कविता संग्रह >> पहला उपदेश पहला उपदेशअनिल कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 376 पाठक हैं |
प्रस्तुत है श्रेष्ठ कविता संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पहला उपदेश अनिल कुमार सिंह का पहला कविता-संग्रह है। आज की कविता के
‘अतिकथन’ के माहौल में इस संग्रह को पढ़ना एक अलग तरह
का
अनुभव है। ये कविताएँ हमें एक अजीब-से तने हुए एकान्त की ओर ले जाती हैं।
मुखर अन्तर्वस्तु भी एक अन्तर्मुख संकोच और सौम्यता की ओर हमें खींचे लिए
जाती है। शब्दों, पंक्तियों और वाक्य-बन्धों के अन्तराल में छिपी हुई
प्रशान्ति एक विचित्र-सी ‘आइरनी’ का बोध कराती है, और
आज की
हिन्दी कविता में फैली हुई शब्द-बहुलता और आत्म-मुग्धता से इस कवि को बाहर
रखने में कामयाब हुई है। उदाहरण के लिए बुद्ध के जीवन-चरित और उपदेशों पर
लिखी हुई दोनों कविताएँ-पहला उपदेश और खोया-पाया-ली जा सकती हैं।
दोनों कविताएँ बुद्ध की जीवनचर्या और उपदेशों के महत्त्व को उलट-पुलट देती हैं। ‘जिसे छोड़कर गया था/उसे खोकर लौटता है सिद्धार्थ।’-इन दो पंक्तियों में ही बुद्ध के तप-संचय और बुद्धत्व को कवि अस्त-व्यस्त कर देता है। इसी तरह ‘अयोध्या-1991’ का ‘भगवान राम’ जैसी कविताएँ भी पूरी मिथकीय पवित्रता और आलोक-मंडल को खंडित करती हुई, उनके भीतर छिपे हुए ज़िन्दगी के निहायत सरल-सत्य का साक्षात्कार करती हैं। स्त्रियाँ अनिल कुमार सिंह की कविताओं में बार-बार आती हैं। ‘हमने जिस रूप में भी चाहा उन्हें/सुखद थीं वे हमारे लिए/सबसे पहले/...औरतें वे बाद में थीं/अपनी दुश्चिन्ताओं से लड़ती।’-ये पंक्तियाँ पुरुष-सत्ता की निरंकुश इच्छा के विरुद्ध एक मारक व्यंग्य की सृष्टि करती हैं। स्त्रियों से सम्बन्धित सारी कविताएँ स्त्री-मुक्ति की पवित्र आकांक्षाओं की अभिव्यक्तियाँ हैं। कविताओं में जहाँ चिढ़ या गुस्से या परिस्थितियों से नफ़रत का इज़हार है, वहाँ भी भाषिक अलंकृति या आवेश का कमतम उपयोग हुआ है।
दरअसल, पहला उपदेश की कविताएँ हमारी सामाजिक, सियासी और निजी ज़िन्दगी की आधुनिक खलबलाहटों का अन्तर्मुख भाष्य जैसी हैं, जिसमें भारतीय कविता की पूरी परंपरा नए ढंग से मुखरित होती है। भाषा की सादगी, मितव्ययिता और उसके तीर्यक संकेत हमें यह सोचने को मजबूर करते हैं कि इक्कीसवीं सदी की देहरी पर, शायद, एक बड़ा कवि ससंकोच खड़ा है।
दोनों कविताएँ बुद्ध की जीवनचर्या और उपदेशों के महत्त्व को उलट-पुलट देती हैं। ‘जिसे छोड़कर गया था/उसे खोकर लौटता है सिद्धार्थ।’-इन दो पंक्तियों में ही बुद्ध के तप-संचय और बुद्धत्व को कवि अस्त-व्यस्त कर देता है। इसी तरह ‘अयोध्या-1991’ का ‘भगवान राम’ जैसी कविताएँ भी पूरी मिथकीय पवित्रता और आलोक-मंडल को खंडित करती हुई, उनके भीतर छिपे हुए ज़िन्दगी के निहायत सरल-सत्य का साक्षात्कार करती हैं। स्त्रियाँ अनिल कुमार सिंह की कविताओं में बार-बार आती हैं। ‘हमने जिस रूप में भी चाहा उन्हें/सुखद थीं वे हमारे लिए/सबसे पहले/...औरतें वे बाद में थीं/अपनी दुश्चिन्ताओं से लड़ती।’-ये पंक्तियाँ पुरुष-सत्ता की निरंकुश इच्छा के विरुद्ध एक मारक व्यंग्य की सृष्टि करती हैं। स्त्रियों से सम्बन्धित सारी कविताएँ स्त्री-मुक्ति की पवित्र आकांक्षाओं की अभिव्यक्तियाँ हैं। कविताओं में जहाँ चिढ़ या गुस्से या परिस्थितियों से नफ़रत का इज़हार है, वहाँ भी भाषिक अलंकृति या आवेश का कमतम उपयोग हुआ है।
दरअसल, पहला उपदेश की कविताएँ हमारी सामाजिक, सियासी और निजी ज़िन्दगी की आधुनिक खलबलाहटों का अन्तर्मुख भाष्य जैसी हैं, जिसमें भारतीय कविता की पूरी परंपरा नए ढंग से मुखरित होती है। भाषा की सादगी, मितव्ययिता और उसके तीर्यक संकेत हमें यह सोचने को मजबूर करते हैं कि इक्कीसवीं सदी की देहरी पर, शायद, एक बड़ा कवि ससंकोच खड़ा है।
तिब्बत देश
आम भारतीय जुलूसों की तरह ही
गुज़र रहा था उनका हुजूम भी
‘तिब्बत देश हमारा है’ के नारे
लगाता हुआ हिन्दी में
वे तिब्बती थे यक़ीनन
लेकिन यह विरोध प्रदर्शन का
विदेशी तरीका था शायद
नारों ने भी बदल ली थी
अपनी बोली
एक भिखारी देश के नागरिक को
कैसे अनुभव करा सकते थे भला वे
बेघर होने का सन्ताप ?
अस्सी करोड़ आबादी के कान पर
जुओं की तरह रेंग रहे थे वे
पकड़कर फेंक दिए जाने की
नियति से बद्ध
दलाईलामा तुम्हारी लड़ाई का
यही हश्र होना था आखिर !
दर-बदर होने का दुख उन्हें भी है
जो गला रहे हैं अपना हाड़
तिब्बत की बर्फानी ऊँचाइयों पर
उन्हें दूसरी बोली नहीं आती
और इसीलिए उनकी आहों में
दम है तुमसे ज़्यादा
दलाईलामा !
वे मुहताज नहीं है अपनी लड़ाई के लिए
तुम्हारे या टुकड़े डालनेवाले किन्हीं
साम्राज्यवादी शुभचिन्तकों के
वे लड़ रहे हैं तिब्बत के लिए
तिब्बत में रहकर ही जो
धड़कता है उनकी पसलियों में
तुम्हारे जैसा ही
कोई क्या बताएगा उन्हें
बेघर होने का सन्ताप दलाईलामा !
गुज़र रहा था उनका हुजूम भी
‘तिब्बत देश हमारा है’ के नारे
लगाता हुआ हिन्दी में
वे तिब्बती थे यक़ीनन
लेकिन यह विरोध प्रदर्शन का
विदेशी तरीका था शायद
नारों ने भी बदल ली थी
अपनी बोली
एक भिखारी देश के नागरिक को
कैसे अनुभव करा सकते थे भला वे
बेघर होने का सन्ताप ?
अस्सी करोड़ आबादी के कान पर
जुओं की तरह रेंग रहे थे वे
पकड़कर फेंक दिए जाने की
नियति से बद्ध
दलाईलामा तुम्हारी लड़ाई का
यही हश्र होना था आखिर !
दर-बदर होने का दुख उन्हें भी है
जो गला रहे हैं अपना हाड़
तिब्बत की बर्फानी ऊँचाइयों पर
उन्हें दूसरी बोली नहीं आती
और इसीलिए उनकी आहों में
दम है तुमसे ज़्यादा
दलाईलामा !
वे मुहताज नहीं है अपनी लड़ाई के लिए
तुम्हारे या टुकड़े डालनेवाले किन्हीं
साम्राज्यवादी शुभचिन्तकों के
वे लड़ रहे हैं तिब्बत के लिए
तिब्बत में रहकर ही जो
धड़कता है उनकी पसलियों में
तुम्हारे जैसा ही
कोई क्या बताएगा उन्हें
बेघर होने का सन्ताप दलाईलामा !
महान कवि
देश की सबसे ऊँची जगह से बोलता है
हमारे समय का महान कवि।
चीजों के बारे में उसकी अपनी
धारणाएँ हैं, मसलन गाँव
उसे बहुत प्यारे लगते हैं जब
वह उनके बारे में सोचता है
गाँव के बारे में सोचते हुए स्वप्न में चलता है महान कवि।
वह तथ्यों को उनके
सुन्दरतम रूप में पेश कर सकता है
सुन्दरतम ढंग से पेश करने की लत के कारण
कभी-कभी तथ्यों को ही
निगल जाता है महान कवि
धूप में रेत की तरह चमकती हैं उसकी कविताएँ।
जिन्दगी के तमाम दाँव-पेंचों के बावजूद
कविताएँ लिखता है
हम अपने को अधम महसूस करने लगें
इतने अच्छे ढंग से
कविताएँ सुनाता है वह
हम पर अहसान करता है महान कवि।
पुल उसे बहुत प्यारे लगते हैं
सत्ता के गलियारों को
फलाँगने के लिए
जनता की छाती पर ‘ओवरब्रिज’ बनाता है महान कवि।
क्या आप ठीक-ठीक बता सकते हैं
कहाँ से सोचना शुरू करता है
हमारे समय का सबसे महान कवि !
हमारे समय का महान कवि।
चीजों के बारे में उसकी अपनी
धारणाएँ हैं, मसलन गाँव
उसे बहुत प्यारे लगते हैं जब
वह उनके बारे में सोचता है
गाँव के बारे में सोचते हुए स्वप्न में चलता है महान कवि।
वह तथ्यों को उनके
सुन्दरतम रूप में पेश कर सकता है
सुन्दरतम ढंग से पेश करने की लत के कारण
कभी-कभी तथ्यों को ही
निगल जाता है महान कवि
धूप में रेत की तरह चमकती हैं उसकी कविताएँ।
जिन्दगी के तमाम दाँव-पेंचों के बावजूद
कविताएँ लिखता है
हम अपने को अधम महसूस करने लगें
इतने अच्छे ढंग से
कविताएँ सुनाता है वह
हम पर अहसान करता है महान कवि।
पुल उसे बहुत प्यारे लगते हैं
सत्ता के गलियारों को
फलाँगने के लिए
जनता की छाती पर ‘ओवरब्रिज’ बनाता है महान कवि।
क्या आप ठीक-ठीक बता सकते हैं
कहाँ से सोचना शुरू करता है
हमारे समय का सबसे महान कवि !
एक हमउम्र दोस्त के प्रति
पतझर में नंगे हो गए पेड़ हो सकते हो
ठूँठ तो तुम नहीं ही हो मेरे दोस्त !
तुम्हें याद है न
गए शिशिर में मिले थे हम-तुम
और कितनी देर तक सोचते रहे थे
एक-दूसरे के बारे में
आज भी जब सर्द हवाएँ चलती हैं
तो उड़ती हुई धूल और पत्तों में
सबसे साफ़ और स्पष्ट
दिखाई देता है तुम्हारा ही चेहरा
किन्हीं फाड़ दिए गए पत्रों की स्मृतियों का
कौन सा दस्तावेज है तुम्हारे पास ?
‘इस शून्य तापमान में
कितनी गर्म और मुलायम हैं
तुम्हारी हथेलियाँ’-
ये कुछ ऐसी बातें हैं
जो मुझे आश्चर्यचकित करती हैं
गर्म हवाओं से स्वच्छन्द हो सकते हो
अन्धड़ तो तुम नहीं ही हो मेरे दोस्त !
हम एक बर्फीली नदी में यात्रा कर रहे हैं
अक्सर अपनी घुटती साँसों से
मैं तुम्हारे बारे में सोचता हूँ
कहाँ से लाते हो ऑक्सीजन
कहाँ से पाते हो इतनी ऊर्जा
एक मुँहफट किसान हो सकते हो
गँवार तो तुम नहीं ही हो मेरे दोस्त !
ठूँठ तो तुम नहीं ही हो मेरे दोस्त !
तुम्हें याद है न
गए शिशिर में मिले थे हम-तुम
और कितनी देर तक सोचते रहे थे
एक-दूसरे के बारे में
आज भी जब सर्द हवाएँ चलती हैं
तो उड़ती हुई धूल और पत्तों में
सबसे साफ़ और स्पष्ट
दिखाई देता है तुम्हारा ही चेहरा
किन्हीं फाड़ दिए गए पत्रों की स्मृतियों का
कौन सा दस्तावेज है तुम्हारे पास ?
‘इस शून्य तापमान में
कितनी गर्म और मुलायम हैं
तुम्हारी हथेलियाँ’-
ये कुछ ऐसी बातें हैं
जो मुझे आश्चर्यचकित करती हैं
गर्म हवाओं से स्वच्छन्द हो सकते हो
अन्धड़ तो तुम नहीं ही हो मेरे दोस्त !
हम एक बर्फीली नदी में यात्रा कर रहे हैं
अक्सर अपनी घुटती साँसों से
मैं तुम्हारे बारे में सोचता हूँ
कहाँ से लाते हो ऑक्सीजन
कहाँ से पाते हो इतनी ऊर्जा
एक मुँहफट किसान हो सकते हो
गँवार तो तुम नहीं ही हो मेरे दोस्त !
नहीं चाहिए
नहीं चाहिए मुझे तुम्हारे
सात्विक क्रोध की नपुंसकता का नुस्खा
मैं प्रेम करता हूँ और
एक स्त्री को घंटों चूमता रह सकता हूँ
मैं घृणा करता हूँ
और दुश्मन को काटकर फेंक देना चाहता हूँ
सपने हमने भी देखे थे
शिखरों को चूमने की महत्त्वाकांक्षा
हममें आई-इससे
हम इनकार नहीं करते
लेकिन हमने कभी नहीं सोचा
कि मानव-रक्त से अंकित
अमूर्त चित्राकृतियाँ हमारी अपनी
बैठकों में भी होंगी
तुम्हें करती होगी-
हुसैन की दाढ़ी, हमें
अब आकर्षित नहीं करती
यह एक देश है, जो लोकतन्त्र है
और इसी तथाकथित लोकतन्त्र के सहारे
प्रकट होता है तुम्हारा सात्विक क्रोध
मैं थूकता हूँ इस पर।
सात्विक क्रोध की नपुंसकता का नुस्खा
मैं प्रेम करता हूँ और
एक स्त्री को घंटों चूमता रह सकता हूँ
मैं घृणा करता हूँ
और दुश्मन को काटकर फेंक देना चाहता हूँ
सपने हमने भी देखे थे
शिखरों को चूमने की महत्त्वाकांक्षा
हममें आई-इससे
हम इनकार नहीं करते
लेकिन हमने कभी नहीं सोचा
कि मानव-रक्त से अंकित
अमूर्त चित्राकृतियाँ हमारी अपनी
बैठकों में भी होंगी
तुम्हें करती होगी-
हुसैन की दाढ़ी, हमें
अब आकर्षित नहीं करती
यह एक देश है, जो लोकतन्त्र है
और इसी तथाकथित लोकतन्त्र के सहारे
प्रकट होता है तुम्हारा सात्विक क्रोध
मैं थूकता हूँ इस पर।
हम कुछ ज़्यादा नहीं चाहते
हम कुछ ज़्यादा नहीं चाहते
सिवा इसके
कि हमें भी मनुष्य समझें आप
सड़ी हुई लाशों पर जश्न कुत्ते और गिद्ध मनाते हैं
ज़िन्दगी शतरंज का खेल नहीं
जिसमें हमारी शह देकर
जीत लेना चाहते हैं आप
हम कुछ भी ज़्यादा नहीं चाहते
सिवा इसके कि
कहीं न कहीं बचा रहे हमारा थोड़ा-सा स्वाभिमान
समय यूँ ही नहीं गुजरता
कभी-कभी तो गुज़ारना पड़ता है
सड़ाँध यूँ ही नहीं जाती
उसे समूल खत्म करना पड़ता है
फ़िलहाल हमारे पास कुछ भी नहीं है
सिवा आत्म-सम्मान और भाई चारे के।
सिवा इसके
कि हमें भी मनुष्य समझें आप
सड़ी हुई लाशों पर जश्न कुत्ते और गिद्ध मनाते हैं
ज़िन्दगी शतरंज का खेल नहीं
जिसमें हमारी शह देकर
जीत लेना चाहते हैं आप
हम कुछ भी ज़्यादा नहीं चाहते
सिवा इसके कि
कहीं न कहीं बचा रहे हमारा थोड़ा-सा स्वाभिमान
समय यूँ ही नहीं गुजरता
कभी-कभी तो गुज़ारना पड़ता है
सड़ाँध यूँ ही नहीं जाती
उसे समूल खत्म करना पड़ता है
फ़िलहाल हमारे पास कुछ भी नहीं है
सिवा आत्म-सम्मान और भाई चारे के।
माँ
माँ
एक भरी हुई थाली का नाम है
मैं सोचता था
जब मैं बहुत छोटा था
आज मैं बड़ा हो गया हूँ
और सोचता हूँ
कि मैं गलत सोचता था।
एक भरी हुई थाली का नाम है
मैं सोचता था
जब मैं बहुत छोटा था
आज मैं बड़ा हो गया हूँ
और सोचता हूँ
कि मैं गलत सोचता था।
गोबर पाथती बुढ़िया
इस गोबर पाथती बुढ़िया को
हमारे बारे में कुछ नहीं मालूम !
धीरे-धीरे उतरती है शाम
उसकी जलाई उपलियों का धुआँ
गाँव पर चँदोवे-सा तन जाता है।
ठीक यहीं से शुरू होता है
हमारा सुलगना,
गाँव के अधिकांश चूल्हों पर
पानी पड़ जाता है
ठीक उसी समय
हमसे अपरिचय के बावजूद
हमारे हर परिवर्तन को
हमसे ज्यादा समझती है बुढ़ियाँ
गोबर पाथती बुढ़िया
एक आईना है जिसमें हमारा
हर अक्स बहुत साफ नज़र आता है
तुम कहीं भी हो, किसी भी वक्त
बस में, ट्रेन में
या अन्तरिक्ष शटल कोलम्बिया में
तुम कहीं भी
किसी भी ठौर
देख सकते हो उसमें अपनी शक्ल
वह एक सुविधा है
जो हमें उपलब्ध है
जीवित आदमी की गर्माहट है वह
हमारे वर्तमान की
सबसे मूल्यवान धरोहर
उससे मिलो
वह जार्ज आर्वेल नहीं है
वह बताएगी
इक्कीसवीं सदी में जीने का
सबसे सुघड़ सलीका।
हमारे बारे में कुछ नहीं मालूम !
धीरे-धीरे उतरती है शाम
उसकी जलाई उपलियों का धुआँ
गाँव पर चँदोवे-सा तन जाता है।
ठीक यहीं से शुरू होता है
हमारा सुलगना,
गाँव के अधिकांश चूल्हों पर
पानी पड़ जाता है
ठीक उसी समय
हमसे अपरिचय के बावजूद
हमारे हर परिवर्तन को
हमसे ज्यादा समझती है बुढ़ियाँ
गोबर पाथती बुढ़िया
एक आईना है जिसमें हमारा
हर अक्स बहुत साफ नज़र आता है
तुम कहीं भी हो, किसी भी वक्त
बस में, ट्रेन में
या अन्तरिक्ष शटल कोलम्बिया में
तुम कहीं भी
किसी भी ठौर
देख सकते हो उसमें अपनी शक्ल
वह एक सुविधा है
जो हमें उपलब्ध है
जीवित आदमी की गर्माहट है वह
हमारे वर्तमान की
सबसे मूल्यवान धरोहर
उससे मिलो
वह जार्ज आर्वेल नहीं है
वह बताएगी
इक्कीसवीं सदी में जीने का
सबसे सुघड़ सलीका।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book