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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


जहाँ एक गृह में कली के आने से पूर्व ही उसे भगाने का षड्यन्त्र रचा जा रहा था, वहाँ एक दूसरा सीमित परिवार, विदा लेती कली को स्नेह-पूर्ण आग्रह से बारम्बार रोकता जा रहा था। न जाने कितनी बार कली का रिजर्वेशन कैन्सिल करा दिया गया, छोटा-सा बिस्तरबन्द दो बार बँधकर फिर शिथिल हो खुल गया।
एक सप्ताह के आमोद-प्रमोद एवं सर्वथा नवीन परिवेश में बीते-मीठे दिनों की स्मृति कली मुट्ठी में कसकर सँजोये लिये जा रही थी।
ट्रेन छूटने लगी, तब भी आण्टी अपना उदार प्रस्ताव दोहराती जा रही थीं, ''अभी भी मान जाओ कली, नौकरी क्या यहीं नहीं मिल सकती? कमिश्नर शर्मा हमेशा मेरी मुट्ठियों में बन्द रहते हैं। कहीं भी रखवा देंगे!''
उत्तर में कली फिकफिक कर हँसती रही थी। धीरे-धीरे तीनों स्नेही चेहरे ओझल हो गये। कल वह इस समय कलकत्ता पहुँच चुकी होगी। फिर वही मनहूस जिन्दगी! विदेशी अतिथियों की लोलुप दृष्टि के चाबुक की मार के नीचे, फ्रि उन्हें वही
श्मशानघाट, अवधूतों के अड्डों की सैर करा, धतूरा, चरस की दम जुटाने की अजीव ड्यूटी या विदेशी संगीत की धुन के साथ किसी टेक्सटाइल का निर्जीव विइण्पन बनकर निरर्थक मुसकान विखेर, दर्शकों को रिझाने की थकानप्रद क़वायद। घर लौटने पर अम्मा के विदेश से लौटे दम्भी पुत्र का नोटिस भी शायद उसे मिल जाये। पर कली घर पहुँची तो अम्मा परिवार सहित कहीं मिलने-मिलाने गयी थीं। अकेले बाबूजी बरामदे में आरामकुरसी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे। कली की आहट पाकर उन्होंने चौंककर देखा।

''अरे, आ गयीं आप मिस मजूमदार! प्रवीर की अम्मा तो आज सबको लेकर मिलने-मिलाने चली गयी हैं। आपने तो खाना भी नहीं खाया होगा?''
बाबूजी अखबार मेज पर रखकर उठ गये। उस लेहप्रवण गम्भीर व्यक्ति के समुख मुखरा कली सकुचाकर स्वयं ही सिकुड़ जाती थी। कई बार वह उन्हें टोकना चाहती थी, ''आप कहकर क्यों मुझे शर्मिन्दा करते हैं बाबूजी, मैं क्या आपकी बेटी नहीं बन सकती?''
पर वह अपनी विवशता समझती थी। उसके अभिशप्त जन्म का इतिहास जानने पर क्या कोई सहज ही में उसे बेटी बना सकता था! और फिर, यह पावन व्यक्तित्व, सरल, उदार बच्चे-सी निश्छल स्नेह-सिग्ध हँसी, निष्कपट आँखों से फिसलता चश्मा, और संयमी जीवन का जीवन्त विज्ञापन-सा चमकता तेजस्वी माथा! बूढ़ा होने पर उनका तेज़-तर्रार बड़ा बेटा भी शायद ऐसा ही लगेगा। किसी जीर्ण मन्दिर के प्रांगण में पहुँचते ही जैसे पैरों में पड़ी चमंड़े की चपल स्वयं ही चुभने लगती हैं-विना खोले देवमूर्ति के दर्शन की स्वयं चित्त ही अनुमति नहीं देता, ऐसे ही बाबूजी को देखते ही कली को लगता, उसकी अपावन उपस्थिति को उन्होंने किसी दैवी, घ्राण शक्ति से सूँघकर नथुने सिकोड़ लिये हैं। वह दूर ही खड़ी रह जाती, कुछ भी नहीं कह पाती, ''नहीं, बाबूजी, आप मेरी चिन्ता न करें। मैं अभी दफ्तर जा रही हूँ। वहीं कैण्टीन में कुछ खा-पी लूँगी।''
कमरा खोलकर वह भीतर गयी और बहुत दिनों से बन्द कमरे की घुटन के एक भभके ने उसे फिर बाहर धकेल दिया। लगता था बिजली के झटके से कोई अभागी छिपकली ही मरकर सड़ गयी थी। या शायद कोई मरा चूहा कहीं दबा रह गया था। नाक पर रूमाल रखकर वह बड़े दुस्साहस से आगे बढ़ी और लपककर खिड़की खोल दी। दुर्गन्ध के सूत्र को पकड़कर उसने बिजली के तार से अटकी गन्धाती निर्जीव छिपकली को लकड़ी से कोंचकर बाहर फेंका, और एक अगरबत्ती जलाकर दीवार पर खोंस दी।

उस सूने कमरे में उसे आण्टी के स्नेही परिवार की स्मृति ने क्षण-भर को विचलित किया, फिर उसने हाथ की घड़ी खोलकर मेज पर धर दी। ऐसे ही समय गँवाने से काम नहीं चलेगा। नहा-धोकर मनहूस सूरत को सँवारना होगा। अपने क्लान्त चेहरे
को दर्पण में देखकर वह मुसकरायी। आज जरा जमकर ही शृंगार करना होगा। संगम तट की जिस वैष्णवी के निराभरण सौन्दब को शक्तिशलिा शत्रु ने देखा था, उसी की बासी रूपरेखा को फिर खींचने से काम नहीं वनेगा, इस बार मोर्चा जरा डटकर लेना होगा। कैसे ही वार योद्धा की तलवार क्यों न हो, जब तक सान में धरकर उसकी धार पैनी न बनायी जाये, क्या शत्रु की छाती में कभी धँस सकती है?

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