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पौराणिक कथाएँ >> माँ गंगा

माँ गंगा

महेन्द्र मित्तल

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3944
आईएसबीएन :81-310-0001-x

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पापियों का उद्धार करने धरती पर उतरी गंगा की कथा....

Maa Ganga

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्वर्ग में गंगा

‘ब्रह्मा पुराण’ में ऋषि लोमहषर्ण ने गंगा की उत्पत्ति के विषय में बताया कि जब हिमालय पुत्री उमा का विवाह भगवान आशुतोष शिव से होने जा रहा था, तब विवाह मण्डप में उमा के सौंदर्य को देखकर स्वयं ब्रह्मा के मन में विकार उत्पन्न हो गया था। उस पाप से मुक्ति दिलाने के लिए स्वयं विष्णु ने अपने कमण्डल में अपने चरण रखकर जल से धोए और उस जलयुक्त कमण्डल को ब्रह्मा को सौंपते हुए कहा, ‘‘हे ब्रह्मा जी ! यह कमण्डल धरती का रूप है और इसमें पड़ा जल नदी के रूप में परिर्वित हो जाएगा इस नदी के जल से स्नान करने या जलपान करने पर मनुष्य के सभी पापों का विनाश हो जाएगा। यह जल ही पवित्र गंगा है। इसका आचमन करने से आपके मन का विकार भी नष्ट हो जाएगा और जो पाप आपसे हुआ है, वह भी नष्ट हो जाएगा।’’

ब्रह्मा ने उस जल का आचमन किया और जल के छीटें अपने ऊपर छिड़के। इससे उनके मन का पाप नष्ट हो गया।

गंगा का सौंदर्य


ब्रह्मलोक में ब्रह्मा ने उस पवित्र जल से अपनी मानस पुत्री गंगा को नारी का रूप प्रदान किया और कहा, ‘‘पुत्री तू अपनी इच्छा शक्ति से तीनों लोकों में वास करेगी और देव- दानव, पशु-पक्षी, जड़-वनस्पति तथा समस्त जलचरों के पापों का विनाश करके उनमें पवित्र भावों को विकसित करने में सदा सहायक होगी। विष्णु के इस कमण्डल में तेरी उपस्थिति सदैव अक्षुण्ण बनी रहेगी।’’

गंगा ने कहा, हे पिता श्री ! आपने मेरा जो कर्म निश्चित किया है मैं सदैव उसका पालन करूँगी। परन्तु आपके पास से कहीं और जाने का मेरा मन नहीं है। मैं यहीं, आपके पास, स्वर्ग में ही रहना चाहती हूँ।’’
ब्रह्मा ने कहा, ‘‘पुत्री ! तेरा जन्म ही लोक-कल्याण के लिए हुआ है इसलिए तुझे अपना यह घर छोड़कर एक दिन जाना ही होगा। फिर भी तेरा नाता इस स्वर्ग में कभी समाप्त नहीं होगा।’’

ब्रह्मा का शाप


इक्ष्वाकु वंश में महाभिष नाम के एक धर्मनिष्ठ राजा थे। वे बड़े सत्यनिष्ठ और सच्चे वीर थे। उन्होंने बड़े-बड़े अश्वमेध और राजसूय यज्ञ करके स्वर्ग प्राप्त किया था। एक दिन जब वह बहुत से देवताओं और राजर्षियों के साथ महाराज महाभिष भी ब्रह्मा के सामने उपस्थित थे, गंगा जी भी वहाँ आ गईं। वायु ने गंगा के श्वेत वस्त्र को उनके वक्षस्थल से सरका दिया। वहाँ जितने लोग थे, सभी ने अपनी आँखें नीची कर लीं। परन्तु गंगा जब तक अपने आँचल को संभालती तब तक राजर्षि महाभिष एकटक गंगा के उस उन्मुक्त सौंदर्य को निहारते रहे।

इस पर ब्रह्मा ने राजा महाभिष को शाप देते हुए कहा, ‘‘महाभिष ! अब तुम्हें मृत्युलोक में जाना पड़ेगा। वहाँ यह गंगा तुम्हारा अप्रिय करेगी और जब तुम इस पर क्रोध करोगे, तभी तुम शाप से मुक्त हो जाओगे।’’
महाभिष ने हाथ जोड़कर अपना अपराध स्वीकार किया और ब्रह्मा की आज्ञा शिरोधीर्य करके स्वर्ग छोड़ दिया।

गंगा का वसुओं से भेंट


ब्रह्मा के पास से लौटकर जब गंगा वापस जा रही थी तब आकाश मार्ग में उसकी भेंट आठ वसुओं से हुई। वे सभी देवताओं के वेश में थे और युवा थे। गंगा ने उन्हें देखा तो पूछा, ‘‘आज आठों देवगण के चेहरों पर यह उदासी क्यों है ?’’
उनमें से एक ने कहा, ‘‘देवी ! महर्षि वशिष्ठ ने हमें शाप दिया है कि हमारा जन्म मनुष्य योनि में होगा। इसी से हम श्रीहीन हो रहे हैं।’’

गंगा ने पूछा, ‘‘उन्होंने शाप तुम्हें क्यों दिया ?’’
वसुगण बोले, ‘‘हमने उनकी गाय नंदिनी का अपरहण कर लिया था। इसलिए उन्होंने हमें शाप दे डाला। उन्होंने हमें तो एक वर्ष के भीतर ही शापमुक्त होने की बात कही है, किंतु इस ‘द्यौ’ नामक वसु को, जिसने नंदिनी का अपरहण किया था। बहुत दिनों तक मृत्यु लोक में कष्ट भोगने का शाप दिया है।’’

गंगा ने उनकी बात सुनकर कहा, ‘‘ठीक है, ब्रह्मपिता के अनुसार महाराज महाभिष का अप्रिय करने संभवताः मुझे भी मृत्युलोक में जाना पड़ेगा। यदि ऐसा हुआ तो मैं तुम्हें अपने गर्भ में धारण करके जन्म दूँगी और यथाशीघ्र तुम्हें इस मनुष्य योनी से छुटकारा दिला दूँगी।’’
गंगा का आश्वासन पाकर आठों वसु वहां से चले गये।

राजा प्रतीप की तपस्या


हस्तिनापुर में पुरुवंश का राजा प्रदीप निःसंतान था। संतान की इच्छा से उसने पत्नी के साथ एक बार हिमालय की गोद में बैठकर घोर-तपस्या की। उसी समय स्वर्ग से नीचे गिरते हुए राजर्षि महाभिष ने उन्हें तपस्या करते देखा। उसने सोचा कि क्यों न मैं इनके घर जन्म लूँ। ऐसा विचार करके महाभिष सूक्ष्म रूप से राजा प्रतीप की पत्नी की कोख में समा गया।

समाधि टूटने पर राजा की पत्नी ने राजा को शुभसमाचार दिया कि वह गर्भवती है। राजा यह समाचार सुनकर अत्यंन्त प्रसन्न हो उठा और ईश्वर से प्रार्थना करने लगा कि उनके यहाँ जो भी सन्तान जन्म ले वह उनके कुल का यश बढ़ाने वाली हो।

राजा प्रतीप की पत्नी ने कहा, ‘‘स्वामी ! जब से मुझे अपने गर्भ का पता चला है, तब से मुझे गहरा आत्म-संतोष प्राप्त हो रहा है। मुझे लगता है कि निश्चय ही मुझे पुत्र की प्राप्ति होगी।’’

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