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पौराणिक >> आञ्जनेय

आञ्जनेय

राजेश्वरी अग्रवाल

प्रकाशक : ज्ञानभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :210
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3820
आईएसबीएन :81-85478-79-1

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हनुमान के जीवन चरित्र पर आधारित एक अत्यंत रोचक और सशक्त उपन्यास।

Aanjaney a hindi book b yRajeshwari Agarwal - आञ्जनेय - राजेश्वरी अग्रवाल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हनुमान राम के अद्वितीय आदर्श भक्त हैं। उस सर्वश्रेष्ठ आदर्श का सर्वोत्कृष्ट प्रकाशस्तंभ भारत की भूमि, उसकी संस्कृति, उसकी सभ्यता तथा उसके जीवन में इतना गहन पड़ा हुआ है कि वह सर्वकाल में भटकते विश्व मानव की राह को अपने शाश्वत प्रकाश से सदा उजागर करता रहेगा।
हनुमान जी का समुद्र संतरण, लंका दहन, राक्षसों का विनाश, कैलास से अल्पकाल में संजीवनी बूटी लाना आदि महान् आश्चर्यजनक कार्यकलाप उनकी यौगिक लोकोत्तर दैवी सिद्धियों के ही परिणामस्वरूप सिद्ध हो सके। इस युग में जब विज्ञान का यंत्रों की सहायता से उपयग किया जाता है, तब पूर्व युगों में तपस्वियों ने यौगिक क्रियाओं और मंत्र सिद्धियों से यदि उनका प्रयोग किया हो तो इसमें अविश्वास की क्या बात है ?
हनुमान जी का चरित्र उस कोटि के अद्वितीय पुरुषों में आता है जो ब्रह्मलीन ज्ञानी विज्ञानी थे। आञ्जनेय ने ईश्वर की कृपा से बचपन में ही सूर्योपासना से ज्ञान विज्ञान की शिक्षा प्राप्त कर ली थी। वे जन्म-जात ज्ञानी थे। सब तत्त्वों के देवताओं के आशीर्वाद से उच्चतम विज्ञान के बीज भी उनकी उर्वर चेतना की भूमि में जम गये। श्रीराम से प्रथम मिलन के क्षणों में उनका आत्मबोध जागृत हुआ और वे मनसा, वाचा, कर्मणा सहज ही उन्हें समर्पित हो कर उनके प्रेम में उनकी सेवा में लीन हो गये। वे निर्विकार भाव से उन्हें करने में रत हो गये।
हनुमान जी का शारीरिक बल बज्र के समान दृढ़ था और उनकी गति गरुण के समान तेज थी। उनके कार्यकलापों में उनकी लोकोत्तर दैवी शक्ति, क्षमता और दक्षता का बराबर परिचय मिलता है। ‘राम काज कीन्हें बिनु, मोहि कहां विश्राम’यही भावना उनको सतत् गतिशील बनाये रखती है। एक विचित्र लगन, एक विचित्र उत्साह, विघ्न बाधाओं की चिन्ता न करते हुए, उन्हें लक्ष्य की ओर बढ़ाये चला गया। आञ्जनेय की एक ओर मातृवत्सलता से जन्मी शक्ति है, दूसरी भक्ति से मंडित है, तीसरी भगवान के सेवाभाव से मर्यादित और चौथी करुणा से द्रवित होने वाली है। वायु पुत्र होने के नाते उनकी सक्ति में गति है, दास्य के नाते करुणा है।
महावीर शक्ति का मूल स्त्रोत व्यापक मानवीय करुणा है जिसमें सात्विक तत्त्वों की रक्षा का संकल्प है। वे ‘राममय’ हैं। जो ‘राममय’ है, उसकी सेवा करना ही उनका संकल्प है। तब वह उस प्रभु राम को समर्पित हो जग और आध्यात्म को राममय ही देखता है। उस परम सत्ता के चरणों में नमन कर उसकी इच्छानुसार संसार का कार्य सहजता से सहर्ष करता है।
आञ्जनेय बालक, वृद्ध, युवा सबके प्रिय हैं। उनके चरित्र का स्मरण राष्ट्र के उत्तम चरित्र का प्रेरक और संरक्षक है। उनके आदर्शों की स्थापना से देशभक्ति की नयी लहर आ सकती है। परस्परिक फूट, कलह, प्रवंचना, विलासिता, तन मन की दुर्बलताओं की राक्षसी सेना का विनाश हो कर पुनः राम राज्य स्थापित हो सकता है। आवश्यकता है उनके चरित्र में पूर्ण आस्था करने की।
आज के परिप्रेक्ष्य में समाज के हर वर्ग को हनुमान जी के जीवन मूल्यों तथा आदर्शों से प्रेरणा लेने का एक छोटा सा, किंतु एक साहसिक और महत्त्वपूर्ण प्रयास है।
हनुमान जी के असंख्य भक्तों के लिए एक अनुपम भेंट। यह उपन्यास उनमें सकारात्मक परिवर्तन लाने में सफल हो सके, हम ऐसी आशा की कामना करते हैं। हनुमान जी के हर भक्त के लिए एक अनिवार्य कृति-अत्यंत रोचक, पठनीय तथा प्रेरणा से भरपूर।

प्रस्तुति

हनुमान राम के अद्वितीय आदर्श भक्त हैं। उस सर्वश्रेष्ठ आदर्श का सर्वोत्कृष्ट प्रकाशस्तंभ भारत की भूमि में, उसकी संस्कृति, उसकी सभ्यता तथा उसके जीवन में इतना गहन गड़ा हुआ है कि बाहर से आए हुए विदेशी सभ्यताओं के प्रखर बवंडर उसे हिला तक न सके। वह सर्वकाल में भटकते विश्व मानव की राह को अपने शाश्वत प्रकाश से सदा उजागर करता रहेगा। उस अनन्त से उद्भूत वह ऐसा अक्षय प्रेरणा स्रोत है जो नित्य नवीन आत्मशक्ति प्रवाहित करता हुआ अपने साथ अपने भक्तों को उस प्रेम पारावार तक पहुँचा देता है।
अनादिकाल से कालचक्र निरतंर एक सा घूमता चला आ रहा है। उसी प्रकार जीवन की घटनाओं का चक्र भी ऊपर-नीचे होता रहता है। जो आज घटित हो रहा है, वह पहले भी न जाने कितनी बार घटित होता होगा। हर युग की सामान्य और विशेष ज्ञान-विज्ञान की घटनाएं उस देश की माटी की अवचेतन भूमि में बीज रूप में निहित पड़ी रहती हैं। समय आने पर कोई मनीषी पुन: प्रभु की कृपा से उन्हें नवीन रूप में उद्घाटित कर देते हैं। ईश्वरेच्छा से कोई लौकिक पुरुष अलौकिक शक्ति से सम्पन्न उस भूमि पर अवतरित हो कर उस विस्मृत ज्ञान को युगानुकूल नए रूप में प्रस्तुत करने के निमित्त बन जाते हैं।
आज की महान वैज्ञानिक उपलब्धियों को देख कर मेरे अंतर में अपनी पौराणिक कथाओं में चमत्कारिक ढंग से वर्णित घटनाओं को पढ़ कर उनका आज का विज्ञानमय रूप उजागर हो उठता है। जैसे, रामायण काल में समुद्र पर सेतु किस प्रकार बाँधा गया होगा, हम उसकी वैज्ञानिक युक्ति को समझने में असमर्थ हैं। बनवासी श्रीराम को अगस्त्य मुनि से मिलने का संयोग प्राप्त हुआ। उन्होंने उनको सुयोग्य पात्र समझ कर अपने शोध से बनाये हुए अनेक दिव्यास्त्र उनका स्वागत करते हुए दिए। ऋषि अगस्त्य के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे सागर को पी गए थे। इसके भावार्थ मैं यही समझती हूँ कि वे सामुद्रिक विद्या में पारंगत थे। उन्होंने उसके ज्ञान और वैज्ञानिक रहस्य को पूर्णतय: आत्मसात कर लिया था। त्रिकालज्ञ ऋषि को ज्ञात था कि समय पर राम को उसकी आवश्यकता पड़ेगी। इसी कारण उन्होंने वह ज्ञान उन्हें दिया। जल को साधने के लिए उन्होंने अमोध मंत्र शक्ति से अभिमंत्रित प्रक्षेपास्त्र इत्यादि भी दिए होंगे। इसकी पुष्टि राम के सिंधु पर प्रथम बाण के संधान से होती है, जब उसके छूटते ही सागर में भयानक उथल-पुथल मच गई, जीव-जन्तु झुलसने लगे थे। इसके पश्चात् ही समुद्र हाथ बांधे राम के सम्मुख उपस्थित हुआ अर्थात् उनका मार्ग प्रशस्त हुआ। किसी स्तर पर जल के स्तंभन से सेतु निर्माण संभव हो सका। उन दिव्य शक्तियों से ऐसे सेतु का निर्माण हुआ जो लंका तट के रक्षकों की दृष्टि से समुद्र की लहरों के आवरण में ओझल रहा, जिसका पता दशानन को तब लगा जब राम की सारी सेना पुल से पार हो कर उस तट तक पहुंच गई। आज जब जापान जैसे उन्नत देशों में समुद्र तल में अलक्षित रेलें चल सकती हैं तो कालान्तर में विज्ञान यौगिक और मंत्र सिद्धि से प्राप्त उस अद्भुत भक्ति के उस विज्ञान के रहस्य को प्राप्त कर सकता है, जिसमें अल्पकाल में ऐसी आश्चर्यजनक संरचना संभव हुई थी। दूसरा उदाहरण, काकभुशुण्डि का ब्रह्माण्ड में चक्कर लगाना वैसा ही है जैसे आज वैज्ञानिक रॉकेट द्वारा नक्षत्रों का अध्ययन करते रहते हैं। तीसरा, ऋषि विश्वामित्र का राजा त्रिशंकू के लिए स्पेस में नई सृष्टि कर देना अर्थात्, नगर बना देना है। वर्तमान में भी स्पेस में स्टेशन आदि बन चुके हैं और नगर बनाने की योजना है।
श्री हनुमान जी का समुद्र संतरण, लंकादहन, राक्षसों का विनाश, कैलाश से अल्पकाल में संजीवनी बूटी लाना आदि महान आश्चर्यजनक कार्यकलाप उनकी यौगिक लौकोत्तर दैवी सिद्धियों के ही परिणामस्वरूप सिद्ध हो सके। इस युग में जब विज्ञान का यंत्रों की सहायता से उपयोग किया जाता है, तब पूर्व युगों में तपस्वियों ने यौगिक क्रियाओं और मंत्र सिद्धियों से यदि उनका प्रयोग किया हो तो इसमें अविश्वास की क्या बात है।

तुलसीकृत रामायण में भी भगवान को कौन से भक्त सबसे प्रिय हैं, उनका वर्णन करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं, ब्रह्मलीन ज्ञानी विज्ञानी ही उन्हें सबसे प्रिय हैं। ऐसा महान पुरुष तो युगों युगों में ही कोई एक बिरला हो पाता है। श्री हनुमान जी का चरित्र इसी कोटि के अद्वितीय पुरुषों में आता है जो ब्रह्मलीन ज्ञानी विज्ञानी थे। सूर्य परम ज्ञान के प्रतीक हैं। आन्जनेय ने ईश्वर की कृपा से बचपन में ही सूर्योपासना से ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा प्राप्त कर ली थी। वे जन्म-जात ज्ञानी थे। सब तत्त्वों के देवताओं के आर्शीवाद से उच्चतम विज्ञान के बीज भी उनकी उर्वर चेतना की भूमि में जम गए। अवकाश पाते ही सब रहस्य अंकुरित हो कर खुलते चले गए। श्रीराम से प्रथम क्षणों में उनका आत्मबोध जाग्रत हुआ और वे मनसा, वाचा, कर्मणा सहज ही उन्हें समर्पित हो कर उनके प्रेम में उनकी सेवा में लीन हो गए। आत्मलीन, निरहंकारी उस विज्ञान ज्ञान को सदा भूलते रहते। आवश्यकता पड़ने पर जब उन्हें उसकी सुधि कराई गई, उन्होंने उसी लगन से उन सिद्धियों का प्रयोग प्रभु राम का सांसारिक कार्य करने के लिए किया। वे निर्विकार भाव से उन्हें करने में रत हो गए।
उनका शारीरिक बल बज्र के समान दृढ़ था और उनकी गति गरुण के समान तेज थी। मन की गति जैसी उनकी गति थी। उनके कार्यकलापों में उनकी लोकोत्तर दैवी शक्ति, क्षमता और दक्षता का बराबर परिचय मिलता है। ‘राम काज कीन्हें बिनु, मोहि कहां विश्राम-’ यही भावना उनको सतत गतिशील बनाए रखती है। एक विचित्र लगन, एक विचित्र उत्साह, विघ्न-बाधाओं की चिंता न करते हुए उन्हें लक्ष्य की ओर बढ़ाये चला गया। आन्जनेय की एक ओर मातृवत्सलता से जन्मी शक्ति है, दूसरी भक्ति से मण्डित है, तीसरी भगवान के सेवाभाव से मर्यादित, और चौथी करुणा से द्रवित होने वाली है। वायु पुत्र होने के नाते उनकी शक्ति में गति है, दास्य के नाते करुणा है।

महावीर शक्ति का मूल स्रोत व्यापक मानवीय करुणा है जिसमें सात्विक तत्त्वों की रक्षा का संकल्प है। वे ‘राममय’ हैं। जो ‘राममय’ है उसकी सेवा करना ही उनका संकल्प है। ‘मैं सेवक सचराचर रूप राशि भगवन्त’ रूपराशि भगवान की यह व्याख्या और सेवा भाव ही राम, राम तत्व का सार है। उन ‘अतुलित बलधाम’ का बल के साथ विवेक ही उनके व्यक्तित्व को प्रदीप्त करता है। ‘परित्राणाय साधूनां’ उनका मूल मंत्र है जो आसुरी शक्तियों के दमन से ही सिद्ध हो पाता है।
संपूर्ण कथा लघु और विराट की लीला है। लघु सामान्य मनुष्य रूप, विराट-महान कार्यकलाप जिनका गुणगान युग युग से चलता आया है। जो परमात्म साक्षात्कार से आत्मबोध के क्षणों में अनुभव से जान लेता है कि वह भी यही परमात्म तत्व है, तब वह उस आत्मशक्ति से संयुक्त हो महान आश्चर्यजनक कार्य करने में समर्थ हो जाता है। फिर भी ‘जीव कि ईश समान’ जीव ही रहता है। तब वह उस प्रभु राम को समर्पित हो जग और आध्यात्म को राममय ही देखता है। उस परम सत्ता के चरणों में नमन कर उसकी इच्छानुसार संसार का कार्य सहजता से सहर्ष करता है। हनुमत चरित्र में ईश्वर सदैव इस मर्यादा का संस्थापन तथा संरक्षण करते हैं।
आन्जनेय बालक, वृद्ध और युवा सबसे प्रिय हैं। उनके चरित्र का स्मरण राष्ट्र के उत्तम चरित्र का प्रेरक और संरक्षक है। उनके आदर्शों की स्थापना से देशभक्ति की नई लहर आ सकती है। पारस्परिक फूट, कलह, प्रवंचना, विलासिता, तन-मन की दुर्बलताओं की राक्षसी सेना का विनाश हो कर पुन: रामराज्य स्थापित हो सकता है। आवश्यकता है उनके चरित्र में पूर्ण आस्था करने की।

इस कथा को आरंभ करने के पहले मैं घोर अंधकार से घिरी हुई थी। जयपुर मंदिर के पूज्य श्रीपाद बाबा की अत्यंत आभारी हूं जिनकी कृपा किरन राह उजागर करती रहती और यह लुघ लेखनी भगवद् शक्ति से उस धनाधंकार को चीरती चली गई। आभारी हूं उन सभी महानुभावों की जिनके भाव सुमन अनायास आ गए हैं मेरी रिक्त झोली में। अन्यथा ‘बुद्धिमतां वरिष्ठम्’ की अनुपम कथा लिखने की मुझ बुद्धिहीन में सामर्थ्य कहां...। अपनी अयोग्यताओं से संकुचित भी बहुत हूं, पर जो कुछ मुझ लघु मति की समझ में आया उसकी यह अटपटी सी अभिव्यक्ति है। ‘संत हंस गुन गहहिं पय परिहर वारि विकार’ से साहस कर इसको प्रकाश में लाने का प्रयास है।
-राजेश्वरी अग्रवाल

[1]

वेंकटाचल पर वेंकटेश्वर भगवान के चरणों में प्रणाम कर आकाश गंगा तीर्थ पर, स्नान कर वायु पी कर ही अन्जना तपस्यारत रहती थी।
प्रदक्षिणा करने के पश्चात् महादेव को दंडवत कर अन्जना पूर्वाभिमुख प्रसन्न वदन नर्मदा तट पर प्रात: सूर्य के दर्शन कर ही रही थी कि मंद समीर के सुखद स्पर्श से उसका सारा तन रोमांचित हो कर एक अलौकिक सुख से उसको आह्लादित करने लगा। वह स्तब्ध खड़ी रह गयी। सारा वन प्रांत भी उसकी सजल, उत्फुल्ल, अपूर्व छटा को ठगा सा खड़ा देखता रह गया। जगत का भान कब मिट गया उसे पता न चला।
आकाश, जल, अग्नि, वायु की अनंत शक्ति धारण किये हुए एक तेज पुंज उसकी तन धरित्री में समा गया। वह तेज पुंज परम सुंदर शिशु का रूप धारण कर उसके गले में अपनी कोमल बाहें डाल कर उसके वक्ष से चिपक गया। वह बेसुध हो गयी....
घर आ कर पत्नी ने सारा वृत्तांत पति को कह सुनाया। पति-पत्नी फूले न समाये।
समय आने पर वानरराज के राज्य का घर घर, प्रतिघर पुत्र जन्म के जन्मोत्सव में तोरण पताका, मालाओं से सज्जित, मंगल वाद्य और मंगल गीतों से गूंजने लगा। वन के समस्त जीव-जंतु, पंछी, पुष्प, लता बल्लरी मदिर मदिर नृत्य में झूमने लगे, थिरकने लगे। किलकने लगे वानरगण मोद में, प्रमोद में। आपूरित हो गया अवनि-अंबर आनंद से, हास-विलास से।
घुटनियों घुटनियों तेज़ी से चला आ रहा था नन्हा बालक किसी की खोज में इधर-उधर। मां का कहीं पता नहीं, पिता का पता नहीं और पता नहीं लग रहा था किसी दास-दासी का। रोता-रोता निकल गया वह देहली के बाहर रमणीय पर्वत की हरी-भरी दूर्वा पर कोमल वीर बधूटी की तरह।
पास ही श्रेणियों की संधि से निकल रहा था दीप्त कोमल सूरज, बिलकुल लाल पके सिंदूरी आम जैसा। बालक का रोना बंद। चमकने लगी आंखें खुशी से। बजने लगीं नन्हीं नन्हीं हथेलियों की तालियां। पर फिर भूख ने ज़ोर मारा। सह न सका वह मृदुल शिशु उसके तीव्र आघात को। झट लगायी छलांग ऊपर की ओर भरपूर शक्ति से। समय जैसे उस क्षण की प्रतीक्षा में था। उड़ा ले गयी उसे कोई अदृश्य शक्ति, ऊंचे बहुत ऊंचे, पास सूर्य के।

उसे कोई होश न था, ज्ञान न था। कोई भय और आशंका न थी। उसी क्षण में छा गया अंधकार, घनाधंकार उस सर्वग्रासी सूर्य ग्रहण का। भयभीत हो उठी सृष्टि और सृष्टि के देवता। कंपित अधर लगे करने प्रार्थना उस परम पिता परमात्मा इन्द्र की। शत्रुनाश करने वाली ईश्वर की कुपित दृष्टि भर गयी स्नेह से प्रीत से, उस सुंदर, सरस, सलोने बालक का निर्भीक सरल मुख लख। पूर्ण हुआ अनंत ब्रह्म और नन्हें जीव का मिलन। किसी ने रख दिया सम्हाल कर उसको उसी मख़मली दूर्वा पर। रखते रखते खा गया रगड़ किसी कठिन पाहन से।
ख़ून तो बहा ही पर जैसे कुछ ठुड्डी की हड्डी भी टूट गयी अंदर से। दौड़ी दौड़ी आयी मां अन्जना बच्चे की तीव्र रुदन की पुकार सुन। उठा कर झट चिपका लिया अपने वक्ष से। थम गया रुदन। सो गया वह सुकुमार पय पान करते करते। सहजता से हो गया उपचार। सोता सोता कभी हंस जाता, कभी दूध की चुस्की सी भरने लगता।
दिन पर दिन, सप्ताह पर सप्ताह माह पर माह व्यतीत होते चले गये। पट्टी भी हट गयी। हड्डी कुछ टेढ़ी जुड़ी। पर उसकी आंख न खुली। सोते सोते ही मां दूध पिला देती। उसके भोले आनंद मग्न चेहरे को देख कर विभोर हो जाती। माता-पिता उसकी इस अत्यधिक नींद को देख कर घोर चिंता में डूबने लगे। कोई भी दूरपास का प्रसिद्ध अप्रसिद्ध वैद्य न छोड़ा। कोई कुछ न कर सका। उस हृष्ट-पुष्ट बालक के न तो रोग का पता चला और न ही कोई उसका निदान हो सका।
एक दिन अचानक बड़े मधुर स्वर में वीणा पर नारायण, नारायण का मृदु संकीर्तन सुन सबका ध्यान उस ध्वनि की ओर आकर्षित हुआ।
मां अन्जना और पिता केसरी सुध-बुध खो कर द्वार की दौड़े।
नारद जी का दर्शन कर और उनको पहचान कर उनके चरणों में प्रणिपात किया।
बड़े प्रेम से नारद जी ने उन्हें उठाया और आर्शीवाद दिया।
नारदजी के स्तब्ध से देखते रहने के थोड़ी देर बाद बच्चे के पिता केसरी अपने अहोभाग्य की सराहना करते हुए शीश झुका कर विनम्र भाव से खड़े रहे। उनके मुख से कुछ न निकल सका।

मौन नारद जी ने ही भंग किया और कहा, ‘‘देवलोक में अन्जनीनंदन, रुद्रावतार, वायुपुत्र केसरी किशोर की अत्यंत प्रशंसा सुन कर उस अद्भुत बालक के दर्शन करने चला आया।’’
माता-पिता अपने बच्चे के गुणगान सुन कर अत्यंत प्रसन्न हुए। परम आदर सहित नारद जी को बालक के पालने के पास ले गये। क्षण भर स्तब्ध, मुग्ध दृष्टि से बच्चे को देख कर उसके सिर पर उन्होंने हाथ रखा। शिशु ने धीरे-धीरे आंखें खोलीं। मुनिवर को देख कर प्रसन्नता से किलकारी भर हाथ-पैर चलाने शुरू कर दिये।
आश्चर्य चकित सब विस्फारित नेत्रों से अवाक इस चमत्कार को देखते रह गये।
माता-पिता पुन: ऋषिवर के चरणों पर गिर गये।
मुनि ने उन्हें उठाते हुए कहा, ‘‘अरे यह क्या ! बार बार शिष्टाचार कैसा...क्या बात है ?’’
‘‘प्रभो क्या बतायें कैसे कहें ? आज हमने क्या नहीं पा लिया। पुन: अपने पुत्र को इस प्रकार प्राप्त कर हमारी वाणी रुद्ध हो गयी है। जनम जनम तक हम आपके इस उपकार को भूल नहीं सकते। आपके इस आभार से उऋण नहीं हो सकते।’’
बड़े कृतज्ञ भाव से गद्गद वाणी में अन्जना ने नारद जी से कहा, ‘‘देव ! बहुत दिनों की बात हैं, एक दिन मैं अपने पूजाकक्ष में पूजा में व्यस्त थी। स्वामी भी किसी कार्यवश बाहर गये हुए थे। पता नहीं उस क्षण सब दास-दासियां भी इधर-उधर हो गये। कदाचित उसी समय यह बालक रोता रोता घर के बाहर निकल गया। मैंने इसकी चीख़ की पुकार सुनी, तुरंत इधर-उधर इसको खोजने लगी। ध्वनि की दिशा पर सतर्कता से चलते चलते मैं जहां यह गिरा पड़ा था वहाँ इसके पास पहुंच गयी। रुधिर बहता देख कर मेरे तो प्राण ही सूख गये। तुरंत पयपान कराया और यह सो गया। फिर इसका सारा उपचार किया। उस दिन से आज तक इसने आंखें नहीं खोलीं। इसके उपचार में हमने कोई यत्न, कोई उपाय न छोड़ा पर किसी से कुछ लाभ नहीं हुआ। आज आपके हाथ रखते ही इसने आंखें खोल दीं। हमारा जीवन धन्य हो गया। हम इस उपकार से कभी उऋण नहीं हो सकते।’’
देवी ! आपसे सब कुछ सुन कर मैं बड़े आश्चर्य में पड़ गया हूं। आप जो कह रही है क्या सत्य है ?
‘‘हां प्रभो ! सत्य, बिलकुल सत्य है। आपसे कोई असत्य भाषण की धृष्टता कैसे कर सकता है ? इससे हमारा प्रयोजन भी क्या सिद्ध होता ? देवर्षि ! आप त्रिकालज्ञ हैं। कृपा करके इस रहस्य का उद्घाटन कीजिए, ’’ बड़ी विनम्रता और आग्रह से अन्जना मैया ने उनसे निवेदन किया।
‘‘देवी ! मैं तो देवकार्य करने का निमित्त मात्र हूं।’’
‘‘देवकार्य...कैसा देवकार्य....,’’केसरी जी ने पूछा।

‘‘हां, वानरधीश प्रभु की महान, दिव्य, अलौकिक कर्म, ज्ञान, भक्ति की शक्तियों के संगम ने ही सिमट कर इस बिंदु में सागर भर कर इस अद्भुत शिशु रूप में जन्म लिया है। जब यह बालक भूख से रोता रोता घर से बाहर निकला तब सामने वाले सूर्य को देख कर उसे फल समझा। बालक प्रत्येक वस्तु को मुख में डाल कर उसका ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। इसने भी उस बाल स्वभाव के अनुरूप उसको मुख में डाल कर उसका स्वाद लेना चाहा। भूखा तो था ही, झट सूर्य के पाने के लिए छलांग लगा दी। उसी समय पवन अपने पुत्र को अपनी गोद में लेकर सूर्य का स्वाद चखाने ले गया। अर्थात् यह स्वस्थ बालक अपनी शक्ति से जितनी दूर जा सकता था, उतनी दूर जा कर किसी पहाड़ी पर गिर गया। गिरते समय बेसुध हो जाने के कारण इसकी आंखें बंद हो गयीं। उसी दशा में ईश्वर की कृपा से इसको लगा कि किसी अदृष्ट स्नेहिल गोद में बैठकर यह उड़ता सूर्य के पास पहुंच गया और उसको अपने मुख में रख लिया। दैवयोग से संयोग से वह क्षण था सर्वग्रासी सूर्य ग्रहण का। भूलोक और द्यूलोक में अंधेरा छा गया। भूलोक के देवताओं ने घबरा कर इन्द्र भगवान का ध्यान किया, इस कष्ट से छुटकारा पाने के लिए करुण विनती की। उनकी प्रार्थना से द्रवित हो कर भगवान ने उसे वहीं तृणावर्त भूमि पर लिटा दिया। भगवान के हाथ से छूटे हुए जीव के चोट तो अवश्य आयेगी, भले ही उनके स्पर्श से ये वज्रांग क्यों न बन गये हों। ‘जा को राखे सांइयां, मारि सके न कोय’। बालक ने नादानी में कैसी भी छलांग क्यों न लगायी हो, उसके रक्षक ने मृत्यु के मुख से अस्पृश्य निकाल दिया। जितनी बड़ी वह आकस्मिक घटना या दुर्घटना थी उसको देखते हुए उसे कोई क्षति नहीं पहुंची।’’
‘‘इसको चोट का कोई भान न हुआ। उसी समय आप इसे उठा कर अपने वक्ष से चिपका कर ले गयीं। तब से उस क्षण के अद्भुत पूर्ण ज्ञान की स्मृति में यग आह्लादमग्न रहा। योगियों की महासमाधि की भांति इसकी आंखें ब्रह्मांड के ब्रह्मारंध्र में अलौकिक स्वरूप के दर्शन कर उन्हीं में स्थिर हो गयीं।’’

‘‘प्रभो ! एक नादान बालक की यह दशा कैसे हो सकती है ?’’ वानरराज ने उत्सुकतापूर्वक पूछा।
‘‘प्रभु, की कृपा किस समय किस जीव पर हो जाती है, क्यों हो जाती है, इस कारण का कोई पता नहीं लगा सकता। ईश्वर का परम अनुभव जप, तप, पूजा, ज्ञान, भक्ति, किसी भी साधना से साध्य नहीं है। इस ज्ञान प्राप्ति के लिए मूरख, पंडित, विद्वान ज्ञानी-ध्यानी भी होना आवश्यक नहीं। न ही किसी आयु विशेष, स्थान विशेष पर यह निर्भर है। परमात्मा की परम अनुकंपा कब, कहां किस पर हो जाती है इसको कोई जान नहीं सकता, न बता सकता है।’’
‘‘पर आपके स्पर्श करते ही इसने आंखें खोल दीं और स्वस्थ बालक की भांति इसके हाव-भाव हो गये। यह कैसे और क्योंकर हुआ ?’’ माता ने बड़ी जिज्ञासा से पूछा।
‘‘नारायण की इच्छा से ही मैं यहां आया हूं। इस बच्चे का जन्म ईश्वर राम के कार्य के लिए हुआ है। जब यह परमानंद में लीन था, इसकी इंद्रियों के देवताओं की शक्ति बिलकुल क्षीण हो गयी। वे केवल यंत्रवत कार्य करती रहीं। इंद्रियों के देवताओं को तो जगत में भगवत कार्य करना था और यह बालक सबसे विरक्त हो कर आत्मानंद में लीन हो गया। इस अवस्था में इसको जग के कार्यकलापों का भान नहीं रहा, वे रुक से गये। इस कारण व्याकुल हो कर देवताओं ने भगवान से प्रार्थना की, कि इस निष्कियता से तो हमारी शक्ति का अंत ही हो जायेगा। जिस हेतु प्रभो आपने हमको इनसे धारण करवाया है, वह हेतु किस प्रकार पूरा हो सकेगा ? प्रभो ! हमको अतुलित शक्ति प्रदान कीजिए जिससे भगवान का महान कार्य करने में हम सहयोग दे सकें। इनको उसी ज्ञानानंद की तंद्रा से जगाने के लिए ही ईश्वर की प्रेरणा से मैं यहां आया हूं। समय आने पर यह बालक इस अनुभव को पूर्णतया: हृदय में जाग्रत रख कर जगत के समस्त कार्य ईश्वर के ही कार्य समझ कर अनासक्त भाव से उनकी आज्ञा का पालन करेगा। यह परम वैरागी, ज्ञानवान, कर्मयोगी होगा। यह इंद्रियों का स्वामी और उनके स्वामी परमात्मा का अनन्य भक्त और परम सेवक होने के परम गौरव प्राप्त करेगा। यह बच्चा अद्वितीय है। ऐसा न हुआ है और न होगा। जब तक रामकथा इस धरती पर जीवित रहेगी तब तक यह भी अमर रहेगा। यह सर्वगुण संपन्न, महावीर, महापराक्रमी और ज्ञानियों में अग्रगण्य होगा।

मनुष्य में शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक, ये तीन नैसर्गिक भूख होती है। अत: पूर्ण स्वस्थता के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य में यह तीनों भूख हों। इन तीनों भूखों का उचित रीति से समाधान होना चाहिए। इनकी भूख प्रकाश की, ज्ञान की, सत्य की भूख है। ये जन्मजात इस भूख को लेकर पैदा हुए हैं। ज्ञान और सत्य की इसी भूख ने एक लंबी छलांग लगाने की, ऊपर उठने की प्रेरणा दी। मनुष्य अवचेतन मन में न जाने कितनी असंख्य कामनाएं और प्रेरणाएं ले कर ज्न्म लेता है। पता नहीं कब कौन सी कामना चेतन मन में आकर उसकी पूर्ति के लिए अपना सर उठा कर खड़ी हो जाती है। ईश्वर को इनको यह ज्ञान देना था। इस कारण ज्ञान के प्रतीक सूर्य के दर्शन ने इनको उत्प्रेरित किया। समय आने तक अपनी दिव्य शक्तियों का ज्ञान इनके अंतरमन में छिपा बैठा रहेगा। अनजाने में यही दिव्य अनुभव इनका पोषण करता रहेगा तथा क्रियाकलापों को अनुप्रणित और प्रकाशित भी करता रहेगा।’’
माता-पिता पुत्र के गुणगान सुन कर स्तब्ध रह गये। गद्गद हो कर पुन: मुनिवर के चरणों में प्रणिपात किया।
‘‘प्रभो ! इसका नामकरण करने की भी कृपा करें, माता ने कहा।
‘‘आपने इसका क्या नाम रखा है ?’’
‘‘उसे जाने दीजिए। प्यार में जो मुंह से निकल जाता है उसी से पुकारते रहते हैं।’’
कुछ सोच कर और गणना कर ठुड्डी पर प्यार से हाथ फेरते हुए नारद ने कहा, ‘‘आज से यह अपने ‘हनुमान’ नाम से विख्यात होगा।’’
‘‘देव ! नाम तो अति सुंदर है। कृपा कर इसकी व्याख्या कर इसके अर्थ से हमको अवगत कराइए।’’
‘‘इस नाम की व्याख्या बहुत बड़ी ओंकार नाम के समान उससे भिन्न नहीं है। संक्षेप में ‘ह’ आकाश बीज है जो हनुमान का नामाक्षर विष्णु तत्त्व का द्योतक है। ‘नु’ हनुमान के नाम का दूसरा अक्षर है, इसमें जो उकार है वह शिव तत्त्व का द्योतक है। ‘मान’ में मकार ब्रह्म तत्त्व का बोधक है। इस प्रकार समिष्ट रूप से ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनों ही आदिकारण ईश्वर तत्त्वों का प्रतीक है। निष्कर्ष यह हुआ कि ह-अ, न-उ, मत हनुमत और ओम् एक तत्व सिद्ध हुआ। इस कारण इनकी उपासना परब्रह्म की ही उपासना हुई।’’

‘हनुमान’ नाम की अद्भुत व्याख्या सुन कर वे अवाक रह गये।
‘‘प्रभो ! इसके नाम की महानता सुन कर तो हमारा पुत्र प्रेम भयभीत हो रहा है। हम इसका लालन-पालन किस प्रकार कर पाएँगे।’’
इससे पहले नारद उसका कुछ उत्तर देते, बालक हनुमान जोर जोर से रोने लगा।
बस, माता-पिता सारी व्याख्या भूल गये और बच्चे को तरह तरह से चुप कराने के प्रयत्न में लीन हो गये।
जब वह चुप और स्वस्थ हुआ तथा जैसी ही उसकी दृष्टि नारद पर गयी, वे मुस्करा रहे थे।
वानरराज का आतिथ्य स्वीकार कर नारद जी वीणा वादन करते जैसे आये थे वैसे चले गये।

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