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उपन्यास >> अग्निव्यूह

अग्निव्यूह

श्रीराम दूबे

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3799
आईएसबीएन :812671218x

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लाल पड़ती जा रही धरती की परत-दर-परत खोलकर इसे देखने, समझने और दिखाने का प्रयास है यह उपन्यास।

 

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘जंगल’ जब तक ‘जंगलों’ में थे, तब तक जंगल के नियम, उसका बाहुबल, कमजोरों पर बाहुबलियों के शोषण जंगलों तक ही सीमित थे। आज जंगलों का फैलाव शहरों-गाँवों तक आ पहुँचा है। जंगलों के साथ शहरों-गाँवों तक में जंगली जानवरों के पैरों के निशान दिखाई देने लगे। आदमी भी इनके संग-साथ में तन की ताकत एवं मन के विचार के स्तर पर धीरे-धीरे जानवर होने लगा।

सोच-विचार एवं विवेक के स्तर पर जिसने जंगल को परास्त कर दिया, वह आदमी रह गया पर जो स्वयं परास्त होकर जंगल के सामने नतमस्तक हो गया, जिसने अपने भीतर जंगल को बसा लिया, वह जंगली जानवरों से भी ज्यादा भयावह हो गया। उसके पंजे करामात दिखाने लगे। बाहुबल शोषण का स्त्रोत बन गया, माफिया-संस्कृति सर उठाकर चलने लगी और शीघ्रातिशीघ्र ‘कुबेर’ बनने की ललक ने बिना पूँजी-पगहा वाला ‘अपहरण-उद्योग’ खड़ा कर दिया। जंगली चक्की चलने लगी, लोग पिसने लगे।

शोषण बढ़ा तो इसकी प्रतिक्रिया पहले कुनमुनाई, फिर अँगड़ाई लेने लगी। पाँवों तले दबी दूब भी पाँव हटने के बाद सर तो उठाती ही है। उठने लगे विरोधी स्वर...धीरे-धीरे उग्र होने लगे ये स्वर। फैलने एवं पकने लगीं उग्रवाद की फसलें।
बाहुबल, माफिया-संस्कृति, अपहरण-उद्योग और उग्रवाद के खाद-पानी के लिए कोयलांचल और उसके चारो ओर दूर-दूर तक फैली जंगल-पहाड़ों वाली जमीन बड़ी मुफीद बन गई।

कहते हैं कोयलांचल में नोट हवा में उड़ते हैं। जिसके हाथों में ताकत हो वह आगे बढ़कर लूट ले। लूट की जंगली प्रतिस्पर्धा बढ़ी तो बाहुबल का प्रदर्शन बढ़ा। लोग दूसरों की लाशें गिराकर उन्हें रौंदते हुए ‘नोट’ तक बढ़ने लगे। खूनी-खेल गुल्ली-डंडा बन गया, उग्रवाद एवं अपहरण भी साथ-साथ कदमताल करने लगे, इन सबके बीच पिसने लगा आम आदमी और लाल होने लगी काली जमीन।
लाल पड़ती जा रही धरती की परत-दर-परत खोलकर इसे देखने, समझने और दिखाने का प्रयास है यह उपन्यास।

 

एक

 

‘‘हैलो...’’
‘‘हाँ, हैलो !’’
‘‘हैलो...कौन...?’’
‘‘अरे बाप को नहीं पहचानता...’’
‘‘लेकिन मेरे बाप को मरे तो अरसा हो गया...’’

‘‘...तो समझ लो मैं तेरे बाप का भूत बोल रहा हूँ...क्या हुआ...? भूत का नाम सुनते ही बोलती बन्द हो गई...हमारा काम देखेगा तो साले तेरी हालत क्या होगी...अच्छा सुन...जेल गेट पर मुझसे मिलो...अकेले...किसी को साथ लाए तो घर लौटने के काबिल नहीं रहोगे...बहुत माल कमाए हो साले...अकेले डकारना चाहते हो...बाप लोगों का ख्याल कौन रखेगा...तेरा मरा हुआ बाप या तेरा मरने वाला बेटा...कल ठीक शाम चार बजे जेल गेट पर मिलो...कोई चालाकी मत करना...वरना...कल शाम बाजार से तुम्हारी खूबसूरत बीवी ने जो सिन्दूर-चूड़ी खरीदी है न...उसे वह पहन नहीं पाएगी...तू अगर चाहता है कि तेरी बीवी सिन्दूर पहने तो कल शाम ठीक चार बजे जेल गेट पर मिलो...और साले, तू अगर चाहता है कि तेरी बीवी का कल खरीदा हुआ सिन्दूर वैसे ही रखा रहे और तेरी बीवी की मांग सूनी हो जाय तो...’’
‘‘हैलो...’’

‘‘कल शाम चार बजे जेल गेट पर मिलो....’’
टेलीफोन कट गया लेकिन रिसीवर राजीव के हाथ में ही पड़ा रहा...राजीव के हाथ-पाँव सुन्न हो गए...धड़कनें बढ़ गईं...सिर चकराने लगा...संज्ञा-शून्य हो गया राजीव। ना कुछ बोल पा रहा था और ना ही कुछ सोच पा रहा था...लग रहा था सारा जिस्म पथरा गया हो...आँखों के आगे अँधेरा छा गया था...सामने दीवार पर लगी हँसती-खिलखिलाती पत्नी बिन्नी की तस्वीर धुंधली लगने लगी थी। उसे लगा, सामने ही ड्रेसिंग टेबुल पर रखी उसकी अपनी तस्वीर पर किसी ने अभी-अभी एक फूलमाला डाल दी हो...अगरबत्तियाँ जला दी हों किसी ने उसकी तस्वीर के सामने।
‘‘अजी...किसका टेलीफोन था...’’पीछे से आती हुई पत्नी बिन्नी की आवाज पर राजीव के हाथ से रिसीवर छूटकर जमीन पर गिर पड़ा। माथा पकड़कर बगल में रखे सोफे पर पसर गया राजीव...
‘‘अरे, क्या हुआ...तुम्हारी तबीयत तो ठीक है ना...?’’

रिसीवर सेट पर रखते हुए बिन्नी ने पास आकर पति का माथा सहलाना शूरू किया।
‘‘क्या हुआ...किसका फोन था...तुम ठीक तो हो न...?’’ बिन्नी ने पूछा...
‘‘...हाँ ठीक हूँ...जरा पानी पिलाना...खड़े-खड़े थोड़ा चक्कर आ गया था...और कोई बात नहीं...’’
बिन्नी ने फ्रीज खोलकर ठंडे पानी की बोतल निकाली और एक गिलास में पानी डालते हुए पूछा, ‘‘तुम दिन-रात फैक्ट्री के चक्कर में लगे रहते हो, अपना ख्याल तो रखते नहीं...जब देखो काम...काम...काम...यह नहीं कि चार पल को हाथ-पाँव सीधा कर आराम भी कर लिया...ना खाने की चिन्ता ना पीने की सुध...चक्कर नहीं आएँगे तो क्या होगा...लो, पानी पी लो और थोड़ी देर आराम करो...कहो तो डाक्टर वर्मा को फोन करूं...’’
बिन्नी के हाथ से पानी का गिलास लेते हुए राजीव ने कहा, ‘‘अरे नहीं...नहीं...डाक्टर को फोन करने की कोई जरूरत नहीं है...बस यूँ ही चक्कर आ गया था...अब सब ठीक है...आओ, इधर मेरे पास बैठो...’’

बिन्नी पति की बगल में ही सोफे पर बैठ गई और उसके बालों में अपनी उँगलियाँ फेरने लगी। राजीव को अच्छा लगने लगा...कितने दिन हो गए थे बिन्नी के साथ इतने पास-पास सोफे पर बैठे और अपने सिर के बालों में उसकी उँगलियों का मीठा स्पर्श पाए...उसने भी पत्नी का एक हाथ अपने हाथ में ले लिया...आराम पाकर मुँदने लगीं राजीव की आँखें...
‘‘सुनते हो...मैं कल शाम बाजार गई थी...कल तीज है न...इसलिए नई साड़ी और सिन्दूर-चूड़ी खरीदती लाई...कल तुम घर से बाहर नहीं जाओगे...दिन भर घर में आराम करोगे...शाम को मैं नई साड़ी में वही सिन्दूर-चुड़ी पहनकर पूजा करूँगी...तुम्हारी आरती उतारूँगी...और...’’

राजीव एकाएक सोफे पर उठ बैठा...उसकी धड़कनें फिर तेज होने लगीं...उसकी नजरें पत्नी की सिन्दूर-भरी माँग पर टिक गई। कितनी अच्छी...भरी-भरी लगती है बिन्नी इस सिन्दूर-भरी माँग में...जैसे अड़हुल का खिला हुआ लाल फूल अपनी सारी लालिमा भर गया हो इसकी माँग में, हाथों में हरी-हरी चूड़ियाँ जब खनकती हैं, तो लगता है राजीव के कानों में किसी ने बहुत पास जलतरंग के तारों को हौले से छेड़ दिया हो...
हरी चूड़ियाँ...भरी माँग...कितनी आकर्षक लगती है बिन्नी...और कल कहीं...यही माँग सोचते-सोचते अचानक राजीव बोल उठा...‘‘नहीं...नहीं...’’

बिन्नी ने पलटकर पूछा...‘‘क्या नहीं...नहीं...क्या हुआ....?’’
एक लम्बी साँस खींचते हुए राजीव ने कहा—‘‘कुछ नहीं...मैं कह...रहा था कि कल...तीज है न सो...मैं कल कहीं बाहर नहीं जाऊँगा...नहीं...नहीं, यहीं रहूँगा...तुम्हारे पास...अपनी बिन्नी के पास...’’ और राजीव ने फिर एक लम्बी साँस ली।
बिन्नी वैसे भी बहुत सुन्दर थी, बिनी किसी साज-सज्जा के भी हमेशा आकर्षक लगती थी...ऐसे भी कभी मन से राजीव पर आँखें डाल देती थी, तो लगता था राजीव के शरीर पर हरसिंगार के हजारों फूल एक साथ ही झर गए हों। बीच-बीच में जब कभी बिन्नी ड्रेसिंग-टेबुल के सामने मेकअप कर रही होती थी तो पीछे से कन्धों पर हथेलियाँ रखते हुए वह कह उठता था—तुम्हें तो ऊपरवाले ने ही इतना भरपूर रूप-सौंदर्य दिया है कि कृत्रिम रंगरोगन की आवश्यकता ही नहीं है...और तब हठात लजा उठती थी बिन्नी। सिन्दूर से भी लाल टहक लाली गालों पर एक सिरे से दूसरे तक फैल जाती थी जैसे पूरब में उगते सूरज की कोमल लाली पूर्वी क्षितिज पर फैल गई हो...यहाँ से वहाँ तक...झकास अंजोर...

तीन वर्ष हो गए हैं बिन्नी को इस घर में बहू बनकर आए हुए...सचमुच उस दिन राजीव के घर में अंजोर हो गया था जिस दिन बिन्नी दुल्हन के रूप में उतरी थी इस आँगन में। जिसने भी देखा, प्रशंसा की...क्या किस्मत पाई है राजीव ने...इन्द्रलोक की परी मिली है उसे...माँ तो बहू की बलैयाँ लेते थकती नहीं थी। दो-दो विवाहित ननदों ने तो पलकों पर बिठाए रखा था बिन्नी को। बात-व्यवहार भी शरीर की सुन्दरता के अनरूप ही था...जैसा रूप वैसा गुण, स्वभाव से भी पूरे घर में छा गई...सबका मन मोह लिया...किसी को शिकायत का मौका नहीं देती थी....
‘‘मुझे तुमसे एक शिकायत है बिल्ली...’’ एक शाम थोड़ा-सा एकांत मिलते ही राजीव ने कहा था...
‘‘यह बिल्ली कौन है...?’’ आँखें नचाते हुए पूछा था बिन्नी ने।
‘‘बिन्नी...मेरी बिन्नी...बिन्नी बिल्ली...बिल्ली बिन्नी...’’

‘‘क्या शिकायत है...?’’
‘‘सारा समय दोनों दीदियों के साथ ही रहती हो...मेरा भी तो कुछ हक बनता है...’’
‘‘दीदी लोग चली जाएँगी...तब—पूरा समय आपका ही तो होगा...’’
राजीव ने हाथ बढ़ाया था।
‘‘अरे...वो...छिपकली...’’
‘‘किधर...?’’
‘‘उधर...’’
और जब तक राजीव छिपकली के डर से एक ओर मुड़ा तब तक पायल छनकाती बिन्नी दरवाजे के पास पहुँच गई।
दरवाजे की ओट में खड़ी दीदियाँ खिलखिला पड़ीं।
निहाल हो गई थीं दोनों दीदियाँ और निहाल हो गया था राजीव उस दिन...!
और आज तीज का पर्व था...

बाजार से अपने हाथों खरीदी हुई लाल बनारसी साड़ी में सिन्दूर-चूड़ी पहनकर बिन्नी आरती का थाल सजा रही थी।
माटी के दीप में घी वाली बाती डालते-डालते आँखों के एक कोने से बिन्नी निहार लेती थी दरवाजे को...
‘‘...शाम हो गई...अभी तक आया नहीं राजीव...यह भी कोई बात हुई...यहाँ मुहूर्त बीतनेवाला है...सभी सुहागिनें अपने पतियों की आरती उतारने को ही होंगी और जनाब अभी तक नदारद...आने दो आज तब बताती हूँ...’’
और तभी बाहर राजीव की कार के आने की आवाज आई...बिन्नी ने जल्दी-जल्दी थाली के सारे दीप जला दिए...चारों ओर छिटक गई लौ...लौ की लपलपाहट ने बिन्नी के सुदीप्त चेहरे को और सोना-सोना बना दिया। राजीव बिन्नी के सामने खड़ा था। दूर कहीं खोया-खोया। हाथों में आरती का थाल लिए बिन्नी सामने खड़ी थी...राजीव की आरती उतारती हुई...आँखें राजीव की आँखों में आँखें डाल रही थीं और राजीव की आँखें...सूनी आँखें छत को निहार रही थीं, बिन्नी से आँखें मिलते ही राजीव की जो आँखें वाचाल हो उठतीं, वो आज मूक थीं...बिना साज-सिंगारवाली बिन्नी को देखकर जो राजीव बेकरार हो उठता था, आज सोलहों सिंगार में उसी बिन्नी को देखकर भी राजीव के दिल को करार नहीं मिल रहा था...

राजीव सीधे जेल गेट से ही घर आया था...ठीक चार बजे ही वह पहुँच चुका था जेल के पास...थोड़ी दूर पर कुछ देर के लिए ठिठका था राजीव...इधर-उधर नजरें दौड़ाकर माहौल का जायजा लिया था...धीरे-धीरे बढ़ता हुआ आया था जेल गेट के पास...उसे वहाँ रुके कुछ ही देर हुई थी कि जेल के एक सिपाही ने पास आकर उसके हाथ में एक पुर्जा थमा दिया...
‘‘जाइए...बाहर जाकर पढ़ लीजिएगा...सब मालूम हो जाएगा...’’ सिपाही ने कहा और आगे बढ़ गया...लगा था, हाथों में किसी ने एक बिच्छू पकड़ा दिया हो...कागज के टुकड़े का हर कोन उसकी हथेली को डंक मार रहा था...पसीना उतर आया था पूरे शरीर में...हथेलियाँ पसीजने लगी थीं...धड़कनें बढ़ गईं थीं...जाने किसने क्या लिखकर भेजा है यह कागज का पुर्जा...किसी अनहोनी की आशंका से राजीव का कलेजा थरथराने लगा।

...पाँवों में भी थरथराहट उतर आई...काँपते पैरों को सँभालता राजीव किसी तरह जेल का रास्ता पार कर मेन रोड तक आया और अपनी कार में बैठ गया...‘‘घर चलो...’’ उसने ड्राइवर को हिदायत दी...कार उसके बँगले की तरफ दौड़ पड़ी...
रास्ते में कार की बाड़ी-लाइट जलाकर राजीव ने जेब में रखे मुड़े-तुड़े उस कागज के पुर्जे को बाहर निकाला....
पढ़ते-पढ़ते राजीव काँपने लगा...लगा, कागज का वह टुकड़ा उसकी उँगलियों के बीच से अब गिरा, तब गिरा...माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आईं। एक लम्बी साँस लेकर कागज को पुनः जेब में रखकर राजीव ने रूमाल से चेहरा पोंछा। दिल जोरों से धड़क रहा था...

यूँ तो पिछले कई महीनों से राजीव की धड़कनें बढ़ी हुई थीं। इलाके में कई हार्डकोक के भट्ठे, फैक्ट्री चलानेवाले प्रसिद्ध उद्योगपति के रूप में स्थापित हो चुका राजीव दलालों, छुटभैयों, रंगदारों...नेताओं की माँग से परेशान रहने लगा था। कभी रैली के नाम पर, कभी रैला के नाम पर, कभी युनियन के नाम पर आये दिन मंगन प्रसाद लोग फैक्ट्री के गेट पर कटोरा लिए खड़े रहते...कुछ के पास कट्टे भी होते थे। एक दिन तो जबर्दस्ती कार्यालय में घुस आए एक रंगदार ने कट्टा दिखाते हुए धमकाया भी था। उस दिन भी जोरों से धड़का था राजीव का दिल और आज भी धड़क रहा था।
तब तक घर आ गया था। कार से उतरकर राजीव सीधे अन्दर आकर पत्नी की आरती के थाल के सामने गुमसुम खड़ा हो गया था।

तीज के पकवानों से भरी थाली राजीव के सामने रखी हुई थी। सामने ही सोलहों श्रृंगार किए बैठी थी पत्नी बिन्नी। चेहरा तो वैसे ही कुन्दन-सा दमकता रहता है। सोने-जैसे रंग पर सोना जैसी धातुवाली कठोरता कहीं भी नहीं...गुलाब की मुलायम पँखुड़ियों की कोमलता। जैसे किसी स्वर्ण-खण्ड पर तह रख दी हों...कोमलता होगी उस पुष्प-आवरण में...कुन्दन का रंग और फूल की कोमलता...देखो तो तन सोना और छुओ तो मन गुलाब...ऐसा विचित्र रंग-सम्मिश्रण उतर आया था पत्नी के चेहरे पर। रूप है या कोई जादू-टोना...रंग है या किसी इन्द्रजाल का सम्मोहन...गुलाबी-लाल चेहरा-चेहरे पर बार-बार झुक आती काली लटें और उन्हीं के बीच लाल टहकार सिन्दूर से भरी माँग—गुलाब के सौ-सौ फूल एक बार ही निकल आए हों जैसे। सँजोकर रखे गए एक से एक मोती हीरे-जड़े आभूषण अंग-अंग पर रंग बिखेर रहे थे। हथेलियाँ मेहँदी के राजस्थानी नमूनों से रह-रहकर बोल उठती थीं, गूँगे को जैसे अचानक मिल गई हो वाणी...पाँवों पर जवाकुसुम की लाली हिलोरें उठा रही थी। हरी साड़ी तो बिन्नी के करीने से गढ़े तराशे शरीर को घेरकर धन्य हो रही थी...बावरी हो रही थी तीज की साड़ी...पायो जी मैंने रामरतन धन पायो...

राजीव ने हाथ थाली की ओर बढ़ाया...आँखें पत्नी के चेहरे पर पड़ी रहीं...गड़ी रहीं...कभी चेहरे पर...कभी बालों पर...राजीव की आँखें चोरी-चोरी कभी पत्नी के चेहरे से थोड़ी-सी हल्दी चुरातीं तो कभी आखों से काजल...कभी ओठों से एक पाँखुरी खींचती...कभी माँग के सिन्दूर से थोड़ी-सी लाली...आखें आँखों-आँखों चोरी कर रही थीं....आँज रही थी अपनी आँखें उस हल्दी से, उस काजल से...उस सिन्दुरी लालिमा से...आँखों में पैठ गए ‘‘हैलो...कल शाम को चार बजे जेल गेट पर मिलो...’’ से उपजी दहशत को बिन्नी के काजल। हल्दी और लालिमा से ढँकने का प्रयास कर रही थीं राजीव की आँखें...इन रंगों पर पाला तो नहीं पड़ जाएगा।...इन्हें ढँक तो नहीं लेगी एक सफेद चादर....
‘‘नहीं...नहीं...’’’ अचानक बोल पड़ा राजीव।

‘‘क्या नहीं...नहीं लगा रखा है....इतने प्यार से मैंने ये पकवान अपने हाथों से बनाया है और तुम नहीं...नहीं किए जा रहे हो....लो खाओ...’’ और बिन्नी ने एक टुकड़ा अपनी कोमल तीन उँगलियों में फँसाकर राजीव की ओर बढ़ाया.....
राजीव की आँखें स्थिर थीं...मुँह खुला...पहला निवाला लिया। ध्यान कई ओर होने के चलते दाँत हल्के गड़ गए बिन्नी की उँगलियों पर। पति की प्यार-भरी मीठी दाँत-कटाई समझ भीतर तक लजा गई बिन्नी...‘‘यह तो तुम्हारी पुरानी आदत है...याद है उस रात भी पहली बार काटा था हमारी उँगलियों को...’’ बिन्नी यादों में पीछे फिसलती गई...उस रात तो सचमुच जानबूझकर काटा था...लेकिन आज ? आज तो अचानक अनजाने कट गई थीं बिन्नी की उँगलियाँ असावधानी के कारण...मन कहीं भटका था इसलिए...

...और आज रात जेल गेट से तीज की सिन्दूर-भरी माँग के बीच भटके मन के तन से अनजाने ही कट गई थीं बिन्नी की उँगलियाँ...कितना अन्तर होता है...जानकर काटने और अनजाने कट जाने में...एक में प्यार की सिहरन और दूसरे में भय की कँपकँपी...किन्तु बिन्नी तो उस रातवाली चुभन तक फिसल गई...
सुहागरात की सजी सेज पर फूल ही फूल थे। फूलों की पँखुड़ियाँ बिछी थीं। लड़ियाँ चारों ओर झूल रही थीं।....फूलों के बीच घुटनों में मुखड़ा छिपाए बैठा था यौवन-भरा रंग, उमंग में डूबा एक पूर्ण खिला फूल....केवल आँखों के कपाट बन्द थे...अन्तिम पाँखुरी चटखकर खुलने को बेताब थी। यह अन्तिम पाँखुरी स्वयं नहीं चटखती, अपने आप नहीं खुलती...या तो खुलती है किसी के मादक स्पर्श से...चाँद की किरणों का एक स्पर्श पाकर खिल जाती है कुमुदिनी....बिना चाँद को देखे कभी नहीं खिलती-खिलखिलाती है बावरी...कुमुदिनी जल ही बसे...चन्दा बसे अकास। जो जाही को भावता सो ताही के पास। दूरियाँ हैं तो क्या हुआ...मन से पास होना चाहिए...किरणों का एक स्पर्श ही तो चाहती है पगली। कुमुदिनी की अन्तिम बन्द पाँखुरी ने खोलकर फैला दी थी अपनी बाँहें...
राजीव ने बढ़कर बाँहों में लेना चाहा....

‘‘अरे, दरवाजे की सिटकिनी तो लगाइए...’
‘‘क्यों लगाऊँ...?’’
‘‘घर में कितने लोग भरे हैं...किसी दीदी ने चुहुलबाजी में ही दरवाजा खोल दिया तो....सारी चोरी पकड़ी जाएगी...’’
‘‘कैसी चोरी...किसकी चोरी...अपना घर...अपना आँगन...अपनी रात...अपनी सेज और...और अपनी पत्नी...अपनी चीज पर हाथ लगाना चोरी नहीं कहलाती...’’
‘‘हटो...जाओ...’’ बोलकर बिन्नी ने राजीव को एक ओर सरकाया और दबे पाँव जाकर सिटकिनी लगाई।
बाँहों में भर लिया राजीव ने..गोद में उठाकर पलंग तक ले आया...हल्के रख दिया पलंग पर...
‘‘इतनी सुन्दर पत्नी मुझे मिलेगी...इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी...इधर देखो...यह फूल कितना सुन्दर है...’’
‘‘कौन-सा...?’’ बिन्नी ने आँखें नचाईं—‘‘यह....’’ कहकर राजीव ने टाँक दिया एक मीठा चुम्बन बिन्नी के गाल पर।
‘‘हटो...बहुत बदमाश हो...’’

‘‘अभी बदमाशी तो शुरू भी नहीं की और खिताब पहले ही मिल गया...तब तो बताना ही पड़ेगा कि मैं कितना बदमाश हूँ...’’ राजीव बिन्नी को बाँहों में समेटे लुढ़क गया पलंग पर...बिन्नी ने राजीव के सीने में छुपा लिया अपना चेहरा...
‘‘तुम्हारी सुन्दरता देखकर कभी-कभी डर भी लगने लगता है। चाँद के बहुत चितेरे होते हैं...बचाकर रखना पड़ेगा...बहुत सम्हालकर...’’ इस बार चुम्बन गालों पर नहीं, ओठों पर पड़ा।
‘‘हाय राम...जूठा कर दिया...’’
‘‘लाओ जूठे को साफ कर दूँ....’’ कहकर राजीव ने अपने ओठ बढ़ाए।
बीच में अपनी हथेली लाते हुए बिन्नी ने कहा—‘‘इसे कुछ देर तक यूँ ही जूठा रहने दो...यह तो वह जूठा है जो जन्म-जन्म तक ओठों पर चढ़ा रहे, तभी तो अच्छा लगता है। राम करे कभी न उतरे यह जूठन...इसी एक जूठन के लिए तो हम लोग राह ताकते रहते हैं इस घड़ी की...जिन्दगी-भर लगी रहे ओठों की यह जूठन...यह जूठन जिसके सामने छप्पन भोग भी बेस्वाद हैं।’’

बिन्नी ने पास ही तिपाई पर रखी थाली दोनों के बीच में रखी। पकवान का एक टुकड़ा तोड़ा और आँखें नीची किए ही हाथ राजीव के मुँह तक बढ़ाया...
‘‘पहले तुम खाओ...’’ राजीव ने थाली से एक टुकड़ा लेकर पत्नी की ओर बढाया।
‘‘उ...हूँ...पहले तुम...’’
‘‘ना..पहले तुम...’’
‘‘देखो...मेरी बात मानो...पहले तुम...’’ बिन्नी खिलखिलाई—‘‘इस पहले तुम पहले तुम में ही गाड़ी छूटा करती है...’’
‘‘अरे...हाँ...अच्छी बात याद दिलाई....ऐसे ही गाड़ी छूटती है...जाओ...दोनों एक साथ ही एक-दूसरे के हाथ से पहले निवाला खाएँ...’’

तोते ने मैना के हाथ से और मैना ने तोते के हाथ से मिर्च खा लिया था...अब कहाँ जाएगी मैना...और कहाँ जाएगा तोता...चिड़िया बहेलिये के जाल में थी और बहेलिया चिड़िया के जाल में...बिन्नी के हाथ से अन्तिम कौर लेते वक्त राजीव ने जानबूझकर उसकी उँगलियाँ हल्के से काट ली थीं। बिन्नी ने उँगलियाँ नहीं हटाईं। राजीव के दाँत बिन्नी की उँगली पर और आँखें लालिमा-भरे गोरे चेहरे पर...राम करे इस चाँद पर कभी ग्रहण न लगे।
‘‘आह ! काट लिया...बदमाश कहीं के...’’ भीतर तक खिल गई थी बिन्नी।
उस दिन राजीव ने जानबूझकर पत्नी की उँगलियाँ काटी थीं...और आज अनजाने ही कट गई थीं उँगलियाँ...

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