नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
उस दिन प्रवीर गाने के बीच से उठ अवश्य गया था, पर
चलते-चलते उसने कुन्ती की एक झलक देख ली थी। स्वस्थ,
गोरी कुन्ती की कर्णचुम्बी आँखों के सधे कटाक्ष ने
ब्रह्मचारी का अचल हृदयासन क्षण-भर को विचलित कर दिया
था। लड़की का कण्ठ असाधारण रूप से मीठा था। यही नहीं,
कमर से भी नीचे झूलती मोटी वेणी, नितम्बिनी की
मत्तगयन्द-सी चाल और चमचमाती दन्तपंक्ति पिता के वैभव
की बैसाखियाँ लगाये बिना भी बड़ी सुगमता से किसी भी
पुरुष के हृदय-द्वार की कठिन अर्गला खोलकर प्रवेश कर
सकती थी। प्रस्ताव निस्सन्देह विचारणीय था। पहाड़ी समाज
में ऐसी लड़कियाँ सहज में नहीं जुटती। पाण्डेजी के यहाँ
उसके पूरे परिवार को किसलिए निमन्त्रित किया गया है,
वह खूब समझता था। दो-तीन वर्ष पहले की बात होती तो
शायद वह भड़क उठता पर अब सम्पन्न गृह का सूर्य अस्तगामी
दिशा की ओर डूबता जा रहा था। जया के पति की लज्जा
स्वयं उन सबकी लज्जा बन गयी थी। पाण्डेजी के साथ
सम्बन्ध हो जाने पर वह दामोदर को समय रहते उबार सकता
था। पाण्डेजी के पिता का प्रशासन में बहुत गहरा प्रभाव
था।
''अभी भी आये दिन वे अपने प्रभाव का चेक़ भुनाते रहते
हैं,'' पिता ने कहा था, ''उनकी लड़कियों के लिए कभी
लड़कों का अभाव नहीं रहता।''
स्पष्ट था कि बाबूजी उसके काबुल जाने से पहले उसे सगाई
के बन्दर में बाँधना चाहते थे। इसी से बार-बार अम्मा
के लड़की को एक बार देख लेने-भर के आग्रह को प्रवीर टाल
नहीं पाया। एक तो जया के दुर्भाग्य को लेकर अम्मा
दिन-रात घुलती जा रही थीं। न हो थोड़ा मनबहलाव ही हो
जाएगा। फिर देखने में भला क्या दोष था? कोई आँखों की
शक्ति तो कम नहीं हो जाएगी। आज तक क्या उसे एक भी
पहाड़ी हूर पसन्द आयी थी, जो यह आ जायेगी? एक बार देख
लेने पर उसमें एक-न-एक नुक्स निकालकर वह प्रस्ताव के
खोटे सिक्के-सा ही फेर देगा। बस फिर छुट्टी! न
पाण्डेजी की कोई पुत्री ही फिर रह जाएगी, न पैदा करने
की उम्र। यही सोचकर वह मां-बहनों के साथ बिना आपत्ति
किये ही चल दिया, तो चतुरा जया का माथा ठनका।
''देख लेना अम्मा, दद्दा हमें बुद्धृ बनाने जा रहे
हैं। पहले से ही तय कर लिया होगा कि लड़की नापसन्द कर
देंगे।''
''छोड़ो भी दीदी,'' माया बड़ी बहन पर बरस पड़ी थी,
''तुम्हें तो अच्छी बात आजकल सूझती ही नहीं। मैं भी
देखूं, कुन्नी में क्या नापसन्द करते हैं। ओढ़नेवाले ओढ़
लें, बिछानेवाले बिछा लें, ऐसी लड़की है कुली।''
बात माया ने पते की कही थी। लड़की में कहीं कोई दोष
नहीं था। भरे-भरे अंगों का सौष्ठव उठते-बैठते गदराते
यौवन की किरणें-सी छोड़ता था। गाने को वह
रवीन्द्र-संगीत ही गाती थी, पर छठी-दष्टौन और घुड़चढ़ी
के अनमोल गीतों से दिशाएँ गुजाती वह अपनी स्वस्थ,
पुष्ट हथेली की चोट से ढोलक को दमामे-सा गुंजा देती,
तो पर्वतीय समाज की अधिकांश पार्श्वगायिकाएँ धराशायी
हो जातीं। तब बुलन्द-आवाज़ में किसी दक्ष क़व्वाल के-से
तारसप्तक को छू लेने की प्रतिभा चमकने लगती। ऐसे मधुर
कण्ठ की स्वामिनी, जो अतुलप्रसाद और रवीन्द्रनाथ के
सुमधुर संगीत का मधु घोलकर बंगवासियों को भी सम्मोहित
कर लेती है, 'बन्नी की दादी को ले गया मुसल्ला,
मुहल्ले में शोर मचा रे' गाकर किसी भी संस्कार-उत्सव
को रंगीन बना सकती है, यह देखकर माया दंग रह गयी थी।
उसने प्रतिभाशालिनी कुन्नी के दोनों रूप देखे थे।
रवीन्द्र-साहित्य वासर में कितनी तालियाँ बजी थीं उसके
गाने पर! जब यहाँ राजेश्वरी दत्ता, कनिका देवी और
सुचित्रा मित्रा-जैसे प्रसिद्ध रवीन्द्र-संगीत की
सुगायिकाएँ भी उससे पहले गाना गा चुकी थीं। फिर
तिवारीजी के बेटे की घुड़चढ़ी में उसके गाये बन्ने सुनने
को पूरा जनवासा उलट पड़ा था और एक बाराती तो टेपरिकॉर्ड
ही खोलकर बैठ गया था।
"रंग-रंग कर मरे जाते हो ना दद्दा, देखना जरा उसका
कस्लेक्शन। हम सब हब्शिनें न लगी उसके सामने, तो मेरा
नाम बदल देना। क्या हाइट है उस पर, एकदम पांच फ़ीट चार
इंच।''
''अच्छा-अच्छा, रहने दे,'' प्रवीर ने उसे झिड़क दिया
था, पर फिर भी वह चुप नहीं हुई।
''हाइट ही से तो कुछ नहीं होता। मांस भी ठीक-ठीक चढ़ाया
है भगवान् ने। न एक इंच इधर, न एक इंच उधर, एकदम सतर
चाल। हमारे पहाड़ की लड़कियों की तरह कन्धे झुकाकर नहीं
चलती लड़की। हमें तो अच्छा ने कभी सीधे होकर चलने भी
नहीं दिया। फिर रही-सही क़सर ससुराल में पूरी हो गयी।''
पति की ओर व्यंग्यपूर्ण कटाक्ष से देखकर वह साड़ी बदलने
चली गयी थी।
पाण्डेजी के विराट् गृह की शोभा दर्शनीय थी। उनकी
महलनुमा कोठी किसी राजस्थानी नरेश ने बड़े शौक़ से अपनी
नयी पत्नी के लिए बनवायी थी।
पहले ही प्रसव में खमारी रानी चल बसी और अधबनी कोठी को
मिट्टी के मोल बेचकर नरेश विदेश चला गया था। दीवारों
पर यामिनी रॉय के चित्रों की चौकोर बड़ी-बड़ी आंखों की
एक लम्बी क़तार दूर तक चली गयी थी। दूसरी ओर अत्याधुनिक
चित्रकारों द्वारा चित्रित विचित्र शैली के तान्त्रिक
प्रतीकों को प्रवीर ने देखते ही पहचान लिया। शायद
गृहस्वामी स्वयं भी उनकी दुरूह रेखांकित विषम आकृतियों
को नहीं समझते होंगे।
पाण्डेजी स्वयं उनकी आगमनी में नम्रता से दुहरे होकर
रह गये थे।
''मैं अभी-अभी कुन्ती की माँ से यही कह रहा था कि आज
यह निश्चय ही हमारे पूर्वकृत पुण्यों का फल है, जो आप
सपरिवार यहाँ पधारी हैं।'' झुककर उन्होंने ठेठ पहाड़ी
क़ायदे से अम्मा के चरण छूकर दोनों हाथ माथे से टिका
लिये थे।
वाचाल, मुखर, बातों के इन्द्रजाल में अतिथियों को
पल-भर में बाँध लेनेवाले, चिकने-चुपड़े चेहरे और चमकते
माथे के स्वामी हँसमुख पाण्डेजी ने बड़े प्रेम से
प्रवीर को अपने सोफ़े पर बिठा लिया।
प्रवीर को इस प्रकार बरबस खीचकर अपने पास बिठा लेने
में पाण्डेजी को जरा भी संकोच नहीं हुआ, पर प्रवीर को
ऐसे प्रेम-दर्शन का अभ्यास नहीं था। वह जरा हटकर बैठने
की चेष्टा कर ही रहा था कि पाण्डेजी बड़े स्नेह से उसकी
पीठ थपथपाकर कहने लगे, ''अब के विदेश-मन्त्रालय पर जोर
डलवाकर तुम्हें सेण्टर में बुलवा लेगे।''
उस व्यवसाय-पटु कुटिल व्यक्ति के चरित्र की सारी
कुटिलता बड़े ही स्पष्ट अक्षरों में उसके चेहरे पर निरख
आयी थी। उसकी अस्थिर गतिविधि देखकर प्रवीर दंग रह गया
था। जो एक क्षण भी सोफ़े पर स्थिर होकर नहीं बैठ सकता,
वह दफ्तर के
नीरस बही-खातों में घण्टों तक डूबा, दत्तचित्त होकर
कैसे बैठा रहता होगा? जितनी देर प्रवीर वहाँ बैठा रहा,
पाण्डेजी को जैसे सौसौ पिल्लू काटे जा रहे थे। कभी
उछलते, कभी दोनों हाथों की मुट्ठियाँ बाँधे उछलकर सोफ़े
पर पालथी मार बैठ जाते।
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