नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
ग्यारह
श्यामकुमार ने अपना बजरा कस-कसकर पास खड़े दूसरे बजरे से बाँध
दिया। 'गोल्डन ऐरो' की चमक-दमक के सम्मुख वह दुअन्नीवाली
सवारियों से भरा भारी जर्जर मटमैला बजरा एकदम भिखारी लग रहा
था।एक-एक को खींचकर आण्टी ने जबरदस्ती डुबकियाँ लगवायी! बड़ी स्वाभाविकता से आण्टी सीधा पल्ला मारे, इकलाई धोती में लिपटी सिर मुँह ढापे बजरे से पनिा में उतरीं, तो हँसी के मारे विवियन और कली का बुरा हाल हो गया।
आण्टी को डरी बच्ची की भाँति पुचकारता एक वाचाल पण्डा गहरे पानी में खींच ले गया तो विवियन बोली,''आई एम श्योर ही इज फ्लर्टिंग विद आण्टी।''
बड़ी भक्ति में डूबी आण्टी बार-बार पानी में मुँह डुबोतीं और फिर किसी विराट व्हेल मछली की भाँति छपाक् से ऊपर निकल आतीं।
बड़ी देर तक डुबकियाँ लेकर आण्टी का पूरा दल किनारे पर लौट आया। ''न जाने कैसा जादू है इस पानी में, लगता है एक साथ चार स्टोन वजन चार डुबकियों में डुबो आयी हूँ 'आई एम फ़ीलिग सो लाइट!' चलो अब तिलक लगवा लिया जाये-''पृथुल शरीर से चिपकी गीली धोती, गोल चेहरे पर चिपक गये बाल और बालक की-सी दूधिया हँसी देखकर कली को लगा वह आण्टी को नहीं, किसी और को देख रही है!
बजरे ही में एक कोने में चादर तानकर सबने गीले कपड़े बदल लिये। आण्टी एक बार फिर अपनी जीन्स पहनकर बाहर निकल आयीं।'' साड़ी ससुरी पैरों में फँसती है, बस साल में एक बार पहनती हूँ गंगा-नहान को।''
धीमी मन्थर गति से बजरा घाट की ओर बढ़ रहा था। कितनी सारी नावें थीं एक साथ! किसी में गाती-बजाती स्त्रियाँ, किसी में 'गंगामैया की जय, जमुनामैया की जय' से आकाश गुँजाते यात्री, जल में बहती कुम्हलायी पुष्पमालाएँ, चीर और पत्ते। कली और विवियन को भी आण्टी ने जबरदस्ती डुबकियाँ लगवा दी थीं।
''आल योर सिन्स इन दा होली गैजेज,'' उन्होंने मुसकराकर कहा तो कली का उत्कृल्ल चन्द्रमुख जैसे क्षण-भर को कुम्हला गया था। तब से वह अनमनी-सी बजरे पर बैठी कभी गहरे पानी में कुहनी तक हाथ डुबोती हुई सोचने लगती, कभी स्वयं ही अपनी बैचैनी की कैफियत ढ़ूंढ़ पाती। क्या यह पतित पावनी सर्वतीर्थमयी भागीरथी का प्रभाव था? क्यों उसकी अन्तरात्मा बार-बार नंगी होकर उसे आज ऐसे लज्जित कर रही थी।
खचाक् से बजरा आकर नियत तख्ते से टकराया और वह अचकचाकर तटस्थ हो गयी। विवियन भी आंखें मलती उठ बैठी।
"मुझे तो अच्छी-खासी झपकी ही आ गयी थी। लगता है इस बार साइमन की
स्पीड कुछ धीमी पड़ गयी थी-तीन वज गये हैं आण्टी।''
''कोई बात नहीं, चलो अब आराम से बैठकर तिलक लगवाएँगे और ?? गरम-गरम कचौड़ियाँ। इन कचौड़ियों की काल्पनिक सुगन्ध को सालभर से सूँघती आ रही हूँ। आज तुम मुझे नहीं रोक पाओगी विवियन।''
कली और विवियन का हाथ खींचती आण्टी लकड़ी के चौड़े तख्ते पर पालथी मारे बैठे एक गोल-गोल चिकने-चुपड़े चेहरेवाले पण्डे की छतरी के सामने खड़ी हो गयीं। ''खूब बढ़िया चन्दन की बुन्दकियाँ लगाना पण्डाजी, पिछली बार तुम्हीं से तिलक लगवाया था, याद है ना?''
''वाह, वाह, याद क्यों नहीं होगा मेम साहब,'' किसी गाइड-सा वाचाल पण्डा एक साथ दो सुन्दरी कबूतरियों को हाथ पर बैठते देख निहाल हो गया। ''इस बार मेला कुछ जमा ही नहीं,'' वह कहने लगा, ''न जाने कहीं-कहीं से भुखमरे तीरथजात्री परयागराज में आकर जुटने लगे हैं। चन्दन-रोली भी घर से साथ लेकर चलते हैं। सुबह से बैठा हूं, और अबतक कुल जमा सात त्रिपुण्ड बनाये हैं। ही बेटी, कौन-सी त्रिपुण्ड बनवाओगी, वैष्णवी?''
अनजान-सी कली ने अपनी बड़ी आँखें आण्टी की ओर उठा दीं।
''हाँ-हाँ, पण्डाजी, वही ओवल शेपवाला बड़ा फबेगा इसके चेहरे पर। क्यों है ना?'' आण्टी बड़े उत्साह से तख्त के कोने पर जम गयीं।
''क्यों नहीं, क्यों नहीं,'' पण्डाजी ने अपनी घुइयाँ के चौड़े पत्तों-सी हथेलियों में कली का दुधमुँहा चेहरा थाम लिया,'' एकदम बाल बैरागिन का चन्द्रमुख है माता।''
घुटने टेककर बैठी कली के ललाट पर पण्डे की मलय-रोली की कटोरियों में डूबती तूलिका चिड़िया के पंख से दी गयी गुदगुदी की-सी सिहरन देने लगी। कैसा विचित्र अनुभव था यह भी।
जिसने विदेश के अनेकानेक 'वोटीक' को अपनी उपस्थिति से धन्य किया था वर्ल्ड फ़ेयर के इण्डियन पैवेलियन में जिस सुन्दरी की एक झलक देखने को जुटी विदेशी भीड़ अपनी सारी सभ्यता, शिक्षा एवं सुरुचि ताक में धर सहसा देशी नौटंकी की सस्ती भीड़ की-सी ही सीटियाँ वजाने लगती थी, वही आज एक अपढ़ पण्डे के सम्मुख गँवारू बाल वैष्णवी की ही भाँति घुटने टेककर बैठ गयी थी।
कण्ठ में झूलती चवन्नी की तुलसीमाला, खुले गीले बालों से टप-टप कर टपकता पानी, दो कर्णचुम्बी आंखों के बीच सुभग नासिका से प्रशस्त चिकने ललाट तक खिंचा वैष्णवी त्रिपुण्ड! क्या रसशास्त्र के पृष्ठ यहीं साकार नहीं हो गये थे। आण्टी मन्त्रमुग्ध होकर उसे एकटक देख रही थीं। बहुत पहले कमिश्नर शर्मा के साथ वे खजुराहों की ऐतिहासिक यात्रा पर गयी थीं। आज उन्हें बार-बार यही लग रहा था कि उसी खजुराहों के अस्सी चन्देल मन्दिरों से किसी सुर-सुन्दरी की मूर्ति जीवन्त होकर पण्डे से त्रिपुण्ड लगवा रही है।
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