महान व्यक्तित्व >> राजा विक्रमादित्य राजा विक्रमादित्यएम. आई. राजस्वी
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उदार,न्यायप्रिय और परोपकारी महान राजा की रोचक गाथा....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
विक्रमादित्य का जन्म भगवान शिव के वरदान से हुआ था। शिव ने उसका नामकरण
जन्म से पहले ही कर दिया था, ऐसी मान्यता है। संभवतया इसी कारण विक्रम ने
आजीवन अन्याय का पक्ष नहीं लिया। पिता द्वारा युवराज बनने के प्रस्ताव को
विक्रम ने इसीलिए अस्वीकार कर दिया क्योंकि इस पद पर उनके ज्येष्ठ भ्राता
भर्तृहरि का अधिकार था। इसे पिता ने अपनी अवज्ञा माना। वे क्रोधित हो उठे।
लेकिन विक्रम अपने निश्चय पर अडिग रहे।
यह घटना संकेत थी कि न्याय के लिए अपने सर्वस्व का त्याग करने वाला होगा विक्रम।
राजपुरुषों की आसक्ति सौंदर्य के प्रति होना स्वाभाविक माना जाता है, लेकिन अपने जेष्ठ भ्राता के साथ हुए विश्वासघात ने विक्रमादित्य के मन को भीतर तक झकझोर दिया था। अपनी रानी, जिससे भर्तहरि अपार प्रेम करते थे, से मिले धोखे और फिर पश्चाताप के रूप में उसे आत्मदाह की घटना ने भर्तृहरि को वैराग्य जीवन की राह दिखा दी। वे वैरागी हो गए। इसके बाद विक्रमादित्य को राज्यभार संभावना पड़ा। विक्रमादित्य के राज्याभिषेक के बाद उज्जयिनी का सिंहासन न्याय का प्रतीक बन गया। इसी सिंहासन से जुड़े हैं वे प्रश्न जिन्हें पुतलियों ने राजा भोज से तब पूछा था, जब वे इस सिंहासन पर बैठना चाहते थे। एक किवदंती के अनुसार, विक्रमादित्य को यह सिंहासन देवराज इंद्र ने दिया था, जिसमें स्वर्ग की 32 वे शापित अप्सराएं पुतलियां बनकर स्थित थीं, जिन्होंने अत्यंत निकट से देखती थी विक्रमादित्य की न्याय निष्ठा।
कभी-कभी गुण भी अहित का कारण बन जाते हैं। कुछ ऐसा ही महाराजा विक्रमादित्य के साथ भी हुआ। एक तांत्रिक अष्ट सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए सर्वगुण संपन्न विक्रमादित्य की बलि देना चाहता था। वह तो भला हो बेताल का जिसने विक्रमादित्य की न्यायप्रियता से प्रसन्न होकर उसे सारा रहस्य बता दिया। बेताल यह जान गया था कि तांत्रिक के मरते ही वह भी मुक्त हो जाएगा। राजा विक्रमादित्य ने युक्ति से काम लिया और तांत्रिक का सिर काटकर यज्ञाग्नि के हवाले कर दिया।
विक्रमादित्य के दिव्य सिंहासन से जुड़ी कहानियां कथा-साहित्य में अलग-अलग तरह से उपलब्ध हैं। ऐसी ही एक कथा के अनुसार, विक्रमादित्य का शासन समाप्त होने के बाद जब अन्य राजाओं ने अपनी राजधानी उज्जयिनी की जगह धारा नगरी बनाई, तो न्याय का प्रतीक दिव्य सिंहासन धरती के नीचे दब गया। वहां ऊंचा टीला बन गया। एक साधारण सा गड़रिया जब उस टीले पर बैठता तो उसका व्यक्तित्व बदल जाता। वह आसपास के गांवों से आए ‘मामलों’ को चुटकियों में सुलझा देता। महाराज भोज को जब इस घटना का पता चला तो अपने मंत्रियों की सलाह से उन्होंने इस टीले की खुदाई करवाई, जहां से उन्हें विक्रमादित्य का दिव्य सिंहासन प्राप्त हुआ।
विक्रमादित्य के यश श्रवण की फलश्रुति् शापित अप्सराओं से सुनने के बाद ज्ञात होता है कि वे अन्य राजाओं से किस प्रकार बिलकुल अलग थे-
अप्सरा बोली, ‘‘मैं सच कह रही हूं राजन्। आपने हमें देवी पार्वती के शाप से मुक्त कर दिया। पाषण मूर्ति बनने का शाप देने के बाद, हमारे द्वारा क्षमा मांगने पर मां पार्वती ने कहा था कि महान राजा विक्रमादित्य की शौर्य गाथाएं यदि हमारे द्वारा कोई राजा धैर्यपूर्वक सुनेगा, तभी हमारी शापमुक्ति होगी।’’
इतने कहने के बाद सभी ने एक स्वर में कहा, ‘‘आप ही महाराज विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हैं।’’
यह घटना संकेत थी कि न्याय के लिए अपने सर्वस्व का त्याग करने वाला होगा विक्रम।
राजपुरुषों की आसक्ति सौंदर्य के प्रति होना स्वाभाविक माना जाता है, लेकिन अपने जेष्ठ भ्राता के साथ हुए विश्वासघात ने विक्रमादित्य के मन को भीतर तक झकझोर दिया था। अपनी रानी, जिससे भर्तहरि अपार प्रेम करते थे, से मिले धोखे और फिर पश्चाताप के रूप में उसे आत्मदाह की घटना ने भर्तृहरि को वैराग्य जीवन की राह दिखा दी। वे वैरागी हो गए। इसके बाद विक्रमादित्य को राज्यभार संभावना पड़ा। विक्रमादित्य के राज्याभिषेक के बाद उज्जयिनी का सिंहासन न्याय का प्रतीक बन गया। इसी सिंहासन से जुड़े हैं वे प्रश्न जिन्हें पुतलियों ने राजा भोज से तब पूछा था, जब वे इस सिंहासन पर बैठना चाहते थे। एक किवदंती के अनुसार, विक्रमादित्य को यह सिंहासन देवराज इंद्र ने दिया था, जिसमें स्वर्ग की 32 वे शापित अप्सराएं पुतलियां बनकर स्थित थीं, जिन्होंने अत्यंत निकट से देखती थी विक्रमादित्य की न्याय निष्ठा।
कभी-कभी गुण भी अहित का कारण बन जाते हैं। कुछ ऐसा ही महाराजा विक्रमादित्य के साथ भी हुआ। एक तांत्रिक अष्ट सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए सर्वगुण संपन्न विक्रमादित्य की बलि देना चाहता था। वह तो भला हो बेताल का जिसने विक्रमादित्य की न्यायप्रियता से प्रसन्न होकर उसे सारा रहस्य बता दिया। बेताल यह जान गया था कि तांत्रिक के मरते ही वह भी मुक्त हो जाएगा। राजा विक्रमादित्य ने युक्ति से काम लिया और तांत्रिक का सिर काटकर यज्ञाग्नि के हवाले कर दिया।
विक्रमादित्य के दिव्य सिंहासन से जुड़ी कहानियां कथा-साहित्य में अलग-अलग तरह से उपलब्ध हैं। ऐसी ही एक कथा के अनुसार, विक्रमादित्य का शासन समाप्त होने के बाद जब अन्य राजाओं ने अपनी राजधानी उज्जयिनी की जगह धारा नगरी बनाई, तो न्याय का प्रतीक दिव्य सिंहासन धरती के नीचे दब गया। वहां ऊंचा टीला बन गया। एक साधारण सा गड़रिया जब उस टीले पर बैठता तो उसका व्यक्तित्व बदल जाता। वह आसपास के गांवों से आए ‘मामलों’ को चुटकियों में सुलझा देता। महाराज भोज को जब इस घटना का पता चला तो अपने मंत्रियों की सलाह से उन्होंने इस टीले की खुदाई करवाई, जहां से उन्हें विक्रमादित्य का दिव्य सिंहासन प्राप्त हुआ।
विक्रमादित्य के यश श्रवण की फलश्रुति् शापित अप्सराओं से सुनने के बाद ज्ञात होता है कि वे अन्य राजाओं से किस प्रकार बिलकुल अलग थे-
अप्सरा बोली, ‘‘मैं सच कह रही हूं राजन्। आपने हमें देवी पार्वती के शाप से मुक्त कर दिया। पाषण मूर्ति बनने का शाप देने के बाद, हमारे द्वारा क्षमा मांगने पर मां पार्वती ने कहा था कि महान राजा विक्रमादित्य की शौर्य गाथाएं यदि हमारे द्वारा कोई राजा धैर्यपूर्वक सुनेगा, तभी हमारी शापमुक्ति होगी।’’
इतने कहने के बाद सभी ने एक स्वर में कहा, ‘‘आप ही महाराज विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हैं।’’
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