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महान व्यक्तित्व >> पृथ्वीराज चौहान

पृथ्वीराज चौहान

एम. आई. राजस्वी

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :84
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3924
आईएसबीएन :81-310-0091-5

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प्रबल योद्धा एवं सह्रदय प्रेमी राजा की शौर्यगाथा...

Prathviraj Chauhan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

डंके पर हुई चोट की आवाज सुनकर भी पृथ्वीराज ने बाण नहीं चलाया। गौरी बौखलाया। चंदबरदायी ने उससे कहा, ‘महाराज नौकर की आज्ञा का पालन नहीं करते।’ गोरी ने डंके पर स्वयं चोट की। आवाज सुनते ही तक्षक की भांति फुफकारता हुआ बाण धनुष की प्रत्यंचा से छूटा और मुहम्मद गोरी के सीने में धंस गया। जब तक सैनिक संभल पाते भारत के दोनों सपूतों ने एक दूसरे के सीने में कटार भोंककर अपने प्राणों का परित्याग कर दिया।

पृथ्वीराज चौहान


दिल्लीपति महाराज अनंगपाल अपने विशाल कक्ष में गंभीरता की प्रतिमूर्ति बने बैठे हुए थे। यद्यपि उनके सामने ही राज्य के प्रमुख सलाहकार नीतिकार मंत्री चंद्रसेन भी उपस्थित थे, तथापि कक्ष में पूरी तरह सन्नाटे का साम्राज्य स्थापित था।
‘‘चंद्र !’’ महाराज अनंगपाल सन्नाटे का साम्राज्य भंग करते हुए गंभीरता से बोले, ‘‘आज हमें ऐसा प्रतीत होने लगा है कि दिल्ली का सिंहासन उत्तराधिकार विहीन होने जा रहा है।’’
‘‘महाराज !’’ चंद्रसेन धीरे से बोला, ‘‘इतना निराश न होइए। विधाता की महिमा अपरंपार है। वे निराशाओं में भी आशा के फूल खिला देते हैं। विषाद को हर्ष में और शोक को प्रसन्नता में बदल देने की उनमें अद्भुत क्षमता है। आप धैर्य धारण करें।’’

‘‘धैर्य का और हमारा बहुत लंबा साथ रहा है चंद्र ! किंतु अब धैर्य चुकने लगा है और...और अब से राजकुमारी कर्पूरी राजमहल से विदा होकर अजमेर गई हैं, तब से ऐसा लगता है कि राजमहल ही नहीं, सारी दिल्ली सूनी हो गई है।’’
‘‘महाराज ! अपनी संतानों में पुत्री एक ऐसा रत्न होती है, जिसे प्रसन्नता के साथ अन्य पुरुष को समर्पित करना ही पड़ता है। पुत्री से अधिक अपेक्षा करना उचित नहीं होता महाराज !’’
‘‘तुम ठीक कहते हो चंद्र ! लेकिन पुत्री से उपेक्षा भी तो नहीं की जा सकती और वह पुत्री यदि अपने पिता की एकलौती संतान हो तो पिता की सारी क्रिया-प्रतिक्रिया अपनी पुत्री के इर्द-गिर्द ही विचरण करके दम तोड़ने लगती है। ऐसी स्थिति में एक पिता अपनी पुत्री से कोई अपेक्षा ही न रखे तो और क्या करे ?’’
‘‘महाराज ! जब यह निश्चित है कि पुत्री को एक दिन विदा ही करना है, तब पुत्री से अपेक्षा रखकर किया भी क्या जा सकता है ?’’

चंद्रसेन दिल्ली के राजा अनंगपाल को समझाते हुए बोला, ‘‘केवल यही कि संयम से काम लिया जाए।’’
‘‘धैर्य, संयम और संतोष तो समय व्यतीत करने का बहाना मात्र है। इनसे हृदय की व्यथा-व्याकुलता दूर नहीं होती।’’ इतना कहकर अनंगपाल फिर गंभीरता के सागर में डूब गए।
महाराज अनंगपाल को गहन गंभीरता में डूबा देखकर चंद्रसेन ने भी मौन रहना ही उचित समझा।
चंद्रसेन इस वार्तालाप को और बढ़ा़कर महाराज की व्यथा को नहीं बढ़ाना चाहता था। यही सोचकर उसने महाराज के किसी आदेश की प्रतीक्षा करके मौन रहने में ही भलाई समझी।
कक्ष में अभी सन्नाटा ही छाया हुआ था कि इस सन्नाटे को द्वार की थपथपाहट ने एकाएक भंग कर दिया।
द्वार की थपथपाहट एक विशेष अंदाज में हो रही थी। थपथपाहट सुनकर चंद्रसेन अपने आसन से उठ खड़े हुए और फुर्ती से आगे बढ़कर द्वार खोल दिया।

द्वार पर द्वारपाल के साथ ही एक संदेशवाहक भी खड़ा था। संदेशवाहक ने चंद्रसेन को प्रणाम किया।
‘‘जीवासिंह !’’ संदेशवाहक के प्रणाम का उत्तर देते हुए चंद्रसेन बोला, ‘‘क्या तुम जानते नहीं कि यह महाराज के विश्राम का समय है और विश्राम के समय किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करना महाराज को तनिक भी पसंद नहीं।’’
‘‘मंत्री महोदय !’’ संदेशवाहक विनीत स्वर में बोला, ‘‘समाचार ही कुछ ऐसा है, जिसके कारण महाराज को इस समय असमय कष्ट देना पड़ा, इसके लिए मैं अग्रिम ही क्षमायाचना करता हूँ।’’
‘‘ठीक है, कहो, क्या समाचार लाए हो ?’’
‘‘महोदय ! अजमेर राज्य से एक शीघ्रगामी दूत आया है और संभवतः यह देवी कर्पूरी का कोई संदेश लाया है ?’’
‘‘अजमेर राज्य से ?’’
‘‘हां, महोदय !’’

‘‘संदेश किस प्रकार का है ?’’ चंद्रसेन कुछ आशंकित स्वर में बोला, ‘‘कोई शोक संदेश तो नहीं ?’’
‘‘नहीं महोदय !’’ दिल्ली का संदेशवाहक प्रसन्न स्वर में बोला, ‘‘अजमेर के संदेशवाहक के चेहरे पर छाई प्रफुल्लता को देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह अवश्य ही कोई शुभ संदेश लेकर आया है।’’
‘‘तब फिर...।’’ चंद्रसेन आदेशात्मक स्वर में बोला, ‘‘अजमेर के शीघ्रगामी संदेशवाहक को तुरंत महाराज की सेवा में प्रस्तुत करो।’’
‘‘जो आज्ञा मंत्री महोदय !’’ कहकर दिल्ली का संदेशवाहक तेजी से चला गया।
चंद्रसेन द्वार से हटकर अभी मुड़े ही थे कि अजमेर से आया संदेशवाहक द्वार पर आ पहुंचा और धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए महाराज अनंगपाल के निकट पहुंचा। उसने महाराज के सामने शीश झुकाया।
‘‘महाराज ! यह दूत...।’’ चंद्रसेन ने दूत की ओर संकेत करके कहा, ‘‘अजमेर राज्य से आया है।’’
‘‘कहो दूत !’’ महाराज अनंगपाल बोले, ‘‘अजमेर से क्या संदेशा लाए हो ?’’
‘‘महाराज की जय हो कृपानिधान !’’ संदेशवाहक बोला, ‘‘अजमेर राज्य में सब कुशल-मंगल से हैं और महाराज सोमेश्वर एवं महारानी कर्पूरी देवी आपकी कुशलता की मंगल कामना करते हैं।’’
‘हूंऽऽऽ !’’ महाराज अनंगपाल ने लंबा हुंकारा भरा।
‘‘इसके अलावा महाराज और महारानी ने अजमेर से आपके लिए शुभ संदेश भेजा है।’’
‘‘कहो संदेशवाहक ! वही शुभ संदेश सुनने के लिए तो हमारे कान प्रतीक्षारत हैं...तुरंत कहो शुभ संदेश क्या है ?’’
‘‘महाराज ! आपकी प्रिय सुपुत्री और अजमेर राज्य की महारानी कर्पूरी देवी ने एक नन्हें सुकुमार को जन्म दिया है।’’
‘‘क्याऽऽऽ !’’ अनंगपाल अपने आसन पर बैठे हुए ही उछल पड़े, ‘‘मेरी बेटी कर्पूरी ने एक बालक को जन्म दिया है ?’’
‘‘हां महाराज ! हां !!’’

‘‘चंद्रसेन !’’ महाराज अनंगपाल प्रसन्नता से चीख उठे, ‘‘तुम सुन रहे हो न !’’
‘‘हां महाराज ! मैं अच्छी तरह सुन रहा हूं कि देवी कर्पूरी ने एक बालक को जन्म दिया है और यह शुभ समाचार सुनकर मैं अति प्रसन्न हूँ’’
‘‘प्रसन्न तो हम भी बहुत अधिक हैं चंद्रसेन ! और कुछ यह शुभ समाचार ही ऐसा है ।’’ महाराज अनंगपाल गद्गद स्वर में बोले, ‘‘संदेशवाहक ! तुमने हमारा मन प्रसन्न कर दिया। अब हम भी तुम्हें प्रसन्न कर देंगे।’’ इतना कहकर अनंगपाल ने अपने कंठ में पहनी हुई सच्चे दुर्लभ मोतियों की बहुमूल्य माला निकालकर संदेशवाहक के गले में डाल दी।
प्रसन्न होकर संदेशवाहक ने महाराज की जय-जयकार की और फिर महाराज की आज्ञा से वह विश्राम करने चला गया।
‘‘चंद्रसेन !’’ अब महाराज चंद्रसेन की ओर देखते हुए बोले, ‘‘राज्य भर को सजाओ और खूब खुशियां मनाओ। कल का दिन दिल्ली राज्य के लिए एक यादगार उत्सव के रूप में मनाया जाना चाहिए।’’
‘‘जैसी आज्ञा महाराज !’’ चंद्रसेन ने शीश झुकाकर कहा।
महाराज अनंगपाल के अंग-प्रत्यंग से मानो प्रसन्नता की धाराएं फूट पड़ी हों।
दिल्लीपति अनंगपाल प्रसन्न होते भी क्यों नहीं, उनकी इकलौती प्रिय पुत्री कर्पूरी देवी ने एक पुत्र-रत्न को जन्म देकर एक साथ ही अजमेर और दिल्ली को प्रसन्नता से भर दिया था।
अजमेर के राजा सोमेश्वर और रानी कर्पूरी देवी के यहां 1116 ई. में जन्मे इस बालक का नाम रखा गया पृथ्वीराज ! वे चौहान वंश के क्षत्रिय वीर थे। अतः अपने वंश के नाम पर आगे चलकर यह बालक पृथ्वीराज चौहान के नाम से जाना गया।

पृथ्वीराज चौहान के नाना दिल्लीपति महाराज अनंगपाल के यहां कोई पुत्र न था। अतः आगे चलकर महाराज अनंगपाल ने पृथ्वीराज चौहान को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित करने का निर्णय किया।


दिल्ली का उत्तरदायित्व



सन् 1174 की बात है। बालक पृथ्वीराज चौहान अपनी माता महारानी कर्पूरी देवी के साथ अपने नाना अनंगपाल के यहां दिल्ली आया हुआ था। दिल्लीपति महाराज अनंगपाल पृथ्वीराज की बाल-क्रीड़ाएं देख-देखकर बड़े प्रसन्न हो रहे थे। अब अपना पुत्र न होने का उनका कष्ट काफी हद तक दूर हो गया था।
महाराज अनंगपाल के मन में बसी वर्षों की साध अब खुलकर सामने आने को आतुर हो गई थी। इस बारे में उन्होंने अपने विश्वस्त सलाहकार चंद्रसेन से बात की।

‘‘चंद्रसेन ! आज हम तुम्हारे सामने अपने हृदय का वह राज खोल देना चाहते हैं, जिसे एक लंबे समय से हम अपने सीने में छिपाए फिरते हैं।’’
‘‘महाराज ! यह तो मेरा अहोभाग्य है कि मुझ जैसे तुच्छ नौकर को आपने अपने विश्वास के योग्य समझा।’’ चंद्रसेन विनीत भाव से बोला, ‘‘आपका राज यदि किसी के सामने प्रकट करने के योग्य नहीं है, तो वह मेरे सीने में भी ‘राज’ की तरह छुपा रहेगा।’’
‘‘चंद्रसेन ! कोई भी ‘राज’ हमेशा के लिए राज रहकर सुख नहीं दे सकता। उचित समय आने पर उसे खोल देने से बड़ी खुशी मिलती है।’’

‘‘आप ठीक ही कहते हैं महाराज !’’
‘‘और चंद्रसेन ! आज हम उस राज को खोल देने की बात कर रहे हैं, जिसके खुलने का अब सही समय आ गया है और जो हमें ही नहीं बल्कि दिल्ली राज्य की पूरी प्रजा को भी इसके खुल जाने से सुख मिलेगा।’’-

‘‘ऐसा कौन-सा राज है महाराज ?’’ चंद्रसेन की उत्कंठा बढ़ती ही जा रही थी, ‘‘कृपा करके उसे बताने में शीघ्रता कीजिए।’’
‘‘चंद्रसेन ! यह तो तुम जानते ही हो कि दिल्ली-सिंहासन के उत्तराधिकारी का अभाव हमें हर पल सताता रहता था।
‘‘जी, महाराज !’’
‘‘लेकिन समय के मरहम ने हमारे हृदय की व्याकुलता को कम कर दिया है चंद्रसेन !’’ महाराज अनंगपाल स्थिर स्वर में बोले, ‘‘यही नहीं, बल्कि दिल्ली-सिंहासन के उत्तराधिकारी की समस्या का समाधान भी हमें होता हुआ प्रतीत हो रहा है।’’
‘‘कैसे महाराज ?’’
‘‘कर्पूरी बेटी के पुत्र के बारे में तुम्हारे कैसे विचार हैं ?’’
‘‘राजकुमार पृथ्वीराज के बारे में ?’’ चंद्रसेन महाराज अनंगपाल द्वारा विषय से हटकर किए गए प्रश्न को सुनकर कुछ हड़बड़ा गया था।

‘‘हां-हां, राजकुमार पृथ्वीराज के बारे में ही !’’
‘‘राजकुमार पृथ्वीराज एक योग्य और होनहार बालक प्रतीत होते हैं महाराज !’’
‘‘तो पृथ्वीराज के हाथों में दिल्ली राज्य का नियंत्रण कैसा रहेगा चंद्रसेन ?’’
‘‘महाराज ! कहीं आपका तात्पर्य राजकुमार पृथ्वीराज को अपना उत्तराधिकारी बनाने का तो नहीं है ?’’
‘‘हम कुछ ऐसा ही सोच रहे हैं चंद्रसेन !’’ महाराज अनंगपाल विचारपूर्ण स्वर में बोले, ‘‘कहो, यदि ऐसा हो जाए तो कैसा रहेगा ?’’

‘‘आपका ऐसा सोचना अत्युत्तम है महाराज ! किंतु इस प्रकार का कोई भी कदम उठाने से पूर्व कर्पूरी देवी से भी विचार-विमर्श कर लेना चाहिए।’’
‘‘कर्पूरी हमारी बेटी है। हम जैसा चाहेंगे, वह उसी प्रकार हमारा समर्थन कर देगी, ऐसा हमारा विश्वास है।’’
‘‘आपका विश्वास उचित है महाराज ! किंतु हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि देवी कर्पूरी अपने कर्तव्य और धर्म के साथ किसी औ़र से भी जुड़ी हुई हैं। अतः उनके कर्तव्य और उनकी भावनाओं का भी सम्मान करना हमारे लिए अति आवश्यक है महाराज !’’
‘‘तुम ठीक कह रहे हो चंद्रसेन ! इस दिशा में तो हमने कभी सोचा ही नहीं था।’’ महाराज अनंगपाल गंभीर स्वर में बोले, ‘‘कर्पूरी की भी कुछ अपनी भावनाएं होंगी और उससे भी अधिक उन पर कर्पूरी के पति अजमेर के राजा सोमेश्वर का अधिकार है। उनकी आज्ञा के बिना इस प्रकार का कदम उठाना उचित न होगा।’’
‘‘आप ठीक कह रहे हैं महाराज !’’ चंद्रसेन धीरे से बोला, ‘‘जैसा आप कह रहे हैं ऐसा करना उचित है, तथापि मेरा विचार यह है कि देवी कर्पूरी और अजमेर के राजा सोमेश्वर आपका बड़ा मान-सम्मान करते हैं। वे आपकी किसी भी बात को टालेंगे नहीं।’’
‘‘हम भी कुछ ऐसा ही सोचते हैं चंद्रसेन ! मगर फिर भी हम कर्पूरी से ही पहले बात करेंगे।’’
और फिर उसी दिन संध्या-वंदन के बाद महाराज अनंगपाल ने अपनी बेटी कर्पूरी देवी से बात करने का निर्णय लिया। इस विषय को वे लंबे समय तक टालने के पक्ष में न थे। कुछ विचार करते हुए महाराज अनंगपाल ने एक दासी को भेजकर कर्पूरी देवी को बुला लाने का आदेश दिया।

दासी कुछ ही देर में कर्पूरी देवी को अपने साथ ले महाराज अनंगपाल के कक्ष में आ गई। बालक राजकुमार पृथ्वीराज दासी की गोद में था। कक्ष में प्रवेश करते ही कर्पूरी देवी ने दासी से पृथ्वीराज को ले लिया और उसे बाहर जाने का संकेत किया।
कर्पूरी देवी का संकेत पाकर दासी चुपचाप कक्ष से बाहर निकल गई।
अब कर्पूरी देवी महाराज अनंगपाल की ओर उन्मुख हुई, ‘‘पिताश्री ! आपने मुझे याद किया।’’
‘‘हां बेटी !’’ महाराज अनंगपाल शैया पर करवट बदलकर द्वार की ओर से आती अपनी पुत्री कर्पूरी देवी पर दृष्टिपात करते हुए बोले।

‘‘पिताश्री !’’ कर्पूरी देवी तेज नजरों से महाराज की ओर देखती हुई बोली, ‘‘आप कुछ व्यग्र से दिखाई पड़ रहे हैं। आपका स्वास्थ्य तो ठीक है न ?’’
‘‘हां बेटी ! हमारा स्वास्थ्य तो बिलकुल ठीक है।’’ हंसते हुए महाराज अनंगपाल बोले, ‘‘संध्या वंदन के बाद शैया पर लेट जाने वालों का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता क्या ?’’
‘‘पिताश्री ! मेरा आशय यह नहीं है।’’
‘‘तो फिर क्या है हमारी प्रिय पुत्री का आशय ?’’
पिताश्री ! वास्तव में आप मुझे कुछ व्यग्र-से दिखाई दिए थे। इसी कारण मुझे लगा कि कहीं आपका स्वास्थ्य कुछ....।’’ कर्पूरी देवी ने अपना वाक्य बीच में अधूरा छोड़ दिया।

‘‘बेटी ! हम जानते हैं कि तुम्हें हमारी हर समय चिंता लगी रहती है। हमारा शरीर हल्का-सा गरम हुआ नहीं और तुम बेचैन हो उठती हो कि ज्वर दाह ने हमें पकड़ लिया है। कभी हमें देर रात गए तक नींद न आए तो तुम न जाने कितनी-कितनी बार हमारे कक्ष में आ-आकर देखती हो कि हम अभी तक सोए या नहीं और यदि नहीं सोए तो क्या कारण है...हम किस चिंता में डूबे हुए हैं ? हमें कौन-सा तनाव या कौन-सा दुख व्याकुल कर रहा है ?’’ कहते-कहते महाराज अनंगपाल का स्वर कुछ भारी हो उठा, ‘‘तुम बचपन से लेकर युवा हो गईं मगर तुम्हारे इस स्वभाव में तनिक भी परिवर्तन नहीं आया। अब विवाह के बाद तुम दिल्ली से अजमेर चली गईं....राजकुमार पृथ्वीराज की माता भी बन गईं मगर...मगर मेरी बेटी का स्वभाव इतनी परिस्थितियां बदल जाने के बाद भी ज्यों-का-त्यों ही है।’’

‘‘‘पिताश्री !’’ कर्पूरी देवी भी भावुक हो अपने पिता के निकट शैया पर ही बैठती हुई बोली, ‘‘आप मेरे जन्मदाता हैं...पिता हैं। मैं आपकी बेटी हूं...आपकी प्रिय पुत्री हूं। चंद बरस बीत जाने की तो बात ही क्या ! सदियां बीत जाने पर भी क्या हमारा पिता-पुत्री का संबंध बदल सकता है पिताश्री ?’’

‘‘बेटी ! तुम भी दार्शनिकों के गहन गंभीरता वाले विषय को ले बैठीं। चलो, छोड़ो इसे।’’
‘‘नहीं पिताश्री ! पहले आप यह बताइए कि क्या किसी प्रकार, किसी भी दशा में हमारा रिश्ता बदल सकता है या नहीं ?’’
‘‘बेटी ! परमपिता परमात्मा ने जो रिश्ता प्राणी-जगत में एक बार किसी को दे दिया, वह उस नाम, वंश, योनि और काल के लिए युगों-युगों तक स्थायी हो जाता है। रिश्तों की परिवर्तनशीलता केवल तभी संभव है, जब परमात्मा पुनर्जन्म के बाद उन्हीं प्राणियों को फिर एक दूसरे से जोड़ दे। इतना होने पर भी पूर्वजन्म के रिश्तों का उल्लेख सदा-सदा के लिए स्थायी हो जाता है। जब ऐसा है तो तुम स्वयं विचार करो कि हमारा पिता-पुत्री का परमात्मा द्वारा बनाया गया रिश्ता भला कैसे बदल सकता है।’’
‘‘नहीं बदल सकता न !’’ कर्पूरी देवी अपनी बात पर जोर देते हुए बोली, ‘‘तब पिताश्री ! मैं बाल्यावस्था में रहूं या युवावस्था में, अविवाहित रहूं या विवाहित अथवा आपके पास रहूं या आपसे दूर और भले ही परिस्थितियां कैसी भी हों, आपके प्रति मेरा स्वभाव कभी नहीं बदल सकता आखिरकार आप मेरे पिताश्री हैं और मैं आपकी बेटी जो हूं।’’
‘‘भई मान गए आज हम अपनी बेटी को !’’ महाराज अनंगपाल खुलकर कहकहा लगाते हुए बोले, ‘‘न तो हमारे प्रति हमारी बेटी की चिंता कभी दूर हो सकती है और न हमारी बेटी का स्वभाव बदल सकता है।’’
‘‘अच्छा पिताश्री ! अब मुझे बातों से न बहलाइए।’’ कर्पूरी देवी मूल विषय पर आती हुई बोली, ‘‘और कृपा करके मुझे यह बताइए कि आपकी व्यग्रता का क्या कारण है ?’’

‘‘बेटी ! यह बात हम अच्छी तरह जानते हैं कि जब तक तुम हमें पूरी तरह तनावमुक्त नहीं देख लोगी, तब तक हमारा पीछा नहीं छोड़ने वाली...अतः तुम वह बात सुनो, जिसके कारण हम व्यग्र हैं...अधीर हैं।’’ कहने के साथ ही महाराज अनंगपाल ने अपने कंठ को खंखारकर साफ करने का उपक्रम किया और क्षण-भर के लिए मौन होकर कुछ सोचने लगे।
कर्पूरी देवी की दृष्टि एकटक अपने पिता महाराज अनंगपाल के मुखमंडल पर जमी हुई थी। पितीश्री का मौन उन्हें एक-एक पल के लिए असह्य प्रतीत हो रहा था। जब कई क्षण बीत जाने के बाद भी महाराज अनंगपाल कुछ न बोले तो कर्पूरी देवी ही मौन भंग करती हुई बोली, ‘‘पिताश्री ! आप क्या सोचने लगे ?’’

‘‘उं ऽऽऽ हूं...बेटी !’’ महाराज अनंगपाल ने चौंककर कर्पूरी देवी की ओर देखा और उसकी गोद में किलकारियां मारते हुए बालक राजकुमार पृथ्वीराज की ओर बाहें फैलाकर कहा, ‘‘ला बेटी ! पृथ्वी को हमें दे दो।’’
कर्पूरी देवी ने बिना कुछ कहे ही पृथ्वीराज को अपने पिता की फैली हुई बाहों में थमा दिया।
राजरकुमार पृथ्वीराज को गोद में लेते ही महाराज अनंगपाल के मुख पर छाई हुई व्यग्रता काफी हद तक कम हो गई। उन्होंने पृथ्वीराज को अपने सीने से लगाकर धीरे से भींच लिया। ऐसा करने पर जैसे महाराज अनंगपाल को गहरा आत्मिक सुख मिला और इसी सुख के कारण उनकी पलकें मुंदती चली गईं।

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