नारी विमर्श >> स्वामी स्वामीमन्नू भंडारी
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मन्नू भंडारी का एक अत्यंत रोचक, मर्मस्पर्शी और पठनीय उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
महान् कथा-शिल्पी शरत्चन्द्र ने अपनी एक छोटी सी रचना
‘स्वामी’ में सौदामिनी की मर्मस्पर्शी कहानी कही थी। तत्कालीन
सामाजिक परंपरओं और संस्कारों के कारण स्वामी मात्र आत्मधिकार और पापबोध
की कथा बन कर रह गयी थी।
प्रसिद्ध उपन्यास लेखिका मन्नू भंडारी ने भी सौदामिनी के अंतर्मन में झांका और कथा की मूल संवेदना को आवश्यक विस्तार दिया।
मन्नू भंडारी कृत ‘स्वामी’ में पाठक पायेंगे एक ऐसी युवती के अंतर्द्वंद्व की कहानी जो संबंधों की मनोवैज्ञानिक उलझनों में लगातार उलझ कर उस बिंदु पर जा पहुंचती है, जहाँ उसे एक नया मार्ग मिलता है-ऐसा मार्ग, जो अनास्था से आस्था, अविश्वास से विश्वास और नास्तिकता से आस्तिकता की ओर ले जाता है
प्रसिद्ध उपन्यास लेखिका मन्नू भंडारी ने भी सौदामिनी के अंतर्मन में झांका और कथा की मूल संवेदना को आवश्यक विस्तार दिया।
मन्नू भंडारी कृत ‘स्वामी’ में पाठक पायेंगे एक ऐसी युवती के अंतर्द्वंद्व की कहानी जो संबंधों की मनोवैज्ञानिक उलझनों में लगातार उलझ कर उस बिंदु पर जा पहुंचती है, जहाँ उसे एक नया मार्ग मिलता है-ऐसा मार्ग, जो अनास्था से आस्था, अविश्वास से विश्वास और नास्तिकता से आस्तिकता की ओर ले जाता है
शरतचन्द्र से क्षमा याचना सहित.....
शरतचन्द्र की कहानी ‘स्वामी’ का लेखन मेरे द्वारा हो,
यह मात्र एक संयोग ही है।
किशोरावस्था में शरत् बाबू मेरे सबसे प्रिय कथाकार रहे हैं। सातवीं कक्षा से लेकर इण्टर तक हर साल गर्मियों की छुट्टियों में शरत् साहित्य पढ़ने का एक अटूट क्रम चलता रहा। इसके बाद एक लंबा अंतराल। लेकिन कुछ वर्षों पहले शरत् बाबू की जीवनी ‘आवारा मसीहा’ (श्री विष्णु प्रभाकर) पढ़ने के बाद पहली प्रतिक्रिया हुई कि इसमें वर्णित प्रसंगों और स्थितियों के प्रकाश में एक बार फिर से शरत् साहित्य पढ़ा जाए। यह उत्सुकता भी थी कि आज भी वे रचनाएँ उतनी मार्मिक और हृदयस्पर्शी लगती हैं- उसी तरह भाव विह्वल कर सकती हैं ? मैं किताबे जुटा रही थी कि एक दिन बासु चटर्जी प्रकट हुए, सूचना दी कि शरद बाबू की ‘स्वामी’ कहानी पर वे फिल्म बनाना चाहते हैं, आग्रह किया गया फिल्म के लिए इस कहानी को फिर से लिखूं; क्योंकि जिस रूप में कहानी है उससे वे पूरी तरह संतुष्ट नहीं है। मैंने तब तक यह कहानी पढ़ी नहीं थी; लेकिन न तो दूसरे की रचना को फिर से लिखने की बात मेरे गले उतर रही थी और न ही मैं फिल्म माध्यम में कोई दखल रखती थी। मैंने अपनी असमर्थता जाहिर की तो इतना कहकर वे मास्को चले गये कि–कम-से-कम मैं एक बार इस दृष्टि से कहानी को पढ़कर तो देखूं, बाकी बात बाद में।
इसमें संदेह नहीं था कि कहानी की थीम और सौदामिनी-घनश्याम के चरित्र, उनके सम्बन्धों के समीकरण ने मुझे आकृष्ट किया। साथ ही यह भी लगा कि काफी संम्भावनाओं वाली इस कथा के साथ शरत् पूरा न्याय नहीं कर सके हैं। इसलिए जब-‘‘फिल्म की बात बिल्कुल दिमाग से निकाल दीजिए- मूल कथा की मोटी रूपरेखा को सुरक्षित रखते हुए जैसा भी चाहें परिवर्तन कीजिए-कहानी को बिल्कुल अपने ढंग से लिखिए- कुछ पात्रों को जोड़ना-घटाना हो तो वह भी कर डालिए’’ जैसी अनेक छूटें और आश्वासन देते बासु हुए बासु दा ने इस वाक्य के साथ पूर्णविराम लगा दिया, ‘‘और यह कहानी आपको ही लिखनी है।’’ तब मैंने पाया कि एक बार कथा के साथ तादात्म्य स्थापित होने के बाद यह काम उतना कठिन और सुविधाजनक नहीं रहा जितना कि मैं सोचती थी।
हां पात्रों और स्थितियों की परिकल्पना में दो पीढ़ियों की मानसिकता और दृष्टि का अन्तर जरूर बहुत शिद्दत के साथ महसूस हो रहा था। मैं अपनी सौदामिनी में आत्म-भर्त्सना और-धिक्कार का वह भाव भर ही नहीं सकती थी, जिसमें शरत् की सौदामिनी आद्यांत सराबोर रहती है। न तो पूर्व प्रेमी नरेन्द्र का सौदामिनी को कलकत्ते जाकर एक कमरे में बंद कर देना मेरे गले उतर रहा था, न प्रेमी को भाई बना लेने वाली हास्यास्पद स्थिति। इसलिए मैंने कहानी का अंतिम हिस्सा एकदम ही बदल दिया। शरत् की तरह मैंने उसे एक ऐसी पथभ्रष्टा कुल-वधू का रूप नहीं दिया जो पति के चरणों में गिरकर अपने उस गुरुतर पाप-कर्म की क्षमा माँगने के लिए छटपटाती है।1 मेरी दृष्टि में सौदामिनी ने कोई पाप नहीं किया था, वरन् सम्बन्धों की कुछ ऐसी मनोवैज्ञानिक उलझने थीं। जिसमें वह निरंतर उलझती ही चली गयी। पारिवारिक कलह और अपमान ने उसके आत्म-सम्मान को इस तरह आहत किया कि उसने घर छोड़ दिया। लेकिन स्वतन्त्र निर्णय लेने की अपनी इस क्षमता के कारण वह नरेन्द्र के साथ जाने के लिए भी अपने को तैयार नहीं कर पाई। गयी वह अपने माँ के घर।
माँ का घर पूरी तरह जल चुका है। घर तो उसका भी जल चुका है, लेकिन मां है कि एकमद निर्द्वंद्व-अविचलित। उन्होंने अपना सब कुछ ईश्वर के हाथों सौंप रखा है। उनकी एक गहरी आस्था और निष्ठा सौदामिनी के मन में एक प्रकाश की किरण आलोकित कर देती है। और यही कहानी एक ज्यादा गहरा और व्यापाक अर्थ ध्वनित करने लगती है, जिसमें सौदामिनी की यह यात्रा अविश्वास से विश्वास, अनास्था से आस्था और नास्तिकता से आस्तिकता की प्रक्रिया बन जाती
---------------------------------------------
1. फिल्म में बासु दा ने अंत में मां के घर जाने वाले प्रसंग को काटकर प्लेटफार्म पर ही सौदामिनी को अपने पति के चरणों में गिरा कर कहानी समाप्त कर दी है। शायद बासु दा के भीतर का परंपरागत सामंती संस्कार और बंगाली भावुकता उन पर हावी हो गयी उनकी संवेदना भी शरत्चन्द्र की संवेदना में ही जा मिली।
हैं। लेकिन उसकी यह आस्तिकता किसी काल्पनिक ईश्वर के सामने समर्पित नहीं है, वह परत-दर-परत मानवीय गुणों और गरिमा का अन्वेषण कराती है। घनश्याम के प्रति उसका पहला भाव प्रतिरोध और विद्रोह का है, जो क्रमशः विरक्ति और उदासीनता से होता हुआ सहानुभूति, समझ, स्नेह, सम्मान की सीढ़ियों को लांघता हुआ श्रद्धा और आस्था तक पहुँचाता है; और यहीं ‘स्वामी’ शीर्षक पति के लिए पारस्परिक सम्बोधन मात्र न रह कर उच्चतर मनुष्यता का विशेषण बन जाता है, ऐसी मनुष्यता जो ईश्वरी है।
इस पूरे विकास क्रम को दिखाने के लिए जिस तरह की अनिवार्य और तर्क संगत स्थितियों और संघर्षों की परिकल्पना की जानी चाहिए थी, वे मूल कथा में अनुपस्थित हैं, वहाँ पहली पंक्ति में ही आत्म-धिक्कार ने विकास कि इस प्रक्रिया को लगभग ढक ही दिया है। इसलिए न तो सौदामिनी और घनश्याम के सम्बन्धों में अपरिचित पहलुओं का अन्वेषण है, न ही परिचित पक्षों का सार्थक उपयोग। परिवार के दूसरे पात्र भी दोनों के सम्बन्धों को एक तार्किक धार नहीं दे पाते, और यहीं मुझे अपनी ओर से काफी कुछ जोड़ने-घटाने की संभावनाएं दिखाई दीं। नरेन्द्र की भूमिका बदल देने से मुक्ता दासी नितांत अनावश्यक हो उठी जो कुटनी की तरह सौदामिनी के घर का भेद नरेन्द्र को देती थीं।
सौदामिनी की ससुराल में तनाव की स्थिति को तीव्रता देने के लिए ही मैंने टुन्नी की कल्पना की। इसके माध्यम से पारिवारिक सदस्यों के विभिन्न मंतव्यों को सहज ही संघर्ष में लाने की सुविधा भी मिल गई और घनश्याम के चरित्र को की दृढ़ता को उजागर करने का अवसर भी। छोटे भाई और उसकी पत्नी को भी (मूल कहानी में जिनका नामो उल्लेख मात्र है।) मैंने एक जीवंत व्यक्तित्व और निश्चित भूमिका देने की कोशिश की है।
अंत में मैं यहीं कहूँगी कि शरत् चन्द्र की कहानी आत्म-धिक्कार और पाप-बोध की कहानी थी, मैंने उनसे एक सहज मानवीय अंतर्द्वद्व की कहानी का रूप दिया है।
इस पुनर्लेखन और पुनर्व्याख्या के लिए की गयी कतर-ब्योंत के लिए महान कथाशिल्पी के प्रति क्षमा याचना सहित—
किशोरावस्था में शरत् बाबू मेरे सबसे प्रिय कथाकार रहे हैं। सातवीं कक्षा से लेकर इण्टर तक हर साल गर्मियों की छुट्टियों में शरत् साहित्य पढ़ने का एक अटूट क्रम चलता रहा। इसके बाद एक लंबा अंतराल। लेकिन कुछ वर्षों पहले शरत् बाबू की जीवनी ‘आवारा मसीहा’ (श्री विष्णु प्रभाकर) पढ़ने के बाद पहली प्रतिक्रिया हुई कि इसमें वर्णित प्रसंगों और स्थितियों के प्रकाश में एक बार फिर से शरत् साहित्य पढ़ा जाए। यह उत्सुकता भी थी कि आज भी वे रचनाएँ उतनी मार्मिक और हृदयस्पर्शी लगती हैं- उसी तरह भाव विह्वल कर सकती हैं ? मैं किताबे जुटा रही थी कि एक दिन बासु चटर्जी प्रकट हुए, सूचना दी कि शरद बाबू की ‘स्वामी’ कहानी पर वे फिल्म बनाना चाहते हैं, आग्रह किया गया फिल्म के लिए इस कहानी को फिर से लिखूं; क्योंकि जिस रूप में कहानी है उससे वे पूरी तरह संतुष्ट नहीं है। मैंने तब तक यह कहानी पढ़ी नहीं थी; लेकिन न तो दूसरे की रचना को फिर से लिखने की बात मेरे गले उतर रही थी और न ही मैं फिल्म माध्यम में कोई दखल रखती थी। मैंने अपनी असमर्थता जाहिर की तो इतना कहकर वे मास्को चले गये कि–कम-से-कम मैं एक बार इस दृष्टि से कहानी को पढ़कर तो देखूं, बाकी बात बाद में।
इसमें संदेह नहीं था कि कहानी की थीम और सौदामिनी-घनश्याम के चरित्र, उनके सम्बन्धों के समीकरण ने मुझे आकृष्ट किया। साथ ही यह भी लगा कि काफी संम्भावनाओं वाली इस कथा के साथ शरत् पूरा न्याय नहीं कर सके हैं। इसलिए जब-‘‘फिल्म की बात बिल्कुल दिमाग से निकाल दीजिए- मूल कथा की मोटी रूपरेखा को सुरक्षित रखते हुए जैसा भी चाहें परिवर्तन कीजिए-कहानी को बिल्कुल अपने ढंग से लिखिए- कुछ पात्रों को जोड़ना-घटाना हो तो वह भी कर डालिए’’ जैसी अनेक छूटें और आश्वासन देते बासु हुए बासु दा ने इस वाक्य के साथ पूर्णविराम लगा दिया, ‘‘और यह कहानी आपको ही लिखनी है।’’ तब मैंने पाया कि एक बार कथा के साथ तादात्म्य स्थापित होने के बाद यह काम उतना कठिन और सुविधाजनक नहीं रहा जितना कि मैं सोचती थी।
हां पात्रों और स्थितियों की परिकल्पना में दो पीढ़ियों की मानसिकता और दृष्टि का अन्तर जरूर बहुत शिद्दत के साथ महसूस हो रहा था। मैं अपनी सौदामिनी में आत्म-भर्त्सना और-धिक्कार का वह भाव भर ही नहीं सकती थी, जिसमें शरत् की सौदामिनी आद्यांत सराबोर रहती है। न तो पूर्व प्रेमी नरेन्द्र का सौदामिनी को कलकत्ते जाकर एक कमरे में बंद कर देना मेरे गले उतर रहा था, न प्रेमी को भाई बना लेने वाली हास्यास्पद स्थिति। इसलिए मैंने कहानी का अंतिम हिस्सा एकदम ही बदल दिया। शरत् की तरह मैंने उसे एक ऐसी पथभ्रष्टा कुल-वधू का रूप नहीं दिया जो पति के चरणों में गिरकर अपने उस गुरुतर पाप-कर्म की क्षमा माँगने के लिए छटपटाती है।1 मेरी दृष्टि में सौदामिनी ने कोई पाप नहीं किया था, वरन् सम्बन्धों की कुछ ऐसी मनोवैज्ञानिक उलझने थीं। जिसमें वह निरंतर उलझती ही चली गयी। पारिवारिक कलह और अपमान ने उसके आत्म-सम्मान को इस तरह आहत किया कि उसने घर छोड़ दिया। लेकिन स्वतन्त्र निर्णय लेने की अपनी इस क्षमता के कारण वह नरेन्द्र के साथ जाने के लिए भी अपने को तैयार नहीं कर पाई। गयी वह अपने माँ के घर।
माँ का घर पूरी तरह जल चुका है। घर तो उसका भी जल चुका है, लेकिन मां है कि एकमद निर्द्वंद्व-अविचलित। उन्होंने अपना सब कुछ ईश्वर के हाथों सौंप रखा है। उनकी एक गहरी आस्था और निष्ठा सौदामिनी के मन में एक प्रकाश की किरण आलोकित कर देती है। और यही कहानी एक ज्यादा गहरा और व्यापाक अर्थ ध्वनित करने लगती है, जिसमें सौदामिनी की यह यात्रा अविश्वास से विश्वास, अनास्था से आस्था और नास्तिकता से आस्तिकता की प्रक्रिया बन जाती
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1. फिल्म में बासु दा ने अंत में मां के घर जाने वाले प्रसंग को काटकर प्लेटफार्म पर ही सौदामिनी को अपने पति के चरणों में गिरा कर कहानी समाप्त कर दी है। शायद बासु दा के भीतर का परंपरागत सामंती संस्कार और बंगाली भावुकता उन पर हावी हो गयी उनकी संवेदना भी शरत्चन्द्र की संवेदना में ही जा मिली।
हैं। लेकिन उसकी यह आस्तिकता किसी काल्पनिक ईश्वर के सामने समर्पित नहीं है, वह परत-दर-परत मानवीय गुणों और गरिमा का अन्वेषण कराती है। घनश्याम के प्रति उसका पहला भाव प्रतिरोध और विद्रोह का है, जो क्रमशः विरक्ति और उदासीनता से होता हुआ सहानुभूति, समझ, स्नेह, सम्मान की सीढ़ियों को लांघता हुआ श्रद्धा और आस्था तक पहुँचाता है; और यहीं ‘स्वामी’ शीर्षक पति के लिए पारस्परिक सम्बोधन मात्र न रह कर उच्चतर मनुष्यता का विशेषण बन जाता है, ऐसी मनुष्यता जो ईश्वरी है।
इस पूरे विकास क्रम को दिखाने के लिए जिस तरह की अनिवार्य और तर्क संगत स्थितियों और संघर्षों की परिकल्पना की जानी चाहिए थी, वे मूल कथा में अनुपस्थित हैं, वहाँ पहली पंक्ति में ही आत्म-धिक्कार ने विकास कि इस प्रक्रिया को लगभग ढक ही दिया है। इसलिए न तो सौदामिनी और घनश्याम के सम्बन्धों में अपरिचित पहलुओं का अन्वेषण है, न ही परिचित पक्षों का सार्थक उपयोग। परिवार के दूसरे पात्र भी दोनों के सम्बन्धों को एक तार्किक धार नहीं दे पाते, और यहीं मुझे अपनी ओर से काफी कुछ जोड़ने-घटाने की संभावनाएं दिखाई दीं। नरेन्द्र की भूमिका बदल देने से मुक्ता दासी नितांत अनावश्यक हो उठी जो कुटनी की तरह सौदामिनी के घर का भेद नरेन्द्र को देती थीं।
सौदामिनी की ससुराल में तनाव की स्थिति को तीव्रता देने के लिए ही मैंने टुन्नी की कल्पना की। इसके माध्यम से पारिवारिक सदस्यों के विभिन्न मंतव्यों को सहज ही संघर्ष में लाने की सुविधा भी मिल गई और घनश्याम के चरित्र को की दृढ़ता को उजागर करने का अवसर भी। छोटे भाई और उसकी पत्नी को भी (मूल कहानी में जिनका नामो उल्लेख मात्र है।) मैंने एक जीवंत व्यक्तित्व और निश्चित भूमिका देने की कोशिश की है।
अंत में मैं यहीं कहूँगी कि शरत् चन्द्र की कहानी आत्म-धिक्कार और पाप-बोध की कहानी थी, मैंने उनसे एक सहज मानवीय अंतर्द्वद्व की कहानी का रूप दिया है।
इस पुनर्लेखन और पुनर्व्याख्या के लिए की गयी कतर-ब्योंत के लिए महान कथाशिल्पी के प्रति क्षमा याचना सहित—
मन्नू भण्डारी
स्वामी
सारे आसमान को सिंदूरी रंग में रंगता हुआ सूरज धीरे से ढुकल गया। मिनी
मुग्ध भाव से डूबते हुए सूरज को देखती रही। सूर्यास्त का यह समय हमेशा
मिनी के मन को अपनी ओर खींचता है, अपने में बाँधता है। छत पर खड़े-खड़े
थोड़ी देर वह यों ही चारों ओर देखती रही, फिर उसने तार पर फैले हुए कपड़े
समेटे और नीचे उतरने लगी। अंतिम सीढ़ी पर पहुँचते ही देखा-हाथ में किताब
लिए सामने बरामदे में नरेन दा खड़े हैं। पुलक कर स्वागत करते हुए बोली,
‘‘अरे आप यहाँ क्यों खड़े है नरेन दा मामा तो भीतर
बैठे हैं,
‘‘फिर गुहार लगाती हुई बोली मामा ऽऽ देखो, नरेन दा
आये
हैं।’’
किताब में डूबे हुए मणि बाबू ने चौंककर देखा और सामने मुस्कराते हुए नरेन्द्र को देख कर ही वे जैसे अपने में लौटे कुर्सी पर टिकी हुई पीठ को सीधा करते हुए उन्होंने स्वागत की मुद्रा बनाई और स्वर में अपार स्नेह भर कर बोले, ‘‘आओ, आओ नरेन। इस बार तो बहुत दिनों में आये तुम।’’
‘‘और क्या, पिछले मंगल को आए थे, कल पूरा एक सप्ताह हो जाएगा,’’ उलाहना देती हुई मिनी बोली, ‘‘जानते हैं, मामा रोज़ शाम को आपका कितना इंताज़ार करते थे।’’
नरेन्द्र ने हाथ की किताबों का गट्ठर मणि बाबू की मेज़ पर टिकाया और पास वाली कुर्सी पर बैठता हुआ बोला, ‘‘पिता जी की तबियत कुछ खराब हो गयी थी सो अधिकतर समय उन्हीं के पास रहता था।’’
‘‘ऐंऽऽ ! क्या हो गया ज़मींदार बाबू को ?’’ फिर उन्होंने अपनी ललचायी नज़रे किताबों पर टिका दीं और एक किताब खोल कर खींचने ही वाले थे कि मिनी ने आकर उनसे एक किताब छीन ली, ‘‘मामा, फिर वही बात। किताब जो एक बार खोल ली तो फिर यह भी भूल जाओगे कि इसको लाने वाला तुम्हारे सामने वाक्य की प्रतीक्षा में बैठा है।’’
‘‘देखते हो नरेन ! इसका बस चले तो मेरे साँस लेने पर भी नियंत्रण रखे,’’ और फिर आँखों ही आँखों में उन्होंने मिनी को दुलरा दिया। ‘‘हां तो बेटा क्या हुआ जमींदार बाबू को ?’’ अपनी बात का सूत्र जोड़ते हुए उन्होंने पूछा।
नरेन्द्र हल्के से हँसा। मामा-भांजी के इस अनोखे संबंध से वह खूब परिचित है। बोला, ‘‘कुछ ख़ास नहीं। फ्लू हो गया था, अब ठीक हैं। पर आपकी तबीयत कैसी है ?’’
‘‘मेरी तबीयत ! क्यों, मुझे क्या हुआ ?’’ फिर एकाएक कुछ याद करते हुए बोले, ‘‘ओह ! मुझे तो याद ही नहीं रहता कि मुझे दिल का दौरा पड़ा था। चार महीने पुरानी बात हो गयी।’’
‘‘सो तो मैं जानता हूँ, पर दूसरे लोग तो नहीं भूल सकते न ! मेरा कहना मानिए मामा और एक बार कलकत्ता चल कर अच्छी तरह चेकअप करवा लीजिए। मैं वहाँ सब इन्तज़ाम करवा कर रखूंगा आप बस आ जाइये।’’
‘‘नरेन दा आप मामा को समझाइये। किसी की बात मानते हैं भला ? कितनी चिन्ता रहती है...’’
बीच में ही बात काटते हुए मणि बाबू बोले, ‘‘एकदम पागल लड़की है। जानते हो इसका होल टाइम जॉब क्या है ? मामा की चिंता।’’
‘‘गरदन झटक कर मिनी जैसे प्रतिवाद किया और जल्दी से रसोई में आकर चाय का पानी चढ़ा दिया। माँ के पूजा घर की घंटी टुनटुनाहट सुनाई दे रही थी। अच्छा है माँ अभी दो घंटे पूजा में लगी रहे। आजकल माँ को एक नयी सनक सवार हुई है। मामा के पास तरह-तरह के लोग आते हैं, चर्चा बहस करते हैं, करें। पर बीच में मिनी जाकर क्यों बैठे ? और मिनी का तर्क है कि वो क्यों न जाये, ज़रूर जाएगी। सोचो तो भला यह भी कोई बात हुई बड़ी हो गयी है, इसलिए घर के अंदर बंद होकर बैठ जाए। उसने जल्दी-जल्दी चाय के बरतन सजाये दो प्यालों में नाश्ता रखा और कमरे में घुसी तो देखा कि बहस शुरू हो चुकी थी, संदर्भ उसे नहीं मालूम, पर नरेन्द्र कह रहा था, ‘‘कुछ नहीं, हम बेसीकली हैं ही हिप्पोक्रेट्स बातें बड़ी-बड़ी करेंगे-समाज सुधार की, स्त्रियों की स्वत्रन्ता की, पर ज़िन्दगी जियेंगे उसी दकियानूसी पैटर्न पर।’’
किताब में डूबे हुए मणि बाबू ने चौंककर देखा और सामने मुस्कराते हुए नरेन्द्र को देख कर ही वे जैसे अपने में लौटे कुर्सी पर टिकी हुई पीठ को सीधा करते हुए उन्होंने स्वागत की मुद्रा बनाई और स्वर में अपार स्नेह भर कर बोले, ‘‘आओ, आओ नरेन। इस बार तो बहुत दिनों में आये तुम।’’
‘‘और क्या, पिछले मंगल को आए थे, कल पूरा एक सप्ताह हो जाएगा,’’ उलाहना देती हुई मिनी बोली, ‘‘जानते हैं, मामा रोज़ शाम को आपका कितना इंताज़ार करते थे।’’
नरेन्द्र ने हाथ की किताबों का गट्ठर मणि बाबू की मेज़ पर टिकाया और पास वाली कुर्सी पर बैठता हुआ बोला, ‘‘पिता जी की तबियत कुछ खराब हो गयी थी सो अधिकतर समय उन्हीं के पास रहता था।’’
‘‘ऐंऽऽ ! क्या हो गया ज़मींदार बाबू को ?’’ फिर उन्होंने अपनी ललचायी नज़रे किताबों पर टिका दीं और एक किताब खोल कर खींचने ही वाले थे कि मिनी ने आकर उनसे एक किताब छीन ली, ‘‘मामा, फिर वही बात। किताब जो एक बार खोल ली तो फिर यह भी भूल जाओगे कि इसको लाने वाला तुम्हारे सामने वाक्य की प्रतीक्षा में बैठा है।’’
‘‘देखते हो नरेन ! इसका बस चले तो मेरे साँस लेने पर भी नियंत्रण रखे,’’ और फिर आँखों ही आँखों में उन्होंने मिनी को दुलरा दिया। ‘‘हां तो बेटा क्या हुआ जमींदार बाबू को ?’’ अपनी बात का सूत्र जोड़ते हुए उन्होंने पूछा।
नरेन्द्र हल्के से हँसा। मामा-भांजी के इस अनोखे संबंध से वह खूब परिचित है। बोला, ‘‘कुछ ख़ास नहीं। फ्लू हो गया था, अब ठीक हैं। पर आपकी तबीयत कैसी है ?’’
‘‘मेरी तबीयत ! क्यों, मुझे क्या हुआ ?’’ फिर एकाएक कुछ याद करते हुए बोले, ‘‘ओह ! मुझे तो याद ही नहीं रहता कि मुझे दिल का दौरा पड़ा था। चार महीने पुरानी बात हो गयी।’’
‘‘सो तो मैं जानता हूँ, पर दूसरे लोग तो नहीं भूल सकते न ! मेरा कहना मानिए मामा और एक बार कलकत्ता चल कर अच्छी तरह चेकअप करवा लीजिए। मैं वहाँ सब इन्तज़ाम करवा कर रखूंगा आप बस आ जाइये।’’
‘‘नरेन दा आप मामा को समझाइये। किसी की बात मानते हैं भला ? कितनी चिन्ता रहती है...’’
बीच में ही बात काटते हुए मणि बाबू बोले, ‘‘एकदम पागल लड़की है। जानते हो इसका होल टाइम जॉब क्या है ? मामा की चिंता।’’
‘‘गरदन झटक कर मिनी जैसे प्रतिवाद किया और जल्दी से रसोई में आकर चाय का पानी चढ़ा दिया। माँ के पूजा घर की घंटी टुनटुनाहट सुनाई दे रही थी। अच्छा है माँ अभी दो घंटे पूजा में लगी रहे। आजकल माँ को एक नयी सनक सवार हुई है। मामा के पास तरह-तरह के लोग आते हैं, चर्चा बहस करते हैं, करें। पर बीच में मिनी जाकर क्यों बैठे ? और मिनी का तर्क है कि वो क्यों न जाये, ज़रूर जाएगी। सोचो तो भला यह भी कोई बात हुई बड़ी हो गयी है, इसलिए घर के अंदर बंद होकर बैठ जाए। उसने जल्दी-जल्दी चाय के बरतन सजाये दो प्यालों में नाश्ता रखा और कमरे में घुसी तो देखा कि बहस शुरू हो चुकी थी, संदर्भ उसे नहीं मालूम, पर नरेन्द्र कह रहा था, ‘‘कुछ नहीं, हम बेसीकली हैं ही हिप्पोक्रेट्स बातें बड़ी-बड़ी करेंगे-समाज सुधार की, स्त्रियों की स्वत्रन्ता की, पर ज़िन्दगी जियेंगे उसी दकियानूसी पैटर्न पर।’’
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