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देस-परदेस

कमलेश्वर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 393
आईएसबीएन :81-263-1097-9

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हिन्दी के शीर्षस्थ कथाकार एवं चर्चित लेखक-पत्रकार कमलेश्वर की पच्चीस कहानियों का संग्रह...

Des-Pardes - A Hindi Book by - Kamleshwar देस-परदेस - कमलेश्वर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी के शीर्षस्थ कथाकार एवं चर्चित लेखक-पत्रकार कमलेश्वर की पच्चीस कहानियों का संग्रह है - "देस-परदेस"। कमलेश्वर की कहानियाँ मानव अस्तित्व की चिन्ता से जुड़ी होती हैं । और हर कहानी इन्सानियत को बचाये रखने की लड़ाई में कोई बयान देती नज़र आती है । प्रेमचन्द के बाद कमलेश्वर की कहानियों में वह मुखर पक्षधरता है जिसके कारण कोई लेखक समय के बदलाव के बावजूद प्रासंगिक बना रहता है। कस्बे के आम आदमी की पीड़ा से अपने लेखन की शुरुआत करने वाले कमलेश्वर ने कालान्तर में अपनी संवेदना का विस्तार विश्व समाज तक किया। उनकी कहानियों में समूचे विश्व में फैले आतंकवाद, साम्राज्यवाद, नस्लवाद और सामाजिक विखंडन के विरुद्ध स्पष्ट प्रतिरोध है।
"देस-परदेस" की कहानियाँ कमलेश्वर ने अलग-अलग समय पर, अलग-अलग पृष्ठभूमि में लिखी हैं। इन रचनाओं के माध्यम से हम अपने आस-पास की साधारण समस्याओं से लगाकर व्यापक वैश्विक प्रश्नों से टकराते हैं। स्वयं कमलेश्वर जैसे लेखक की वैचारिक और मानसिक यात्रा का यह बड़ा ही खूबसूरत दस्तावेज है।
आशा है, यह संचयन कमलेश्वर के कथा-साहित्य में बड़े कैनवास पर रची कहानियों के कारण अलग से पहचाना जायेगा।

देस-परदेसः एक निवेदन

यह कथा-संकलन मैंने बहुत सोच-समझकर ज्ञानपीठ के लिए तैयार किया है। भाई प्रभाकर श्रेत्रिय की राय थी कि मैं अपनी बहुचर्चित कहानियों को संकलित करूँ। वह किया जा सकता था, लेकिन मैंने दूसरी तरह से कहानियों का चुनाव करना मुनासिब समझा। मैं विनत भाव से कहना चाहूँगा कि पाठकों की जितनी दुर्लभ पाठकीय सहभागिता मेरे हिस्से में आयी है, वही मेरी रचनागत तृप्ति-अतृप्ति की धरोहर है। इस तृप्ति-अतृप्ति से लगातार मुझे दृष्टि मिली है। यहाँ मौजूद यह वे कहानियाँ हैं, जिन पर मेरे पाठकों ने मुझसे जरूरी खतों किताबत की है।

कहानी के साथ-साथ उन्होंने उस ‘अनकहे’ को भी एक गहराई से ग्रहण किया, जो उसका मूल सरोकार था। और यह भी एक इत्तफाक ही है कि अपनी भारतीय भाषाओं में इन सभी का एक बार से अधिक, कई बार अनुवाद हुआ है। इससे मेरे लिए इन कहानियों के भारतीय अनुभव होने के आशय भी स्पष्ट हुए। इससे मेरी वह समझ भी गहरी हुई जो हम कथाकारों ने आज से लगभग 55 वर्ष पहले ‘नई कहानी’ के दौर में अलिखित रचनात्मक शपथ के रूप में स्वीकार की थी कि ‘विचार को स्वयं अपने यथार्थ से उभरना चाहिए। यदि किसी यथार्थवादी सांचे में विचार या सरोकार को फिट किया जाएगा तो कहानी प्राणहीन हो जाएगी।’ इसलिए हम कथाकारो ने स्वयं यथार्थ में निहित विचार की खोज पर जोर दिया था। यही ‘नई कहानी’ का प्रस्थान-बिन्दू को रेखांकित किया है।
हम कहानियाँ लिखने के साथ-साथ अपने समकालीनों की कहानियाँ गौर से पढ़ते थे। पर सोचते थे। कहानी लिख लेने की ‘आदत पड़ जाने के’ बाद मैंने कभी भी लिखने के लिए कहानी नहीं लिखी। यथार्थ से निकला विचार जब अन्तर्मन की सहमति पा लेता था, तभी मैं कहानी लिख पाता था। उसी का नतीजा हैं यह कहानियाँ, जो मेरे लिखने के चारों पड़ावों, यानी मैनपुरी, इलाहाबाद और दिल्ली और बम्बई के लेखन-समय की साक्षी हैं !
तो इस संकलन में पहले पढिए परदेस फिर पढ़िए देस।
मैंने राजा निरबंसिया, नीली झील, मांस का दरिया, कस्बे का आदमी, नागमणि आदि बहुश्रुत कहानियों को इस संकलन में शामिल नहीं किया है। प्रत्येक पीढ़ी में मुझे नवतर पाठकों का स्नेह मिला है, अतः निरन्तर साक्षर, शिक्षित और संस्करशील होती नवीनतम पीढ़ी को यह कहानियाँ समर्पित हैं, फिर उन बहुश्रुत कहानियों को खुद पढ़ने के लिए खोज लेंगे।
इसी निवेदन के साथ,

कमलेश्वर

सफेद सड़क


सुबह खिड़की के काँच पर भाप जमी थी। भीतर से साफ करना चाहा तो बाहर पानी की लकीरें नरम बर्फ की परत जमी रहीं। फिर भी कुछ-कुछ दिखाई देता था। ट्रेन किसी मोड़ पर थी। उसके कूल्हे पर खूबसूरत खम पड़ रहा था। नर्तकी की मुद्रा की तरह। मैं बाहर झाँक रहा था.... कुछ देखने के लिए। तभी अपने कुशेट से उठकर जून मेरी पीठ पर अधलेटी होकर चिपक गयी। उसकी रेशमी बाँहों ने मेरी बगलों के गलियारे घेर लिए थे। उसके ओठों ने चम्पा के फूल की भीगी पत्तियों की तरह स्पर्श किया और धीरे से कहा नमस्ते ! नमस्ते ! वह ‘नमस्टे’ ही बोल पाती थी।
‘‘बाहर क्या है, जो देख रहे हो ?’’ जून ने पूछा।
‘‘बाहर सर्दी उतर रही है !’’ मैंने कहा।
‘‘हाँ....यही तो मुश्किल है। सर्दी आते ही मधुमक्खियाँ चली जाती हैं। तुम भी चले जाओगे।....’’ जून ने कहा।
मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। उसे भी शायद किसी उत्तर की जरूरत नहीं थी। वह मेरे कुशेट में ही अधलेटी होकर साथ-साथ बाहर देखने लगी। खेतों पर, घास पर नंगे पेड़ों की शाखों पर गुजरते जंगलों और आँख चुराकर पीछे भागती पहाड़ियों पर उनकी गोद और घरों की ढलवाँ छतों पर सफेद चने की हलकी परत पडी हुई थी। नदी के पानी से भाप उठ रही थी। नंगे काले पेड़ों की टहनियों पर बर्फ की सफेद झालरें लटकी हुई थीं। छितरी-छितरी !
‘‘तुम्हारी अयोध्या में बर्फ पड़ती है ?’’ जून ने पूछा था।
‘‘नहीं !.....’’ मैंने कहा था। जून अयोध्या को अयोधा ही पुकार पाती थी।
‘‘पर तुम्हारे देश में सफेद बजरी वाली सड़के तो नहीं हैं ?’’ जून ने बड़ी आसानी से पूछा था। पर इस बात को मैं समझ नहीं पाया था। इसका सन्दर्भ क्या था....सफेद बजरी वाली सड़के ! सफेद बजरी वाली स़डकें ! आखिर इसका मतलब क्या था ?
लेकिन जून की चेतना में सफेद बजरी वाली सड़के अटकी हुई थी। क्योंकि उसे उसकी असलियत का पता था।
हुआ यह था कि बॉन के बाहरी इलाके में काफी दूर, हम एक म्यूज़ियम देखने पहुँचे थे। तभी भी जून साथ थी। यह बात एक वॉर मेमोरियल था म्यूज़ियम से ज्यादा वह कब्रिस्तान था....जहां दूसरे विश्व-युद्ध के शवों को दफनाया गया था। प्रहरी की तरह एक प्रोटेस्टेण्ट चर्च भी वहाँ मौजूद था। उसमें ताला पड़ा था। कोई पादरी या कीपर वहाँ नहीं था।
और जब मैं उस स्मारक को देखने के लिए आगे बढ़ने लगा था तो सफेद बजरी की सड़क देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा था। कितनी खूबसूरत थी सफेद बजरी वाली सड़क ! भारत की गेरुआ-नारंगी बजरी से अलग....और इससे पहले कि मैं उस सड़क पर कदम रखता जून दौड़ती आयी थी। उसने मुझे दोनों बाँहों से पकड़कर एक तरफ खींच लिया और चीखी थी, ‘‘आगे कदम नहीं बढ़ाओगे तुम ! ’’
‘‘क्यों, क्या हुआ ?’’
जून लगभग काँप रही थी। वह मुझे बाँहों में पकड़े पागलों की तरह देख रही थी, ‘‘तुम्हें पता है....यह क्या है ?’’
‘‘क्या ! क्या है ?’’
‘‘यह सफेद बजरी वाला रास्ता....यह सड़क......’’
‘‘यह तो बहुत सुन्दर सड़क है !’’
‘‘लेकिन तुम इस पर पैर नहीं रखोगे !’’ जून ने बहुत अधिकार से कहा था और मुझे अपने शरीर के साथ जकड़ लिया था। इस पल उसके शरीर में वह ऊष्मा नहीं थी, जिससे मैं परिचित था। उसके शरीर में भयानक प्रतिरोध था।
‘‘लेकिन बात क्या है जून ?’’ मैंने उसे कन्धों से भरते हुए पूछा था ‘‘यह रास्ता यह सड़क....सफेद बजरी तो बड़ी खूबसूरत लग रही है....हमारे यहाँ ऐसी बजरी नहीं होती। अगर होती भी है तो मटमैली, गेरुआ या नारंगी बजरी होती है....’’
‘‘वह बहुत खूबसूरत होगी....तुम बहुत खुशनसीब हो ! यह तो बेहद मनहूस और बदसूरत बजरी है.....क्या तुम्हें मालूम नहीं ?’’ जून ने लगभग चीखते हुए पूछा था, ‘‘क्या तुम्हें मालूम नहीं ?’’
‘‘नहीं !’’
‘‘देन लेट बी कर्स ऑन यू ....बट.,..सॉरी.....मैं तुम्हें शाप कैसे दे सकती हूँ, क्योंकि तुम तो मासूम हो !’’ कहते हुए जून की आँखों में तरलता तैर गयी थी।
‘‘जून डार्लिंग ! पहेलियाँ मत बुझाओ, तुम कहना क्या चाहती हो ?’’ मैंने उसे बेबसी से देखते हुए कहा था, क्योंकि वह एक भारतीय लड़की की तरह ही बहुत समर्पित और वीतराग लड़की थी।
‘‘मुझे मालूम है कि तुम्हें नहीं मालूम...यह, सफेद बजरी सड़क बेकसूर मासूम लोगों की हड्डियों के चूरे से मिलकर बनी है जिन्हें नाज़ियों ने गैस चैम्बर्स में मारा था....उन्हीं की हड्डियों की यह बजरी है !....क्या तुम इस सड़क पर चलना चाहोगे ?’’ जून ने वेधती आँखों से देखते हुए पूछा था।
तब मेरे दिमाग की धुर्रियाँ उड़ गयी थीं....मैं सहम गया था....नाज़ियों की नृशंसता के शिकार करोड़ों लोगों की हड्डियों की बजरी वाली सफेद सड़क !...जो कब्रिस्तान तक पहुँचाती थी। जहाँ एक प्रोटेस्टेण्ट चर्च ताला बन्द किये खड़ा था।
सन्नाटा और भयानक शून्य।
लगभग वैसा ही सन्नाटा हमारे बीच छा गया था। ट्रेन का कुशेट तो गर्म था और जून के शरीर की गर्मी भी यथावत थी पर उस सड़क ध्यान आते ही मैं भीतर से ठण्डा पड़ गया था। मेरी इस तरह की मनःस्थिति को जून अच्छी तरह समझने लग गयी थी। उसने धीरे से मेरे ऊपर करते हुए कहा था, ‘‘तुम परेशान हो गये ? मुझे मालूम है तुम्हें कुछ याद आया है...’’
तुम भी परेशान हो मुझे अच्छी तरह मालूम है ! तुम्हीं ने तो बताया था कि तुम्हारे देश में नाजी शक्तियाँ बहुत प्रबल हो रही हैं....कि उन्होंने अयोधा की मस्जिद को गिरा दिया है...
क्या तुम्हारे यहाँ भी हजारों-लाखों लोग मारे गये हैं, मैंने तो उसी की वजह से पूछा था कि क्या तुम्हारे देश में भी सफेद बजरी वाले रास्ते हैं मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहती थी। सर्दी उतर आई है मुझे मालूम है कि अब तुम्हें अपने देश लौटना है....सुनो कोई बोझ लेकर मत जाओ। तुम भी मधुमक्खियों की तरह बिना बताये चले जाओ...सर्दी आ गयी है न...’’ कहते हुए जून ने दूसरी तरफ देखना शुरू कर दिया था। उसकी आँखों में पानी की परत थी। नूरेमबर्ग स्टेशन शायद आनेवाला था।
मैंने जून की ओर देखा। जून ने मेरी ओर। लगा कि वह मुझे ठीक से देख नहीं पा रही थी...मैं भी उसे ठीक से नहीं देख पा रहा था। उसने कई बार पलक झपकाकर उनसे वाइपर का काम लिया था। और तब मैंने आहिस्ता से उसे बाँहों में समेट लिया था। मेरे लिए उसका चेहरा अब पानी की सतह के नीचे था। मैंने उससे पूछा था-
‘‘जून ! तुम किस नदी में हो ?’’
‘‘राइन में !’’ और वह धीरे से मुस्करा दी थी। उसके ओठ हल्की लहरों की तरह थरथराये थे, जैसे राइन के पानी को हवा के हाथ ने धीरे से छू लिया हो। ‘तुम किस नदीं में हो ?’ यह सवाल अब तक हमारे नितान्त आत्मीय क्षणों का गवाह बन चुका था। जब भी हमारी आँखों में सुख या दुःख का पानी भर आता था, तब हम यही सवाल एक दूसरे से पूछते थे।
‘‘तुम किस नदीं में हो ?’’ जून ने पूछा था।
‘‘गंगा में !’’
हम अब एक-दूसरे में समाये हुए थे। ट्रेन रुकी। चम्पा की भीगी पंखुड़ियाँ सिकुड़कर अगल हो गयीं। खिड़की में एक पेण्टिंग समा गयी। पतझड़ था। मौसम की पहली बर्फ पीछे छूट गयी थी। सामने एक नंगा पेड़ खड़ा था। कुछ पत्तियाँ अभी भी उसमें लगी हुई थीं। बाहर हवा चली, तो पेड़ पर बैठी पत्तियाँ चिड़ियों के बच्चों की तरह शाखों से उड़ीं और नीचे बिछे पीले कार्पेट पर आकर बैठ गयीं। हम दोनों ने चिड़ियों के उन बच्चों को साथ-साथ देखा।

‘‘आँसू हमेशा साथ देते हैं....अन्त तक....’’ जून ने फिर वही वाक्य बोला जो वह बॉन में बोली थी। तब हम बॉन में गंगा की तरह बहती राइन नदी के तट पर खड़े थे, कैनेड़ी ब्रूक....,उस छोटे-से पुल के नीचे। मुंसतर प्लाज़ के पास, जहाँ बायीं ओर वाली गली में बीथोवन का घर है। दूसरे तट पर मोटर बोट्स खड़ी थीं।

‘‘पता है.....फ्रैंकफ्रर्त के पास राइन एक बहुत पतली घाटी से गुजरती है। उस पतली-पथरीली घाटी में बीथोवन का उदास संगीत हमेशा गूँजता रहता है और एक लड़की उस शान्त एकान्त में हमेशा गाती रहती है....वह अपने एकान्त में खलल पसन्द नहीं करती...इसलिए जो नावें वहाँ जाती हैं....पथरीली चट्टानों से टकराकर टूट जाती हैं !’’
‘‘तुम इन दन्त कथाओं में विश्वास करती हो जून ?’’
‘‘हाँ ! कम-से-कम दन्त कथाएँ इतिहास से तो बेहतर हैं। इतिहास हमें डराता है। तुम अयोधा से नहीं डरते ?’’ जून ने बड़ा तीखा सवाल किया था।
‘‘थोड़ा-थोड़ा !’’ मैंने कहा था।
‘‘खैर छोड़ो।’’ कहकर जून ने अपनी बाँह मेरी बाँह में उलझा दी थी और वहाँ से बॉन विश्वविद्यालय की ओर ले गयी थी।
‘‘तुम्हें बताऊँ ?’’
‘‘क्या ?’’
‘‘मैं इसी विश्वविद्यालय में पढ़ी हूँ... पिंक हाउस से लेकर यहाँ का पूरा इलाका दूसरे-विश्व युद्ध में ध्वस्त हो गया था। यह बॉन यूनिवर्सिटी भी। मेरी माँ तब इन खँडहरों में पढ़ने आती थी। उसी ने बताया था कि तब हर विद्यार्थी के लिए आवश्यक था कि पत्थर की ईंट बनाए। मेरी माँ ने भी एक ईंट बनायी थी। वह इमारत में जरूर कहीं लगी होगी....लेकिन इमारतें खड़ी हो जाने के बाद भी खँडहर दिखाई देते रहते हैं....नहीं !’’ कहकर जून खामोश हो गयी थी।
अयोध्या की बाबरी मस्जिद का खँडहर तब मेरे सामने तैरने लगा था....चारों तरफ पत्थर की ईटों का मलबा बिखरा पड़ा था, जैसै वहाँ बमबारी हो चुकी हो।
ट्रेन कब चल पड़ी थी और कब नूरेमबर्ग स्टेशन आ गया था, पता नहीं चला। ‘‘यहाँ से इन्साफ की कुछ आवाजें आती हैं, इस शहर में बर्बरता का उत्तर दिया था !’’ जून ने मेरी बाहों में दस्तक देते हुए कहा, तब समझ में आया कि हमारी ट्रेन नूरेमबर्ग स्टेशन पर खडी़ है।
‘‘हाँ ! बर्बरता की तरह इन्साफ भी कभी–कभी बहुत बर्बर होता है !....’’ यह एक और आवाज थी जो जून की बात का उत्तर बनकर आयी थी।
सामने देखा तो एक यात्री सामान रखकर बैठ चुका था। उसने बिना किसी औपचारिकता से अपना परिचय दिया, ‘‘मैं डेविड मोर्स हूँ। मैं तेहरान और अजरबेज़ान में पहले अँग्रेजी पढ़ाता था। अब अपना देश छोड़कर आस्ट्रिया में बस गया हूँ आप लोग भी शायद विएना ही चल रहे हैं !’’
‘‘हाँ !’’
और जब ट्रेन ने नूरेमबर्ग छोड़ा तो बातें डेविड से ही होने लगीं। जून ने उससे पूछा था, ‘‘आपने अपना मुल्क क्यों छोड़ दिया ?’’
‘‘क्योंकि हम इन्सान का इन्तजार करते रहे ?....हमने अपने देश की बर्बरता का मुकाबला बहुत देर से किया। यही तो जर्मनी में हुआ था। हिटलर का नूरेमबर्ग नहीं हैं। हिटलर तो एक घटना बनकर आया था।, बर्बर विचार तो उससे पहले आ गये थे....हमारे देश में भी तेहरान, शीराज़, इस्फहान.. तरबेज़ के लेखकों, पत्रकारों और प्राध्यापकों ने देरी कर दी। इसलिए तो जमाल सादेह, सादिक हिदायत बोजोर्ग जलवी जैसे लेखकों को देश छोड़कर भागना पड़ा था। फिर भी उनकी वर्जित किताबें चोरी-छुपे ईरान में पहुँचती रहीं लेकिन किताबें अकेले तो नहीं लड़ सकती !’’
अभी यह बातें चल रही थीं कि ट्रेन की रफ्तार धीमी पड़ने लगी।
‘‘पासान !’’ जून बोली।
‘‘मतलब !’’
‘‘बॉर्डर।’’
ट्रेन रुकते ही टिकट, पासपोर्ट, वीज़ा और कस्टम कण्ट्रोल वाले आ गये। चैकिंग शुरू हुई तो जून मुझसे और सटकर बैठ गयी। जून का पासपोर्ट चैक करते हुए कण्ट्रोल वालों में कोई खास उत्सुकता नहीं दिखायी, क्योंकि वह आस्ट्रेलिया की ही थी। मेरा पासपोर्ट चेक किया तो उसने पूछा—
‘‘इन्दियन !’’
‘‘हाँ।’’
‘‘मोहम्मदीन !’’
‘‘यस....इण्डियन मुस्लिम ! इण्डियन मोहम्दीन !’’
‘‘मैरिड !’’
‘‘नो...’’
‘‘नो वाइफ !’’ इशारा जून की तरफ था- ‘‘निख्त गूद....यह अच्छा नहीं है.....या...’’
मैं समझ नहीं पा रहा था कि वह इस स्थिति को अच्छा बता रहा था या बुरा। पर वह बोलता जा रहा था- निख्त दिमोक्रातीक दोइचलैन्द....निख्त काफे....बेलकम आस्त्रिया !’’ उसकी बातों पर जून धीरे–धीरे मुस्करा रही थी, तो लग रहा था कि कन्ट्रोल वाला कुछ अच्छा ही बोल रहा है। चैकिंग के बाद जून ने ही बताया, वह कह रहा था-जर्मनी में डेमोक्रेसी नही है, पीने के लिए अच्छी कॉफी भी वहाँ नहीं मिलती। आस्ट्रिया में तुम्हारा स्वागत है !

लिंज़ क्रास करते हुए जब हम विएना पहुँचे, तब तक शाम हो चुकी थी। डेविड वैस्ट वॉनहोफ स्टेशन पर उतरते ही अलविदा कहके चला गया था। यारगासे में जून का घर था।, कमरे में पहुँचते ही वह मुझ पर बेल की तरह छा गयी। साँसों को जब रास्ता मिला तो मैंने उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा था-
‘‘तुम किस नदी में हो ?’’
‘‘डैन्यूब में !.....तुम किस नदी में हो ?’’
‘‘सरयू में ! डैन्यूब कहाँ है जून ?’’
‘‘डैन्यूब विएना शहर से बाहर बहती है....बीच शहर में डैन्यूब नहर अब बहने लगी है...तुम किस नदी का नाम ले रहे थे ?’’ जून ने पूछा था।
‘‘सरयू का।’’
‘‘वह कहाँ बहती है ?’’
‘‘अयोध्या में !’’
‘‘तुम तो नदी में नहाते हो ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘कोई तुम्हें रोकता नहीं...?’’
‘‘रोकेगा कौन...सरयू हमरे देश की नदी है !’’ आदतन ‘हमरे देस’ निकल ही गया था। जून वैसे भी अवधी के इस आकस्मिक फर्क को क्या समझती। मैंने उसे अंग्रेजी में दोहरा दिया था।
‘‘तुम उस मस्जिद के खँडहर से गुजरते हो ?’’
‘‘नहीं वह मेरे रास्ते में नहीं पड़ता। वैसे भी जून हमारी सभ्यता बहुत पुरानी है.....बहुत से धर्मों-पन्थों के खँडहर हमारे यहाँ पड़े हैं।’’
‘‘खँडहरों में से ही नाज़ी निकलते हैं....सावधान रहना !’’ फिर गहरी साँस लेकर उदास होते हुए उसने कहा था। ‘‘मेरी तो दादी हंगेरियन थी और मेरे दादा यहूदी....पर वे ईसाई हो गये थे। प्रोटेस्टेण्ड ईसाई.....पता नहीं हिटलर के किस यातना शिविर में उसकी मौत हुई..... वे तब पादरी थे....और तो कुछ नहीं बचा .....सिर्फ उनकी एक डायरी हमारे पास है...तुम्हें दिखाऊँ ?’’ जून ने कहा।
‘‘दिखाओ !’’
‘‘अच्छा दिखाऊँगी......कल ही ऑल सेण्ट्स डे है और कल ही तुम चले जाओगे...सिर्फ आज की रात बाकी है....चलो घुमा लाऊँ।’’
‘‘कहाँ ?’’
‘‘ग्रिंजिर ! वहाँ इसी साल की वाइन मिलती है ! चलें !’’
यारगासे में जून के घर के पीछे ही पुराना राजमहल था। हम कमर में बाँहें डाले निकल पड़े। डैन्यूब नहर के किनारे-किनारे। पापलर के नंगे पेड़ सन्तों की तरह ख़ड़े थे....अंधेरा तो था पर पतझड़ के कारण काफी दूर बहुत कुछ साफ-साफ दिखाई देता था। छोटी नदी विएन भी मिली। अंगूरी पानी की नदी। वह बहुत व्याकुल थी। राइन और गंगा की तरह शान्त नहीं।
‘‘जून !’’
‘‘हाँ !’’
‘‘यह विएन नदी इतना क्यों अकुला रही है ?’’
‘‘सर्दी उतरने से पहले यह हमेशा ऐसे ही अकुलाती है....शायद मेरी तरह !’’ कहते हुए जून ठिठककर खड़ी हो गयी थी। मैं उसे कन्धों से घेरकर खड़ा हो गया। पता नहीं कितनी देर हम लोग मूर्तियों की तरह निश्चल खड़े रहे-मूर्तियों के उस राजमहल के आगे जहाँ गेटे और शिलर की मूर्तियाँ लगी थीं, वहाँ से उन्होंने आँख खोलकर हमें देखा था...कोहरे का धुआँ हमारे चारों ओर भरा था। तभी एक गाड़ी गुजरी थी उसमें बैठा परिवार जलती मोमबत्तियाँ लेकर गुजरा तो पत्थर-प्रतिमाओं की तरह एक दूसरे में आबद्ध हम एकाएक साँस लेने लगे थे।

‘‘जलती मोमबत्तियाँ लेकर ये कहाँ जा रहे हैं ?’’ मैंने जून से पूछा था।
‘‘कब्रिस्तान जा रहे है आज वीकेण्ड है। आज लोग मृत सम्बन्धियों की कब्रों पर फूल चढ़ाने और मोमबत्तियाँ जलाने अपने-अपने कब्रितान में जाएँगे।’’ जून ने बताया था।
‘‘अपने-अपने कब्रिस्तान में !’’
‘‘क्यों ? सबका अपना-अपना कब्रिस्तान होता है ! नहीं ?’’
‘‘तुम्हारे दादा-दादी का कहाँ है ?’’
‘‘पता नहीं !’’ कुछ पलों के लिए हमारे बीच खामोशी छा गयी थी।
‘‘ग्रिंजिर पहुँचकर हम बहुत-सी बातों को भूल जाएँगे..’’ कहकर उसने मुझे पकड़ा और दूसरी सड़क पर ले आयी थी। वहीं पुराने राजमहल के पास से हमने इकहत्तर नम्बर ट्राम पकड़ी थी-‘‘लेकिन पहले किसी कब्रिस्तान में हो लें....जिन्हें भी याद करना है, उन्हें पहले याद कर लें। आओ...


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