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बीते मौसम की बातें

देवेन्द्र इस्सर

प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :186
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3813
आईएसबीएन :81-8018-054-9

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देवेन्द्र इस्सर का एक उत्कृष्ठ कहानी संग्रह

Bite Mausam Ki Baatain a hindi book by Devendra Issar - बीते मौसम की बातें - देवेन्द्र इस्सर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘स्वप्न और स्मृति के बीच के अदृश्य स्पेस में इन कहानियों का सृजन होता है और यूँ शुरू होता है वह सोच सफर जो इन कहानियों के पात्रों को उस दुनिया के रू-ब-रू ला खड़ा करता है जो प्रायः फंतासी की दुनिया नज़र आती है। सच तो यह है कि हम जिस किस्म की दुनिया के अभ्यस्त हो चुके हैं उससे ‘अपरिचित’ होकर ही हम उस दुनिया में दाखिल हो सकते हैं जो ‘मौजूद’ तो है लेकिन हम प्रायः उसका अनुभव नहीं कर पाते। इस मामले में मैं अपने आपको सौभाग्यशाली समझता हूँ कि जब दूसरे इन व्यक्तियों की दस्तक सुनने से इंकार कर देते हैं और इन्हें अपने सृजन-द्वार के अंदर आने की अनुमति नहीं देते तो वे उनकी दहलीज पर लावारिश लाश बन जाने के बजाय अपने गुमशुदा चेहरों की, अपने खोये हुए स्वत्व की, अपने लापता अतीत की, अपनी भूली हुई स्मृतियों की, अपने सपनों की शरीरता की तलाश में वे इन कहानियों में ‘पुनर्जीवित’ हो जाते हैं। वे इसमें सफल हुए या नहीं कह नहीं सकता। लेकिन इतना जानता हूँ कि मैं भी तलाश के इस सोच सफर में उनका हमसफ़र हो गया हूँ। जो कुछ भी इन कहानियों में घटित होता है वह उनकी दास्तान है या दास्तानगो की, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।


मैंने अपने घर की सारी खिड़कियाँ सब दरवाज़े खोल दिए हैं।
सुर्ख़ सुनहरी गऊओं संग ऊषा भी आए
कच्चे दूध से मुँह धोकर चंदा भी आए
तेज़ नुकीली धूप भी झाँके
नर्म सुहानी हवा भी आए
ताज़ा खिले हुए फूलों की मनमोहक खु़शबू भी आए
देस देस की ख़ाक छानता हुआ कोई साधु भी आए
और कभी भूले से
शायद
तू भी आए
युगों युगों से
मैंने
अपने दिल की सब खिड़कियाँ सब दरवाज़े खोल दिए हैं।

-कुमार पाशी (सब दरवाज़े)

सिद्धार्थ

रेलवे स्टेशन के बाहर अचानक मेरी मुलाक़ात परेश राय से हो गई—दो ढाई वर्ष बाद। यह एक छोटा-सा स्टेशन था। परेश राय सड़क के किनारे नारियल पानी पी रहा था। मैंने उसे बताया कि मैं अपनी फर्म की नई प्रॉडक्ट की प्रोमोशन के सिलसिले में इस इलाक़े की मॉर्किट सर्वे के लिए आया हूँ और मुझे आज रात दिल्ली के लिए गाड़ी पकड़नी है। दिल्ली जाने वाली इससे पहले कोई गाड़ी नहीं।
‘‘चलो पहले नारियल पानी पिओ। फिर कहीं बैठकर इतिमीनान से बातें करते हैं।’’ उसने कहा।
नारियल पानी पीने के बाद हम सड़क के किनारे एक टी-स्टाल में चले गए। और एक धूल-भरी मैलजमी मेज़ के इर्द-गिर्द एक टूटे-फूटे बेंच पर बैठ गए।
‘‘दो स्पेशल।’’ परेश राय ने ऑर्डर दिया।
चायवाले ने केतली में आधा कप दूध और दो चम्मच चीनी और डाल दी।
‘‘दो फेन भी दे देना।’’
मैं चायवाले की तह-दर-तह पत्ती जमी काली केतली को देख रहा था।
‘‘क्या सर्वे कर रहे हो ?’’ परेश राय ने मुझे काली-स्याह केतली की ओर देखते हुए कहा।
‘‘कुछ नहीं।’’ मैंने कहा।
‘‘भाई देखते क्या हो ? इसका भीतर-बाहर एक ही है।’’ उसने कहा।
इतने में चाय आ गयी। साथ में दो फेन और कई मक्खियाँ भी।
टी-स्टाल के बाहर भूरी धूल उड़ रही थी और भीतर काले धुएँ से आँखें जल रही थीं।

‘‘हमारी फर्म बड़े पैमाने पर शहरों के आसपास के इलाक़ों, कस्बों और गाँवों में अपना बिज़निस फैला रही है।
अभी तक इन इलाक़ों में न्यू रिच और बढ़ती हुई मिडल क्लास को पूरी तरह टैप नहीं किया गया—ख़ैर, छोड़ो इन बातों को। तुम बताओ तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?’’ मैंने पूछा।
‘‘बस यूँ ही घूमने निकल पड़ा।’’ उसने अँगौछे से मुँह-हाथ साफ़ करते हुए कहा। और फिर अँगौछा मेरी ओर बढ़ा दिया मैंने रुमाल से हाथ पोंछ लिए थे।
‘‘यह हमारा अंगवस्त्रम् मल्टीपर्पज है। सफ़र पर निकले तो गले में डाल लिया। थक गए तो कमर में बाँध लिया। धूप लगी तो सिर पर रख लिया...अच्छा यहाँ कहाँ ठहरे हो ?’’ उसने पूछा।
‘‘अभी तो कहीं नहीं। और फिर दिन भर की ही तो बात है। इधर-उधर घूम लूँगा। समय कट जाएगा। वैसे भी यहाँ ठहरने की कोई जगह दिखाई तो देती नहीं।’’
‘‘तो फिर मेरे साथ चलो। शाम को लौट आना।’’
‘‘कहाँ ?’’
‘‘यहीं पास में एक गाँव है पाँच-छः कोस की दूरी पर। साथ भी रहेगा और तुम्हारा मार्किट सर्वे भी हो जाएगा। थोड़ी देर में बस आने वाली ही होगी।’’
हम सड़क के किनारे एक पेड़ के इर्द-गिर्द बने चबूतरे पर बैठ गए। दो-चार लोग और भी इंतज़ार कर रहे थे। कुछ ही मिनटों बाद बस आ गई और हम उसमें सवार हो गए। कंडक्टर की कृपा थी कि हमें सीटें मिल गईं।
डीजल, पसीने और बीड़ी-सिगरेट की गंध और धुएँ में लिपटी हमारी यात्रा शुरू हुई।
‘‘तुम आ गए...बड़ा अच्छा हुआ। सफ़र बातचीत में कट जाएगा।’’ परेश राय ने कहा।
बस कच्ची-पक्की टूटी-फूटी सड़क पर धूल उड़ाती, धुआँ फैलाती, शोर मचाती, हिचकोले खाती लुढ़कती जा रही थी। बस के भीतर इतना शोर था कि बातचीत बस संकेतों में संभव थी। परेश राय ने अँगौछे से मुँह ढक लिया और ऊँघने लगा।
परेश राय से मेरी मुलाक़ात पहली बार मसूरी में हुई थी। वह और मैं लाइब्रेरी के पास ही लॉज में ठहरे हुए थे। आते-जाते प्रायः उससे भेंट हो जाती थी। वह सुबह तड़के निकल जाता और शाम को अँधेरा होते ही वापस आता। मैं यहाँ कुछ अपने और कुछ नंदिनी शिवदासानी के फ़ैशन शो के सिलसिले में दिनभर व्यस्त रहता। रात खाने पर किसी रेस्तराँ में उससे मुलाकात हो जाती। जब बारिश में निकलना बन्द हो जाता तो वह बाल्कनी में बैठकर बादलों और बूँदों का नज़ारा देखता रहता। और जब पानी की बौछार उसके शरीर को शराबोर कर देती तो वह अपने कमरे में बंद होकर कोई पुस्तक पढ़ने लगता या अकेले ही शतरंज खेलने लगता। वह कभी-कभी वायलिन भी बजाता था।
जिस दिन नंदिनी शिवदासानी के फ़ैशन शो का उद्धाटन था तो मैंने उसे भी चलने के लिए कहा। लेकिन उसे मेरा आइडिया पसंद नहीं आया।
मैंने बड़े ही फ़िल्मी अंदाज़ में कहा ‘‘हर वह आदमी जो कुछ भी वह है वहाँ मौजूद होगा। रंग-बिरंगे लिबासों में शोखरंग लड़कियाँ, तड़क-भड़क, चकाचौंध रोशनी में चमचमाते थिरकते सजे-सजाए जवाँ जिस्म, हवाओं में रंग और ख़ुशबुएँ बिखेरते...’’
उसने मेरी ओर देखा और मुस्करा दिया। और फिर पुस्तक पढ़ने में तल्लीन हो गया।
‘‘चलो थोड़ी ही देर के लिए आ जाना।’’ मैंने कहा। ‘‘चहलक़दमी भी हो जाएगी और नंदिनी शिवदासानी से भी तुम्हारी मुलाक़ात हो जाएगी।’’ मैंने कहा।
‘‘ओ. के.।’’
सवाय होटल में फ़ैशन शो का उद्घाटन दिल्ली की प्रसिद्ध एंट्रेप्रिनेर अरुणा मल्होत्रा ने किया था। शो बहुत ही सफल रहा। सिलिब्रिटीज के जमघट के कारण भी और बिज़निस की दृष्टि से भी। हम सब बहुत ख़ुश थे। इस दौरान परेश राय भी आ गया। मैंने नंदिनी शिवदासानी से उसका परिचय कराया।

‘‘रंगों, रोशनियों और ख़ुशबुओं के इस शीशा घर में मेरा शामिल होना कुछ ऐंटीफ़ैशन-सा लगता है।’’ परेश राय ने कहा।

ओह नो। ऐंटीफ़ैशन भी आजकल एक फ़ैशन है...।’’

नंदिनी शिवदासानी बोली। ‘‘कोल्ड ड्रिंक्स या कॉफी...नो मिल्क नो शूगर।’’
नंदिनी शिवदासानी परेश राय को अपने डिजाइंस दिखा रही थी। ‘‘फ़ैशन की मार्किट बड़ी तेजी से बदल रही है। अब ज़माना ‘दि बोल्ड एण्ड दि ब्यूटीफुल’, ‘दि रिच एण्ड दि फेमस’ का है। मैं हाई फ़ैशन के बजाए पाप्यूलर प्राइस पर रेडी टू वेदर लिबास तैयार करती हूँ। लेकिन मेरी क्रिएशंस आर्टिस्टिक होती हैं।’’ नंदिनी कह ही थी।
‘‘वह तो है ही। पेंट्स हों या पोशाकें औराके मुसव्विर हैं। जो शक्ल नज़र आई।’’ परेश राय ने कहा।
‘‘यह मेरी नई क्रिएशन है।’’ उसने अपने पहने हुए लिबास की ओर संकेत करते हुए कहा। साइकिडेलिक रंगों वाला हाल्टर, क्रीम कलर जैकेट और इसी रंग के पैरेलल्ज, कंधों पर लाल स्टोल, नारंगी प्लेटफा़र्म शूज, कलाइयों पर बोन और सीपियों जूएलरी, गले में ग्रामीण तावीज़ की शक्ल वाला काँसे का पैंडल...। कॉफी का प्याला हाथ में लिए परेश राय नंदिनी शिवदासानी के साथ-साथ चल रहा था—नीली फेडिड जीन, खादी का भूरा कुर्ता, फूलों वाली राजस्थानी मिर्जई, कोल्हापुरी चप्पल और गले में मणिपुरी लाल-काला-सफ़ेद मफ़लर। आर्कलाईट में खुश रंग लिबासों और लोगों की इस भीड़ में मुझे वे दोनों एक किनेटिक जादुई कंपोजीशन दिखाई दे रहे थे। मैंने पहली बार महसूस किया कि परेश की आँखों में इतनी चमक है और मैंने पहली बार महसूस किया कि नंदिनी के ताँबा रंग बदन में इतना मेग्निटिक आकर्षण है।
हाल में फोटो ग्राफरों के कैमरे की फ्लेशलाइट्स जल-बुझ रही थीं और मडोना का गीत बिखर रहा था—‘आई एम ए मटीरियल गर्ल।’
जिस दिन फ़ैशन शो ख़त्म हुआ, मैंने नंदिनी शिवदासानी को अपने लॉज में आमंत्रित किया। थोड़ी देर तक बुकिंग और कलेक्शन की बातें होती रहीं और फिर हम परेश राय से मिलने उसके कमरे में चले गए। परेश राय कोई पुस्तक पढ़ रहा था। उसने पुस्तक एक ओर रख दी।
‘‘क्या पढ़ा जा रहा है ?’’ नंदिनी शिवदासानी ने पुस्तक उठाते हुए कहा। यह हर्मन हैस की ‘सिद्धार्थ’ थी।
‘‘इतनी पुरानी किताब और अब पढ़ रहे हैं। चालीस-पचास वर्ष पुरानी तो होगी ही।’’ नंदिनी ने कहा।
‘‘इससे भी अधिक पुरानी। क़रीब सत्तर वर्ष पुरानी अंग्रेजी में छपते-छपते भी इसे तीस-बत्तीस वर्ष लग ही गए।’’ उसने कहा।
‘‘फिर भी।’’ नंदिनी ने कहा।
‘‘मैडम, आदमी पुराना हो जाता है किताब पुरानी नहीं होती।’’ परेश राय बोला।
‘‘शायद एक दिन हम सब बूढ़े हो जाएँगे और किताबें नहीं रहेंगी और ज़माना इन किताबों से बहुत आगे निकल चुका होगा।’’ नंदिनी ने न जाने क्या सोचते हुए कहा।
‘‘ज़माना इतिहास में आगे बढ़ता है। लेकिन काल में हमेशा जीवित रहता है। हमारे पास हमारे भीतर।’’
‘‘यह कुछ फिलॉसफी की बात है।’’ नंदिनी ने कहा।
‘‘फिलॉसफी की नहीं अनुभव की। जब मैंने इसे पहली बार पढ़ा तो यह महज एक किताब थी।’’
‘‘और अब !’’
‘‘और अब जब पढ़ रहा हूँ तो यह किसी बहुत-पुराने दोस्त-सी लगती है।’’
‘‘फिर भी गुज़रा हुआ ज़माना कभी वापस नहीं आता।’’
‘‘लेकिन आदमी गुजरे हुए ज़माने में लौट सकता है। लौटता है। लौटना पड़ता है। अब आप अपनी फ़ैशन की दुनिया को ही लीजिए। आज के फ़ैशन पिछले दस वर्षों से आगे बढ़ा है न।’’ परेश राय ने कहा।
‘‘बिल्कुल बढ़ा है।’’
‘‘लेकिन उससे पिछले दस-बीस वर्षों में वापस चला गया है।’’
‘‘वह कैसे ?’’ नंदिनी शिवदासानी बोली।
‘‘ग्रंज !’’
‘‘वही ग्रंज, वही सब कुछ जो बीस बरस पहले थे—रेट्रो रिवाइवल। और बार-बार वही चुनरिया, चोली लहंगा। रूप बदल–बदलकर सामने आ रहे हैं।’’
‘‘तो आप भी फ़ैशन ट्रेड्स पर नज़र रखते हैं।’’
‘‘नहीं ! कुछ खास ऐसा नहीं। बाज़ार से गुज़रता हूँ और कभी-कभी किसी औरत को नज़र चुराकर देख लेता हूँ।’’
परेश राय ने नंदिनी से उसके डिजाइंस के बारे में कुछ बात पूछी। नंदिनी ने उसे बताया कि वह न्यूयार्क इंस्टीट्यूट ऑफ फ़ैशन टेक्नॉलॉजी की प्रशिक्षित है। होजखास विलेज में उसका बूतीक है।
‘‘क्या नाम है आपके बूतीक का।’’ परेश राय ने पूछा।
‘‘पैरहन।’’
‘‘रंग पैरहन का ख़ुशबू जुल्फ़ लहराने का नाम...।’’
‘‘आपको भी शायरी का शौक़ है ?’’
‘‘नहीं, कुछ ऐसा नहीं। बस यूँ ही कभी-कभी किसी का शेर गुनगुना लेता हूँ।’’ फिर न जाने किस बात पर नंदिनी और परेश राय में बहस छिड़ गयी। विषय फ़ैशन था या शायरी या फेमिनिज्म। ‘वह ज़माना गुज़र गया जब स्कूल कॉलेज की लड़कियाँ शायरी पढ़ती थीं और आहें भरती थीं। शायरों से ग़ायबाना इश्क करती थीं और तकिए भिगोती थीं। यह एम. टी. वी. जनेरेशन है, जनाब, वी, जनेरेशन, नाउ जनरेशन...’’ नंदिनी निरंतर बोले जा रही थी।

‘‘सही कह रही हैं आप। लेकिन ज़माना इतना नहीं बदला जितना आप समझती हैं। हर ज़माने के अपने-अपने आइकॉन्स होते हैं। आइकॉन्स बदलने से मानसिकता नहीं बदलती।’’ परेश राय ने किसी पुस्तक का हवाला देत हुए कहा। मुझे हल्का-सा याद पड़ता है शायद यह पुस्तक ‘दि जनरेशन ऑफ नारसिसस’ थी।
‘‘मिस्टर परेश राय ! ज़िंदगी हो या मनुष्य, उसे न किसी दूसरे की किताब से पढ़ा जा सकता है और न समझा जा सकता है। अगर जीवन मायाजाल है तो पुस्तक भी शब्दजाल है।’’ नंदिनी की आवाज़ में हल्का-सा कंपन था। यह बहस की गर्मी थी या शैम्पेन का असर। मालूम नहीं।
‘‘बिल्कुल सही। ज़िंदगी हो या मनुष्य, उसे किसी दूसरे की किताब से नहीं पढ़ा जा सकता। लेकिन प्रत्येक पुस्तक जिंदगी और मनुष्य को नया जन्म देती है। उसे किसी नयी अनजानी दुनिया में ले जाती है। किसी जाने पहचाने शब्द को नया अर्थ और किसी अहसास को नया शब्द देती है। किसी शरीर को नया लिबास देने से किसी मनुष्य को नयी आत्मा, नयी चेतना देना बड़ा कठिन होता है।’’ परेश राय ने अपनी आवाज़, ऊँची करते हुए कहा। मैं उसके बदले हुए लहजे पर हैरान था।
‘‘यह सब निष्क्रिय हारे हुए लोगों की बातें हैं। अर्थ पुस्तक में नहीं, जीवित लोगों में होते हैं... अर्ध- रोशन कमरों से सरगोशियाँ करते हुए, लौ देते जवाँ जिस्मों का स्पर्श महसूस करते हुए...जो लोग जिंदगी की लज्ज्त से वंचित रहते हैं वे किताब के मिथ्या जगत में शरण ढूँढ़ते हैं और समझते हैं कि उन्हें प्रकाश मिल गया। वे सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बन गए हैं। ‘दि ग्रेट एनलाइटनमंट’।’’ नंदिनी शिवदासानी अब अंग्रेजी में बोल रही थी।
परेश राय ने पुस्तक को एक ओर सरकाते हुए और तनिक आगे झुककर कहा ‘‘माई डीयर मिस नंदिनी शिवदासानी ! प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति के जीवन में एक ऐसा ज़ीरो टाइम आता है जब वह किताब की तरफ़ आता है और फिर किताब से जीवन की ओर मुड़ता है। यह एक अंतहीन निरंतर यात्रा है मनुष्य के विराट दर्शन की।’’
नंदिनी ने कोई उत्तर नहीं दिया। उस पर हल्की-सी गुनूदगी छा रही थी, हम सब कमरे से बाहर लॉन में आ गए। रात बिल्कुल काली थी। चारों ओर सम्पूर्ण सन्नाटा था। बाहर थोड़ी-थोड़ी सर्दी और नमी थी। शायद ओस पड़ना शुरू हो गयी थी। परेश राय ने अपनी शाल नंदिनी के शरीर के गिर्द लपेट दिया। और फिर चुपचाप वापस अपने कमरे में चला गया।
दिल्ली में परेश राय से मेरी मुलाक़ात उसके दफ़्तर में हुई। नंदिनी शिवदासानी को यशवंत पैलेस में किसी एक्सपोर्ट एजेंट से मिलना था। हमारे पास लगभग आधे घंटे का समय था। नंदिनी ने कहा ‘‘वह तुम्हारा मित्र...क्या नाम था....सिद्धार्थ...नहीं। वही जिससे तुमने मसूरी में मिलवाया था।’’
‘‘परेश राय।’’ मैंने कहा।
‘‘हाँ, परेश राय। उसका दफ़्तर भी तो यहीं कहीं है।’’
मुझे परेश राय का सही पता मालूम नहीं था। और न ही उसने बताया था कि वह क्या करता है ? यह तो लॉज का रजिस्टर देखने से कुछ याद रह गया था कि कहीं यशवंत पैलेस में उसका दफ़्तर है। लेकिन नंबर मालूम नहीं। दो-तीन जगह से पूछा लेकिन कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। जो हुलिया हमने बताया उस हुलुए के किसी व्यक्ति का दफ़्तर वहाँ नहीं था। एक रेस्तराँ के मालिक से मालूम हुआ कि उसका दफ़्तर बाँई कोरीडोर में तीसरे नंबर पर है। एक छोटा-सा साइन बोर्ड था—
‘इंफोमेटिक्स कॉन्सल्टन्सी’। हम भीतर दाख़िल हुए। रिसेप्शन डैस्क पर एक सुन्दर मॉड सेक्रेटरी से सामना हुआ। मैंने नंदिनी से कहा यह लड़की तुम्हारी मॉडल बन सकती है। परेश राय से बात करना। सेक्रेटरी ने परेश राय को सूचना दी। शीशे की दीवारों के पीछे तीन-चार व्यक्ति कम्प्यूटर पर काम कर रहे थे। इस शीशाघर से एक व्यक्ति बाहर आया। ग्रे पैंट, धारीदार कमीज और हल्के ब्राउन रंग की प्लेन टाई लगाए।
‘‘परेश राय।’’ उसने अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा। मुझे एकदम पहचानने में दिक्कत हुई। और फिर वह स्वयं बोल उठा ‘‘हाय जे.के. हेलो मिस शिवदासानी, कैसे हैं आप ?’’ फिर हम रिसेप्शन कॉर्नर में सोफे पर बैठ गए। बीच में लेटेक्स ज्यूट कारपेट पर शीशे की टाप वाली गोल मेज़ पड़ी थी। एक कोने में काफी पर्कालेटर और तीन-चार प्याले पड़े थे। दूसरे कोने में रबर प्लांट था। सामने दीवार पर अंजोली इला मेनन की पेंटिंग थी। और पूरे रिसेप्शन क़ॉर्नर में अमजद अली खाँ की रूमानी हमीर राग की सरोद धुनें ताज़ा हवा की भाँति सहला रही थीं। परेश राय ने बिना पूछे ही कॉफी बनाई और प्याले, मिल्क पाउडर और शुगर क्यूब्स हमारे सामने रख दिए। वह स्वयं ब्लैक कॉफी पीता था।
‘‘स्नेक्स ?’’ उसने पूछा।
‘‘नो थैंक्स, एक बिज़निस लंच अपायंटमेंट है।’’ हमने कहा।
परेश राय ने बताया कि वह एक मल्टी मीडिया फ्यूजन फर्म के सहयोग से आई.टी. कम एस. ए. (इंफार्मेंशन टेक्नॉलॉजी और सिस्टम अनैलसिस) की कॉन्सल्टनसी सर्विस चला रहा है।
‘‘शायद इसी लिए दफ़्तर की हर वस्तु कम्प्यूटर कंट्रोल्ड है—वेनीशन ब्लाइंड्स से लेकर तुम्हारी सेक्रेटरी तक ।’’ मैंने कहा।
वह मुस्करा दिया। ‘‘हमारे यहाँ काम में ऑटोमेशन है। काम करने वाले ऑटोमेटन नहीं। मैं एरगोनाँमिक्स में विश्वास करता हूँ।’’ उसने कहा।
‘‘तुम्हारा मतलब है—स्टेट ऑफ दि आर्ट टेक्नॉलॉजी विद ट्रांसेन्डंटल मेडिटेशन।’’
मैंने कहा ।
‘‘ओ ! हां टी. एम. से मुझे याद आया । कल शाम क्या प्रोग्राम है आपका ? अगर फुर्सत हो तो पाँच बजे तक ताज पैलेस आ जाइएगा।’’ नंदिनी शिवदासानी ने कहा।
‘‘क्या कोई पार्टी दे रही हैं।’’ परेश राय ने पूछा।
‘‘घबराइये नहीं, कोई फ़ैशन शो नहीं है।
‘‘तुम्हारा बिज़निस हाईटेक है और नंदिनी का हाई हैम और लो-नेक। अगर आप दोनों मिल जाएं तो फ़ैशन की दुनिया में क्रांति आ जाएगी। परेश राय हँस दिया। नंदिनी ने कहा कि किसी दिन इस बात पर भी बहस हो जाए।
परेश राय भी व्यस्त था और हमें भी देर हो रही थी। हमने इज़ाजत ली और दफ़्तर से बाहर आ गए। मीटिंग से फारिग होकर हम होजखास बिजनिस के लिए रवाना हुए। रास्ते में नंदिनी ने पूछा—
‘‘यह परेश राय ही था ना जिससे हम मसूरी में मिले थे।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘कुछ नहीं। वैसे ही।’’ उसने कहा। और किसी सोच में पड़ गई।


ताज पैलेस में किसी स्वामी जी के आश्रम की ओर से एक अन्य समागम था। सामने दीवार पर ‘ऊँ नमो शिवाय’ की न्यून लाइट जल बुझ रही थी। हाल में गेरुए वस्त्रों, मॉड फ़ैशन, एथनिक पहनावे वाले हर आयु के स्त्री-पुरुष मौजूद थे। वीडियो स्क्रीन पर किसी संन्यासिन की वीड़ियो फ़िल्म दिखाई जा रही थी—हिमालय की बर्फ से ढकी चमकती चट्टानें, निर्मल झरनें, चारों ओर हरियाली, वनस्पति के खुले फैले आँगन में विचरती और न्यूयार्क के साइकेडेलिक रोशनियों वाले हालों में प्रवचन देती। सब कुछ उजला-चमकता आइना-सा था। जिसमें वह अलौकिक छवि गतिशील थी। वीडियो फ़िल्म खत्म हुई तो पोडियम के पीछे एक चेहरा प्रगट हुआ—लम्बे हल्के सुर्ख़-सुनहले केश, गले में रुद्राक्ष की माला-एक चालीस-बयालीस वर्ष की सुंदर महिला। वह बता रही थीं। कुछ वर्ष पूर्व एक निजी क्राइसिस के कारण उनका नर्वस ब्रेकडाउन हो गया था। उसका जीवन पूरी तरह शैटर हो चुका था। वह एक मैंटल रैक थी। उसका वैवाहिक जीवन नाइटमेयर सिद्ध हुआ। फिर वह माँ के शरण में आयी। शांति की खोज में, उसे शांति मिल गई। उसका नया जन्म हुआ है-एक नारी के रुप में। एक सफल बिज़निस पर्सन के रुप में।
‘‘यह महिला कौन है ?’’ परेश राय ने मुझसे पूछा।
‘‘अरुण मल्होत्रा। एन एंटेप्रिनर पार एक्सीलांस—ग्रेट सिलिब्रिटी।’’
‘‘यह वही तो नहीं जिन्होंने मसूरी में नंदिनी शिवदासानी का फ़ैशन शो किया था।’’
‘‘येस वैरी मच।’’ मैंने कहा।
‘‘ऊँ नमो शिवाय।’’ परेश राय ने आँखें मूँदते हुए कहा।
हाल की सब रोशनियाँ बुझा दी गयी थीं। केवल पोडियम पर एक बल्ब नन्ही-सी-किंदील की तरह जल रहा था। और फिर हाल ‘ऊँ नमो शिवाय’ की ध्वनि से गूँजने लगा। कुछ समय तक यह धुन गूँजती रही। रोशनियाँ फिर–जगमगा उठीं। सबकों माँ का प्रसाद दिया गया और साथ ही चाय-कॉफी का दौर भी शुरू हुआ। देश-विदेश से कई लोग आए हुए थे। बिज़निसमैन, फ़िल्म स्टार, टी. वी. मीडिया के सितारे, पत्रकार, ब्यूरोक्रेटस, डॉक्टर, इंजीनियर, राज्ञनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, नृत्य, कला, संगीत, रंगमंच के लोग, बुद्धिजीवी....
कॉफी के दौरान नंदिनी शिवदासानी ने परेश से पूछा—
‘‘कैसा लगा ?’’
‘‘ठीक है। इन सब लोगों को शांति की कितनी आवश्यकता है। पलंग के पाए सोने के ही क्यों न हों सिरहाना बरहाल नर्म ही चाहिए।’’ उसने कहा।
‘‘आज तो जिंदगी कितनी फास्ट हो गई है। कितनी टेंशन बढ़ गई है। डिप्रेशन चारों तरफ़...’’ नंदिनी शिवदासानी कह रही थी।
‘‘मैं जब चार-पाँच वर्ष का रहा हूँगा तो माँ की उँगली पकड़कर कभी-कभी गाँव के पास एक टीले पर बने हुए मंदिर में जाया करता था। मंदिर क्या था एक पीपल के वृक्ष के इर्द-गिर्द मिट्टी-गारे से बने चबूतर पर शिवलिंग रूपी पत्थर स्थापित कर दिया गया था। आस-पास के लोग वहाँ आते थे और सब मिलकर संकीर्तन करते थे। ‘ऊँ नमों शिवाय’ और झूम-झूम कर गाते थे। और फिर अपने कामों में व्यस्त हो जाते थे। वही पुरानी जिंदगी, वही शताब्दियों पुराने विश्वास।’’ परेश राय कह रहा था।

‘‘अब ज़माना बदल गया है।’’ नंदिनी शिवदासानी ने कहा।
‘‘हाँ। अब ज़माना बदल गया है। टीले पर गारे-मिट्टी का बना कच्चा चबूतरा ताज पैलेस के ईरानी कार्पेट्स में बदल गया है। पीपल का पेड़ सागवान का बना पोडियम बन गया है। और शिललिंग के स्थान पर वीडियो स्क्रीन की रंगीन छवियों ने ले ली है। ज़माना वास्तव में बदल गया है।’’ परेश ने कहा।
‘‘जब लिविंग इन स्टाइल, कला की प्रदर्शनियाँ, सुपर थियेटर, संगीत सम्मेलन, ग़ज़ल की महफिलें, विवाह के मण्डप, पार्टियाँ फ़ैशन शो, बिज़निस कांफ्रेंसें और ग्राम सुधार के सेमिनार पाँच सितारा होटलों में होते हैं तो फिर भजन-कीर्तन क्यों नहीं हो सकता।’’ मैंने कहा।
कॉफी पीने के बाद वह थोड़ी देर के लिए रुका। हमें किसी घर आने के लिए कहा। अपना पता दिया और चला गया।

कई दिनों तक परेश से मेरी मुलाकात नहीं हुई। एक दिन सोचा क्यों न उसके घर उससे मिला जाए। मैंने नंदिनी शिवदासानी से कहा। उसने कहा उसे भी परेश राय से कम्प्यूटर ग्राफिक्स के बारे में कुछ बातचीत करनी है। और अगले रविवार ही हम उसके घर जा पहुँचे—बिना किसी पूर्व सूचना के।
‘‘परेश राय ने दो चौकियाँ सरकाते हुए हमें बैठने के लिए कहा। लेकिन हम उसके साथ ही फ़र्शी बिस्तर पर बैठ गए। उसने बिस्तर पर पड़ी हुई वस्तुएँ—पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ, पैन, प्याले, कैसेट्स आदि समेटकर एक तरफ़ सरका दिए और वायलिन को सिरहाने के पास रख दिया। थोड़ी देर रस्मी
बातों के बाद वह कॉफी बनाने के लिए चला गया। कमरों में पुस्तकों के कई शेल्फ थे। शेल्फों के ऊपर, पुस्तकों के बीच, दीवारों पर कई प्रकार के आर्टीफेक्ट्स थे। काली लकड़ी की नीग्रो कार्विंग, हड़प्पा की निर्वसन नर्तकी, चीनी वाल-हैंगिंग, गौतम बुद्ध की टैरोकोटा मूर्ति, मधुबनी चित्र, भगतसिंह की तस्वीर, बस्तर की लौहे की पटरियों की बनी ऑफरिंग, जिसमें पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, किसान, शिकारी और कई दिए आदि बने हुए थे। सब कुछ बड़ा बेजोड़ अनमेल था।
परेश राय कॉफी बनाकर ले आया। अपने लिए वह ब्लैक कॉफी ही लाया था।
‘‘आपने डेकोरेशन की इतनी सारी चीज़ें जमा कर रखी हैं लेकिन तरतीब से रखा नहीं। सब कुछ इधर-उधर बिखरा सा दिखाई देता है।’’ नंदिनी शिवदासानी ने कहा।
‘‘वास्तव में मैं इंटीरियर डेकोरेटर तो हूँ नहीं और न ही कोई बड़ा आर्ट कलेक्टर या कोनिसार। किसी इम्पोरियम से कुछ खरीदा नहीं। बस, एक प्रकार का फाइंडर हूँ।
जहाँ गया, जो पसंद आया, सस्ते दामों में मिल गयी ले ली। कुछ मित्रों ने दे दी। और जिसके जहाँ जगह मिल गई उसने वहीं बसेरा कर लिया।’’
‘‘आख़िर कोई न कोई डिजाइन, मैचिंग तो होनी ही चाहिए ना कि केआस।’’ नंदिनी शिवदासानी ने कहा।

‘‘आप सही कहती हैं। मैंने दो-तीन बार इन्हें रंग, साइज, बनावट, देश-काल, थीम के अनुसार रखने की कोशिश की। लेकिन इन्होंने प्रोट्स्ट किया कि हम खिलौने नहीं।’’ वह थोड़ी देर मौन रहा रहा फिर बोला ‘‘यदि गौतम बुद्ध भगतसिंह से मृत्यु और मुक्ति के मसले पर बात करना चाहे तो भला मैं इन्हें कैसे रोक सकता हूँ ? परेश राय ने बड़ी गंभीरता से कहा—जैसे वह स्थिर बेजान वस्तुओं के बारे में नहीं सजीव तलते-फिरते लोगों की बात कर रहा। थोड़ी देर हम खामोश रहे।
कमरे में ग्रामोफोन पर रिकार्ड अभी तक बज रहा था। बहुद मद्धिम-मद्धिम मधुर-मधुर सुरों में –कुँजन बन छाड़ी है। कहाँ जाऊँ माधो।...जो मैं होती जल की मछली ....
‘‘यह किस की आवाज़ है ?’’ मैंने पूछा।
















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