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उसके हिस्से की धूप

मृदुला गर्ग

प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :130
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3796
आईएसबीएन :8121403863

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यह एक प्रेम कहानी तो है, पर प्रेम इस कहानी की समस्या नहीं है...

Us Ke Hisse Ki dhop

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

व्यक्ति की आत्मोपलब्धि उसकी अभिव्यक्ति में है और यह अभिव्यक्ति कर्म के द्वारा होती है। प्रेम कर्म के विस्तृत क्षेत्र का अंश मात्र है। हर कर्म नये सृजन का सुख देता है, अनुभवों की पूँजी देता है। इसी से व्यक्ति समृद्ध होता है।
यह एक प्रेम कहानी तो है, पर प्रेम इस कहानी की समस्या नहीं है, न प्रेम पात्रों के जीवन में समस्या पैदा करता है। जो स्वतंत्रता स्त्रियों को चाहिए, वह मृदुला के अनुसार सभी स्त्री-पुरुष को चाहिए, मानव मात्र को चाहिए। जैनेन्द्र का ‘पति’ आदर्शवादी है, पर इस उपन्यास में जितेन एक आधुनिक आदर्श पति है।
कर्म करने का सुख, विसंगतियों में जिये चले जाने की इच्छा ही व्यक्तित्व को विकसित करती है। बच्चे को जन्म दो या कहानी लिखो, सभी सृजन व्यक्तित्व के पूरक हैं। प्रश्न उन स्थलों पर संघर्ष करने का नहीं है जहां कुछ अवांछित है, बल्कि ऐसे स्थलों की खोज का है जहां साथ रहने वाले व्यक्ति संघर्ष की स्थिति में आयें ही नहीं। आधुनिक अर्थों में स्वतंत्रता की यही परिभाषा है।
यह उपन्यास हिंदी साहित्य में आधुनिकता के नये मानदंड ले कर आया है। आधुनिकता को घिसे-पिटे अर्थों के सीखचों से बाहर घसीट लाना ही मृदुला गर्ग की विशिष्टता है।
प्रस्तुत उपन्यास ‘उसके हिस्से की धूप’ सर्वप्रथम सन् 1975 में प्रकाशित हुआ था और उसी वर्ष इसे मध्य प्रदेश साहित्य परिषद् से महाराज वीरसिंह पुरुस्कार प्राप्त हुआ। यह इस उपन्यास की अत्यंत लोकप्रियता का प्रमाण है कि अब तक इसके सजिल्द और पेपरबैक में दर्जन-भर संस्करण छप चुके हैं। अब प्रस्तुत है यह बेहद रोचक उपन्यास नयी साज-सज्जा में।

 

1

 

आज अचानक जितेन से फिर भेंट हो गयी। चार साल बाद। वह भी नैनीताल में। वह ह्वीलर की दुकान पर खड़ी किताबें देख रही थी कि सहसा एक परिचित स्वर ने उसे चौंका दिया। कोई हलकी-फुलकी किताब दीजिए, रास्ते में पढ़ने के लिए, वह कह रहा था। बिलकुल जितेन की तरह, उसने सोचा ही था कि ‘अर्न स्टानले गार्डनर’ की किताब हाथ में थामे जितेन उसके सामने था। चार वर्ष का अंतराल इतना लंबा नहीं होता कि लोगों में कोई ख़ास बदलाव आये। जितेन में भी नहीं आया था। उसका सब कुछ वैसा का वैसा; लंबा-पतला शरीर, कुछ झुके-झुके से कंधे, कनपटियों के पास सफ़ेद पड़ रहे छोटे-छोटे बाल और सांवला गंभीर चेहरा, जो मुस्कराता बहुत कम था। इसका यह मतलब नहीं है कि वह हर वक़्त गंभीर बना रहता था, सिर्फ़ यह कि जब गंभीर नहीं रहना चाहता था तो मुस्करा कर नहीं रह जाता था, खुल कर हंस देता था; और जब हंसना नहीं चाहता था तो औपचारिक मुस्कराहट ओढ़ने की आवश्यकता नहीं समझता था, गंभीर बना रहता था। अभी भी वह नहीं मुस्कराया और हंसने का कोई कारण था नहीं, लिहाजा गंभीर बना रहा। वह ख़ुद मुस्करा रही थी, एक असमंजस भरी मुस्कराहट जो ख़ुशी से नहीं, घबराहट और बेचैनी से आप से आप चेहरे पर फैल जाती है। जैसी उम्मीद थी, इसी घबराहट के मारे बोली भी वही पहले। यही उसका तरीका है, कुछ न कुछ बोलकर अपनी बेचैनी कम करने की कोशिश करना और यूं उसे और बढ़ा बैठना। ऐसा नहीं है कि वह इस ख़तरे से वाकिफ़ नहीं है, पर न जाने क्यों बेचैनी में उससे चुप नहीं रहा जाता।
‘‘अरे तुम ! नैनीताल में क्या कर रहे हो ?’’ उसने ऐसे कहा जैसे नैनीताल आने से जितेन को कोई क़ानूनी मनाही हो।
‘‘एक क़ॉन्फ़्रेंस में आया हूं,’’ जितेन ने उत्तर दिया और बदले में यह नहीं पूछा कि वह वहां कैसे आयी है।
वह उसी असमंजस के साथ एक बार और मुस्करायी और बोली, ‘‘कब तक हो यहाँ ?’’
‘‘कल शाम तक।’’
‘‘कहां ठहरे हो ?’’
‘‘स्विस होटल में।’’
उसे ठीक-ठीक नहीं सूझा कि आगे क्या कहे, इसलिए ज़रा देर के लिए चुप हो गयी। जितेन ने कुछ नहीं कहा। एक नज़र उसे सिर से पैर तक देख कर प्रतीक्षा करता रहा कि वह और कुछ कहे। आग्रह के साथ उसकी निगाह उसके चेहरे पर टिकी रही; आग्रह के साथ पर अधीरता के नहीं। इस नज़र ने उसकी बेचैनी और बढ़ा दी और वह बोल पड़ी, ‘‘मैं सामने वाले कैफ़े में एक कप कॉफ़ी पीने की सोच रही थी, चलोगे ?’’
‘‘अब तो खाने का समय हो रहा है,’’ जितेन ने कलाई पर बंधी घड़ी पर नज़र डाल कर कहा, ‘‘पास एक चाईनीज़ रेस्तरां है, वहां खाना खा लें ?’’
मनीषा को लगा, जितेन को शायद याद है कि उसे भी चाईनीज़ खाने का उतना ही शौक़ है जितना ख़ुद जितेन को। वह फ़ौरन मान गयी और दोनों ‘कोपाकबाना’ में जा बैठे।
बैठते ही, जितेन ने एक के बाद एक, ढेर सारी चीज़ों का ऑर्डर दे डाला—चाईनीज़ चाओमीन, अमरीकन चापसुई, चिकन सिली, स्प्रिंग-रोल्स और जासमिन-टी।
‘‘इतना कौन खाएगा ?’’
‘‘मैं,’’ जितेन ने कहा, ‘‘और तुम। तुम्हें ठीक से खाना चाहिए। कितनी दुबली हो रही हो। ख़ाली जासमिन-टी पीने से कैसे चलेगा ?’’
सुन कर उसकी आँखों में आंसू आ गए, फिर अपनी कमज़ोरी पर गुस्सा, हलका-सा; बस इतना कि आंसू निकलने से थम गए और वह मुस्करा दी। जितेन को अभी तक याद है, जासमिन-टी उसे इतनी भली लगती है कि चीनी रेस्टोरेंट में बैठकर खाती कम है, चाय अधिक पीती है। चार चाल पहले जितेन ने सिर्फ़ यह लक्ष्य नहीं किया था, उसे अब तब याद रखा हुआ है। उसने पलकें उठा कर जितेन को एक नज़र देखा और अब होठों के साथ उसकी आंखें भी मुस्करा दीं और देर तक मुस्कराती रहीं। तभी बैरा आ कर बहुत-कुछ उसकी प्लेट में डालने लगा।
‘‘न, न,’’ वह व्यस्त हो उठी, ‘‘मेज़ पर रख दो, हम ख़ुद ले लेंगे।’’
‘‘और पहले जासमिन-टी ले आओ,’’ जितेन ने कहा और खिलखिला कर हंस पड़ा। मनीषा भी हंस दी, हालांकि उसे इसमें हंसने का कारण नज़र नहीं आया था। पर जितेन के साथ यही होता है। हंसने के बाद आदमी सोचता है, वह हंसा क्यों ? कई बार उसे खीझ भी आती थी। हंसे क्यों ? वह पूछती थी। ऐसे ही, मनाही है क्या, वह कहता था और फिर खिलखिलाकर हंस पड़ता था। तब अपनी मन-स्थिति के अनुसार वह या हंस देती थी या और खीझ कर कह उठती थी, ‘अजीब आदमी हो तुम, बिना कारण हंसते हो और कारण होने पर हंसते नहीं।’ आज वह हंस दी।
फिर चाय आ गयी। वह केतली उठा कर मनोयोग से प्याले में उंड़ेलने लगी। यह काम करने के लिए उसे अपना सिर कुछ झुका लेना पड़ा, पर वह साफ अनुभव कर रही थी कि जितेन की अपलक दृष्टि उस पर टिकी हुई है; और अब उसका चेहरा कुछ देर पहले की हंसी की याद्दाश्त तक ज़ाहिर नहीं कर रहा। वह ज़रूरत से ज़्यादा देर तक अपने प्याले में चम्मच घुमाती रही। कुछ इसलिए कि, सिर उठा कर उससे नज़रें मिलाने में उसे परेशानी महसूस हो रही थी और कुछ इसलिए कि ऐसा करने से हो सकता था जितेन उसे देखना बंद कर देता। वह नहीं चाहती थी ऐसा हो। फिर वक़्त खिंचते-खिंचते इतना खिंच गया कि उसे बेचैनी महसूस होने लगी।
‘कहाँ रह रहे हो आजकल ?’’ अनायास वह चुप्पी तोड़ बैठी।
‘‘वहीं, बंगलूर।’’
‘‘ओह वहीं,’’ उसने कहा और इंतज़ार करने लगी कि अब वह भी उससे पूछेगा कि वह कहाँ पर है। पर उसने नहीं पूछा, बस प्लेटें उठा कर उसके सामने रख दीं और कहा, ‘‘क्या लोगी ?’’
फिर वे दोनों चुपचाप खाना खाते रहे, चाय पीते रहे, बाहर का नज़ारा देखते रहे और बीच-बीच में एक-दूसरे को। वह देखती और उसे देखकर मुस्करा देती। वह अपने देखने को उसे देखता और मुस्कराता नहीं, और न देखना बंद करता, बस उसका देखना और गहरा जाता। आंखों में जैसे दृष्टिमयता की स्पष्ट लहरें दौड़ जातीं। बाहर धूप छंटने लगी थी। क्षितिज तक उठती हरी घास से ढकी पहाड़ियाँ हवा में हल्के-हल्के कांपने लगी थीं। कोई ख़ास बात नहीं थी, बस शाम हो रही थी और जो कांप रही थी वह वास्तव में सामने ताल के तरंगित पानी में पड़ रही पहाड़ियों की प्रतिच्छाया थी।
‘‘क्या बज गया ?’’ मनीषा ने पूछा। हालांकि, उसकी अपनी कलाई पर घड़ी बंधी थी।
‘‘तीन,’’ जितेन ने कहा।
वह आगे कुछ न कह कर चुपचाप बैठी रही। ज़ाहिर था कि यह प्रश्न केवल जितेन की आवाज़ सुनने के लिए किया था। यूं उसकी चुप्पी भी उसे भली लग रही थी, पर बीच-बीच में दो-चार शब्द सुन लेने से उस चुप्पी में उसका हिस्सा हो जाता था और चुप्पी के अस्तित्व में अंतर भी नहीं पड़ता था।
हवा का ज़ोर बढ़ चला था। आसमान के नीचे धुंध लहराने लगी थी। उसके पीछे हरी पहाड़ियां, रस्सियों की तरह झूलने लगी थीं। उसे लगा, जितेन का हाथ पकड़कर वह अभी बाहर दौड़ जाये तो एक-एक सीढ़ी पर एक-एक क़दम रखती आसमान तक पहुंच सकती है। लगता था दिन का उजाला तय नहीं कर पा रहा कि आगे बढ़ते अंधेरे के लिए रास्ता छोड़े या नहीं। इस कशमश में वह धीरे-धीरे और ठहर-ठहर कर पीछे हट रहा था। अंधेरा भी फूंक-फूंक कर क़दम आगे बढ़ा रहा था। अभी तक सबसे ऊपर वाली सीढ़ी तक ही पहुंच पाया था। नीचे सिर्फ़ उसकी छाया थी जो सीढ़ियों की आपसी दूरी घटा रही थी। यूं भी पहाड़ों पर समय-असमय कभी भी झुटपुटा घिर आता है, कभी-कभी भरी दुपहरी में और यह भ्रम पैदा कर देता है कि शाम हो रही है। फिर यहां तो पत्थर और पानी का ऐसा अद्भुत समन्वय है कि बोध नहीं रहता, क्या यथार्थ है और क्या प्रतिच्छाया।
एक महीने से वह नैनीताल रह रही है। ढलते दिवस पर छा रही धुंध उसने पहले भी देखी है। पर पहाड़ियों का सामीप्य, आज पहली बार देखा है और पहली बार ही देखी है उनकी हरियाली, उनकी ऊँचाई, उनका यह अलौकिक कंपन। आज तक तो वह उन्हें महज़ एक के ऊपर एक बने खेत और जंगल कहकर टालती आयी है। आज ही उसने देखा है धूप में वे चमकी हैं, हवा में वे कांपी हैं और अंधेरे में वे मिल गयी हैं। हो सकता है ये जितेन की चुप्पी के कारण हो या महज़ उसके सामीप्य के कारण। आज जीवन में पहली बार उसने महसूस किया कि दो इंसानों की चुप्पी, उनके सामीप्य का कारण बन सकती है और उनका सामीप्य उनके चारों ओर फैली निर्जीव वस्तुओं तक में संवेदना का वह रंग घोल सकता है जो उन्हें स्मृति का विशद अंग बना डालता है और जीवन है ही क्या ? स्मृतियों का अंबार ही तो। इतना सब मनीषा सोच रही थी, कह नहीं रही थी और न यह जानने का प्रयत्न कर रही थी कि जितेन भी ऐसा सोच रहा है या नहीं। वह पूरे विश्वास के साथ अनुभव कर रही थी कि जितेन जो भी सोच रहा है, उसमें मनीषा कहीं है ज़रूर।
हो सकता है, तार्किक दृष्टि से देखती तो मनीषा समझ जाती कि वह चुप्पी और सामीप्य उसने जीवन में पहली बार नहीं महसूस किया है। पर उसका कोई विशेष महत्त्व नहीं होता। जो सत्य था, सिर्फ़ यह कि आज, इस क्षण, वह फिर एक बार वह महसूस कर रही थी कि एक अन्य व्यक्ति के सामीप्य ने, जो चुप्पी के कारण हो या चुप्पी का कारण, आसपास का पूरा माहौल आत्मीयता से सराबोर कर दिया है। सहसा उसके लिए यह जानना अत्यंत आवश्यक हो गया है कि जितेन नैनीताल अकेला आया है या किसी के साथ।
‘‘यहां अकेले आये हो ?’’ उसने पूछा।
‘‘हूँ ?’’ जितेन ने चौंक कर कहा।
अपना प्रश्न स्वयं सुन कर वह समझ गयी थी कि यह पूछना बेकार है। यहां कॉन्फ़्रेंस में वह अकेला आया भी हो तो उसका यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि वह अकेला है। पर खोज की शुरूआत ऐसे ही करनी होगी।
‘‘यहां अकेले आये हो ?’’ उसने प्रश्न दोहरा दिया।
‘‘हूँ ?’’ जितेन शायद समझा नहीं।
क्षण भर के लिए वह झिझकी, फिर पूरा दम लगा कर प्रश्न फेंक गयी।
‘‘फिर शादी नहीं की ?’’
‘‘एकदम उत्तर न दे कर, वह क्षण भर उसके चेहरे को देखता रहा, फिर बोला, ‘‘नहीं।’’
उसने मानना चाहा कि जितेन ने जान-बूझ कर उत्तर देने में देर की है जिससे वह समझ जाये, वह हद से गुज़र गयी है, उसे यह प्रश्न पूछने का कोई अधिकार नहीं है। पर उसके देखने के ढंग ने उसे मानने नहीं दिया। हां, यह ज़रूर मान गयी कि प्रश्न पूछ कर उसने जितेन की दुखती रग को बींध दिया। पर क्या करती, पूछना आवश्यक हो गया था। सच कहा जाये तो उसका चोट खाना उसे भला लगा। उसकी आहत दृष्टि ने उसे मौक़ा दिया अपनी भावुकता को और बढ़ावा देने का। उसने कुछ देर प्रतीक्षा की कि शायद जितेन उससे पूछे, वह किसी के साथ आयी है या अकेली, पर जब उसने नहीं पूछा तो ख़ुद एक प्रश्न और पूछ बैठी, यद्यपि वह पहले पूछा जा चुका था।
‘‘कब तक हो यहाँ ?’’
‘‘कल शाम तक,’’ जितेन ने कहा और इस बार पूछ ही लिया, ‘‘और तुम ?’’
‘‘तीन-चार दिन और।’’
जितेन कुछ देर चुपचाप सोचता रहा, फिर अपनी दृष्टि उसके चेहरे पर टिका कर बोला, ‘‘फिर मिलोगी कल ?’’
‘‘कहां ?’’
‘‘यहां या स्विस, कहीं भी, जहां तुम्हें सहूलियत हो।’’
‘‘यहीं ठीक रहेगा।’’
‘‘ठीक है। लंच आवर में आ सकोगी डेढ़ बजे ?’’
‘‘डेढ़ बजे....?’’ वह सोचने लगी, संभव होगा या नहीं।
‘‘क्यों, नहीं आ सकोगी ? किसी और समय ?’’
‘‘पर तुम्हारी कॉन्फ़्रेंस ?’’
‘‘वह तो है। तुम आ सको तो समय इधर-उधर कर सकता हूं।’’
‘‘मैं सोच रही थी...’’
‘‘क्या ?’’
‘‘अगर अब कह दूं और न आ सकूं तो ?’’
‘‘कोई बात नहीं, मैं इंतज़ार करता रहूंगा और क्या ?’’
उसे लगा, जितेन कह रहा है, वह तब तक इंतज़ार करता रहेगा जब तक वह आ न जाये। जब वह इतना करने को तैयार है तो उसके लिए ‘न’ कहना संभव नहीं है।
‘‘ठीक है,’’ उसने कहा, ‘‘आ जाऊंगी।’’
सोचा, कुछ न कुछ इंतजाम कर लूंगी। फि पूछा, ‘‘कॉन्फ़्रेंस ख़त्म हो गयी क्या ?’’
‘‘नहीं तो,’’ जितेन ने कहा, ‘‘तीन बजे फिर शुरू है।’’
‘‘तीन ! तीन तो बज चुके हैं !’’
‘‘हां, बस चलते हैं।’’
‘‘पहले क्यों नहीं कहा ? तुम्हें इतनी देर करा दी।’’ वह एकदम उठ कर खड़ी हो गयी।
‘‘कोई देर नहीं हुई और अगर हुई है तो मैंने खुद की है, जान-बूझ कर, बैठो अभी, ‘‘जितेन ने कहा और हाथ बढ़ा दिया। उसका हाथ आप से आप आगे बढ़ा और उसके हाथ में थम गया। मंत्रमुग्ध-सी बैठ गयी।
‘‘कल आओगी न ज़रूर ?’’ उसने हलके-से उसके हाथ को दबा कर कहा। आश्चर्य के साथ, उसने महसूस किया कि आज, चार वर्ष बाद मिलने पर, जितेन के हाथ के हलके-से स्पर्श से उसका शरीर पैरों के तलुओं तक झनझना उठा है, पलकें बोझिल हो उठीं हैं, आवाज़ गले में रुंध गयी है। भरे गले को खंखार कर, किसी तरह ‘हां’ कहे, उससे पहले उसने हाथ छोड़ दिया। बैरा बिल ले आया था और वह उसे अदा करने में मशगूल हो गया था शायद जल्दी से जल्दी वहां से चल देने के इरादे से उसने बिल और टिप की रक़म ठीक-ठीक गिन कर प्लेट में छोड़ दी। क्षण भर बाद दोनों रेस्तरां के बाहर थे।
‘‘अच्छा,’’ जितेन ने सिर हिला कर कहा, ‘‘कल मिलेंगे,’’ और उसकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किये बग़ैर लंबे-लंबे डग भरता दायीं ओर मुड़ गया। थोड़ी देर तक वह वहां खड़ी उसे जाते हुए देखती रही, फिर अपने घर ‘वाई.डब्यू.सी.ए. टूरिस्ट हॉस्टल जाने के लिए मुड़ गयी।
एक डेढ़ मील का वह रास्ता उसने कई मनःस्थितियों से गुज़रते हुए पार किया। जब चलना शुरू किया तो वह अपने आप पर हंस रही थी, अपनी उस बचकानी भावुकता पर, जिसने उसे जितेन के स्पर्श मात्र से यूं बेचैन कर दिया था। भला बत्तीस-वर्ष की सूझ-बूझवाली अनुभवी औरत कहीं ऐसा महसूस करती है ? यह काम तो सोलह-सत्रह साल की कुआंरी लड़कियों का है। उसने अपने को डांट पिलायी और तेज़ चाल से आगे बढ़ने लगी। पर कुछ दूर जाने के बाद उसके क़दम अपने आप शिथिल पड़ गये। उसे जितेन की अपने ऊपर टिकी दृष्टि की गहराती लहरें याद आ गयी थीं और पूरी तरह उनका स्वाद लेने के लिए ज़रूरी हो गया था कि वह धीमे-धीमे चले। फिर यूं धीमे-धीमे चलते उसे यह भी याद आ गया कि जितेन ने फिर विवाह नहीं किया है। सोच कर, उसके होंठ बरबस गुदगुदा कर संतुष्ट मुस्कराहट में फैल गये और काफ़ी दूर तक वह मुस्कराती चली गयी। वह एक झटके के साथ, उसे अपनी मुस्कुराहट बेहद बेमानी वगने लगी। जितेन ने विवाह किया या नहीं, उससे उसे क्या प्रयोजन जो यूं आंखें अंधी किये सड़क पर बेमतलब मुस्कराती चली जा रही है; ठीक किसी मंदबुद्धि छोकरी की तरह।
होंठ भींच कर उसने अपने को दुत्कारा और घर की तरफ़ जाते अपने क़दम तेज़ कर लिये। क़दम फिर शिथिल नहीं हुए, पर कुछ देर बाद होंठों पर मुस्कराहट लौट आयी। उसे ख़याल आ गया था कि यह किस्सा यहीं खत्म नहीं हुआ है। कल जितेन से फिर मुलाक़ात होगी, वहीं, ‘कोपाकबाना’ में। यह ख़याल ‘जासमिन-टी की तरह मोहक था। उसकी भीनी-भीनी गंध उसके नथुनों से फिसल कर होंठों पर आ टपकी थी और वह बरबस मुस्कराने पर मजबूर हो गयी थी।
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‘टूरिस्ट हॉस्टल’ की इमारत पीछे छूट गयी। अपनी आदत के अनुसार मनीषा जब उससे आगे निकल गयी जब जाकर ख़याल आया कि मंज़िल पीछे ही रह गयी। कहीं जाने के लिए निकलने पर उसके साथ यही होता है। जब तक राह परिचित लगती है, वह बिना उसकी ओर देखे अंतःप्रज्ञा से आगे बढ़ती जाती है। जब आसपास की अपरिचितता बरबस ध्यान अपनी ओर खींच लेती है तब चौंककर रुक जाती है और क़दम लौटा लेती है। सड़कों के साथ यह करना जितना आसान है, ज़िंदगी के साथ उतना ही कठिन। आदमी जब तक लौटे-लौटे, मंज़िल बदल जाती है। वाह ! क्या दार्शनिक विचार है, वह ज़ोर से अपने ऊपर हंस दी और ‘टूरिस्ट हॉस्टल’ के भीतर घुस गयी।
अपने कमरे तक पहुंचते-पहुंचते उसकी हंसी ही नहीं, होंठों की मुस्कराहट तक ग़ायब हो चुकी थी। शरीर ढीला और सुस्त पड़ने लगा था। रोज़ दर रोज़ की उबाऊ अन्यमनस्कता उस पर यूं हावी होने लगी थी कि वहां पहुंचते ही वह एक लम्बी जम्हाई ले उठी। अख़बार हाथ में लिये, आरामकुर्सी पर पीठ टिकाये मधुकर अधलेटा-सा पड़ा था। उसके पैरों की आहट सुन हाथ का काग़ज़ नीचे रख बोला, ‘‘बहुत देर कर दी।’’
‘‘हां।’’
‘‘चार बज गये ?’’
‘‘हां।’’
‘‘कहां गयी थीं ?’’
‘‘लाइब्रेरी।’’
‘‘इतनी देर तक ?’’
‘‘हां।’’
‘‘मैं तीन बजे ही लौट आया था। प्रोफ़ेसर ह्यूम से बातचीत ख़त्म नहीं हुई थी, पर मैंने सोचा तुम अकेली बोर हो रही होगी।’’
वह चुप रही।
‘‘चाय तक नहीं पी,’’ मधुकर ने फिर कहा।
उसका मन हुआ, कह दे, पी लेते, मैंने तो पीली, पर कहा नहीं। बैरे को बुलाने के लिए घंटी बजा कर बाथरूम में घुस गयी। हाथ-मुंह धो कर लौटी तो बैरा चाय लेकर आ गया। उसने चुपचाप केतली उठा कर चाय प्यालों में डाल दी। फिर प्याला उठाकर मुंह से लगाया तो ‘जासमिन-टी’ के बाद उसका स्वाद कड़वा-कड़वा-सा लगा।
‘‘बहुत तेज़ है,’’ उसने कहा।
‘‘ठीक तो है,’’ मधुकर ने कहा, ‘‘तुम चाय पीती हो या पानी ?’’ जासमिन-टी, उसने कहना चाहा, पर कहा नहीं, चुप रही।
‘‘कौन-कौन-सी किताबें ले आयीं ?’’ मधुकर ने पूछा।
‘‘कोई नहीं।’’
‘‘तो क्या दिन भर लाइब्रेरी में घूमती रहीं ?’’
‘‘नहीं, पढ़ती रही।’’
‘‘क्या बात है ?’’ मधुकर ने अपना हाथ उसके हाथ पर रखते हुए पूछा, ‘‘तबीयत ठीक नहीं है क्या ?’’
‘‘क्यों, तबीयत को क्या हुआ ?’’
‘‘इतनी चुपचाप जो हो।’’
वह एकदम खीझ उठी। ‘‘आदमी की तबीयत क्या तभी ठीक होती है जब वह लगातार बकर-बकर करता रहे ?’’ उसने कहा।
‘‘कमाल है,’’ मधुकर भी खीझ उठा, ‘‘तुमसे कोई अच्छी बात भी कही जाये तो जवाब ईंट-पत्थर से देने लगती हो।’’
‘‘इसमें ईंट-पत्थर कहां से टपक पड़े ?’’
‘‘कैसे बोलती हो तुम ?’’
‘‘ठीक तो बोल रही हूं,’’ उसने अपना स्वर एकदम सीधा करके कहा। वह इस वक़्त झगड़ने के मूड में बिलकुल नहीं थी, ‘‘बस थक गयी हूं।’’
‘‘यहां से लाइब्रेरी तक जाने में ही ?’’ मधुकर ने मुस्करा कर कहा। यानी उसने भी लड़ने का इरादा स्थगित कर दिया था।
उसने चैन की सांस ली और चाय के प्याले की चुस्कियां भरने लगी।
‘‘प्रोफ़ेसर ह्यूम से झक मारते-मारते थक मैं भी गया हूं,’’ मधुकर ने बदन तोड़ते हुए कहा, ‘‘सोच रहा था, चाय पीकर घूम आऊं तो दिमाग़ हलका हो जाये। मौसम बढ़िया है, चलोगी ?’’
‘‘मैं बहुत थकी हूं।’’
‘‘कुछ देर आराम कर लो, फिर चलेंगे।’’
‘‘इस वक़्त मन नहीं है।’’
‘‘तब चलो, घूमने न सही, बोटिंग चलते हैं। नाव मैं चलाऊंगा, तुम आराम से बैठी रहना।’’
‘‘तुम हो आओ।’’
‘‘छोड़ो फिर, मैं जा कर क्या करूंगा,’’ उसने नाराज़ होकर कहा।
‘‘नहीं, सच, तुम हो आओ न,’’ मनीषा ने स्वर को मीठा बना कर कहा।
‘‘नहीं, मुझे उतना शौक़ नहीं है। रहने देते हैं।’’
वह समझ रही थी कि मधुकर उसे जाने के लिए इसलिए मना रहा है क्योंकि वह सोचता है, उसे कमरे में अकेले छोड़कर घूमने जाना उसे नाग़वार गुज़रेगा। यह वैवाहिक जीवन भी अजीब चीज़ है, वह सोच रही थी। जो करो एक साथ। साथ बैठो, साथ बोलो, चाहे बोलने को कुछ हो या नहीं, साथ घूमो, साथ दोस्त बनाओ, चाहे एक का दोस्त दूसरे को कितना ही नामुराद क्यों न लगे, साथ खाओ और साथ सोओ, चाहे एक के खर्राटे दूसरे को सारी रात जगाये क्यों न रखें। वह थका है दिमाग़ से और कसरत चाहता है। वह थकी है जज़्बात से और अकेले रहना चाहती है, पर चूँकि वे विवाहित हैं, इसलिए ज़रूरी है कि जो भी वे करें; दोनों करें, चाहे उससे एक को कितनी कोफ़्त क्यों न हो। अगर वे दोस्त होते तो एक अपना ठौर छोड़ सड़क पर घूमने निकल जाता, दूसरा सोने अपने ठौर चला जाता। पर अब उन दोनों का ठौर एक है।
 
 

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