पौराणिक कथाएँ >> शिव पार्वती शिव पार्वतीअनिल कुमार
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त्याग,प्रेम और समर्पण का अनूठा चित्रण....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
शिवपुराण का संक्षिप्त परिचय
एक बार सूतजी ने शिवपुराण के महत्त्व पर संभाषण करते हुए कहा,
‘‘साधु-महात्माओं !’’ ब्राह्मणों
! शिवपुराण का
पठन अथवा श्रवण करने से चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति हो जाती है। यह
चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष हैं। इस पुराण को वेदों के
समानांतर स्थान प्राप्त है। इस वेदकल्प पुराण का प्रणयन सर्वप्रथम भगवान
शिव द्वारा किया गया था। इस पुराण के बारह भेद या खण्ड
हैं-विद्येश्वरसंहिता, रुद्रसंहिता, विनायकसंहिता, उमासंहिता, मातृसंहिता,
एकादशरुद्रसंहिता, कैलाससंहिता, शतरुग्रसंहिता, कोटिरुद्रसंहिता,
सहस्रकोटिरुद्रसंहिता, वायवीयसंहिता तथा धर्मसंहिता-ये बारह संहिताएं
अत्यन्त पुण्यमयी मानी गयी हैं। ब्राह्मणो ! विद्येश्वरसंहिता में दस
सहस्र श्लोक हैं। रुद्रसंहिता, विनायकसंहिता, उमासंहिता और मातृसंहिता में
आठ-आठ सहस्र श्लोक हैं। एकादशरुद्रसंहिता में तेरह सहस्र, कैलाससंहिता में
छ: सहस्र, शतरुग्रसंहिता में तीन सहस्र, कोटिरुद्रसंहिता में नौ सहस्र,
सहस्रकोटिरुद्रसंहिता में ग्यारह सहस्र, वायवीय संहिता में चार सहस्र तथा
धर्मसंहिता में बारह सहस्र श्लोक हैं। इस प्रकार मूल शिवपुराण में श्लोकों
की कुल संख्या एक लाख है। परन्तु व्यासजी ने उसे चौबीस सहस्त्र श्लोकों
में संक्षिप्त कर दिया है। इसमें सात संहिताएं-विद्येश्वरसंहिता,
रुद्रसंहिता, शतरुग्रसंहिता, कोटिरुद्रसंहिता, उमासंहिता, कैलाशसंहिता तथा
वायवीयसंहिता हैं।’’
‘‘वास्तव में पूर्वकाल में भगवान शिव ने सृष्टि के आदि में श्लोक-संख्या की दृष्टि से दो सौ करोड़ श्लोकों का एक ही पुराणग्रन्थ ग्रथित किया था। तत्पश्चात् द्वापर आदि युगों में द्वैपायन (व्यास) आदि महर्षियों ने जब पुराण का संक्षिप्त स्वरूप में विभाजन किया, उस समय सम्पूर्ण पुराणों का संक्षिप्त स्वरूप केवल चार लाख श्लोकों का रह गया। और अंत में व्यासजी ने शिवपुराण का चौबीस सहस्र श्लोकों में प्रतिपादन किया।’’
‘‘जो इस पुराण का भक्तिपूर्वक पठन या श्रवण करता है, वह भगवान शिव का प्रिय होकर परम गति को प्राप्त कर लेता है।’’
प्रिय पाठको ! यद्यपि ऊपर दिये गये विवरणों का भगवान शिव एवं माता पार्वती से संबंधित कथाओं के साथ कोई संबंध नहीं है, फिर भी आपकी जिज्ञासा को ध्यान में रखते हुए मैंने ये विवरण अपने समक्ष रखना आवश्यक समझा। मुझे विश्वास है कि मेरे प्रयास से मेरे जिज्ञासु पाठकों की पौराणिक ग्रन्थों एवं कथाओं की जानकारी में वृद्धि होगी।
‘‘वास्तव में पूर्वकाल में भगवान शिव ने सृष्टि के आदि में श्लोक-संख्या की दृष्टि से दो सौ करोड़ श्लोकों का एक ही पुराणग्रन्थ ग्रथित किया था। तत्पश्चात् द्वापर आदि युगों में द्वैपायन (व्यास) आदि महर्षियों ने जब पुराण का संक्षिप्त स्वरूप में विभाजन किया, उस समय सम्पूर्ण पुराणों का संक्षिप्त स्वरूप केवल चार लाख श्लोकों का रह गया। और अंत में व्यासजी ने शिवपुराण का चौबीस सहस्र श्लोकों में प्रतिपादन किया।’’
‘‘जो इस पुराण का भक्तिपूर्वक पठन या श्रवण करता है, वह भगवान शिव का प्रिय होकर परम गति को प्राप्त कर लेता है।’’
प्रिय पाठको ! यद्यपि ऊपर दिये गये विवरणों का भगवान शिव एवं माता पार्वती से संबंधित कथाओं के साथ कोई संबंध नहीं है, फिर भी आपकी जिज्ञासा को ध्यान में रखते हुए मैंने ये विवरण अपने समक्ष रखना आवश्यक समझा। मुझे विश्वास है कि मेरे प्रयास से मेरे जिज्ञासु पाठकों की पौराणिक ग्रन्थों एवं कथाओं की जानकारी में वृद्धि होगी।
कुंअर’ अनिल कुमार
द्वादशज्योतिर्लिंग-दर्शन
सूत जी कहते हैं, ‘‘शौनक ! वे भक्त भी, जो श्रवण,
कीर्तन तथा
मनन-इन तीनों साधनों के अनुष्ठान में समर्थ न हो, भगवान शिव के लिंग एवं
मूर्ति की स्थापना करके नित्य उनकी पूजा करें तो भाव सागर को पार कर सकते
हैं एवं समस्त सिद्धियां उन्हें सहज ही प्राप्त हो सकती
हैं।’’
(विद्येश्वरसंहिता: शिवपुराण: अध्याय 5 से 8)
शिवलिंग अथवा ज्योतिर्लिंग का यही माहात्म्य है। पूरे भारतवर्ष में बारह
अलग-अलग स्थानों पर बारह नामों से बारहज्योतिर्लिंग हैं। नीचे इनका
संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है-
1. श्रीसोमनाथ ज्योतिर्लिंग -
-यह
ज्योतिर्लिंग
विश्वप्रसिद्ध सोमनाथ मन्दिर में स्थापित है। उक्त मन्दिर गुजरात
(काठियावाड़) में समुद्र तट पर स्थित है। इसके पूर्व इस क्षेत्र को
प्रभासक्षेत्र के नाम से जाना जाता था। यह वही स्थान है जहां पर भगवान
श्रीकृष्ण ने जरा नामक व्याध के बाण को निमित्त बनाकर अपने पार्थिव शरीर
का त्याग किया था।
2. श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग
- यह
ज्योतिर्लिंग
श्रीशैल पर्वत-शिखर पर स्थापित है जो आन्ध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट
पर है। इस पर्वत को दक्षिण भारत का कैलास पर्वत भी कहा जाता है। इस
ज्योतिर्लिंग के महामात्य का विस्तृत वर्णन महाभारत, शिवपुराण एवं
पद्मपुराण आदि धर्मग्रंथों में उपलब्ध है।
3. श्रीमहाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग
- यह
ज्योतिर्लिंग
मध्यप्रदेश में उज्जैन नगर में स्थापित है। क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित
यह उज्जैन नगर पूर्वकाल में उज्ज्यिनी के नाम से जाना जाता था। इस नगर को
अवन्तिकापुरी भी कहा जाता था। यह भारत की परम पवित्र सप्तपुरियों (तीर्थों
के सात प्रमुख स्थान-अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांची, उज्ज्यिनी और
द्वारिका) में से एक है।
4. श्री ओम्कारेश्वर, श्रीअमलेश्वर
ज्योतिर्लिंग
- यह
ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश में पवित्र नदी नर्मदा के तट पर अवस्थित है।
नर्मदा के दो धाराओं में विभक्त हो जाने के कारण बीच में एक टापू-सा बना
गया है। इस टापू को मान्धता-पर्वत या शिवपुरी के नाम से भी जाना जाता है।
नदी की एक धारा इस पर्वत के उत्तर तथा दूसरी दक्षिण की होकर प्रवाहित होती
है। इसी मान्धता पर्वत पर श्रीओम्कारेश्वर-ज्योतिर्लिंग का मन्दिर अवस्थित
है। पूर्वकाल में महाराजा मान्धता ने इसी पर्वत पर तपस्या की थी और भगवान
शिव को प्रसन्न किया था। इस पर्वत का नाम मान्धता-पर्वत पड़ने का यही कारण
बना। श्रीओम्कारेश्वर लिंग का निर्माण मनुष्य द्वारा न किया हुआ होकर
प्रकृति द्वारा किया हुआ है।
5. श्रीकेदारनाथ ज्योतिर्लिंग
- यह
ज्योतिर्लिंग
हिमालय-पर्वत-श्रृंखला में केदार नामक पर्वत की चोटी पर अवस्थित है। इस
पर्वत-शिखर के पश्चिम भाग में मन्दाकिनी नदी के तट पर केदारेश्वर भगवान
शंकर का मन्दिर अवस्थित है और इसके पूर्व में अलकनन्दा नदी के तट पर
बदरीनाथ का प्रसिद्ध मन्दिर है।
6. श्रीभीमेश्वर ज्योतिर्लिंग
- यह
ज्योतिर्लिंग गौहाटी के निकट ब्रह्मपुर-पर्वत पर अवस्थित है।
7. श्रीविश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग
- यह
ज्योतिर्लिंग
उत्तर भारत की प्रसिद्ध नगरी काशी में स्थित है। यह नगरी प्रलयकाल में भी
नष्ट नहीं हुई है, क्योंकि प्रत्येक प्रलयकाल में भगवान इस नगरी को अपने
त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं एवं प्रलय काल की समाप्ति व सृष्टि का आरम्भ
होने पर इसे पुन: इसी स्थान पर स्थापित कर देते हैं। इस नगरी के उत्तर की
ओर ॐ कारखण्ड, दक्षिण की ओर केदारखण्ड एवं मध्य में विश्वेश्वरखण्ड हैं।
प्रसिद्ध विश्वेवर ज्योतिर्लिंग इसी खण्ड में अवस्थित है।
8. श्री त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग
- यह
ज्योतिर्लिंग
महाराष्ट्र प्रान्त में नासिक से 30 कि.मी. पश्चिम में अवस्थित है।
9. श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग
- यह
ज्योतिर्लिंग बिहार
प्रान्त के सन्थाल परगने में स्थित है, एवं शास्त्र और लोक दोनों में इसकी
बड़ी प्रसिद्धि है।
10. श्रीनागेश्वर ज्योतिर्लिंग
- भगवान शिव
का यह
प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रान्त में द्वारकापुरी से लगभग 17 मील
दूरी पर स्थित है।
11. श्रीसेतुबन्ध रामेश्वर-
-इस
ज्योतिर्लिंग की स्थापना
भगवान श्रीराम द्वारा रामेश्वरम में की गयी थी। यह स्थान (मद्रास में)
रामनाथम जिले में स्थित है। रामेश्वरम में समुद्र तट पर एक बहुत बड़ा
मन्दिर है, जिसमें यह ज्योतिर्लिंग स्थापित है।
12. श्रीघुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग
- यह
ज्योतिर्लिंग
द्वादश ज्योतिर्लिंग में अंतिम है। इसे घुश्मेश्वर, घुसृणेश्वर व
घृण्णेश्वर के रूप में भी जाना जाता है। यह ज्योतिर्लिंग हैदराबाद राज्य
के अन्तर्गत दौलताबाद स्टेशन से 12 मील दूर वेरुलगांव के पास स्थित है।
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रत्येक ज्योतिर्लिंगों से संबंधित पौराणिक कथाएं हैं, परन्तु स्थानाभाव के कारण ये कथाएं इस पुस्तक में विस्तार नहीं पा सकी हैं। जिज्ञासु पाठकगण कोटिरुद्रसंहिता के अध्याय 8 से 33 के मध्य इन कथाओं का विस्तृत वर्णन प्राप्त कर सकते हैं।
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रत्येक ज्योतिर्लिंगों से संबंधित पौराणिक कथाएं हैं, परन्तु स्थानाभाव के कारण ये कथाएं इस पुस्तक में विस्तार नहीं पा सकी हैं। जिज्ञासु पाठकगण कोटिरुद्रसंहिता के अध्याय 8 से 33 के मध्य इन कथाओं का विस्तृत वर्णन प्राप्त कर सकते हैं।
जब भगवान शिव ने सृष्टि की
जब चारों ओर केवल अन्धकार का अस्तित्व था, न सूर्य था न चन्द्रमा और न
कहीं ग्रह-नक्षत्र या तारे थे, दिन एवं रात्रि का प्रादुर्भाव नहीं हुआ
था, अग्नि, पृथ्वी, जल एवं वायु का भी कोई अस्तित्व नहीं था, तब एकमात्र
भगवान शिव की ही सत्ता विद्यमान थी; और यह वह सत्ता थी जो अनादि एवं अनंत
है।
एक बार भगवान शिव की इच्छा सृष्टि की रचना करने की हुई। उनकी एक से अनेक होने की इच्छा हुई। मन में ऐसे संकल्प के जन्म लेते ही भगवान शिव ने अपनी परा शक्ति अम्बिका को प्रकट किया। उन्होंने उनसे कहा, ‘‘हमें सृष्टि की रचना के लिए किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिए, जिसके कन्धे पर सृष्टि-संचालन का भार सौंपकर हम मुक्त होकर आनन्दपूर्वक विचरण कर सकें।’’ ऐसा निश्चय करके भगवान शिव पुन: अम्बिका के साथ एकाएक हो गये और अपने वाम अंगों के दसवें भाग पर अमृत मल दिया।
इस प्रकार विष्णु की उत्तपत्ति हुई-एक दिव्य पुरुष, जिसका सौंदर्य अतुलनीय था। उनके चार हाथ थे। एक में शंख, एक में चक्र, एक में गदा तथा एक हाथ में पद्म सुशोभित हो रहा था।
भगवान शिव ने इस दिव्य पुरुष को विष्णु नाम दिया और उन्हें उत्तम तप करने का आदेश देते हुए कहा, ‘‘वत्स ! सम्पूर्ण सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व मैं तुम्हें सौंपता हूं।’’ भगवान विष्णु कठोर तप के कारण उनके अंगों से असंख्य जल-धाराएं निकलने लगीं जिनसे सूना आकाश भर गया। अंतत: अपने कठोर तप के श्रम से क्लान्त होकर भगवान विष्णु ने उसी जल में शयन किया। जल अर्थात् ‘नार’ में शयन करने के कारण ही भगवान विष्णु का एक नाम नारायण हुआ।
कुछ समय पश्चात सोते हुए भगवान विष्णु की नाभि से निकलकर एक उत्तम कमल का पुष्प अस्तित्व में आया जिस पर उसी समय भगवान शिव ने अपने दाहिने अंग से चतुर्मुख ब्रह्मा को प्रकट करके डाल दिया। ब्रह्मा जी दीर्घ अवधि तक उस कमल के नाल में भ्रमण करते रहे, अपने उत्पत्तिकर्ता को ढूंढ़ते रहे, पर कोई लाभ नहीं हुआ। तब आकाशवाणी हुई, जिसके आदेशानुसार ब्रह्मा जी ने निरंतर बारह वर्षों तक कठोर तप किया।
बारहवें वर्ष की समाप्ति पर ब्रह्मा जी के समक्ष भगवान विष्णु प्रकट हुए। भगवान शिव की लीला से भगवान विष्णु एवं ब्रह्मा जी के मध्य अकारण विवाद छिड़ गया। विवाद चल ही रहा था कि दोनों के बीच एक दिव्य अग्निस्तम्भ प्रकट हुआ। भगवान विष्णु एवं ब्रह्मा जी अथक प्रयास करके भी अग्निस्तम्भ के आदि-अंत का पता नहीं लगा सके। अंत में हारकर भगवान विष्णु ने अपने दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना की, ‘‘महाप्रभो ! हम आपके स्वरूप को जान सकने में असमर्थ हैं। आप जो भी हो, हमारे ऊपर कृपा करें तथा प्रकट हों।’’
भगवान विष्णु की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव प्रकट हो गये। उन्होंने कहा, ‘‘मैं तुम दोनों के कठोर तप और भक्ति से प्रसन्न हूं। ब्रह्मन् ! मैं समस्त सृष्टि का उत्तरदायित्व तुम्हें सौंपता हूं। विष्णु पर समस्त चराचर जगत् के पालन का उत्तरदायित्व होगा।’ इतना कहकर भगवान शिव ने अपने हृदयभाग से रुद्ध को प्रकट किया और उन्हें संहार का उत्तरदायित्व सौंपकर अंतर्धान हो गये।
ब्रह्मा जी ने अपने कार्य का आरम्भ मानसिक सृष्टि से किया, परन्तु जब उनकी मानसिक सृष्टि विस्तार नहीं पा सकी तो वे अत्यन्त दु:खी हो उठे। उसी समय आकाशवाणी हुई, जिसके माध्यम से उन्हें मैथुनी सृष्टि का आरम्भ करने का आदेश मिला। तब तक नारियों की उत्पत्ति नहीं हुई थी।
एक बार भगवान शिव की इच्छा सृष्टि की रचना करने की हुई। उनकी एक से अनेक होने की इच्छा हुई। मन में ऐसे संकल्प के जन्म लेते ही भगवान शिव ने अपनी परा शक्ति अम्बिका को प्रकट किया। उन्होंने उनसे कहा, ‘‘हमें सृष्टि की रचना के लिए किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिए, जिसके कन्धे पर सृष्टि-संचालन का भार सौंपकर हम मुक्त होकर आनन्दपूर्वक विचरण कर सकें।’’ ऐसा निश्चय करके भगवान शिव पुन: अम्बिका के साथ एकाएक हो गये और अपने वाम अंगों के दसवें भाग पर अमृत मल दिया।
इस प्रकार विष्णु की उत्तपत्ति हुई-एक दिव्य पुरुष, जिसका सौंदर्य अतुलनीय था। उनके चार हाथ थे। एक में शंख, एक में चक्र, एक में गदा तथा एक हाथ में पद्म सुशोभित हो रहा था।
भगवान शिव ने इस दिव्य पुरुष को विष्णु नाम दिया और उन्हें उत्तम तप करने का आदेश देते हुए कहा, ‘‘वत्स ! सम्पूर्ण सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व मैं तुम्हें सौंपता हूं।’’ भगवान विष्णु कठोर तप के कारण उनके अंगों से असंख्य जल-धाराएं निकलने लगीं जिनसे सूना आकाश भर गया। अंतत: अपने कठोर तप के श्रम से क्लान्त होकर भगवान विष्णु ने उसी जल में शयन किया। जल अर्थात् ‘नार’ में शयन करने के कारण ही भगवान विष्णु का एक नाम नारायण हुआ।
कुछ समय पश्चात सोते हुए भगवान विष्णु की नाभि से निकलकर एक उत्तम कमल का पुष्प अस्तित्व में आया जिस पर उसी समय भगवान शिव ने अपने दाहिने अंग से चतुर्मुख ब्रह्मा को प्रकट करके डाल दिया। ब्रह्मा जी दीर्घ अवधि तक उस कमल के नाल में भ्रमण करते रहे, अपने उत्पत्तिकर्ता को ढूंढ़ते रहे, पर कोई लाभ नहीं हुआ। तब आकाशवाणी हुई, जिसके आदेशानुसार ब्रह्मा जी ने निरंतर बारह वर्षों तक कठोर तप किया।
बारहवें वर्ष की समाप्ति पर ब्रह्मा जी के समक्ष भगवान विष्णु प्रकट हुए। भगवान शिव की लीला से भगवान विष्णु एवं ब्रह्मा जी के मध्य अकारण विवाद छिड़ गया। विवाद चल ही रहा था कि दोनों के बीच एक दिव्य अग्निस्तम्भ प्रकट हुआ। भगवान विष्णु एवं ब्रह्मा जी अथक प्रयास करके भी अग्निस्तम्भ के आदि-अंत का पता नहीं लगा सके। अंत में हारकर भगवान विष्णु ने अपने दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना की, ‘‘महाप्रभो ! हम आपके स्वरूप को जान सकने में असमर्थ हैं। आप जो भी हो, हमारे ऊपर कृपा करें तथा प्रकट हों।’’
भगवान विष्णु की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव प्रकट हो गये। उन्होंने कहा, ‘‘मैं तुम दोनों के कठोर तप और भक्ति से प्रसन्न हूं। ब्रह्मन् ! मैं समस्त सृष्टि का उत्तरदायित्व तुम्हें सौंपता हूं। विष्णु पर समस्त चराचर जगत् के पालन का उत्तरदायित्व होगा।’ इतना कहकर भगवान शिव ने अपने हृदयभाग से रुद्ध को प्रकट किया और उन्हें संहार का उत्तरदायित्व सौंपकर अंतर्धान हो गये।
ब्रह्मा जी ने अपने कार्य का आरम्भ मानसिक सृष्टि से किया, परन्तु जब उनकी मानसिक सृष्टि विस्तार नहीं पा सकी तो वे अत्यन्त दु:खी हो उठे। उसी समय आकाशवाणी हुई, जिसके माध्यम से उन्हें मैथुनी सृष्टि का आरम्भ करने का आदेश मिला। तब तक नारियों की उत्पत्ति नहीं हुई थी।
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