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बादशाही अँगूठी

सत्यजित राय

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3822
आईएसबीएन :9788183612432

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बादशाह औरंगजेब पर आधारित उपन्यास..

Baadshahi Angothi a hindi book by Satyajit Ray - बादशाही अँगूठी - सत्यजित राय

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


औरंगज़ेब तब बादशाह नहीं था, शहज़ादा ही था; जब उसे समरकंद की एक लड़ाई में भेजा गया। लड़ते हुए जब उसकी जान पर बन आयी तो उसके सिपहसालार ने उसकी रक्षा की। इससे खुश होकर औरंगजेब ने उसे अपनी एक अँगूठी बख्श दी। सैकड़ों बरस बाद वही अँगूठी आगरा में उस सिपहसालार के खानदान वालों से प्यारेलाल नामक रईस ने खरीदी; और फिर वह उसे डॉक्टर को भेंट कर गया।
स्वाभाविक है कि ऐसी बेशकीमती अँगूठी को हड़पने के लिए चोर-डाकू भी पीछे लगे। लेकिन उससे पहले ही वह कुछ इस प्रकार गायब हुई, मानो जादू हो गया हो !

और इसके बाद शुरू होती है उसे, बल्कि कहना चाहिए, उसे चुराने वाले व्यक्ति की खोजने की रहस्यपूर्ण यात्रा। एक प्रकार से देखा जाय तो यह जासूसी उपन्यास है, लेकिन सत्यजीत राय सरीखे लेखक और फिल्मकार की रचना-दृष्टि से इतने से ही संतोष नहीं कर सकती। यही कारण है कि बादशाही अँगूठी गायब होने और उसे गायब करने वाले को खोजते हुए वे लखनऊ, हरिद्वार और ऋषिकेश की ऐतिहासिक यात्रा भी कराते हैं। कहना होगा कि यह किशोर पाठकों को ध्यान में रखकर लिखा गया यह उपन्यास दिलचस्प भी है और ज्ञानवर्धक भी।

एक


पिताजी ने जब कहा-‘तेरे धीरू काका बड़े दिनों से कह रहे हैं, सो सोचता हूँ कि इस बार पूजा की छुट्टी लखनऊ में ही बिताऊँ’-तो मेरा मन मायूस ही हो गया। मेरा ख्याल था, लखनऊ बड़ी वाहियात-सी जगह है। मगर पिताजी ने यह भी कहा कि वहाँ से हम लोग हरिद्वार और लछमन झूला भी हो आएँगे-लेकिन वह आखिर कितने दिनों के लिए ? इसके पहले हर छुट्टी में या तो दार्जलिंग या पुरी जाता रहा हूँ। मुझे पहाड़ भी अच्छा लगता है और समुद्र भी। लखनऊ में इन दोनों में से कोई भी नहीं है। इसीलिए मैंने पिताजी से कहा-‘‘हम दोनों के साथ फेलू-दा नहीं चल सकता है ?’’
फेलू-दा कहता है कि वह कलकत्ता छोड़कर कहीं भी क्यों न जाए, उसे लेकर रहस्यमय घटनाएँ हो जाती हैं और यह सच भी है, जिस बार वह हम लोगों के साथ दार्जिलिंग में था, उसी बार राजेन बाबू के साथ वे अनोखी घटनाएँ घटीं। यदि वैसा ही हो, फिर तो जगह अच्छी न होने पर भी कोई नुक़सान नहीं है।

पिताजी ने कहा-‘‘फेलू तो चल ही सकता है, लेकिन उसने नई नौकरी जो शुरू कर दी है, छुट्टी मिलेगी ?’’
फेलू-दा ने लखनऊ का ज़िक्र करते ही वह बोला-‘‘फिफ्टी एट में क्रिकेट खेलने के लिए गया था। जगह बिलकुल बुरी नहीं है। बड़े इमामबाड़े के भूल-भुलैया में कहीं घुस जाएँ तो तेरी आँखें और मन एक ही साथ चौंधिया जाएँगे। नवाब-बादशाहों का एमेजिनेशन कैसा था-बार रे बाप ।’’
‘‘तुम्हें छुट्टी तो मिल जाएगी न ?’’
मेरी बातों पर ज़रा भी कान न देकर फेलू-दा ने कहा-‘‘सिर्फ भूल-भुलैया ही क्यों, गोमती नदी के उस पार मंकी ब्रिज देखना; सिपाहियों की तोपों के गोलों से तबाह हुई रेज़िडेंसी देखना।’’
‘‘यह रेज़िडेंसी क्या बला है ?’’
‘‘यह 1857 की क्रान्ति में गोरों का अड्डा था। उसे घेरकर गोले बरसाकर सिपाहियों ने झंझरी कर दिया था। गोरों ने तहखाने में छुपकर अपनी जान बचाई।’’

फेलू-दा ने दो साल से यह नौकरी की है। पहले साल उसने कोई छुट्टी नहीं ली। लिहाज़ा पंद्रह दिन की छुट्टी पाने में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई।
यहाँ यह बता दूँ, फेलू-दा मेरा मौसेरा भाई है। मेरी उम्र चौदह और उसकी सत्ताईस है। उसे कोई अधपगला कहता है, कोई कल्पनाशील कहता है, तो कोई महा-आलसी। मैं मगर जानता हूँ कि इतनी उम्र में फेलू-दा जैसी बुद्धि बहुत कम ही लोगों को होती है और उसके मन लायक़ काम मिले, तो उसके जैसा परिश्रम भी बहुत कम ही आदमी कर सकते हैं। इसके अलावा वह क्रिकेट अच्छा खेलता है, कोई सौ क़िस्म के इनडोर गेम यानी कमरे में बैठकर खेले जानें वाले खेल जानता है, ताशों का जादू जानता है, वह थोड़ा बहुत हिप्नोटिज़्म जानता है, दाएँ और बाएँ-दोनों हाथों से लिखना जानता है और जब स्कूल में पढ़ाता था तो उसकी याददाश्त इतनी तेज़ थी कि उसने महज़ दो ही बार पढ़कर रवींद्रनाथ की कविता ‘देवता का ग्रास’ को कंठस्थ कर लिया था।

लेकिन फेलू-दा की जो सबसे ज़बरदस्त खूबी है, वह यह कि वह अंग्रेज़ी किताबें पढ़ता है और अपनी ही अक़्ल से उसने डिटेक्टिव का बड़ा ज़बरदस्त काम सीख लिया है। मगर इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं कि चोर-डकैत और खूनी को पकड़ने के लिए उसे पुलिस वाले बुलाते हैं। वह, जिसे कहते हैं, यानी कि शौकिया डिटेक्टिव है।
यह बात तभी समझ में आ जाती है, जब किसी बिलकुल अजाने आदमी को देखते ही वह उसके बारे में बहुत कुछ कह दे सकता है।
जैसे, लखनऊ स्टेशन पर गाड़ी से उतरते ही धीरू काका को देखकर उसने फुसफुसाकर मुझसे कहा-‘‘तेरे काका को शायद बागवानी का शौक है।’’
मुझे धीरू काका की बागवानी की बात गरचे मालूम थी, लेकिन फेलू-दा के तो जानने की बात नहीं थी यह। क्योंकि फेलू-दा गरचे मेरा मौसेरा भाई है, लेकिन धीरू काका मेरे अपने चाचा नहीं है, पिताजी के बचपन के दोस्त हैं। इसलिए मैंने अचंभे में आकर पूछा-‘‘तुमने यह कैसे जाना ?’’
फेलू-दा ने फिर फुसफुसाकर कहा-‘‘वह ज़रा पीछे मुड़ें तो ग़ौर करना, उनके दाएँ पाँव के जूते की एड़ी के पास से गुलाब के पत्ते की एक नोक निकली हुई है। और, दाएँ हाथ की दर्जनी में टिंचर आयोडिन लगा है। यह सबेरे बगीचे में जाकर गुलाब काटने का नतीजा है।’’

स्टेशन से घर जाते हुए मैंने समझा, लखनऊ शहर दरअसल बहुत सुन्दर है। चारों तरफ गुंबज और मीनार वाले मकान दिखाई दे रहे थे, सड़कें चौड़ी और साफ-सुथरी और उन पर मोटर के अलावा मैंने दो तरह की घोड़ा गाड़ियाँ चलते देखीं। उनमें एक नाम है ताँगा, दूसरी का एक्का। ‘एक्का गाड़ी दौड़ी खूब’ यह चीज़ मैंने यहीं पहली बार अपनी आँखों देखी। धीरू काका की ‘शेवरले’ गाड़ी नहीं होती, तो हम लोगों को इन्हीं में से किसी एक की शरण लेनी पड़ती।
चलते-चलते धीरू काका ने कहा-‘‘यहाँ नहीं आते तो क्या यह जान पाते कि यह शहर कितना सुन्दर है ? यहाँ राह-बाट में कलकत्ते की तरह कहीं कूड़ा-कचरा देख रहे हो ? और फिर पेड़ कितने हैं, फूलों के बाग कितने !’’
पिताजी और धीरू काका पीछे बैठे थे। मैं और फेलू-दा आगे। मेरी बग़ल में बैठकर गाड़ी चला रहा था धीरू काका का ड्राइवर दीनदयाल सिंह। मेरे कानों से मुँह सटाकर फेलू-दा ने फुसफुसाकर कहा-‘‘भूल-भुलैया के बारे में पूछना।’’
फेलू-दा कुछ करने को कहता है, तो मुझसे वह किए बिना नहीं रहा जाता। इसीलिए मैंने पूछा-‘‘अच्छा काका जी, यह भूल-भुलैया क्या है ?’’
धीरू काका बोले-‘‘अरे देखोगे, अभी सभी कुछ देखोगे। भूल-भुलैया इमामबाड़े का अजीब ही भूल-भुलैया है। हम बंगाली लोग अवश्य उसे ‘घुलघुलिया’ कहते हैं, पर उसका असली नाम भूल-भुलैया ही है। इस भूल-भूलैया में नवाब लोग अपनी बेगमों के साथ लुका-छिपी खेला करते थे।’’

इस पर फेलू-दा ने खुद ही पूछा-‘‘तो क्या गाइड साथ लिए बिना घुसने पर उसके अंदर से बाहर आया ही नहीं जा सकता ?’’
‘‘ऐसा ही तो सुना है। एक बार एक गोरा सिपाही-बहुत दिन पहले-पी पवाकर बाजी बदकर उसके अंदर दाखिल हुआ था। उसने कह रखा था, उसे कोई न देखे, अपने आप निकल आएगा। दो दिन के बाद भूल-भूलैया की गली में उसकी लाश मिली।’’
मेरी तो छाती इतने में ही धड़कने लगी।
मैंने फेलू-दा से पूछा-‘‘तुम अकेले ही गए थे या गाइड लेकर ?’’
‘‘गाइड लेकर गया था। मगर अकेले भी जाया जा सकता है।’’
‘‘सच !’’
मैं तो अवाक् रह गया। फेलू-दा के लिए तब तो कुछ भी असंभव नहीं है !
फेलू-दा ने दो बार आँखें झपकाई, गरदन हिलाई और चुप हो रहा।
मैं समझ गया, वह अब नहीं बोलेगा। अभी वह शहर की सड़क-गली, घर-द्वार लोग बाग एक्का ताँगा, सब कुछ बड़े ध्यान से देख रहा है।

धीरू काका आज से बीस साल पहले वकील बनकर लखनऊ आए थे। तब से यहीं है। अब शायद यहाँ उनका बड़ा नाम-गाम है। काकी, तीन साल हुए, गुजर गईं। और धीरू काका के लड़के किसी नौकरी पर जर्मनी के फ्रेंकफुर्त शहर में हैं। अपने घर में अभी वह रहते हैं, उनका बैरा जगमोहन रहता है, एक बावर्ची और एक माली। जहाँ पर उनका मकान है, उस जगह का नाम है सिकंदर बाग। स्टेशन से कोई साढ़े तीन साल दूर मकान के फाटक पर सामने ही लिखा है-‘डी.के. सान्याल, एम. ए. बी. एल. बी, ऐडवोकेट’। फाटक के अंदर कुछ दूर तक कंकड़ों का रास्ता, उसके बाद मकान और रास्ते के दोनों ओर बगीचा। हम लोग जिस वक्त पहुँचे, माली ‘लानमोअर’ से बगीचे की घास काट रहा था।
दोपहर के भोजन के बाद पिताजी ने कहा-‘‘गाड़ी के सफर से आए हो। आज अब कहीं मत निकलो। कल से शहर देखना शुरू किया जाएगा।’’ इसलिए दिन भर घर बैठे फेलू-दा से ताश का मैजिक सीखता रहा। फेलू-दा ने कहा-‘‘भारतीयों की अँगुलियाँ यूरोपियनों के बनिस्बत कहीं ज्यादा फ्लेक्सिब्ल हैं। इसीलिए हाथ की सफाई के खेल हमारे लिए बहुत आसान हैं।’’

तीसरे पहर धीरू काका के बगीचे में युक्लिप्टस पेड़ के नीचे बेंत की कुर्सियों पर बैठकर हम चाय पी रहे थे कि गेट के बाहर एक मोटर के रुकने की आवाज हुई। फेलू-दा ने बिना देखे ही कहा-‘‘फिएट है।’’ उसके बाद रास्ते के पत्थर पर करमच-कचमच करते हुए ग्रे रंग के सूटवाले एक सज्जन पधारे। आँखों पर ऐनक साफ रंग और सिर के बाल लगभग सारे ही सफेद। लेकिन देखकर फिर भी समझ में आ रहा था, उम्र उनकी पिताजी वगैरह से ज़्यादा नहीं है।
धीरू काका हँसकर नमस्कार करते हुए उठे। और कहा-‘‘जगमोहन एक कुर्सी और लाओ।’’ उसके बाद पिता जी की ओर मुड़कर बोले-‘‘परिचय करा दूँ, ये हैं डॉक्टर श्रीवास्तव मेरे परम मित्र।’’
मैं और फेलू-दा दोनों ही कुर्सी छोड़कर उठ खड़े हुए थे।
फेलू-दा ने फुसफुसाकर कहा-‘‘नर्वस हो गया है। तेरे पिताजी को नमस्ते करना भूल गया।’’
धीरू काका ने कहा-‘‘श्रीवास्तव ऑस्टियोपैथ हैं और बिलकुल लखनौआ।’’
फेलू-दा ने दबे गले से कहा-‘‘ऑस्टियोपैथ माने समझा ?’’
‘‘मैंने कहा-‘‘नहीं।’’
‘‘डड्डी की बीमारियों के डॉक्टर। ऑस्टियो और अस्थि दोनों की समानता देखो, अस्थि के मानी हड्डी होती है, यह तो मालूम है न ?’’
‘‘हाँ, सो जानता हूँ।’’

बेंत की एक और कुर्सी आ गई। हम सभी बैठ गए। एकाएक भूल से डॉक्टर श्रीवास्तव ज़रा ही देर में पिताजी की चाय के प्याले में मुँह लगा देते। ऐन वक्त पर पिता जी ने ख़ुक्-ख़ुक् करके खाँसा और आइ ऐम सो सॉरी कहकर उन्होंने प्याले को रख दिया।
धीरू काका ने कहा-‘‘भई, तुम आज जरा वैसे से लगते हो। कोई सख्त मरीज वरीज देखकर आए हो क्या ?’’
पिताजी ने कहा-‘‘धीरू, तुमने इससे बँगला में कहा। ये बँगला समझते हैं, क्यों ?’’
धीरू काका ने हँसकर कहा-‘‘अरे बाप रे, समझते हैं ! जरा अपना बँगला कविता-पाठ तो सुना दो।’’
डॉ. श्रीवास्तव जैसे कुछ अप्रतिम से होकर बोले-‘‘मैं बँगला मामूली जानता हूँ। टैगोर को भी कुछ-कुछ पढ़ा है।’’
‘‘अच्छा !’’
‘‘यस ! ग्रेट पोएट।’’
मैं मन-ही-मन सोचने लगा, बस, अब कलकत्ते की चर्चा शुरू हुई ! इतने में उन्हीं के लिए प्याली में ढाली हुई चाय को काँपते हाथों उठाकर श्रीवास्तव ने कहा-‘‘कल रात मेरे घर डाकू आया था।’’
डाकू ? यह डाकू क्या ? मेरी क्लास में एक लड़का है, दक्षिणा। उसका पुकार का नाम है डाकू।
लेकिन धीरू काका की बातों से मैं समझ गया।
‘‘हाय राम, डकैत तो मध्य प्रदेश में हैं, मैं तो यही जानता था। लखनऊ शहर में डकैत कहाँ से आ गया ?’’
‘‘डाकू कहें, चाहे चोर। मेरी अँगूठी के बारे में तो आप जानते हैं, मिस्टर सान्याल ?’’
‘‘वही प्यारेलाल की दी हुई अँगूठी ? वह क्या चोरी चली गई ?’’

‘‘नहीं नहीं। लेकिन मेरा ख्याल है, उस अँगूठी के लिए ही चोर आया था।’’
पिताजी ने पूछा-‘‘कैसी अँगूठी ?’’
श्रीवास्तव ने धीरू काका से कहा-‘‘इन्हें आप ही सुनाइए। ये मेरी उर्दू नहीं समझेंगे और उतनी बात मैं बंगला में नहीं बोल सकूँगा।’’
धीरू काका ने कहा-‘‘प्यारेलाल लखनऊ के एक धनी मानी व्यवसायी थे। जाति के गुजराती। कभी कलकत्ते में रहते थे। इसी से थोड़ी बहुत बंगला भी जानते थे। उनके लड़के महावीर को-जब वह बारह या तेरह साल का था-हड्डी की कोई कठिन बीमारी हुई। श्रीवास्तव ने उसे भला-चंगा कर दिया। प्यारेलाल की पत्नी नहीं है। दो लड़कों में से बड़ा टायफाएड से चल बसा। लिहाजा समझ ही सकते हो कि एकमात्र लड़के को मौत के दरवाजे से लौटा ला देने की ख़ातिर प्यारेलाल के मन में श्रीवास्तव के प्रति बड़ी गहरी कृतज्ञता थी। इसीलिए मरने से पहले वह एक बहुत ही बेशकीमती अँगूठी श्रीवास्तव को दे गये।’’
पिताजी ने पूछा-‘‘सज्जन मरे कब ?’’

श्रीवास्तव ने कहा-‘‘लास्ट जुलाई में। तीन महीने हुए। मई महीने में पहली बार दिल का दौरा पड़ा। उसी में करीब-करीब जा चुके थे। उन्होंने वह अँगूठी मुझे उसी समय दी थी। देने के बाद वह अच्छे हो गए। उसके बाद जुलाई के महीने में दूसरा अटैक हुआ। मैं उस समय भी उनसे मिलने गया था। तीन दिन बाद उन्होंने आखिरी सांस ली। यह देखिए-’’
श्रीवास्तव ने कोट की जेब में दियासलाई से थोड़ी सी बड़ी एक मखमल की नीली डिबिया निकाली। उसका ढक्कन खोलते ही नगों पर में धूप लगने से इंद्रधनुष जैसी आंखें चौंधियाने वाली एक सतरंगी छटा छिटक पड़ी।
उसके बाद श्रीवास्तव ने इधर-उधर देख लिया। फिर झुक कर सावधानी के साथ अपने अँगूठे और उसके पास की उँगली से बड़े हलके ढंग से अँगूठी को निकाला।

देखा, अँगूठी के ऊपर ठीक बीच में लगभग चवन्नी के आकार का एक पत्थर था-वेशक हीरा होगा। और उसके चारों ओर लाल, नीला हरा-और भी बहुत से छोटे-छोटे पत्थर।
इतनी अनोखी खूबसूरत अँगूठी मैंने कभी नहीं देखी।
कनखियों से फेलू-दा की तरफ ताका। वह युक्तिप्टस का एक सूखा पत्ता कान में डालकर उसे उमेठ रहा था-गो कि उसकी नज़र अँगूठी की ही ओर थी।
पिताजी ने कहा-‘‘देखने से तो लगता है, चीज़ यह पुरानी है। इसका कोई इतिहास है क्या ?’’
श्रीवास्तव ने ज़रा हँसकर अँगूठी को डिबिया में बंद किया, डिबिया को जेब में रखकर चाय के प्याले को फिर से हाथ में उठाकर कहा-‘‘छोटा सा इतिहास है। इसकी उम्र तीन सौ साल से ज़्यादा है। यह अँगूठी औरंगजेब की थी।’’
पिताजी ने आंखों को कपाल पर चढ़ाकर कहा-‘‘ऐं ! हमारे औरंगजेब बादशाह ! शाहजहाँ का बेटा औरंगजेब ?’’



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