के पास प्रवचन सुनने आया करते थे। वे आकर संन्यासी को चारों ओर से घेर लेते और वह जानवरों को अच्छा जीवन बिताने का उपदेश देता।
उसी जंगल में एक छोटा-सा चूहा भी रहता था। वह भी रोज संन्यासी का प्रवचन सुनने आता था।
एक दिन वह जंगल में यहां-वहां भटकता साधु को भेंट देने के लिए कुछ ढूँढ़ रहा था कि एक बड़ी बिल्ली ने उस पर हमला बोल दिया। वह बिल्ली झाड़ियों में छिपकर चूहे पर निगाह रखे थी।
चूहा बेहद डर गया और भाग निकला सीधे संन्यासी के आश्रम की ओर।

वहां जाकर चूहा संन्यासी के पैरों में दंडवत पड़ गया और भयमिश्रित स्वर में उसे अपनी आपबीती कह सुनाई।
इसी बीच बिल्ली भी वहां आ पहुंची थी। उसने संन्यासी से आग्रह किया कि उसे उसकी शिकार ले जाने दे।
संन्यासी बेचारा धर्मसंकट में पड़ गया। उसने एक क्षण सोचा और फिर अपनी दिव्य शक्ति से चूहे को एक बड़ी बिल्ली में बदल दिया।
अब अपने से बड़ी बिल्ली को सामने देख पहली बिल्ली वहां से भाग निकली।

अब चूहा बिल्कुल चिंतामुक्त था। वह अब किसी दूसरी बड़ी बिल्ली की भांति जंगल में विचरण करता। दूसरे जानवरों को डराने के लिए वह जोर से गुर्राना भी सीख गया था। बिल्लियों से बदला लेने के लिए वह उनसे भिड़ जाता। बहुत-सी बिल्लियां उसने मार डाली थीं।
लेकिन चूहे का यह चिंतामुक्त जीवन लंबा नहीं चला।
एक दिन एक लोमड़ी ने उस पर झपट्टा मारा। अब एक नई समस्या उठ खड़ी हो हुई। उसने यह तो कभी सोचा ही नहीं था कि बिल्ली से बड़े और हिंसक जानवर भी जंगल में मौजूद हैं, जो पलभर में उसे चीर-फाड़ सकते हैं। वह फिर अपनी प्राणरक्षा के लिए दौड़ा। किसी तरह लोमड़ी से बचकर वह फिर संन्यासी के आश्रम में जा पहुंचा। लोमड़ी भी उसका पीछा करते वहां पहुंच चुकी थी। अब दोनों संन्यासी के सामने खड़े थे।
संन्यासी ने चूहे की परेशानी देख उसे बड़ी-सी लोमड़ी में बदल दिया। अब अपने से बड़ी लोमड़ी सामने देख पहली लोमड़ी वहां से भाग निकली।

बड़ी लोमड़ी का आकार पाकर चूहा फिर चितामुक्त हो गया और जंगल में स्वछंद विचरने लगा। लेकिन उसकी यह खुशी भी ज्यादा नहीं टिक पाई।
एक दिन जब वह यूं ही जंगल में घूम रहा था कि एक शेर उस पर झपट पड़ा। किसी तरह चूहे ने अपने प्राण बचाए और पहले की तरह भाग निकला, सीधा संन्यासी के आश्रम की ओर।
संन्यासी को पुन: चूहे पर दया आ गयी और उसने उसे शेर के रूप में परिवर्तित कर दिया।
संन्यासी यह सब करते समय यह सोचता था कि चूहा उसका पुराना शिष्य है-छोटा व निरीह प्राणी है। हिंसक जानवरों से उसकी रक्षा करना उसका कर्तव्य है।
शेर का रूप लेकर चूहा जंगल में निर्भय विचरण करने लगा। अकारण ही उसने जंगल के बहुत से प्राणी मार डाले। शेर का रूप पाने के बाद चूहा जंगल का सर्वशक्तिमान प्राणी बन गया था। वह राजा की तरह बर्ताव करता और वैसे ही आदेश देता जैसे कोई राजा देता है।

अब उसे एक ही चिंता दिन-रात लगी रहती, और वह चिंता थी संन्यासी कि दिव्य शक्तियों को लेकर।
वह सोचता था कि क्या होगा, तब जब संन्यासी कारण या अकारण उसे पहले जैसे चूहे के रूप में बदल देगा। वह जितना सोचता, चिंता उतनी ही बढ़ती जाती।
अंतत: एक दिन कुछ निश्चय करके वह संन्यासी के पास आकर जोर से दहाड़ा और बोला, मैं भूखा हूं अब मैं तुम्हें खाऊंगा ताकि वे सभी दिव्य शक्तियां मुझमें समा जाएं, जो अभी तुम्हारे पास हैं। मुझे आज्ञा दें कि आपको मार सकूं।’’
संन्यासी को स्वप्न में भी गुमान न था कि जिस चूहे का रूप बदलकर वह उसकी प्राणरक्षा कर रहा है, वही एक दिन उसके प्राणों का प्यासा बन जाएगा।
चूहे के यह शब्द सुनकर संन्यासी को बहुत गुस्सा आया। उसकी कुमंशा को भांपकर उसने तुरन्त ही उसे फिर से चूहा बना दिया।
अब चूहे को अपनी गलती का अनुभव हुआ। उसने अपने बुरे बर्ताव के लिए संन्यासी से क्षमा मांगते हुए उसे फिर से शेर बना देने को कहा। लेकिन संन्यासी ने उसे लाठी से पीठकर वहां से भगा दिया।

सीख-बड़ा होने पर अभिमान नहीं करना चाहिए, तूफान में वही पेड़ सलामत बचता है, जो झुकना जानता है।

हाथी का प्रतिशोध


बहुत समय पहले किसी नगर में एक बहुत बड़ा हाथी रहता था। हाथी बेहद धार्मिक व आस्थावान था और रोज मंदिर के सामने जाकर पूजा भी करता था। भारी-भरकम शरीर होने के बावजूद उसके दिल में प्यार भरा था। सभी लोग उसको चाहते थे। और खाने के लिए तरह-तरह के फल देते थे।
यह उस हाथी की आदत थी कि वह मंदिर आने जाने के लिए रोज एक ही रास्ता इस्तेमाल करता था।
मंदिर जाने के रास्ते में हाथी को नगर के व्यस्त बाजार से होकर गुजरना पड़ता था। बाजार में बैठने वाला एक फूल वाला रोज उसको गेंदे के फूलों की माला पहनाता था, जबकि फल विक्रेता उसे फल खाने को देता। हाथी भी इसके लिए दोनों का आभार मानता था। बाजार के बहुत से लोग हाथी के पास एकत्र हो जाते और उसे प्यार से थपथपी देने लगते। उनके मन में हाथी के लिए बेहद सम्मान था।

सब कुछ पूर्ववत ही चल रहा था, लेकिन आदमी के मन में क्या है, इसे भला कौन जान सकता है।
एक दिन न जाने क्यों फूल बेचने वाले को हाथी से मजाक करने की सूझी। उस दिन हाथी जब उसकी दुकान पर आया तो उसने उसकी सूंड़ में माला पहनाने के बजाय सुई चोभ दी।
मारे दर्द के छटपटाता हाथी जमीन पर बैठ गया। कुछ लोग उसके आसपास एकत्र होकर हंसने लगे।

फूलवाले की यह हरकत हाथी को बेहद नागवार गुजरी। उस दिन वह मंदिर भी नहीं गया पूजा करने। कुछ देर बाद वह कीचड़ भरे एक तालाब पर पहुंचा और ढेर सारा गंदा पानी अपनी सूंड़ में भर लिया और वापस आ पहुंचा फूलवाले की दुकान पर। वहां आकर उसने अपनी सूंड़ में भरा सारा कीचड़ फूलों पर व सारी दुकान में फेंक दिया। फूल वाले का सारा सामान बरबाद हो गया था, कुछ भी बिकने लायक नहीं बचा था।
अब फूलवाला पछताने लगा कि उसने ऐसी गलती क्यों की। लोगों ने भी उसके किए के लिए उसे धिक्कारा। नुकसान जो हुआ जो अलग।
फूलवाले को अपनी करनी का फल मिल गया था।

सीख-जैसे को तैसा।

लोमड़ी और मोर


एक लोमड़ी जंगल में यू ही इधर-उधर घूम रही थी। तभी उसने देखा कि एक पेड़ की ऊंची टहनी पर एक सुंदर सा मोर बैठा है। लोमड़ी ने सोचा कि किस प्रकार इस मोर को अपना आहार बनाया जाए वह जानती थी कि मोर को मारने के लिए वह पेड़ पर नहीं चढ़ सकती।
तब लोमड़ी ने अपनी चतुराई दिखाते हुए कहा, ‘‘तुम इस पेड़ पर क्यों बैठे हो ? क्या तुम्हें पता नहीं कि आज हुई जानवरों की सभा में यह निर्णय हुआ कि कोई भी जानवर या पक्षी किसी दूसरे को शिकार के लिए नहीं मारेगा। ‘बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है’’ वाला नियम अब नहीं चलेगा।’’

मोर ने नहले पर दहला मारते हुए जवाब दिया, ‘इसका मतलब तो यह हुआ कि आज से शेर, चीते, भेड़िए आदि सभी हिंसक जीव घास-फूस खाने लगे हैं।’’
लोमड़ी थोड़ा सकपकाई अवश्य, लेकिन वह भी आसानी से पीछा छोड़ने वाली नहीं थी। वह बोली, ‘‘हां, इसके बारे में तो पड़ताल करनी होगी। अभी, नीचे उतरो। हम दोनों जंगल के राजा के पास चलकर पूछते हैं।’’
‘‘वहां जाने की कोई जरूरत नहीं।’ मोर बोला, ‘मुझे तुम्हारे कुछ साथी इसी ओर आते दिख रहे हैं।
‘‘मेरे साथी ! कौन ?’’ लोमड़ी आश्चर्य मिश्रित स्वर में बोली।

‘‘कुछ शिकारी कुत्ते हैं।’’ मोर ने उत्तर दिया।
अरे बाप रे शिकारी कुत्ते। लोमड़ी भयभीत स्वर में बोली और वहां से भागने लगी।
‘‘तुम भाग क्यों रही हो ? अभी तुमने ही तो कहा था कि जंगल के सभी प्राणी आपस में मित्रवत रहा करेंगे।’’ मोर ने हंसते हुए बोला।
‘‘लेकिन शिकारी कुत्ते शायद उस सभा में मौजूद नहीं थे। उन्हें मालूम नहीं होगा।’ कहती हुई लोमड़ी वहां से भाग निकली।

सीख-संकट के समय बुद्धि से काम लेना चाहिए।

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