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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


''ही-ही, मेम सा'ब''-नास्तिक पार्वती को लाख चेष्टा करने पर भी डॉक्टर आस्तिक नहीं बना पायी थी। कठिन असाध्य रोग ने उसे चिड़चिड़ी, निर्लज्ज और ढीठ वना दिया था।
''भगवान्, खुदा, ईसामसी, किसी को नहीं मानती हूँ मैं, सब झूठ है। मेरी अँगुलियाँ क्या तुम्हारे खुदा ने ठीक कीं? जिसने ठीक कीं वह तो आपकी-हमारी तरह ही आदमी है मेम सा 'ब!''
डॉक्टर ने फिर कुछ नहीं कहा, पर पार्वती को उन्होंने अपने कमरे की झाडू-बुहारी देने, फूलदानों पर पीतल पॉलिश करने आदि का छोटा-मोटा काम सौंपकर ऐसे बाँधकर रख दिया कि तोबड़ा बँधी जंगली घोड़ी की भांति वह इधर-उधर मुँह नहीं मार सकती थी। पर धीरे-धीरे उसने अपने तेज दाँतों से तोबड़ा काटकर धर दिया। डॉक्टर के कठोर अनुशासन से मछली-सी पार्वती न जाने कब फिर अपने परिचित गँदले पोखर में सर्र से सरककर इधर-उधर तैरती फिरने लगी।
पार्वती की ही भांति असदुल्ला खान कुष्ठाश्रम के पुरुष डॉक्टरों का सबसे बड़ा सरदर्द था। ऊँचा-लम्बा सुर्ख गालों वाला पठान, पहले दिन खून जँचवाने आया, तो कोई निकट से देखने पर भी उसके रोग के अस्तित्व का सूत्र नहीं पकड़ सकता था। तीखी नाक, तेजस्वी आँखें, चौड़ा माथा और घने काले बाल, जिनका गहरा काला रेशमी रंग, उसके गौर वर्ण को और भी उजला बनाकर प्रस्तुत करता था। फटी सलवार और जर्जर नीली क्रेप की कमीज पहने वह डॉ. पैद्रिक के सम्मुख एक सलाम दागकर खड़ा हो गया था। ''अभी रोग का आरम्भ है खान,'' डॉक्टर ने कहा था, ''तुम संयम से रहे और यहाँ से भागे नहीं तो जल्दी ही ठीक हो जाओगे। अभी बीमारी ने तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ा है।''

''और यह?'' अपनो भूरी मूँछों के बीच मोतीके दाँत चमकाकर उसने फटा जूता खोल, दोनों पैर डॉ. पैद्रिक के सामने धर दिये थे।
कीमा बनी दोनों अँगुलियों को देखकर डॉक्टर सिहर उठीं और अपनी झुँझलाहट नहीं रोक पायी थीं, ''आज तक क्या करते रहे तुम?''
''पत्थर की खान से खच्च्चों पर पत्थर लादता रहा मेम सा'ब'' बड़ी बेहयाई से वह एक बार फिर अपनी भूरी आकर्षक मूँछों के बीच मुस्कराता, पास खड़ी पार्वती को देखने लगा। चुलबुली पार्वती उसकी इस हाज़िरजवाबी से लोटपोट हो गयी। वह खिलखिलाकर हँसी पर दूसरे ही क्षण डॉक्टर की कठोर दृष्टि ने उसे भूँजकर धर दिया, ''पार्वती, तुम अपना काम करो, यहीं क्या कर रही हो?''

उन्होंने उस दिन तो उसे डपटकर भीतर भेज दिया, पर असदुल्ला के सामान्य रूप के क्षत-विक्षत पौरुष का नाग उसे जाने से पहले ही डँस चुका था। लुक-छिपकर
उससे मिलती रहती। पर अभागिनी पार्वती यह नहीं जानती थी कि वह सुदर्शन पठान, केवल उसी के सम्मुख प्रणय की झोली नहीं फैलाता। कुछाश्रम की असंख्य गोपियों का एकमात्र कन्हैया असदुजा ही था। पठान होकर भी वह विशुद्ध मीठे लहजे में पहाड़ी बोल लेता था। दाड़िम के पेड़ के नीचे बैठकर जब वह एक से एक कठिन पहाड़ी लोकगीतों की धुन अपनी वंशी पर बजाने लगता, तो कोढ़ी-खाने की भीड़ उसे घेर लेती। जैसे वर्षा की वेगवती धारा गन्दे नालों के कचरे को अपने साथ-साथ दूर बहा ले जाती है, ऐसे ही कुछ क्षणों के लिए कितनी ही बैठी नाक, झड़ी अँगुलियों, पतझड़ के विवश पत्तों-सी गिरती पलकों की व्यथा असदुल्ला की मादक करुण वंशी-लहरी के साथ बहकर दूर चली जाती, और फ़रमाइशों का बाजार ग़रम हो उठता। 

'अरे यार असदुला, हो जाये जरा चहगाना-'

चना वे चकोरा वे चना
बाँटि ले चना लटि
तेरी सिपाही घर ऐ रोछौ, बेलिया पोरु वटी।

और असदुल्ला वंशी सहित, स्मृतियों में डूबी चकोरी पार्वती की ओर मुड़कर बारम्बार वही पंक्ति दुहराने लगता तो एक साथ कई जूतों के सोल लयबद्ध ताल देने लगते-

अरी चकोरी चना
चोटी तो गूँथ ले
कल तेरा सिपाही घर लौट आया है।

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