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हास्य-व्यंग्य >> आओ हँसें एक साथ

आओ हँसें एक साथ

मोहिनी राव

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 38
आईएसबीएन :978812372012

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यह पुस्तक हास्य कथाओं, पहेलियों और कहावतों का संग्रह है।

Aao Hansen Ek Sath - A hindi Book by - Mohini Rao - आओ हँसें एक साथ - मोहिनी राव

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भाग्यशाली शिकारी

एक था शिकारी। अपने बेटे की सातवीं वर्ष गांठ की दावत के लिए उसने सोचा, चलो शिकार करने चलें और कुछ बढ़िया चीज़ लाएं। लेकिन जब वह दीवार पर से बंदूक उतारने लगा तो वह खूंटी से फिसल गई और नीचे रखी पत्थर की ओखली पर गिरी। और अफसोस, उसकी नली ऐसे मुड़ गई—जैसे अंग्रेजी का अक्षर—‘एल’ लड़का चीखा, ‘‘बापू, यह तो अपशकुन है। आज शिकार पर मत जाओ।’’
‘‘तुम पागल हो’’, बापू ने कहा। ‘‘यह तो अच्छा शकुन है। बंदूक ने ओखली को मारा, इसका मतलब है कि यह शिकार भी मारेगी।’’

शिकारी चल कर एक पहाड़ी झील के किनारे पहुंचा। अभी सवेरा ही था। जानते हो उसने क्या देखा ? जंगली बत्तखें—पूरी तेरह ! बारह पानी में छपाके लगा रहीं थीं और तेरहवीं पानी के किनारे चट्टान की बगल में मज़े से सो रही थी। ‘‘वाह, क्या किस्मत है !’’ शिकारी ने सोचा, और उसने अपनी टेढ़ी बंदूक से एक बत्तख की ओर निशाना साधा।
‘‘धाँय !’’ बंदूक छूटी क्योंकि उसकी नली टेढ़ी थी, इसलिए गोली टेढ़ी-मेढ़ी जाती हुई पानी में छपाके लगाती बारहों बत्तखों को जा लगी। फिर उस चट्टान पर लगी जिसके किनारे तेरवहीं बत्तख सोई पड़ी थी। चट्टान से लगकर जो वह उछली तो तेरहवीं बत्तख को लगी। वह सिर्फ घायल हो गई।

घायल बत्तख पानी में गिर गई और ज़ोर-ज़ोर से अपने पंख फड़फड़ाने लगी। शिकारी उसको पकड़ने के लिए पानी में उतरा और उसकी ओर जाने लगा। वह बत्तख  तक मुश्किल से पहुंच पाया क्योंकि वह ढीला-ढाला सूती पतलून पहने था और घास के जूते। आखिरकार जब बत्तख के पास पहुंच कर उसने उसकी गर्दन पकड़ी तो उसने आख़िरी बार ज़ोर से अपने पंख फड़फड़ाए। इतने में, छपाक ! पानी से कोई चीज़ निकली और कूद कर किनारे झाड़ियों के पास जा गिरी। सोचो तो वह क्या चीज़ थी ? वह एक बड़ी-सी शफरी (कार्प) मछली थी ! इतनी बड़ी और इतनी स्वादिष्ट लगने वाली शफरी मछली शिकारी ने पहले कभी नहीं देखी थी।

‘‘इसको तो पकड़ना ही होगा।’’ शिकारी ने सोचा और पानी से निकलने के लिए उसने पास के पेड़ की जड़ को सहारे के लिए पकड़ा। लेकिन उसने जिसे जड़ समझा वह एक बहुत-बड़े-से जंगली खरगोश की पिछली टांगें थीं। अपने को शिकारी के पंजों से छुड़ाने की कोशिश में खरगोश ने अपने अगले पंजे से जमीन को खोद डाला।  और उसके नीचे से निकले पच्चीस रतालू !

शिकारी झाड़ियों में घुसा मछली को उठाने लगा तो क्या देखता है वह मछली चेड़ पक्षी (फेजेंट) के घोसले पर जा गिरी है। चिड़िया मरी पड़ी थी—मछली के गिरने से उसकी गर्दन टूट गई थी। शिकारी ने मरी हुई चिड़िया को उठाया तो उसके नीचे तेरह अंडे दबे मिले। एक भी टूटा नहीं था। शिकारी ने अंडों को निकालने के लिए संभाल कर सूखे पत्ते खिसकाए तो पत्तों के नीचे से ढेरों कुकुरमुत्ते निकले।

शिकारी ने खरगोश और चिड़िया को अपने दायें कंधे पर रखा और मछली और रतालुओं को बायें कंधे पर। बत्तखों को अपनी कमर के चारों ओर बांध लिया, अंडों को कमीज को अंदर और कुकुरमुत्तों को थैली में। फिर वह अपनी टेढ़ी बंदूक लेकर घर चला।

घर पहुंचते ही उसने अपने बूट और पैंट उतार दिए क्योंकि वे गीले थे और उनसे परेशानी हो रही थी। एक और आश्चर्य ! उसके बूटों में से झींगियां निकलीं इतनी कि उन्हें गिना नहीं जा सकता था। और उसकी सूती पतलून से तैंतीस जिंदा कूशियन मछलियां निकलीं ! वे सारी जमीन पर फैल गईं—नाचती कूदती।

अब तुम कल्पना कर सकते हो कि शिकारी के बेटे के सातवें जन्मदिन की दावत कितनी शानदार रही होगी ! सभी अड़ोसी-पड़ोसी बुलाए गए और सब लोगों ने इतना खाया, इतना खाया कि पेट फटने की नौबत आ गई।


-जापान


शेखचिल्ली



बहुत समय हुए एक सीधा-साधा बुद्धू आदमी था। नाम था शेखचिल्ली। उसके बेवकूफी से भरे लेकिन भोले कामों के कारण उसके दोस्त उसको पसंद करते थे। उसकी संगत उनको अच्छी लगती थी।

एक दिन जमींदार ने उसको बुलावा भेजा। यह जमींदार बेईमानी के लिए मशहूर था। जमींदार ने उससे कहा, ‘‘जाओ और गांव के सारे घरों की गिनती करो।’ उसने बीस पैसे फ़ी घर देने का वायदा किया।
बेचारा शेखचिल्ली घंटों सड़कों और गलियों के चक्कर लगाता रहा और मकानों की गिनती करता रहा। बड़ी मेहनत की उसने। शाम को उसने ज़मींदार को मकानों की कुल संख्या बता दी और उसको पैसे दे दिए गए।

बाद में जब शेखचिल्ली के कुछ दोस्तों को उसका पता चला तो वह उसके पास आए। एक ने कहा, ‘‘बेवकूफ, तुमने जमींदार से हामी भरने के पहले हम लोगों से बात क्यों नहीं कर ली ? जानते नहीं वह कितनी बेईमान है ?’’

एक दूसरे दोस्त ने कहा, ‘‘उसने ज़रूर बेईमानी की होगी।’’ शेखचिल्ली ने बड़े विश्वास से कहा, ‘‘अरे नहीं, इस बार नहीं।’’ ‘‘बेईमानी नहीं की ? तुमको कैसे पता ?’’

एक दोस्त ने पूछा। ‘‘मुझको मालूम है, क्योंकि इस बार मैंने उसको बेवकूफ बनाया।’’ शेखचिल्ली अपने आप से बहुत खुश लग रहा था।

‘‘सो कैसे ?’’ उसके दोस्तों ने आश्चर्य से पूछा
‘‘मैंने उसके जितने मकान थे, उससे कम बताए।’’ शेखचिल्ली ने बड़े गर्व से कहा। ‘‘सच पूछो तो मैंने जितने गिने थे उसके आधे ही उसको बताए !’’


-पाकिस्तान


नौ या दस



एक बार एक रेगिस्तान में एक आदमी दस ऊंटों को तालाब में पानी पिलाने ले जा रहा था कुछ मील चल कर वह एक ऊंट पर बैठ गया और बाकी ऊंटों को गिनने लगा। पूरे नौ थे। वह घबरा कर उतर गया और दसवें ऊँट की खोज में वापस गया। जब ऊंट का कोई नामो निशान नहीं दिखायी दिया तो उसने सोचा कि वह खो गया। ढूंढ़ना बंद कर वह हैरान और दुखी वापस लौटा तो क्या देखता है कि पूरे के पूरे दस ऊंट खड़े हैं। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। खुशी-खुशी वह एक ऊंट पर चढ़कर आगे बढ़ा। कुछ ही दूर जाने पर उसने सोचा कि चलो, एक बार फिर ऊंटों की गिनती कर ली जाए। फिर नौ निकले ! वह हैरान था कि माजरा क्या है ! वह फिर खोए हुए ऊंट को ढूंढ़ने निकला। लेकिन वह नहीं मिला। मिलता कहां से ? वह जल्दी-जल्दी वापस आया औ    र जब फिर गिनती की तो उसको यह देखकर बड़ा ताज्जुब हुआ कि उसके दसों ऊंट मजे से धीरे-धारे चले जा रहे हैं। उसने सोचा रेगिस्तान की गर्मी की वजह से कुछ गड़बड़ी हो रही है और सबसे पीछे वाले ऊंट पर सवार हो गया। फिर उसने अपने ऊंटों को तीसरी बार गिना। उसको समझ में नहीं आया कि एक अभी भी क्यों कम है।
इसे शैतान की करामात समझ, उसे कोसता हुआ वह नीचे उतरा और फिर एक बार ऊंटों की गिनती की तो पूरे दस के दस थे !

उसने बुड़बुड़ा कर कहा, ‘‘अच्छा, दुष्ट शैतान। लो, मैं पैदल ही चलता हूं, जिससे मेरे सारे ऊंटे सलामत रहें। ऊंट पर सवारी करके मैं अपना एक ऊंट को क्यों खोऊं। लो, मैं पैदल ही चला।’’


-ईरान


उन्होंने घर तो बदला, लेकिन....



एक वज़ीर के घर की दायीं ओर एक लोहार रहता था और बायीं ओर एक बढ़ई। दोनों दिन रात खटर-पटर करते रहते और वजी़र की शांति भंग करते। जब उससे और बर्दाश्त नहीं हुआ तो वज़ीर ने दोनों को बुलाया और उनको घर बदलने को कहा।

एक दिन लोहार आया और बोला, ‘‘हूजूर, आप की आज्ञा के अनुसार मैं आज अपना घर बदल रहा हूं।’’
कुछ देर बाद बढ़ई आया। उसने भी कहा, ‘‘हुजूर, मैं भी अपना घर बदल रहा हूं।
वज़ीर ने मन ही मन चैन की सांस ली लेकिन ऊपर से इस बात पर बनावटी दुख प्रकट किया कि इतने अच्छे पड़ोसी चले जाएंगे। उसने उनको बढ़िया खाना खिलाकर विदा किया।

लेकिन हथौड़े और आरी की आवाज अभी भी बंद नहीं हुई। वज़ीर को आश्चर्य भी हुआ और गुस्सा भी आया। उसने अपने नौकरों को बुलाकर कहा, ‘पता लगाओ क्या बात है।’’
नौकर यह समाचार लेकर लौटे कि बढ़ई और लोहार ने घर बदला ज़रूर था, लेकिन बढ़ई लोहार के घर में चला गया था और लोहार बढ़ई के घर में ! और दोनों मज़े में रात-दिन अपने हथौड़े और आरे चलाते रहे !


-कोरिया गणतंत्र

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