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जाने कितने मोड़

आशा प्रभात

प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3827
आईएसबीएन :81-214-0228-x

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स्त्री की विवशता पर आधारित उपन्यास...

Jane Kitane Mod - A Hindi Novel by Asha Prabhat - जाने कितने मोड़ - आशा प्रभात

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आशा प्रभात का यह उपन्यास एक स्त्री की विवशता को रेखांकित करता है, जिस पर पुरुष समाज का ऐसा निर्णय थोप दिया गया है, जिसमें उसकी कोई सहमति नहीं है। थोपा गया निर्णय उसके जीवन को अभिशप्त एवं पंगु बनाने का कुचक्र था, जिसे उपन्यास की नायिका अकेले अपने साहस से विफल कर अपना सहारा चुनती है।

प्रस्तुत उपन्यास उस स्त्री की कथा है जो समाज द्वारा बहती हुई धारा में धकेल दी गई है। बहती धारा में जब तक वह लहरों के थपेड़े खाती, चट्टानों से टकराती लहूलुहान होती रहती है, तब तक समाज खुश है, सन्तुष्ट है। पर जब अपनी डूबती साँसों को बचाने के लिए किसी तिनके का सहारा लेकर किनारे पर ठहर सिर्फ़ अपने लिए चंद सुख की सांसे लेना चाहती है, तब सामाजिक मान्यताओं की दीवारें दरकने लगती हैं। परंपराओं के परखचे उड़ने लगते हैं। इस समाज में एक औरत को अपने सुख के लिए किसी तिनके का सहारा लेने का कोई अधिकार नहीं है। बहती धारा के प्रचंड वेग में, जिसमें समाज ने उसे डाल दिया है, अपने को विलीन कर देना चाहिए, डुबो देना चाहिए।

उसे जीना है समाज की शर्तों पर और मरना भी है समाज की शर्तों पर। तभी तथाकथित भद्र समाज उसे औरत मानेगा, अन्यथा कुलटा, वैश्या और न जाने किन-किन उपाधियों से से अलंकृत करेगा जो ख़ासतौर से उसके लिए ही रची गई हैं।
उपन्यास की नायिका लता समाज के परंपरागत मूल्यों के हवन कुंड में हवि नहीं बनती, बल्कि हवन कुंड से अधजली बाहर आ जाती है। फिर उभरता है उसके अन्दर मौन विद्रोह, जो उसे एक व्यक्ति की तरह जीने को प्रेरित करता है। स्त्री के दुःख, संघर्ष और आकांक्षाओं का प्रतिबिम्ब है यह उपन्यास, बेहद रोचक और पठनीय।

1

 जाने कितने मोड़


सुधाकर शहर के बाहर है। बिजनेस के सिलसिले में जिस वक्त वह गया था, यहाँ सब कुछ सामान्य था। अब कुछ भी सामान्य नहीं है। सामान्य है, सिर्फ दिन का निकलना। किरणों का फैलना। अंधेरे का भागना। हर तरफ़ हलचलों का मचना...।
पर उसके कमरे में अभी भी अंधेरा है। भारी पर्दों के पीछे घोर अंधेरा। बल्ब भी मृत है। कभी वह उठती है, बेचैनी के आलम में टहलती है। सोफ़े पर बैठ जाती है। शाम से ही उसके कानों में एक ही वाक्य निरंतर गूंज रहा है-‘तुम्हें दो में से एक को चुनना होगा...दो में से एक को...। दो में से एक को...।’ वह तड़पती है, जिबह होते परिंदे की मानिंद। दर्द कराह बन होंठों से फूटता है और कमरे में फैल जाता है। पर वाक्य भिनभिनाते मच्छरों की तरह उसके कानों में मुसलसल बजते रहते हैं-‘तुम्हें दो में से एक को चुनना होगा...दो में से एक को...।’ वह छटपटा कर हथेलियों से कानों को बंद कर उठ खड़ी होती है।

उफ़, यह क्या कह गया रूपेश ? कैसे निकला उसके मुंह से ऐसा बेलाग और बेलौस वाक्य ? कुल्हाड़ी के वार जैसा। ज़रा भी रियायत या लिहाज़ नहीं। अदालत में बैठे न्यायाधीश की तरह फ़ैसला सुना दिया। न दलील की गुंजाइश, न सफ़ाई का मौक़ा। वह कुछ भी सुनने की स्थिति में कहां था। चेतावनी के अंदाज़ में कहा था-‘तुम्हें दो में से एक को चुनना होगा।’ इतना अपमान, इतनी जिल्लत, ऐसा कठोर लहजा। यह जाने बग़ैर कि इस कहने और सुनने की स्थिति का जन्म कैसे हुआ ? कौन है इस परिस्थिति का जनक ? कैसा बीज बोया था उसने, जिसकी परिणति आज इस रूप में हुई है जहाँ जिसे कहना है, वह सुन रहा है और जिसे सुनना था वह निर्णय सुना रहा है।
 
जीवन के इस लंबे सफर में उसे मात्र इतना ही अधिकार मिला है कि वह हर दिये गये निर्णय के आगे खामोशी से सर झुकाती जाये। उन गुनाहों की सजा भी भुगते, जिसे उसने किया ही नहीं। जीवन के तमाम मोड़ों पर जितने पुरुषों से उसका साबका पड़ा, रिश्ते उनसे चाहे जो भी रहे हों, वे सारे के सारे पहले सिर्फ़ पुरुष ही साबित हुए हैं। अपने अपने अहं में चूर। अधिकार भाव में मुग्ध। खुद के कहे को मनवाने वाले।

उसका इकलौता बेटा रुपेश, वह भी आज पुत्र से पुरुष में बदल गया है और ताज्जुब है, आज भी वह चुप कैसे रह गयी ? क्यों नहीं रुपेश को कंधे से पकड़ कर झंझोड़ा ? क्यों नहीं पूछा-‘किसने दिया तुझे निर्णय सुनाने का यह अधिकार-बगैर कुछ जाने-समझे ? मेरी ही कोख से जन्मा, इतना खुद मुख्तार तू कब से हो गया ? मुझे ही कठघरे में खड़ा कर चेतावनी दे रहा है !’ क्यों नहीं मुस्कराती हुई उस धृष्ट, अभिमानिनी सुधा के मुंह पर थप्पड़ मारा-‘कल की छोकरी, क्या जानती है तू मेरी जिंदगी के अनगढ़ तिलिस्म के बारे में ? तूने कभी अपूर्णता को झेला है ? तू भी मेरी तरह अपूर्ण होती तो तेरी यह मुक्कराहट, परंपरा की मिट्टी के इतने नीचे दफ़न हो गयी होती, जिसे खोद कर लाने में तेरे सात जन्म भी कम पड़ जाते....।’ क्रोध और अपमान की अधिकता से उसके नथुने फड़क उठे। पेशानी की नसें तन गयीं। उसका जी चाहा, जोर जोर से चीख़े...इतना चीख़ें...इतना चीख़ें कि कमरे की दीवारें बुनियाद सहित हिल जायें। नादान लड़का, उसे नहीं मालूम, जिस संपत्ति और शानो-शौकत पर वह इतना इठला रहा है, अगर सुधाकर नहीं होता तो कुछ भी नहीं बचा होता। रिश्तेदारों द्वारा सब कुछ लुट चुका होता और वह कंगाल बना, अपनी शिनाख़्त की तलाश में दर दर भटक रहा होता। उसकी सोचने, समझने और निर्णय सुनाने की सारी शक्ति ख़त्म हो चुकी होती।

उसके अंदर आक्रोश का एक बलबला सा उठा। कटे वृक्ष की तरह वह बिस्तर पर गिर पड़ी-ओफ़, कैसा मोड़ आ गया है आज जीवन में, जिसके एक तरफ रेगिस्तान है तो दूसरी तरफ़ गहरी खाई। एक तरफ़ मुड़ती है तो दूर दूर तक भयावह सन्नाटा। जलती रेत। सांय सांय करती रेतीली हवाएं, पर इन सबके बीच सुख और सुकून का एक नन्हा सा जुगून भी टिमटिमा रहा है। अगर दूसरी तरफ़ मुड़ती है तो पाताल बिखर जाएंगे। वह समूल नष्ट हो जाएगी।

पर पक्ष तो पेश करना ही होगा। रुपेश का इशारा वह समझ रही है। सुधाकर और स्वयं में से एक को चुनने को कह रहा है वह। वह जानता है, उसके पलड़े में आर्थिक, सामाजिक और नैतिकता का वज़न है। उसका पलड़ा भारी है। सुधाकर का पलड़ा बिलकुल खाली। पर क्या सुधाकर का पलड़ा इतना हलका भी है ? होगा, रुपेश और सुधा की नज़रों में। उसके लिए आज भी सुधाकर वही है जो हमेशा से था। न तो वह रुपेश की तरह एक ही झटके में रिश्तों को तोड़ने में यकीन करती है, न ही निर्णय सुनाने में।

बहुत असमंजस में उलझ गया है उसका मस्तिष्क। आज का निर्णय उन तमाम सुनाये गये निर्णयों से जुदा है-जहां-जहां उसे घुटने टेकने पड़े हैं, उन सबसे महत्त्वपूर्ण। जीवन-मरण जैसा। मन है कि नियमों, परंपराओं और मूल्यों को ध्वस्त करने पर आमादा है और मस्तिष्क अपना अधिकार छोड़ना नहीं चाह रहा। इन दोनों के बीच फंसी वह गेंद की भांति कभी इधर, तो कभी उधर लुढ़क रही है। कल और आज के दरमियान एक संपूर्ण महाभारत गुज़र गया है उसके अंदर। महाभारत के चक्रव्यूह में फंसी वह, अपने अस्तित्व को क़ायम रखने के लिए संघर्षरत है। उसका अस्तित्व, जो सदा एक क़ाग़ज की नाव साबित हुआ है। किनारे की तलाश में भंवर में डोलता। लहरों के हज़ारों थपेड़े खाता। चिंदी चिंदी होता। मुद्दा है-दो में से एक को चुनने का।  बस, चुनाव करना है। फ़ैसला हो चुका है। कोई जिरह, कोई सफाई की गुंजाइश नहीं। निर्णय किसके पक्ष में होगा, रुपेश वह समझ रहा है। तभी तो सिर्फ़ कहा है, पूछा नहीं है।

ओह, ईश्वर ! निर्णय करना क्या इतना आसान है ? घबड़ा कर वह आंखें बंद कर लेती है। पलकों के पीछे उभरते हैं दो नन्हे पांव। अतीत की गलियों में चलते-लड़खड़ाते। भविष्य की डगर पर खरामा खरामा बढ़ते अचानक आता है एक मोड़- जहां खड़े हैं पिता। उसके जीवन के प्रथम पुरुष। इसके जन्मदाता, जिनके निर्णय से आरंभ हुआ यह सफ़र-कितने तूफ़ान झंझावात, दरिया, चट्टानें और रेगिस्तानों को लांघता-फलांगता आज इस मोड़ तक आ पहुंचा है। जाने और कितने मोड़ आने शेष हैं इस जीवन में ! वह एक लंबी सांस लेती है। जीवन क्यों नहीं वहां मुड़ जाता, जहां कोई मोड़ नहीं था-उन गलियों, उन राहों पर जहां वह उन्मुक्त हिरणी सी कुचांलें भरती थी ?

2


दादी ने उसे झकझोर कर उठाया, बोलीं, ‘‘ऐ लड़की, बथान चली जा। राम खेलावन को मुखिया का आदमी बुला कर ले गया है। जाने वो कब आवे। तू वहां की साफ़-सफ़ाई कर देना। माल-जाल को चारा-पानी डाल देना और देख, वहीं रहना।’’ दादी एक ही सांस में सारी बातें कह गयीं।
वह आंख झपकाते हुए उठी। कपड़ों को ठीक किया। बाहर निकल आयी। दादी के सामने कोई बहाना बेकार था। ठंड में निकलने को उसका जी नहीं कर रहा था। बाहर कोहरीला अंधेरा था। धूप ने अभी विस्तर नहीं छोड़ा था। परिंदे भी घोसलों में दुबके धूप के आगमन का इंतज़ार कर रहे थे। गांव उनींदा सा कोहरे की चादर में लिपटा, अपने अंदर हलचल की प्रतीक्षा में था। इक्के-दुक्के इन्सान या जानवर ही सन्नाटे को तोड़ते अपनी दिनचर्या के लिए डोलते, बिचरते नज़र आ रहे थे। चादर को बदन पर लपेटती, तेज़ क़दम बढ़ाती वह बथान की तरफ़ बढ़ी।
‘‘ऐ लता, इतनी जल्दी जल्दी कहां भागी जा रही है ?’’ भोला ने उत्सुकता से पूछा। उसे आश्चर्य हुआ। लता इतनी सुबह कभी बिस्तर नहीं छोड़ती।

‘‘बथान जा रही हूं’’ उसने चिढ़ कर कहा। भोला का ऐन सामने आ कर टोकना उसे नागवार लगा।
‘‘तुम्हारी गाय ने बछड़ा दिया है क्या ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘तो भैंस ने बच्चा दिया होगा ?’’
‘‘ऐसा कुछ भी नहीं है। सिर्फ़ वहां का काम निबटाना है,’’ वह चलते-चलते ही बोली।
‘‘तुम्हारे बाबू कहां हैं ?’’
‘‘उन्हें भोर हरिये में, मुखिया काका का आदमी बुला कर ले गया है।’’
‘‘किसलिए ?’’
‘‘मुझे क्या मालूम ! होगा कोई खेत-वेत का काम। दादी ने कहा, जाकर बथान साफ कर दो। बाबू को आने में देर हो सकती है। अब वहां का सारा काम मुझे निबटाना होगा,’’ वह झुंझला कर बोली।
‘‘चल, मैं भी तेरा हाथ बटा देता हूं।’’

‘‘तुम्हारी मां मारेगी नहीं ?’’
‘‘उन्हें क्या मालूम मैं तुम्हारे बथान पर हूं।’’
‘‘तब तो बड़ी अच्छी बात है। काम भी जल्दी जल्दी निबट जाएगा’’, वह खुश हो गयी।
‘‘पर तुझे एक वादा करना होगा।’’
‘‘क्या ?’’
‘काम ख़त्म कर मेरे साथ खीरा तोड़ने चलोगी। चारू के खेत में खीरे की अच्छी फ़सल है।’’
‘‘चोरी ! तू ही क्यों नहीं चला जाता तोड़ने ?’’ उसने खीज कर पूछा।
‘‘मुझे धीरे धीरे चलना जो नहीं आता।’’
‘‘ना बाबा ना, दादी कहती हैं, जिसे खीरा की चोरी करना आ जाये, वह हीरा की चोरी भी कर सकता है। मुझे नहीं जाना,’’ वह आगे बढ़ गयी। ‘‘बदमाश हमेशा ग़लत काम करने को उकसाता है।’’
‘‘तो करना अकेले सारा काम। नानी न याद आ जाये तो कहना,’’ भोला ने धमकाया। वह जानता था, लता से बथान का काम अकेले नहीं हो सकेगा।

‘‘ठीक है, चल, पहले बथान तो साफ कर लें !’’ लता हार मानती बोली।
बथान पहुंच कर उसने कामों का बंटवारा किया-
‘‘तू गोबर टाल पर फेंक। मैं घूरे से राख हटा कर झाड़ू लगाती हूं। फिर दोनों मिल कर कुट्टी काटेंगे। नाद बोझेंगे।’’
‘‘टोकरी कहां है ?’’ भोला ने अपनी झिलंगी चादर गर्दन के इर्द-गिर्द लपेटते हुए पूछा।
‘‘झोंपड़ी के पास होगी। अब बोलना नहीं। जल्दी काम निबटाना है। देख, कुहासा तेजी से छंट रहा है,’’ उसने भोला को चेताया। धूप कोहरे से आंख मिचौली खेल रही थी। वातावरण में हलकी तपिश बढ़ गयी है।
धूप के खिलखिलाने से पहले ही सारा काम निबट गया। चापाकल पर हाथ धोते हुए उसने कहा, ‘‘बाबू जब तक आएंगे, बैल चारा-पानी खाकर काम पर जाने के लिए तैयार रहेंगे।’’

‘‘अब जल्दी चल लता। देर होने से उधर लोगों की आवाजाही शुरू हो जाएगी। फिर कैसे तोड़ेंगे खीरा ?’’
‘‘बस, चल ही रही हूं। नांद में थोड़ा भूसा डाल दूं।’’
भूसे के ढेर पर से उसने चादर उठायी। ओढ़ा। नांद की तरफ़ नज़र दौड़ा कर संतुष्ट हो गयी।
‘‘चल भोला, सब काम हो गया।’’
बथान के दूसरे छोर पर चारू का खेत था। गांव के बीच हो कर जाना होगा। गांव में जागरण शुरू हो गया था। दोनों ने एक गली की राह पकड़ी।
‘‘ऐ लता,’’ अचानक सूरजी आवाज देती उसके करीब आयी, जैसे उसी की प्रतीक्षा कर रही हो,‘‘कुछ सुना तूने ?’’
‘‘क्या ?’’

सूरजी ने इधर-उधर देखा फिर फुसफुसा कर उससे बोली, ‘‘चारू को नेटुआ ने पकड़ लिया है।’’
‘‘हैं, कब ?’’ वह चौंकी। उसे ताज्जुब हुआ, गांव में इतनी बड़ी बात हो गयी और उसे पता तक नहीं।
‘‘कल दोपहर को ही। अकेले गाछी की तरफ़ गयी थी, दिशा-मैदान को। उसी वक्त पकड़ लिया।’’
‘‘और जाये गाछी की रखवाली करने ! अच्छा हुआ जो उस भूतनी को नेटुये ने पकड़ लिया,’’ वह खुश होती बोली।
‘‘अभी नेटुआ झराएगा। बगल के गांव से दो ठो ओझा आया है। चलेगी देखने ?’’
‘‘नहीं रे। दादी कहती हैं, कुंआरी लड़कियों को ऐसी जगह नहीं जाना चाहिए। भूत-प्रेत बीमार की देह से उतर कर उन्हें पकड़ लेते हैं।’’

‘‘अरे कुछ नहीं होगा। चल न। जानती है, बड़ा तगड़ा नेटुआ है। रात भर चारू को कमरे में बंद रखा गया है। मज़ा आएगा देखने में, कैसे ओझा भगाता है उसे !’’ उसका हाथ खींचती हुई सूरजी चारू के घर की तरफ़ चल दी।
चारू का आंगन गोबर से लीप कर नये खप्पर में उपले की आग जलायी गयी थी। एक तरफ़ पीपल का टूसा पीला सरसों गांजा पीने वाली नयी चीलम रखी हुई थी। बरामदे पर मर्द और औरतों की भीड़ थी। दोनों औरतों के पीछे छिप गयीं।
दोनों ओझा चटाई पर बैठ मंत्र बुदबुदा रहे थे। चारू को उसके बाबू और भाई पकड़े बैठे थे। दो दो आदमियों के पकड़ने के बावजूद वह उछल रही थी। दोनों ज़ोर लगा कर उसे दबा रहे थे। जाने इसमें इतनी ताक़त कहां से आ गयी थी ! शायद नेटुआ की ताकत थी, उसने सोचा।

एक ओझा ने खप्पर की आग को चारू के आगे रख दिया। दूसरे ने मुट्ठी में सरसों और मिरचा उठाया और आग पर डाल दिया। ज़ोरों का धुआं निकलने लगा। मिर्चों की झांस, से लोग खांसने लगे। ओझा ने खप्पर उठाया, उसे चारू की नाक के पास ले जा कर पूछा, ‘‘इस लड़की को क्यों पकड़ रखा है ? बोल ! बोल !’’
चारू चुप...चेहरे को धुएं के करीब से हटाने के लिए तड़पने लगी थी।
‘‘ऐसे नहीं मानेगा तू। ले और मिरचा....।’’
एक मुट्ठी और मिरचा उठा ले कर उसने खप्पर में डाल दिया, ‘‘अब बोल, क्यों पकड़ा तूने इस लड़की को, बोल ?’’ ओझा चिल्लाया।

‘‘यह भरी दोपहरी में मेरे निवास के पास दिशा-फरागत को क्यों बैठी थी ?’’
‘‘इसे माफ़ कर और भाग जा यहां से।’’
‘‘नहीं जाऊंगा।’’
‘‘नहीं जाएगा ? ठहर, तुझे ठीक करता हूं,’’ ओझा ने पीपल का टूसा उठाया। चारू के पीछे गया और टूसे को उसके दोनों कानों में ठूंसने लगा।
‘‘आं-आं !’’ चारू चिल्लाई। ज़ोरों से मचल कर अपने को मुक्त किया और कूद कर भागने लगी। ओझा ने झपट कर चारू के बाल पकड़ लिये। चारू ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रही थी।
डर के मारे उसकी जान निकल गयी। उसने सूरजी की कलाई पकड़ी। बाहर खींचती हुई बोली, ‘‘भाग सूरजी यहां से। चारू का नेटुआ अगर हम लोगों को पकड़ लिया तो ?’’ वह थर थर कांप रही थी।
दोनों बाहर आयीं। दिन काफी चढ़ आया था। अंदर में समय का भान ही नहीं हुआ। वह डरी, जाने बाबू बथान पर आये या नहीं। झटकती हुई वह बथान की तरफ़ बढ़ी। सूरजी टोकती रह गयी।

‘‘कहां भागी जा रही है लता ? अरे सुन तो।’’
‘‘नहीं, नहीं, बहुत देर हो गयी है।’’
वह बथान पर आयी। झोंपड़ी की ओट से झांका, छोटी बहन बुलू बैलों को चारा डाल रही थी। उसकी जान में जान आयी। ओट से निकल कर वह बुलू के पास पहुंची।
‘‘बाबू नहीं आये ?’’
‘‘नहीं, पर तुम अभी तक कहां थी ?’’
‘‘ऐसे ही दिशा-मैदान के लिए नदी की तरफ गयी थी,’’ उसने बहाना किया।
‘‘पता है, कई बार दादी तुझे खोज गयी हैं।’’

दादी का नाम सुनते ही वह डर के मारे कांप उठी। हकलाते हुए उसने पूछा, ‘‘किसलिए ?’’
‘‘पता नहीं। पर वे काफी बेचैन थीं। तीन-चार बार यहां खोज गयी हैं तुझे। गुस्से से बड़बड़ा रही थीं,’’ बुलू बोली।
सुन कर डर के मारे उसका कलेजा मुंह को आ गया। दादी का गुस्सा उसे मालूम था। जब उनके मन लायक कोई काम नहीं होता, वे चीख़ कर आसमान सर पर उठा लेती हैं। मां के भाग्य, बहनों के जन्म, शायत, नक्षत्र-सब को कोसने लगती हैं, और अंत में सारा गुस्सा मां पर उतारती हैं।
‘‘बुलू, तू ही घर चली जा, यहां मैं रह जाती हूं।’’
‘‘और दादी ने तुम्हारे बारे में पूछा तो ?’’
‘‘कह देना, नदी की तरफ़ दिशा-मैदान को गयी थी।’’

‘‘ना बाबा, ना, झूठ बोल कर मैं उनसे मार नहीं खाऊंगी। इतना वक्त कहीं दिशा-फरागत में लगता है भला। सूरज सर पर चढ़ आया।’’
‘‘अब तुझसे क्या छुपाना, चारू को नेटुआ ने पकड़ रखा है। सूरजी ज़बरदस्ती वहीं खींच ले गयी थी।  चारू की ओझाई हो रही थी। बड़ा मज़ा आया देखने में।’’
‘‘बाप रे, तुम वहां गयी थीं, दादी की बात भूल गयीं ? ऐसी जगहों पर कुंआरी लड़कियों को नहीं जाना चाहिए।’’
‘‘मैं कहां जा रही थी। वो सूरजी ज़बरदस्ती पकड़ ले गयी, दादी से कहना नहीं।’’
‘‘मैं क्यों कहने लगी, मार खानी है मुझे !’’ बुलू तपाक से बोली।
‘‘बाबू घर पर हैं ?’’

‘‘एक बार आये थे। दादी से कुछ बोले, फिर चले गये। मुखिया काका का आदमी भी साथ था।’’
‘‘क्या दादी बहुत गुस्से में थीं ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘ठीक है, मैं घर जा रही हूं, जो होगा, भुगत लूंगी,’’ उसने मायूसी से कहा।
हज़ारों शंकाओं से घिरी, आहिस्ता आहिस्ता क़दम बढ़ाती वह घर की तरफ़ बढ़ी। जाने क्या होता जा रहा है दिन पर दिन दादी को ! दिन भर अदहन की तरह खौलती रहती हैं। उस पर कुछ ज्यादा ही कहर टूटता है उनका। पहले तो वे ऐसी नहीं थीं। कितनी अच्छी कहानियां सुनाया करती थीं, पर आजकल...? यह सब उस समय से ज्यादा हो रहा है जब से छोटी बहन का जन्म हुआ है। ‘मां भगवती, सब कुशल करना।’ मन ही मन उसने मां दुर्गा को याद किया। भूख से उसकी अंतड़ियां ऐंठ रही थीं। भय से प्राण सूख रहे थे जाने क्या बात है।

दीवार से सटी वह दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी। बरामदे पर नज़र पड़ते ही उसका जी धक् से रह गया। चौकी पर कुछ अनजबी लोगों के साथ मुखिया काका भी बैठे थे। क़रीब ही खड़े बाबू उन लोगों से बातें कर रहे थे। सड़क के किनारे जीप खड़ी थी। जाने कौन हैं ये लोग ? कहीं हैज़े की सुई लगाने वाले तो नहीं ? अगर हैज़ा की सुई वाले होते तो नीलू, शीलू बाहर रो रही होतीं। सुई से सब डरती हैं। कहीं ये लोग पंच तो नहीं ? कहीं मुखिया काका अपना खेत छीनने तो नहीं आये ? ज़रूर  यही बात होगी। तभी दादी गुस्से में थीं। हे भगवान, अगर मुखिया काका अपनी ज़मीन छीन लेंगे तो उसका परिवार कैसे जिएगा ? वह लड़का होती तो हल, कुदाल चला कर या ईंट-गारा ढो कर कुछ बनिहारी ले आती। एक बाबू की कमाई से इतना बड़ा परिवार कैसे चलेगा ? सोच कर उसकी आंखें भर आयीं।



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