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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


''हूँ, एम्बेसी में हैं, सुना। मैं तो इन्हें आज ही देख रही हूँ और कहता है कि हम कहीं मिले हैं, माई फुट!'' कली मुस्कराकर विवियन की बाँह पकड़कर चलने लगी।
बॉबी के जी में आ रहा था, वह लपककर कली के बालू में पड़ते चरण-चिह्नों को चूम ले। अचानक उस पिकनिक की सलोनी-साँझ में मूसरचन्द बनकर कूद गये उस सुभग व्यक्तित्व के स्वामी को देखकर बॉबी का चित्त किसी अज्ञात आशंका से काँप उठा था। इसी के गृह में कली पेइंग गेस्ट बनकर रहती है। फिर बॉबी के लिए आशा ही क्या रह जाती थी? पर चलो अच्छा हुआ। पहली ही मुलाक़ात में दोनों ने नंगी तलवारें खींच ली थीं।

''मैं तो कहता हूँ आप ऐसे नैरो माइण्डेड लोगों के बीच में रहिए ही मत मिस मजूमदार,'' बॉबी लपककर कली के क़दम से क़दम मिलाता छात्रा मार्चका करने लगा,'' आपने सुना ना, वह ऊँचे दाँतोंवाली औरत क्या कह रही थी! ईसाई क्या तिलक नहीं लगा सकते? अभी पिछले ही महीने मैंने बनारस में कितने ही अमरीकियों को धोती-कुरता पहने त्रिपुण्ड लगाये घूमते देखा है।''

''मारो गोली, हमें क्या लेना-देना! हम वहाँ रहते ही कहीं हैं,'' कली हँसकर कहने लगी, ''महीने में पचीस दिन तो बाहर रहती हूँ!'' पर बँगले में पहुँचकर, जब कली के पार्श्व में लेटी, दिन-भर की थकी विवियन नींद में डूब गयी तो वह बड़ी टेर तक करवटें बदलती रही।

कैसा आश्चर्य था कि क्षण-भर को भी वह व्यक्ति नहीं भूल पाया था! पर स्वयं वह शायद उसे पहले बड़ी देर तक नहीं पहचान पायी थी और यदि वह कुछ नहीं कहता, तो शायद पहचानती भी नहीं। धोती की लीग लगाये इस व्यक्ति में और विदेशी वेशभूषा में सँवरे उस साँझ के धुँधलके में मिले उस व्यक्ति में क्या धरती-आकाश का अन्तर नहीं था?
फिर भी वह सच्चा शायद पलक झपकाते ही उसके लिए घातक बन सकती थी!

कली की ही भाँति एक व्यक्ति और भी वैसी ही करवटें बदल रहा था। कर्नलगंज में, बुआजी का अपना पक्का मकान था। इलाहाबाद के अधिकांश पर्वतीय परिवार
कर्नलगंज में ही बसे थे। उन्हीं मुरगी के दरबों के-से, छोटी-छेटिा खिड़कियों, सँकरे द्वारों और सामने खुले, निर्लज्जता से गन्धाते सण्डासों के बीच बुआजी का लाल ईटोंवाला मकान छोटी-मोटी हवेली-सा ही दीखता था। नीचे की तीन-चार कोठरियों में दर्जी, लाण्ड्री उगैर हलवाई की दुकानों से ही काफ़ी किराया आ जाता था। फिर बुआजी अकेली जान थीं, उस पर वर्षों से धेला-पाई दाँत से पकड़कर सेंतती चली आ रही थीं। मकान के ठीक नीचे के कमरे में आटे की एक विराट् चक्की दिन-रात कोयल-सी कुहुक मारती, मनों ज्वार, चना-गेहूँ पीसती रहती। और उसी के निरन्तर सहवास का प्रभाव शायद बुआ की तीखी जिह्वा पर भी रिस गया था। कभी महरी, कभी किरायेदार, कभी ज़मादारनी को वे बेमतलब अपने दंगल पर खींचकर भिड़ती रहतीं।
''मुझे एकदम ही रांड बेसहारा समझ लिया है इन हरामियों ने, चार महीने से इस सण्ड-मुसण्ड हलवाई ने एक पैसा किराया नहीं दिया है। क़सम खाकर कह रही हूँ बोज्यू,'' वे दो दिन के लिए मिलने आयी गऊ-सी सीधी भावज को दंगल पर खींचकर सुना रही थीं, ''तुम लोगों ने तो मेरी ओर से आखें मूँद लीं। तभी तो ये मुसण्डा शेर बन गया है। कभी-कभी जी में आता है, इस गैंडे को इसी की कड़ाही में खोये के साथ भूँज दूँ।''
बहुत बड़ी कड़ाही में स्तूपाकार खोये को भूँजते मोटे हलवाई के कानों में शायद बुआ के हृदयहीन प्रस्ताव की भनक पड़ गयी थी। वह वहीं से हँसकर कहने लगा, ''ज़रूर भूँज डालो बुआजी, पर कड़ाही जरा बड़ी चढ़ाना। ऐसा न हो कि नीचे गिर पडूँ।''
''देख रही हो ना बोज्यू मरा कैसी ठिठोली कर रहा है मुझ राँड़ रँडकुली औरत से, जैसे मैं इसी की भौजी लगती हूँ।'' पर बुआ का रुँधा कण्ठ-स्वर कुछ ही क्षणों बाद बदलकर मीठी हाँक लगाने लगता, ''अरे राधाकिसन, मेरे लिए आधा सेर उसी खोये की बरफी भिजवा देना ऊपर, जो अभी भूँज रहा था। जिस दिन खाने के बाद मीठा ना खाऊँ, लगे है खाना ही नहीं खाया। ऐसा मिष्ट दन्त है निगोड़ा।''

''अभी लो बुआ, आध सेर क्या तीन पाव तौलकर भेजता हूँ,'' और किराये की एक छोटी किस्त राधाकिसन फ़ौरन ऊपर भिजवा देता। फिर शायद सन्धिपत्र पर दोनों के हस्ताक्षर भी हो जाते, क्योंकि सबसे ऊपर की मंजिल पर लेटे प्रवीर के कानों में हलवाई के साथ देर से चल रहे बुआ के वाक्युद्ध की बकर-बकर नहीं सुनाई देती। कुछ देर तक वह बुआ का कर्कश कण्ठ-स्वर, चक्की की घर्र-घर्र और अम्मा की नरम आवाज़ सुनता रहा फिर सब शान्त हो गया। कितनी भोली थीं अम्मा! कोई भी मीठी बातों के जाल में उन्हें फीस सकता था। शायद ऐसी ही वाक्चातुरी और भोली सूरत से उस लड़की ने भी अम्मा को फाँसा होगा। नहीं, उसे धोखा नहीं हुआ था। ठीक ही कहा था उस सरदार ने, ''एक बार उस चेहरे को देखने पर कोई भूल नहीं
सकता भाई साहब।'' दो वर्ष पहले, कुछ ही पलों तक देखे गये उस चेहरे को वह सच नहीं भूल सका था। तभी तो बहुरूपियों के चातुर्य से रँगे-पुते, ज़बरदस्ती पावन बनाये गये त्रिपुण्डरचित चेहरे के बीच भी उसने दो वर्षो की फरार अभियुक्ता को सहज ही में पकड़ लिया था।

उस बार अम्मा-बाबूजी को बिना सूचना दिये ही वह काबुल से कलकत्ता आ गया था। घर पहुँचा तो द्वार पर बड़ा-सा ताला लटक रहा था। पड़ोस के जस्टिस साहब से पता लगा, अम्मा-बाबूजी दोनों जगन्नाथपुरी की रथयात्रा देखने गये हैं। हफ्ता-भर बाद लौटेंगे। प्रवीर वैसे ही सूटकेस लटकाये लखनऊ चला गया था। नवीन कक्का उसके समवयसी थे और मित्र ही अधिक थे, चाचा कम। छोटी उम्र में ही काकी क्षयरोग में जाती रहीं। फिर कक्का ने दूसरी शादी नहीं की। सेक्रेटेरियट में अच्छी नौकरी पा गये थे। नया गाँव में बाप की बनायी दर्शनीय दुमंजिली कोठी थी। जब भी प्रवीर छुट्टियों में घर आता, नवीन कक्का से मिलने का प्रोग्राम अवश्य बनता। होने को तो पिता के चचेरे भाई थे, पर बहुत वर्षों तक दोनों भाई यह जान ही नहीं पाये थे कि नवीन कक्का उनके सगे चाचा नहीं हैं। कपड़ों के ऐसे शौक़ीन थे कि बस सारी तनख्वाह ही कभी-कभी कपड़ों और जूतों में फूँक डालते। ऐसा आमोदी स्वभाव कि गाने की महफ़िल जुटती, तो आधी-आधी रात तक चलती रहती। मलमल का चप्पे की कलियोवाला गोटदार लखनवी कुरता, इकबर्रा पाजामा, कन्धे तक झूलते बाल और पर्शियन बिल्ले की नरम मोटी पूँछ-सी पुष्ट मूँछें। अनोखा व्यक्तित्व था नवीन कक्का का। भतीजा आता, तो कक्का उदार मेजबान बनते, फण्ड से रुपया निकाल लाते। कभी कुल्हड़ों में कुल्फी फ़ालूदा चला आता, कभी रबड़ी का दोना। पर उस बार जब प्रवीर लखनऊ पहुँचा तो दुर्भाग्य से नवीन कक्का को अचानक किसी आत्मीय का श्राद्ध करने पहाड़ जाना पड़ा। घर की चाबी प्रवीर को थमाकर वे दूसरे ही दिन अल्मोड़ा चले गये।
दिन-भर उनकी अलभ्य रुस्तकों से ठसी अलमारियों को प्रवीर दीमक बना चाटता रहता था। सच्चा को वह अपने एकान्तवास से स्वयं हो ऊबकर बरामदे में खड़ा हो गया। इतने वर्षों में भी लखनऊ बहुत नहीं बदला था। नवीन कक्का के नया गाँव की उस गली की एक-एक रेखा वैसी ही धरी थी। सामने लगा छोटा-सा पार्क, पार्क से लगी बड़ी-सी कोठी, दायीं ओर मुड़ गयी गली के सिरे पर लकड़ी का वही टाल, और टाल के टीले पर बैठी हुई बीनती टाल की स्वामिनी वही बुढ़िया। दूसरी टेढ़ी-मेढ़ी गली जो सीधे अमीनाबाद के चौराहे पर जाकर मिलती थी और जिस नुक्कड़ के बिसाती के यहाँ से वह मीठी रंगदार गोलियाँ, पतंग और माँझा लाया करता था, वह अब भी वैसी-की-वैसी ही धरी थी। चुचके-से गालों वाला वह बूढ़ा बिसाती अब भी वही लँगड़ा
चश्मा वैसे ही पीली डोरी से बाँधकर कान पर लटकाये रहता था। हल्की बूँदाबाँदी के साथ-साथ अचानक उस दिन घर का फ्यूज उड़ गया। हल्का अस्पट धुँधलका चीरता कभी-कभार एक-आध ताँगा निकल जाता और फिर सड़क सूनी हो जाती। नवीन कक्का स्वयंपाकी थे। भतीजे को भी वह अपना स्टोव, रसद सब कुछ निकालकर सौंप गये थे। पर प्रवीर उनकी अनुपस्थिति में निता कालिटी में ही जीम रहा था। वह सोच रहा था कि ताला मारकर गंज की ओर निकल चले कि वह लड़की बंगाल की आँधी के अप्रत्याशित झोंके की भाँति आकर उससे लिपट गयी थी।

''प्लीज़, मुझे कहीं छिपा दीजिए, वह मुझे मार डालेगा, पीछे-पीछे आ रहा है। देर मत कीजिए, प्लीज़!''
प्रवीर ठिठककर हतप्रभ-सा खड़ा रह गया।
कौन थी यह? कौन पीछा कर रहा है? कहाँ छिपा दे? कहीं यह नवीन कक्का की वही स्टेनो तो नहीं थी।
सेक्रेटेरियट की एक ईसाई स्टेनो को लेकर नवीन कक्का को इधर खूब लपेटा जा रहा था। अम्मा ने ही उसे बतलाया था, ''इससे तो नवीन कक्का कोई पहाड़ी सद्गृहस्थ की बिटिया ले आते। सुना दफ्तर की वह छोकरी उन्हें खूब गोश्त खिला-खिलाकर भ्रष्ट कर रही है, नवीन के बहन-चहनोई सबको खिला-पिलाकर फीस लिया है छोकरी ने! दुर्गी के बच्चे तो उसे अब मामी कहकर पुकारने लगे हैं, नवीन कक्का शायद स्वयं भी उससे विवाह करना चाहते थे, पर वृद्ध पिता ने आत्महत्या की लाल झण्डी दिखा दी थी।''

निश्चय ही यह वही होगी, पर शायद कुछ पूछने का न समय था, न उस आँधी-सी आ गयी लड़की ने उसे अवकाश ही दिया। वह पत्ते-सी काँपती चली जा रही थी।
प्रवीर ने उसका एक हाथ खींचकर नवीन कक्का के वारड्रोब में अपने ट्वीड के कोट के पीछे धकेल टिया और स्वयं पीछा करनेवाले रहस्यमय व्यक्ति को देखने बरामदे में खड़ा हो गया। उसे लगा, जैसे क्षण-भर को उससे लिपटी वह काँपती लड़की उसके शरीर पर तेज सुगन्ध की कोई अदृश्य सेण्ट की बोतल ही उड़ेल गयी है। ऐसे सुगन्धित प्रसाधनों का उसे अभ्यास नहीं था, इसी से तेज खुशबू उसे और भी तेज लगी। ''क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ?''
आकस्मिक स्वर 'से चौंककर प्रवीर नें आंखें उठायीं। परदा उठाकर एक सहमा-सा लम्बा सरदार झाँक रहा था।
''आइए,'' प्रवीर ने कुरसी खींच दी और बिना धन्यवाद दिये ही वह धम्म से बैठकर बुरी तरह हाँफने लगा।

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